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उपयोगी भी है लेखन पद्धति इसकी इतनी भजडी हैं फि जेन, जनेतर, सभवार्ण और पिद्वान्‌ सभी लाभ उठा सफते हैं। खन चमे के सय सप्रदाय बालो को थ॑

हर अन्थ मननीय है। इस पर अनेक विद्वानों ने टीका छूणा और भा्य(दि लिखे हैं द्वाए ही में प० सुपलालजी ने गुजर भाषा में जन्ुबाद फर के मुद्रित करवाया है उसे आपने बडी ही सुन्दर पद्धति से लिया है तथापि द्विदी ज्ञनने चाले उससे चित: चआहिये उतना छाभ नहीं उठा सफ्ते

यह प्र'थ कई रृष्टियों से पिशेष उपयोगी ज्ञान कर मेरी उत्फ इसे हिन्दी अजुयादित करने की छुई पःन्ठु यद्द काम मेरे एि अनधिकरारिव्यसा जान पड़ा तथापि (उद्योग पुरुष लक्षण” इस न्य/य को लक्ष्य में रपके यह कार्य प्रारम्भ करने का निश्चय किया और उपगोफ्त अभिप्राय मने पूज्य साहित्य प्रेमी सुत्रि शान सुन्दरणी महाराज साद्वय से निवेदन किया। आपने सेरे उत्साह को प्रढाते हुए प्रेम पूपर फऊछडा हि तुमको इसमें पहुत व्ाूम है) जन तत्वों फो समझो के रिये यह भ्रन्थ चहुत उपयोगी है। और तुम्दररे इस कार्य से हिन्दी जानने चाले भी राम उठा सकेंगे,

अत आपकी इस अजुमति से यदद अनुयाद भेने अपनी शान घृद्धि के उद्श से दी प्राय्म किया परन्तु * अ्रयोसे बहु विश्वानि”

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बीच में पूज्य मानेम्धरी का देहान्त और दुकान के कार्मो से कई बार वबाघायें उपस्थित हुए परन्तु कार्य हमेशा लक्ष्य में रहता था अतणएव आज यह अनुवाद आप थ्रीमानों फी सेवा में रखता हू आर आशा करता हैं कि पाठकों को भी अवश्य लामदायक दोगा।

राष्ट्र भापा ओर अन्ध विषयक पूण अधिकार होने से कहीं अटियां गहगई हों उनके लिये क्षमा प्रार्थी हं इस कार्य में हमारे आत्म वन्धु रेखचन्द मुणोत ने यथा समय उत्साह और सहयोग दिया उसे में भूल नहीं सकता

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( ) प्राचीन तीर्थ श्री कापरडाजी

भारतवर्ष के चच्तस्थल में आई हुई मारचाडु स्टेट की राजघानी जोधपुर नगर से २८ मील की दूरी पर श्री फापरड़ाजी नामक प्राचीन एवं चमत्कारिक तीर्थ अवदय दर्शनीय है। यह रसणिक स्थान जोधपुर से बीलाडे जानेवाली रेल पर आए हुए पीपाड़ सीटी स्टेशन से मील तथा सेलारी स्टेशन से सिर्फ मील की दूरी पर ही है। जहा पर स्थयम्‌ पाश्वेनाथ भगवान्‌ फा गगनचुम्यी चीौमुसा पत्र चौमजिला ( राणकपुर ही की तरद्द का ) छुन्दर और मनोहर पदिर है। इसकी कमनीय काति फी कलित फथा इस प्रान्त में सर्वेत्र श्िद्ध है

विशेष लिखने का प्रयोजन यद्द है कि इस भीमकाय विशाल मंदिर का यहुतसा काम अधूरा है जिसको पूरा कराने के लिये चीस से पचीस लास रुपये व्यय करने की आयवश्यक्ता दै। परन्तु चर्चमान समय फो देखकर में यद्द अपील करता हू फि धर्म प्रेमी पुरुषों को इस जीणोद्धार फे जरूरी कारये में यथाशक्ति सद्दायता देकर अवश्य लाभ लेना चाहिये प्रतिवष माघ शुफ्ला का यद्दा मेला भी मरता है और स्वामीयात्सस्य भी हुआ करता है आशा है कमसे कम यद्दाकी यात्रा का लामतो एक घार माप अवध्य छेंगे

निवेदक+--न्ान सुन्दर | यहा पघारने पर आपको भी स्वयभ्‌ पाश्वनाथ जैन विधालय के निरीक्षण का भी अयसर मिलेगा। इस ससस्‍्था में छगमग ३५ विद्यार्थी अचुभवी कार्य फत्ताओं की सरक्षता में स्वतत्न ढग की घार्मिक अप्रेज़ी हिन्दी मद्ाजपी की शिक्ता पाते हैं। अत झवश्य पधारिये एक पथ दो काल

नोट--जोघपुरसे इमेशा मोटर सीघी कापरडा दिनमें दोवार जाती दे

पज्यपाद श्री श्री १००८ श्री साने ज्ञान मन्दरजी महाराज साहव के कर कमलों में सादर

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पृष्ठ १८ के प्रश्न का उत्तर पृष्ठ «५ में है जोर पृष्ठ ५५ पंक्ति १७ के दीचे का विषय पृष्ठ ४६ के प्रश्न नीचे छपा है

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सजना :

इस भारत भूमि पर एक ऐसा सक्रीणता का समय था कि एक दूसरे के धरम प्रन्थ चाहे कितने हीं उच्च कोटि के ओर उपथोगी हो परन्तु उसे पढ़ना तो क्या हाथ से छूने में भी महापाप सममभते थे जहा ( हस्तीना ताख्य सान5ापे गच्छे जन सान्दर म्‌ ) ऐसे सूतचों की खष्टि रची जाती हो वहां सदवुद्धि क्रो स्थान केसे मिल सकता है। इसरी ओर धर्म के ठेकेदारों ने अपना इतना हक जमा लिया था कि इूसरों को धर्म अर्थ हाथ में लेने का भी अधि कार नहीं यह फरमान इेश्वर के नाम से प्रख्यात करते थे इस- - लिये उसे उलूंघन करने का भी कोई साहल नहीं कर सकते थे जैसे जैसे इस फरमान का प्रभाव जनता पर पड़ता गया बेसे वैसे अज्ञान की मात्रा चढ़ती गई और जो तत्वज्ञान भारत की विभूती थी चह धभायः लुप्तसी होगई | ऐसी अवस्था में वाड़ावन्धी चांध लेना उनके लिये कोई सुशकिल वात नहीं थी। चड़े चड़े रजा महाराजा £ भी उनके हाथ की कठपुतलियां वन ग़्ये। कोई शिर ऊंचा नहीं कर सकता था जिसका फल यह हुआ कि जिस किसी की इच्छ हुई अपना सत निकाल कर भद्र जनता पर अपना हक जमालेते थे _ जिस भारत में दो तीन धम ही मुख्य समझते थे उसी की शाखा धरशाखाय आज करीब ७०० सात सी पाई जाती हैं छिखते डःख होता है- इस धम्म भेदों ने ही भारत की स्वतेत्रता ओर चीरता को

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( श७छ ) शसातल पहुचा फे परतनता की बेडी से ज्ञकडा दिया

यह भी कुदरत का अठल सिद्दान्त है फि चम्तु स्थिति हमेशा एकसी नहीं रद्दती | रहट घट की न्याय चक्र क्षयाया फरती दै इस नियमाझुसार आज पूर्वाय और पाश्चात्य विद्या प्रेमियों ने परिश्रम करके जनता के हटय में ज्ञान प्रकाश फरवाया जिससे अन्नानता इंठाग्रद्द, ओर पक्षपात दृर दोता गया। अतएथं इस थीसर्यी घइताच्दी में दृठग्राद्दियों की अपेक्षा सशोधक बुद्धि चाले की सप्या दिन प्रतिदिन यढती जाग्डी है। और थे प्रिना सेद भाव के हरणक खादित्य को अवलोकन कर तत्व अद्ण कच्चे हैं।यद शुभ फी निशानी दे

तात्यिक दृष्टि से देया जाय तो जेन सादित्य सब से उच्च स्थान रसता है। पाश्चात्य विद्वान इसकी मुफ्त कठ से प्रशसा करते हैं परन्तु खेद के साथ फद्दना पडता है कि जैन साहित्य का प्रचार अभी तक यहुत कम हुआ है और जो हुआ भी है बद्ध प्राय सस्दत और गुजर भाषा में इस समय दिन्दी भाषा यप्डू भाषा मानी जाने लगी है इस लिये हिन्दी भाषा में जेन साहित्य का भचार होना निता-त जरूरी दै।

चर्तमान समय में जनता ऐसे गन्ध विशेष चाद्ती है जो सरल सद्चिप्त शरीर तात्विक प्लान विषयक हों इस पूर्चा के ल्यि पूर्व महा ऋषिया ने अनेक प्र'थ बनाये हैं उन सर्चों में यद्ध (तत्वाथ सून ) पदक्षा अन्य दे जो जैन सादित्य के सर विपयों से परिपृण विद्ञान ओऔरग साधारण सभी जन समुदाय यो अतीव उपयोगी और नित्य मतत फरने योग्य है )

इस ग्रन्थ “तत्त्वाथ छत्र” फे लिये विशेष ल्पिने की आवश्य कता नहीं है। इसका मदत्थ इसके साम से दो प्रसिद्ध है। इस

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तत्वमय ग्रन्थ के पणेता श्रीमद्राउकवर्ली उमारबानी महाराज हैं पुरानी पट्टाबछ्ियों में इन्द्े प्रभापना खच् के कसा श्यामाचार्य क्र गुरू कहा 6 | इसस इनका समय विक्रम से पक इताब्दी पूर्व दोता है परन्तु वत्तमान इतिहास के पअनुसेघान से इसका समय 2 क्रम की इसरी शताइदी के आस पास पाया जाता है। वाचरबरण्य जन सिद्धान्तों के प्रसर विद्वान ओर प्रकाण झाता थे इन्होंने अनेक शास्त्रों को मथन करके जैन तत्वों को लोकप्रिय बनाने के लिये बड़ी ही गदन और गम्भीर दृष्टि से इसकी नवनीत रूप रचना की है। यह सेस्कत भाषा का सूत्र रुप रचनात्मक सबसे पहिला और धाचीन अन्थ है। विहान और मम॒क्ष जीयों को आत्म पकाण के लिये यद्द अन्थ दर्पण के समान भास्थर और नित्य मनन करने योग्य है। इसके मूल सच केबल प्ा.० ्लोक प्रमाण दे | पश्त्त इनमें खिद्धान्तों का रहरुप इतता भरा हैं कि अनेक विद्धान आचायो ने श््पनी विषपद चिछठद खेली से इ्स्ने सांग सुन्दर बनाने दे; ह््रि ठीकायें, चूर्णी, भाष्यादि लिखे हैं रस पर सबसे बड़ा ग्रन्थ पर गन्ध हस्ती मद्दाराज़ का बनाया हुवा महा भाष्य है जिसकी छोक सरया ८४००० छोरासी इजार है।

इस अन्थ के दस अध्यायों भे नव तत्व गर्भित अनेक विषयों को चड़ी ही सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है।

भथम अध्याय के पहिले खूज मे [ सम्यण्‌ दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मागः ] मोक्षाभिलापी जीवों के लिये पर मोपयोगी समस्त सिद्धान्तों का सार, मोक्ष के कारण रूप साधनों का निर्देश है-शब्द नय शाही भाव घम को आप्त करता छुआ मोश्षार्थी जीच अजुक्रम से सर्व संचर झूप रेस्नत्रय (समय वशैन- शान-चारित्र) को पाकर पूण मोक्ष का अधिकारी हो रूकता है।

( २५६ )

सम्पग्‌ दशन यह अपूच चिन्तामणि रत्न है अभय जीयों फे लिये चह असाध्य है ओर भव्य जीवों फे लिये असा तो नहीं किन्तु दुरापा जरूर है इसकी प्राप्ति के लिये शास्रशार ने पदक इसके लक्षण, उत्पत्ती का निमित्त पश्चात्‌ तत्य जानने के उपायों को फहते हुए “सम्यग्‌ दशन! के सेदों का दिगृदशन ऊराया दै। जाध्या त्मिक हष्टि के ज-पुप रद्दा जीप यदि सम्रान्त और चस्तु के पर देशीय प्रिपय फो जाननेयाला हे तथापि उसका ज्ञान ज्ञान रूप दवा कददलायगा आयया उसका विशिष्ट रूप अश्ञान्त शान अज्ञान रुप है इसको विवेबन द्वारा पह्ुुत स्पष्ट करके समयाया है।

पाय शानों में तीन प्रत्यक्ष जौर दो परोक्ष रूप प्रतिपादन करते हुए जन तथा जैनेतर दशनझारों का समन्वय फराक़े दो प्रमाणों फोन्याय पुए सद ठदरया दै | पत्माच्‌ मतिर्येत्त झ्ञग की सहयोगता और अपधि, मन प्याय शान फ्ा विस्हृत रूप से चणन फरते हुए उसके ह-य, चेन, कार, भाव और अधिकारी अनायिझारी आदि अनेक विपयात्मऊ व्याख्या की है। नय यद्द प्रमाण का एक अश होते हुए भी प्रमाण से इसकी पृथक देशना देनेका| कारण समझते हुए इसके भेद प्रमेदादिका सक्स्तिर पणन ओर स्थाद्वाद यह जन सम्पदाय का एक पिशेष अग है जिसको जनेतर दर्शव वाले भी फ्रिसी किसी रूप से मान देते दी दें जसे-देमचन्द्राचाय कृत घीतराग स्तोच् में बिज्लानस्येकमाफार नानाफारफरम्पितस्‌ इच्छ स्तयागत' श्राय्नो नानेकान्त अतिक्िपत्‌ घट, पदादि जूदे जूदे आकारों से मिथ एसे विश्व को एप कप मानने घाछा चोद्ध द्शन स्पाद्वाद को नहीं उत्थाप सता

( ह० )

चित्रभकमनेर्केंच रूप ममाणिक बदन योगो वशेषिकीयापि नानेकान्त प्रतिक्षिपेत्‌

अनेक आकारमय एक चित्र को प्रमाण सिद्ध प्ररपित करना हुवा योग, पैशेपिक दर्शन भी अनेकान्त को नहीं उत्थाप सकता।

इच्छन्प्रधानं सत्वाध विरद्वेंगुम्फित ग्रुरेः। सांख्य संख्यावर्ता झुख्यो नानेकान्त प्रतिक्षिपित्‌

सत्य, रज और तमादि परस्पर विरुद्ध गुणवाली प्रकृतियों को मानने वाला सांख्य दरशन भी स्याद्राद को उन्थापित नहीं करसकता

प्रमाता, प्रमिति और प्रम्ेय [ प्रमाणकत्ता-प्रमाण प्रमाण वस्तु | एकाका वाले एक घाव को जो उन तीन पदाथा का प्रतिभाप रूप है उसको मंजूर करनेवाल मीमांसक दशन ओर अन्य प्रकार से दूसरे दर्शन भी स्थाहाद को अथतः स्वीकार करते हैं

स्थाह्वादको पूणतया नहीं समझनेवाऊडे और नहीं मानने वाले हो परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पक्ष में उपस्थित होकर वाद विवाद करते हुएए एक दूसरे की निन्‍्दा अवहेलनादि करते है इस विच(द को दूर करने के लिये ही नयवाद की देशना पृथक्‌ रुपले दी है यदि प्रत्येक विचार सापेक्ष अथात्‌ अपेक्षा सहित हो तो उस नय वाक्यको प्रमाण भूत कह सकते हैं. अन्यथा एक देशीय विचार दुरनय होने से अप्माण भूत है।

नय का सामान्य छक्षण यदद है कि किसी भी वस्तु के एक अश आप आप या एक घममको प्रकाशित करना नय. कहलाता है उस समय शेष श्ः ग। 3 कक ्ब चमे गोणपने रहते हे प्रत्येक दाशनिकों के विचारों का नय दर्षि से

३१ )

खम पय कराना यद्द जैन दर्शन की द्वी विशिषता दे। जे ले--वैदान्तिफ और साप्य दशन याले एस आत्मा मानते हू, यह चाफ्य सम्रह नये आही है जिस वस्तु फी सत्ता पक सदश हो उसको एफ रूप मानना ही सम्द तय का विपय हे। चेतना राक्षण सत्ता सय जीवो की एक समान हे, तथापि णफाक्षि द्ोने से यही वाफ्य दुनेथ कह लाता है इसी तरद पैशेसिक दशन नेगम नय का, चार्चार दशन ब्यचद्वार सय का, योदध देशन ऋजु सूप नय का नयाभास दै।

( दूसरे अध्याय में ) आत्मा के विषय जैन सिद्धान्तों और जैमेतर दुशनों के मातवय में कितना अन्तर है, चदान्त, साख्य, 3ैयायिक, वौद्धादि दशनयाले आत्मा को मिल प्रकार से प्रफकान्त रूप फिस तरद मानते दे उसका दिग्द्शन कराते हुए जैन सिद्धास्त कारों के मन्‍्तब्य परिणामि नित्यत्व भाव को स्प्ट रूप से समझाया है पुन जीव के रक्षण और उपयोगो पी विविधता को यताते हुबे जीय के भेद प्रमेटादि तथा उनके इल्द्रियों की सस्या, शेयविपय स्वामीत्य और गति फ्रियाशीर मा है। जो सर्वे ब्यापी आत्मा मानने वाले दे वे भी पूर्व जन्म की उत्पत्तो के लिये मितास्त सूहम शरीर और अन्तर गति को मान देते हैं उनके ल्यि ये पाच प्रश्न अवद्प विचारणीय है

(१ ) तम्मान्तर में जीय गति करता दै उस समय स्थूल शरीर नहीं होने से प्रयत्न शीछ फैसे दो सकता है ?

(० ) गति शीछ पदार्थ गति करते हैं वे फिस नियम से ?

(३) गति के भेद और कीन जीव फिस गति के अधिवारी दे ?

कन का छ.. अफआ #. केनडी... कुसनडी कै. कर. कैपन हू के | कु * हम का $ हनन लिन या जि 5 5 पे अंग भूर रा जि बी र्टैट्ठ ध्ड हि हू के हे मे हज 7 लिए के जद पर हि हि 5 8 3 ि ऑन पं ल्‍ + कलर के... कल हि (न हैंड. कुक्‍अ.. हक. औुजकर कह बशे की हे, हक डर हे मम कं केक. हक २३ ब्लड के हू ०१ #़० + [/ बा घट हर क््ज 5 इ८ कैबक हक हैं /ञ आए 4. ऐह ५0, १६५७ ह$ 5 (4 हह. 9) रे वि + प्प हक 2५ हैक कि 7. * पृ कक प्र (५ [2 | | से फिकनन ७. औज #बि (५० डर 2 हे 3 4 हक ार के थ्ः डे ४०० कि किक ०७ कह का इनक, $६ पुल हू] बोण | है हाट (5 >> बेडुक भू ह््हा डर क्हड हा हु तब निका है कक हे िः शा ( किलकनन [हि +ं पु ॥।क्‍ हा $ 88६ %$ | मई हा बन सर ! की तह के > डा रे का पु, कल डक. 7 5 की पट ही मी पज व, फिलो्ट 3 [7 ॥9 2 दर १५ हू 7. के ही 0 का थक ही ह| हे है एप हर 2 65 हक कर 5 बट कल 205 बट रा पर मिनुधीी हिक, कक न्््िक #. कैब १५»! रे का *;क्‍ दर | टू हु. ३६ का (जे अक पए , हर, ि बज फिफ गज 6 / 2 न्‍् हक कब अल ४; हैक बढ ई० (%] ४5 रस 57 ही है के कण ४० बट कैट ही है है. हट हट कण £ (2 4० , 0 की ७० ्‌ छि, मि ह# 7 की . कि हि नि 2 ८८ हा आम एप मं हर ध्छ रॉ हे + गा कं कद है #ौी छे आशि थड हाए # »9 हि हट कक पड 5 हे 2 आम 3 पट है ह# [8 /6 ल्‍ कक की हि अर और ाईीए। ईए 6 2 &े गे? | प्र है हर आस आक कल४ है है ॥ए ३2 ६५. जि 0४ की 3 शत की कु पप | ला $0्5य आआ जज ६. वर 5 दि | फि #७क ३... #+ कु # 27 आज 7, डर 3४० इन गै् $9 / ४५ 7 कक है 247 डर भा /द आर्मी आप «व ८:०५ पए #ि -+ ०5 ्य पक 8९४ का न्‍ डे हे ; हैरक हद 8] डा 6 “बी हे रा डर ।*4 5 ध्थ ॥+ ४६ £ > + हि 5, मे + हे की कछ& 4 हर है हलक हे 2० 20 «« पं (५ 5, आन 0 ड़ कट वीर गे हु | «+ केक बैंड कैड के का... 2९ रू 9. ४० ऐएूँ 3४६ [६ 2. है. कि फ् 3 दर ली कै जैजल डे 44२ पे [ड प्र हम ड् 49 डे र् न्थिप बा | $३. 44० है है #९% हैंड है ि एप कि] है आफ है ए' प्र 475 मई ३० ] पट हैक कर हर हुं औऊ हू 08७ िर छा 82 ई७ >+0 [६ पक 2हन कि + अल मा %८« हा कर हैक हर $ रैइ हु हु हक (रथ नि [7 प्र 2 / ५4 (न अं हर न्‍ घ, [: जड़; हब जट हा कं पर ध्द हा 44 हक >ा जा ठ्र | कप र्टि प्र भर जे के हैक ईर %२* न्‍ के 4४ / नि शक | कै पल कु 4+$ £, कण... ह% # मन वी हक पा 5 $&. हुए कतऊे * 0आ मनन | 9... एि रे प्र डे /च डक | शक सह ॥5 ड़ है 9 है 4 का (व हैः ही थे कट हि पिज+ के है हे हि एिएि,. तल £ एड टिए: कि रत बजट गत कद धूप [द जा 4४ ९४ कि ध््ट पा 9 वात ०4 5 | 5 कक. «5 $० कक. प्र का फेल कक 2 ले कुक केश के मं 20 लत +5 पूँठ पा 5 कि] कि कई नोट एी हि गा वश हैंड 5 + ७7५ है इट० हक. रूख ह१ +$.+ लक करो ही हल | रा चेक, ििजला हुक हु कल 0 जन जम है 5 हक 5,088 शुर 3 की कि हक है १४ पु, है 5 >.. कह हि पा था | मिट हट ++ ता है] कब मी + आाड 05 5 कपल 56 | रे प्र 8] आन अप » 5 है» $ ॥ड्ूे डे बज बलि टयि वध् ६० २» |

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( 9३ )

पाप यो पृथरू कद्दकर आश्रव दी उनका समायेस करदिया है. इत्यादि श्राश्रव के ४३ भेदों को तथा फम पन्‍्धच के फार्णों की सामान्यता दोते हुए भी फ्रिन कारणों से चिशेषता होती है उसको समकाते डुए शानावण्यादि आठ कम के प्रघ हेतु ( आश्रय ) को विस्तृत रूप से समझाया है और शत, अल्ुरुम्पादि साता घेदनी के उथ छेतु वताये हैं इसछिये सातवें श्रध्याय में श्रत और दान का निरूपण करते ए॒ए जन परम्परा में श्तों की फ्या मद्दत्ता है और इनके अधिकारी फोन द्ोतेहे इसको पदारर दो अध्यायों में आाथप तत्य को समाप्त किया दे

अष्टम अध्याय में चघ तत्यवी “याय्या है। यध के कारणभूत मिव्यात्यगदि पाच देलतुबोंका तथा आठ कमा की उत्तर धरुनियों या धणन तथा इनकी जघन्य, उत्ह्ट स्थिति और प्रकृति, स्थिति, ग्स और प्रदेश बध के घास्तविक स्वरूप को समझाया है ओर फेसी अयस्था में फिस ज़गद्द रहे हुवे कम पुद्ठलों को ज्ञीप जितने प्रदेशों से भ्रहण दरता दे इत्यादि परिपयों फो समझाया है।

चौया अध्याय सम्बर ओर निर्जरा विपयी दहै। सम्बर का स्थरूप शासत्रयार ने मुस्यतया ' आश्रय का निरोव सम्बर ) आश्रय का निगोघ ही ( सम्प” ) झद्दादे तथापि पिशेष स्परूप ज्ञानी ये लिये इसके मूल थीर उत्तर ६६ मेद फरके यताये हैं थे सय धामिक क्रिया कौर घिधि पिशेष हैं इनके भत्येयः भेदों फो प्रथक् रूप से समझाया दे ध्यान का स्परूप और उसपी अवम्धादि या पिपय बढाही मद्धत्वपूण तथा गणम्रेण्यारोदी जीवेकी जिजरा का फिता। तारतम्यथाव भाव दे इत्यादि समभाया दे

दशरये अध्याय में मोक्ष तत्य पा घणन दे फर्म क्षय ये पश्चात्‌ ज्ञौयक्ा घाय जोर गति दंतु आदि यताये दे

उपगेता विषय से पाठकों यो यद्द| योध द्योगया होगा कि इत

१०4 )

दश अध्यायों में कितना उपयोगी विपय भरा हुआ है जो जैन सिद्धान्तों का खास तात्विक विषय है। इनका स्पष्टीकरण करने के लिये अछवादक महोदय ने अपनी ओर से अच्छा प्रयत्न किया है। अतएव सब साधारण के लिये यह पुस्तक वहुत पड़े जैन सिद्धान्तों में प्रवेश करने के लिये मानो यद्द अन्ध एक पथदशक है अब अनुचादक महाशय का एकैचित परिचय कराके अपनी प्स्तावना को सप्माप्त करुंगा- इस तत्वार्थ के हिन्दी अनुवाद कत्ता श्रीमान भेघराजजी मुणोत्त फलोधी निवासी हैं आपकी दूकान खेरागढ़ स्टेट ( सी. पी ) में मी है। आपको वचपन से ही विद्या की ओर अच्छी रुची है। संस्कृत में सिद्धान्त चन्द्रिका की प्राथमिक परीक्षोत्तीण हैं। घार्मिक तत्वों में दृब्यानुयोग की तफे आपका चिशेष रूक्ष्ण है कहे मुनिराजों की सेवा और चिद्धानों के सद्संग तथा पुस्तकों के पठन पाठन से जिस वोध की प्राप्ति हुईं उसके फल रूप अप पांच कमंग्रन्थ और नयचक्रसार सरल हिन्दी अचज्ुवाद करके पाठकों की सेवा मे” पहले रख चुके हैं इस समय सर्वे साधारण के हिता्थ यह दत्त्वाथ सूत्र का हिन्दी अनुवाद अति सरलवोध हिन्दीमें आपके कर कमलों में रखते हैं जैसे- कम अन्थ ओर नयचक्रसार की पुस्तक को समाज ने अपनाया है वैसे ही इस महान अन्थ को अपना के योग्य लाभ उठाकर अनुवादक महोदय के उत्साह में अभिवृद्धि करेगे। अन्तमें यह लिखना भी ज़रूरी है कि इस भ्रन्थ के भफ संशोधक यथा प्रेस कर्मचार्यों की असावधानी से अशुद्धियां चहुत पाई जाती हैँ ऐसे तात्विक अन्थों में इतनी अशुद्धियां रहनी चाहिये अतएच द्वितीयावृत्ति में अवश्य ध्यान रखे शुद्धि पत्र इसके साथ है पाठकों को चाहिये वे पहले सुधार ले किचहना

सुनि ज्ञानसुन्दर

00 000 82 0 0 02020 00000 00000 0000 802

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| मुणोत्त। ( फलोधी )

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मे पहषंथ बाघ १९7 ७7 घी ५०५:७१७/ध५/

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यश दाशिोविफितलिांणि थिएशाबिपेशी 2>्चि

( २५ ) विपयानुक्रमणिका

रे

प्रथम अध्याय

, शास्त्र की प्रवानता--सम्यस्‌ दृशन का लक्षण, उत्पत्ति, तत्वों के नाम- निक्षेपों का नाम निदश--तत्व जानने के उपाय अन्य उपाय सम्पक शान के मेद-मतिशान के समानाथऋ दाव्द स्थरूप गेद अपग्रह्मडि के लच्षोण--अदान्तर मेद--श्रत शान रुपरूप और भेद अवधिनान के भेद और स्वामी-मन पयाय ज्ञान के भेद--विशेषता श्ञानों का ग्राह्य पिषय--एक समग्र एक जीव में कितने ज्ञान? अज्लान का निवारण और निमित्त नय भेद स्वरूप-पृथण्‌ देशना

; का फारण--विशेष भेद्ों का स्यरूप--परयार्थिक नय के भेद

द्वितीय अध्याय हु ६५

पाच भादयों का स्परूप, उत्तर भेद, जीय का लक्षण, उपयोगिता की विविधता, ससारी जीयों के भेद प्रभेट, इठियों फी सरत्या ओर भेद, भेय विपय, स्वामी, ससारी ज्ञीव की गतिक्रिया, जन्म योनि भेद स्वामी, शारीरिक विपयी, लिंग ( चेद ) विभाग, आयुष्य भेद स्वामी

ठुवीय अध्याय श्न्१्‌ नारकी--नरकचासों की सख्या, मध्यलोक घरशुन, घातकी खण्ड

और पुष्कराद्ध द्वीप, मजुष्यों की स्थिति क्षेत्रादि, कमे भूमि निदृश, मनुष्य तियेचों की स्थिति

चौथा अध्याय... '** है अर १४४

देवों के भद--तीसरे निकाय की लेदया, चार निकाय के भेद, लवान्तर भेद, इन्द्रों की संख्या, पथम के दो निकायों की लेश्या, देवों की प्रचारणा, देवों के भेद प्रभेद, विपय की न्‍्यूनाधिकता, वैमानिकों मे लेश्या, कल्पों की परिगणना, छोकान्तिक देव, अजुत्तर देव का विशेषत्व, तियेग योनि विषय, अधिकार सूत्र भवनपति निकाय की उत्कृष्ट स्थिति, चेमानिकों की उत्कृष्ठ स्थिति, जघन्य स्थिति

पांचवां अध्याय ००० >०« ४० १६६

अजीव के भेद--मूलदूृव्य, साधथस्ये वेधम्थे, प्रदेश संख्या, द्वव्य की स्थिति, धर्माधमाकाश का रक्षण, पुल का छत्तण, कार्य द्वारा जीव का लक्षण, काल लक्षण, पुदल के साधारण पयाय, मुख्य भेद, अन्य कारिकाओं द्वारा परमाणु का रूक्षण, स्कन्ध और अणु की उत्पत्ति का कारण, स्कन्ध चज्षु आह्याग्नाह्य पय सत्‌-,विलक्षण | दूसरी व्याख्या, अनेकाल्त, समथथन, द्वितीय व्याख्या, पोह्नलिक, बन्ध हेतु. परिणाम स्वरूप, हृव्य का लक्षण, काल का स्वरूप, गुण स्वरूप, परिणाम का स्वरूप, परिणाम के भेद |

छुद्ठा अध्याय बह 5 "2 ५5 २२२ शआखब का स्वरूप, योगों के भेद और काय, स्वामी तथा भेद

सस्पायिक आखंव के भेद, पचीस क्ियों के नाम और लक्षण, अधि- करण के भेद, आख्व के भिन्न वन्ध देतु, हे कट

( २७ ) सप्तम अध्याय रध्रे

व्रत स्परूप तथा सेद, घतों को भावनाय ओर उनका विशेष रूप से पर्णन द्विंसा का स्परूप, असत्य का स्वरूप, अदत्त स्परूप, अप्रह्मचप स्वरूप, परिप्रद्द स्वरूप, घती की योग्यता और मेद त्तथा उसके अतिचार, दान का वरणुन,

अप्टम अध्याय र्छ५

यस्ध हेतु निर्देश, यन्‍्ध फा स्यरूप, वध का भेद, उत्तर प्रए् तियों की सय्या, म्थिति यन्ध का घणन, अनुभाग यन्ध का घणन, पाप, पुन्‍्य प्रकृति,

नवम अध्याय २९८

खबर स्वरूप, सचए उपय, शुप्ति, समिति स्वरूप यति मम के मेद, जनुपत्षा। ( धारद् भाषना ) स्परूण, परिसद्द वर्णन, चारित्र के भेद, तप का यर्णन, अभ्य तर तप ये सेद्‌ प्रायश्वित वे सेद्‌ चिनय, पैयाणत्प, स्वाध्याय, च्युत्सगे के मेठ, ध्यान फा यणन, ध्यान के भेद, आतध्यान का एक्षण, सैद्र ध्यान, धम ध्यान निरुपण, शुक्ध ध्यात तिरेषण तथा उनके अय तर भेद, गुण क्षणी विषय निज का तारतम्य, निम्न ये भेद और इनका पिशेप पिचार।

दशम भ्ध्याय श्शे७

मोद्ध स्थरूप, अन्य कारणों फा कथन, पर्म ध्षय पे पद्चयाव सीव वाल, सिद्ध मान गति के ट्ेठु, सिद जीयों की विशिप यिचारणा

पुस्तक महात्य

ज्ञान प्राप्ति का खास साथन पुस्तक है स्कूलों से तो विद्यार्थी सिफ टाइस सर ही लाभ उठा सकते हैं परन्तु पुस्तकों द्वारा आप हमेशा ज्ञान सीख सकते हैं चाहे आप व्यापारी, अहलकार या कारीगर हों, चाह आप जवान या बूढ़े हों। पुस्तकें हमारी गुरु जो हमें त्रिना मार पीट ज्ञान देती हैँ पुस्तकें कटु वाक्य नहीं कहती ओर क्रोध करती हैं ये माहवारी तनख्वाह भी नहीं मांगती आप इनसे रात दिन घर बाहर जहाँ ओर जब इच्छा हो काम लो | ये कभी नहीं सोनी हैं ज्ञान देन इन्कार करना तो जानती ही नहीं | इनसे छुछ पूछो तो ये छुछ भी छिपाती नहीं बार बार पूछो तो उक ताती या कुकलाती नहीं अगर आप इनकी वात एक वार में नहीं समझ सकत तो ये हँसती नहीं ज्ञान की भण्डार पुस्तक सब धन्नों में बहुमूल्य हैं। अगर आप सत्य, ज्ञान, विज्ञान, धम, इतिहास आर आनन्द के सच जिज्ञासु होना चाहते हैं तो पुस्तकों प्रमी चन प्रत्येक महीने में कुछ बचा कर पुस्तकें मंगाकर संग्रह करें उत्तम पुस्तकें मंगाने के पते:-

जेन ज्ञान भडार जोधपुर |

अ्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पसाला,

फलोदी ( मारवाड़ )

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दर रे #< भ् श्रीतत््वाथसत्रम्‌

प्र्च्चच््छाा 7ह्ल्कलतता9

अन्श्क्ष्णद 3

7 है या + डे

सम्यग्दशनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग १॥ तचार्थश्रद्धान सम्पग्दशनम्‌ )) तन्निमगोदधिगमादा हे जीवाजीपा- अयपधसवरनिजरामोक्षास्तत्मम्‌ ४॥ नामस्थापनाद्र्यभावत- स्तन्न्यास ५॥ प्रमाणनयेरघिगमः ६॥ निर्देशस्वामि- स्वमाधनाधिकरणस्थितिविधानत, मतिश्रुतायधिमन प- ग्रोयफेयलानि ज्ञानम्‌ ८॥ सत्सरयाचेतस्पशनकालातरभावा- ल्पपहुरविथ | तत्ममाणे १०+। श्रांध परोक्तम्‌ ११ ग्रत्यच्मन्यत्‌ १२॥ मति' स्मृति सज्ञाचिताइभिनियोध इत्य- नथीतरम्‌ १३ तर्दिद्वियानिंद्रियनिमित्तम्‌ | १४ अपग्र- हेहापायधारणा १७॥ बहुपहुविधलिग्रानिश्रितासदिग्धयवा णा सेतराणाम ॥| १६ अर्थरुप १७॥ व्यजनस्यायग्रह १८॥ चक्तुगनिंद्रियाम्याम्‌ ॥/१९॥ श्रत॒ सँतिपूपे इतने कद्दादशभेंदम्‌ २० -॥। ट्वियिधोष्यधि ॥२१॥ अभपप्रत्य यो नारकंदेवानाम्‌ २२ यथोक्ननिमित्त, पड्विकल्प शेपाणाम्‌ २३ ऋज॒पिपुलमती मन पयाय २४७

मा,

विशुद्धयग्नतिपातास्याँ तद्शिपट २४ थ। विशुद्धिन्षत्रस्थामि- विपयश्योप्वधिमनः पर्याययो: २६ मतिश्नतयोरनिवेध! स- बद्रव्वेप्यसरबपर्योयेपु ॥॥ २७ रूपिप्बदधेः २८ ।॥ तदनंत- भागे मन! पर्यायस्यथ २६॥ सर्वेद्रब्यपर्यायेप्‌ केवलस्थ | ३० ॥। एकादीनि भाज्यानि युगपरदेकस्मिन्नाचतुम्यः ३१ मतिश्ष- ताबधयो ( मतिश्रतविभंगा ) विपययथ्थ ३२ सदसतोरबि- शपादवच्छोपलब्धेरुन्मत्तयत्‌ ३३ नगमसंग्रहव्यवहारजुसत्र-

९०. आर

शब्दा नया; ३४ आद्यशब्दी दित्रिभेंदीं ३०

-+ इाते प्रवमाषण्याथ: -

ज्ल्ल्स्न्केवन-+२-८-+- 2०

अ्रथ हित्तीयोज्थ्यायः ओपशमिकत्षायिकी भावा मिश्र्थ-जीवस्य स्वतच्मादयिक- पारिणामिकी द्विनवाष्टादशकरविंश तिज्रिसिदा यथाक्र- मम्‌ २॥ सम्यक्लचारित्रे ज्ञानद्शनदानलामभोगो पंभोगवीयाणि ४॥ ज्ञानाज्ञानदशनदानादिलव्धयश्रतुस्ि- त्रिपचभेदाः यथाक्रम संम्यक्त्वचारित्रसयमासंयमाश्च ग- तिकपायलिंगमिथ्यादशनाज्ञानासंयतासिद्धत्वलेश्याथतुशअरतु रूये-

(३)

कैफैफपइमेदा। जीयभव्याभव्ययादीनि उपयोगो लक्षणम्‌ सह्िनिधोष्टचतुर्भेद &॥ ससा- रिशो मुक्ाथ १० समनस्का अमनस्का मे ११॥ ससा- रिणखसस्थावरा, १२ एथिन्दयुवनस्पतय स्थायरा ॥१9॥ तेजोगायू दीडियादयश्रतसा १४ पचेद्रियाणि १४॥ ट्वितिधानि १६ निर्व्युपकरणे द्रव्येद्रियम् १७॥ ल- अ्ध्युपयोगी भारयेद्रियम्‌ १८ उपयोगः स्परशांदिपु १६ स्पशनरमनप्राणचचुओताणि २० स्पशरसगघरूपशब्दा स्तेपामर्थ २१ श्तमंनिंद्रियस्या २२ ॥| वारयतानामेक- म्‌॥ २३ ऊमिपिपीलिकाअमरमनुप्यादी नामेकेक्वृद्ठानि २४॥ सब्िन समनन्‍सस्‍्का ॥२७॥ विग्रहगतों क्मप्रोण २६॥ अनुश्रेणि गति २७ ॥,अग्निग्रहाजीयस्प २८ जिग्रहमती चसू ससारिण प्रारुचतुम्य' २६ एकसमयी5गरिग्रह

०॥ एक्र चानाहरक ३१॥ समूछनगर्भाषपाता जन्म ३२ सचित्तणीतसबृता सेतरा मिश्राथेकशस्तथीनय ३३ जरारगठपोतजाना गर्भ ३४ नारफदेवानाशुपपात ३४ शेपाणा समृछनम ३६ भोदास्कििक्रियाहारक- तजमकामेणयानिशरीराशि ३७ पर पर घद्मम्‌ रे८ अंदेशतो5सस्येयगुण भाईचमात्‌ | ३६ अनतगुणे परे ।४० अप्रतिपाते ४१ अनादिसबन्धे च्‌ ४२ || सवम्प ।४३।

(४)

तदादीनि भाज्यानि युगपंदेकस्याचतुम्यः ४४ निरुपभो- गर्मत्यम्‌ ४५ गर्भसमूछनजमसाद्यम्‌ ४६ वैक्रियमोपपा- तिकम्‌ ४७ लब्धप्रत्ययं ४८ शुभ॑ विशुद्धमव्या- घाति चाहारके चतुंदंशपूधंधरस्थेव || ४६ तेजसमपि ४० नारकसमूछेनो नपुंसकानि ५४१ देवाः ५२ ओ- पपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंस्ययवषोयुपो 5नपवत्योयुष: )। ७३

है

-$ इति द्वितीयापउध्याथ) 3८ बाहर: '"॥ अथ तृतीयोज्ध्यायः

रत्नशकराबालुकापेकपूमतमोमहातमः प्रभाभूमयों घनांबुवा- ताकाशग्रतिष्ठा! सप्ताधोष्चः प्रथुतरा तासु नारका ॥२॥ नित्याशुभतरलेश्याप रिणामदहे वेदनाविक्रिया; परस्परो- दीरित दुश्खा (.४॥ संक्लिष्टासरोदीरितदुःखाश्र प्रांक्‌ चतुथ्योः तेप्वेकत्रिसप्तद्शसप्तदशद्ा्विशतित्रयस्रशत्सागरोपमा ' सच्चानां परा स्थिति! ६॥ जबूद्दीप लवणादयः शुभनामानो द्ीपससझुद्रा: द्विद्विर्विष्कंभा) पूंचे पू्वेपरिक्तेषिणों वलया- ऊतंयः तन्मध्ये मेरुनाभिईत्तोयोजनशतसहखर विष्कंभो

(()

जम्बूद्वीपप ६।॥ तत्र भरतदैमयतहररिविदेशरम्यक्हेरणयवर्ते- रागतचर्पा क्षत्राणि ॥१० तद्विभाजिन' पूर्तापरायता हिमव- न्महाहिमपज्िपधनीलरुक्मिशिसरीणो / पर्षघरपर्वता, ११ दिधांतिकीखरणंड ।॥ १२ पृष्फराधें च॥ १३ प्र।क माहुपोत्त- रान्मनुप्या १४॥ आया म्लिशथ १४॥ भरतेसवर्वि- देहा कर्मभूमयोउन्यन्न देगक्रुत्तरकुरुभ्य, १६ नृस्थिती प- रापेर जिपल्योपमातर्मुहत १७ तियंग्योनीना १८

+ | 4)

बदन | 2 228

कि ७2) हे - इनि तूतीयो$+थाथ., -, पे (8 + के 76 (92 82 | 8३.

अथ' चतर्थोंअ्ष्यायः ॥' '

पड

देवॉश्रतर्निकाया ठत्तीय' पीतलश्य दशा- परपचद्रादशविस्ल्पा कल्पोपपन्नपयन्ता |॥ ३॥ इद्रसामानि- कज्ाय्स्िशपारिपदास्मरच्लोकपालानीकप्रकी रकासियोग्य कि ल्पिपिकाश्रेकश ४॥ ज्रायस्धिशलोकपालयर्जा ज्यवरज्यो- तिप्का ॥' पूर्ययोईद्रा पीतातलेश्या '॥ ७॥ कायप्रदीचारा आएशानात्‌ ८7१ शेपा स्वशीरूपशब्दमन

हु

(६)

प्रवीचारा हयोदेयो: * परेड्प्रवीचाराः | १० मवनवा- सिनोञ्सुरनागविद्यत्सुपणा ग्निवातस्तनितोदधिहीपदि कक्रमारा: ११॥ व्यंत्राः क्रिंनराकेपुरुपमहोरगगांघवयच्तराक्षसभृतपि- शाचा: १२ ज्योतिष्काः सर्याच॑ंद्रमसों ग्रहनच्त्रश्कीशता- राथ १३॥ मेस्मदक्षिणा नित्यगतयों नुलोके १४७ त- ल्कूतः कालविभागः १५ वहिसरवस्थिताः १६ बैमा- निकाः १७॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश १८ उपर्यु- परि १६ सोधर्मेशानमनत्कुमारमाहेंद्रतझ्नलो कलांतकमहा- शुक्रसहसारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसुग्रवेयकेपु. विज- यविजयतजयतापराजितिपुमवी थसिद्े २० स्थितिप्रमा- वसुखयर्तिलश्याबिशुद्धी द्रियावधिविपयतो इधिकाः २१॥ स- तिशरीरपरिग्रहभिमानतो हीनाः २२ उच्छ्वासाहारवेदनो- पयातानुभावतश्र साध्या: २३ पीत्तपद्मशुक्कलेश्या दवित्रिश- पेषु २४ प्राग्रेवेयकस्यः कल्पा: २४ चह्मलोकालया लोकांतिका २६ सारस्वतादित्यवन्दरुणगदतोयतुपिताव्या बाधामरुतो5रिप्टाश्व ॥| २७ विजयादिपु द्विचरमा। २८ ओपपातिकमलनुष्ये भ्यः शपास्तियेग्योनय; २६॥ स्थितिः ३० भवनेषु दक्षिणाधांधिपतीनां पल्‍्योपममध्य्ंम ॥३१॥ शपाणां पादोने 3२ असुरद्रयोः सागरोपममधिक ३४ सोधमोदिषु यथाक्रमम ३४ सागरोपमे.॥ ३५॥

(७)

अधेके च॥ ३६ सप्त सनत्कुमारे ३७ पिशपखसिसप्त- दद्यकादशत्रयोदशपचदशशिरधिकानि ॥! ३८) आरणाच्यु- तादध्य मेकफेन नयसु ग्रेमेयकेपु त्रिजयादिपुसयोथासद्धे ॥३६॥ अपरा पल्योपसमधिक ४०१ सागरोपमे ४१४॥ थअ- घिके थे ४२!॥ परत परत पृय्ा पूत्रनत्रा ४३ नार- काणा द्वितीयादिषु ४४ दश 'धर्पसंहससाणि प्रथमायाम्‌ ४४ भयनेपु ४६॥ व्यतराणखा ४७॥ परा पल्योपमम ४८ ज्योतिष्फाणामधिक्म ४६॥ ग्रहाणामे- कृप्र ५० नक्षत्राणामद्म्‌ ११ तारकाणा चतुर्भाग ५२ जघन्यात्वष्टभाग' ५३ चतुमाग शेपाणाम्‌।१४।

क++ज- 5

इति चतुर्थाउध्यायः 20 तट

ौस््या * भशिकरम--.२0२ृ-

अथ पञ्ममोईअष्य यः

अजीवकाया घर्माधमाफाशपुद़्ला द्रब्याणि जीया- श्र्‌॥ २॥ नित्पाउस्थितान्यरूपीणि ३॥ रूपिय, पुद्टला ४॥ आइऊ5झाशादेकद्रब्याणि निष्क्रियाणि असख्येया' प्रदेशाघर्माधर्मयो, ७॥ जीवस्स ॥८॥

(८)

आकाशखानताः संख्येयासंख्येबात्र पुदल्ानाम १० नाणो; ११ लोकाकाशेज्वगाहः १२ ॥| - धमा- धर्मयोः कृत्स्त ॥१३॥ एकप्रदेशादियुःभाज्यःपुद्ठलानाम्‌ ॥१४॥ असखरूपेयभागादिपु जीवानाम्‌ १४ अदेशसहार विसगगम्यां प्रदीपवत्‌ १5६ गतिस्थित्युतग्रहों ध्रमाधमंयोंमपकार ॥१७॥ आकाशस्वथावगाहः ॥१८॥ शरीरबाइमन: प्राशापाना पुदगला- नाम १६ सुखदुःखजीबवितमरणोपग्रहाश्ष २० परस्प- रोपग्रदों जीवानामू २१ वत्तना परिणामः क्रिया परत्वाप- रत्वे कालस्य २२॥ स्पशरसगंघवरणवंतः पुद्गला २३॥ शब्दबंधसोच्म्यस्थेल्यमंस्थानभेद्तमश्छायातपोद्योतवतञ् ।९४। अणवः स्कंघाथ २० संघातभेदम्य उत्पर्यते २६ भे- दादखणुः २७ भेदसंघाताम्यां चाक्षुया; / २८ उत्पाद- व्ययधोव्ययुक्क॑ सत २६ तड्भावाव्यंग नित्यम्‌॥ ३० अरपितानपेतसिंद्ध/ ३१ स्लनिग्परूचतलाब्दध ३२२ जघन्यगुणानाम्‌ रे३ गुणसाम्प सदशानाम्‌ र२े४ उद्‌- यथिकादिगशुणानां तु ३७ बंधे समाधिकों पारिणामिकीं ३६ गुणपर्यायवद्‌ द्रव्यम ३७॥ काललब्रेत्येक 6 ४८॥ सोज्नंतसमयः ३६ द्रव्याश्रया निर्मुगा गुणाः ४० तंड्भावं: परिणामः | ४१ अनादिरादिमॉथ ४२ रूपि- ध्यादिमान्‌ ४३ योगोपयोगों जीवेषु ४७

इति पश्च्म.5य्यःथा

(६) अ्रथ पष्ठोज्ष्यायः

काययाइमन कर्म योग १॥ आश्रव शुभ' पुएयस्थ अशुभ पापस्य ( शेप पापम )॥ ४७॥ से ' क्पायाकपाययो सापरामिकेयापथयों ईद्वियकपायात्रत क्रिया; पैचचतु' पचपचर्षिशतिसख्या पूर्वस्य भेदा तीममदज्ञाताज्ञातभाववीयाधिकरणपिशेपेम्यस्तद्िशिप' ( पिशे- पात्तद्नशिप ) ७॥ अधिकरण जीवाजीवा' आंच सरभसमारभारभयोगकृतकारितानुमतिऊपाय पिशेषखिखिसिथ्तु- श्रैकश' निर्वच्तेनानिक्ेपसयोगनिसरगां ह्विचतुर्दितिभेदा पर १० तत्मदोपनिन्हवमात्सयौतरायासादनोपघाता ज्ञान- दर्शनागरणयों ११ दु खशोकतापाक्रदुनवधपरिंदेयनान्था- स्मपरोभयस्थान्यसंदद्यस्य १९ भूतमत्यनुकपादानसरागस- यमादियोगज्ञातिशीचमितिसंद्ेय्यस्प १३ केयलिश्तसघध- मंदेवारणवादो दर्शनमोहस्प १४ कपायोदयात्तीतात्मप- रिणामश्वारियमोहस्य १४५ बह्ारमपरिग्रहत्य नारकस्या- युप १६ माया तेयेग्योनस्प | १७ अल्पारभपरिग्रहत्व स्वभायमाईवाजैयत्य मानुपस्य १८ नि शीलततत्व सर्मेपां १६ सरागसयमसयमासयमाक मनिजराबालतपा- सि देवस्प॥२०॥योगबवक्रतायिसवादन चाशुभस्थ नाम्न |,२१॥

(१० )

विपरीत शुमस्य | २९॥ दर्शन विशुद्धिजिनयसंपन्नता शील- ब्रतप्यनतिचारो5नीच्ण शानोपयोगसवि्ग। शक्कितरत्यागतप्सी संघसाधुसमाधिवियाबत्यकरणमहदाचायबहुअतग्रवचन मक्किराव- श्यकापरिहाशिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलसमिति तीथकृत्सेस्य २३ रात्मानेंदाग्रशंसे सदसब्णाच्छादनोहावने नीचे गोत्रिस्य २७ तद्विपययों नीचेबृत्ष्यनुत्सेकी चोत्तरस्य २८ विषध्नकरणमंतरायरुय ||

-“+ हात पष्ठटोउघ्याथ+ $-

थार >>

गथ सप्तमोउध्याय हिंसानृतस्तेयात्रक्षपरिग्रह भ्यों विरतित्रतम्‌ ।। देशसबच- तोडशुमहती तत्स्थेयाें भावनाः पंच पंच हिं- सादिप्विहामत्र चापायावद्यदशनम्‌ दुःखमेव वां मेत्रीम्रमोदकारुएयमाध्यस्थ्यानि सचगुणाधिकक्निश्यमानाविनि- थपु जगत्कायस्वभावो संवेगवेराण याथम प्रम-

48) पंयोगात्माणव्यपरोपण हिसा असदभिधानमनृतम अदत्तादान स्तेयम्‌॥ १० मैथुनमत्ह्म * मच्छी परिग्रह। १२ नि' शल्यो घती १३६ अगायनगारश १४ अ्रणुततोष्गारी १० दिग्देशानथंद्डपिरतिसामा परिकपीप वोपयासोप भो गपरिभो गपरिमाणातिधिस ति भागन्रतस $ अंश १६॥ मारणातिकी संलसना जोपिता १७॥ शा फ्रक्षानिचिसित्सान्यदश्िग्रशमासस्तया सम्यस्धप्टेरतिचारा १८ ब्रतशीलिषु पथ पथ यथाक्रमम्‌ १६ पंधनधच्छपि- ब्छेदातिभारारोपणान्रपाननिरोधा ॥२०॥ मिथ्योपदशरहस्या- भयार्यानऊूट्लेसक्रियान्यासापहारसाकफारमत्भदा, २१ स्तेनप्रयोगतदाहतादानमिरद्धराज्यातिफमही नाधिऊमानो न्‍्मान प्र तिरूपकब्ययहारा ॥-२२ परतियाहररणत्यस्परिणद्दीतागम नानगक्रीडात्तीयकासाभिनितरेणा २३ चेनवास्तुहिरएयसु प्रणंधनधान्यदासीदासऊुप्यप्रमाणातिकमा २४ ऊध्यीव स्यिगब्यतिक्रम चषेश्रवृद्धिस्सृत्यवर्धानानि २४,॥ आनयन- ग्रेप्यप्रयोगशब्त्जपानुपातपुद्धलग्रक्षेपा' २६ कदर्प्रौफुच्य- मौसयासमीच्याधिररणोपभोगाधिऊत्वानि २७॥ योग दु- ग्रशिधानानादरस्मृत्यनुप्स्थापनानि ॥| २८ अपत्यवेज्निताप्र मार्मतीत्मर्गादाननित्तेपसस्तारोपफ्रमणानादर स्मृत्मनुपस्थानानि २६ सचित्तसउद्धसमिश्राभिपयदु पक्याहारा, ३० से

(१२ )

चित्तमिन्नेपपिधानपरव्यपंदेशमान्म बकालानिकरमा:॥ ३१ जी- वितमरणाशसामित्रानुगगसखानुतं धनिदानकरणानि ३५ ॥| अनुग्रहार्थ स्वस्थातिसरगों दानम्‌ ३३ विभिद्रन्यदातपात्र- विशपात्तद्निशपः २४

अरिजननलन जिन,

(- इति सप्तमोष्य्याय। -)

>>: "याकीकिकालााऋ--.

अथ अटष्टमोउध्यायः

मिथ्यादशनाबिरतिप्रमादकपाययोगा बंधहेतवः स- कपायत्वाज्जीवः कमंणो योग्यान्पुद्नलानादत्ते सबंध प्रकृतिस्थित्यनुभावग्रदेशास्तद्विघयः आद्यो ज्लान- दर्शनावरणवेदनीयमोहनी यायुप्कनामगोत्रांतराया: पंच- वह्यष्टाविंशतिचतुर्द्धिचत्वारिंशाहिपंचभदा यथाक्रमम्‌ मत्यादीनां ७॥ चक्षुरचच्चुखधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्रा- प्रचलाग्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्भिविदनी यानि च।।८॥|सदसदेये।६। इशैनचारित्रमोहनीयकपायनोकपायवेदनीयारध्याश्रिदिषो शनवसे- दाः सम्यकत्वमिथ्यात्वतदु यानिकपायनोकपायावनंता लुच्॑ध्य- प्रत्याख्यानग्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्रेकश! क्रोधमान-

(१३)

भायालोमा हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्रीपुनपुसकयंदा १० नारकतैयग्योनमालुपदवानि ११ गतिजातिशरिरा- शोपागनिर्माणयधनसघातसस्थानसहननस्पशरसगधवर्णानुपूर्व्य- शुस्लघुपधातपराघातातपोद्योतोच्छूवासपिहायोगतय' प्रत्यकशरी र्तससुभगसुस्वरशुभखक्मपर्याप्तस्थिरांद ययशा सिसतरा णिती थक - ज्चेति १६॥ उच्चेर्नीचेश्व १३ दानादीनामतराय। १४ आदितस्तिसृुणामतरायर्य पिंशत्सामरोपमकीटीको- टयू. पर स्थिति १५ सप्ततिमोहनीयस्य १६ ना- मगोग्रयोर्िशति, १७ त्रयस्धिशतसागरोपमाण्यासुप्करुय ( त्रयस्धिशत्सागराएय घिकान्यायुप्कस्य )॥ १८ अपरा द्वा- दशश सुहूचोपेदनीयरय १६ नामगोत्योर २० शे- पाणामतर्मुहतम्‌ २१ विपाफोइलुमाव' २२ सयथा- नाम २३ ततथ् निर्जरा २४ नामग्रत्यया सर्यतो योगर्विशिपात्यल्मकलषतायगाटस्थिता सर्वात्मप्रंदेशेप्पनतानतप्र- देशा, २४५ सद्ेयमस्यक्त्वहास्यरतिपुरुपवेदशुभायु्नामगो- त्राणिपृएयस २६॥

(- इति अछ्टमो5ध्याय' -)

फट, अब नवमाज्थाय ॥|

आश्रवनिगेधा! सेबरः से गुमिसमितिथमानुग्रच्ाप३- पृहजयचारित्र: | तपसा मिज्ञस ने सम्बस्योग- निग्नहों गुप्ति! इयामापद्णादाननिक्षपीस्मणा: समितय; उत्तमः क्षमामादवासवशाचर्सस्यतंसमतपफ्सन्यथासाकिय- स्यत्रह्मचर्याणि ध। अनित्याशरलुसमांरकत्वास्यस्या- शूचित्वाश्रवर्सवरनिजरालो को घिदूल मं धमस्वा ख्यातस्व॒तत्वा जु- यतनमलुग्रेक्चा: ।| ॥| मार्गाच्यवननिजेरार्थ परिपोदब्या: प- रिपहा+ क्षुत्पिपासाशीनोप्णदंशमशकनाग्न्यार दिख्ीच- यनिपयाशब्याक्रोशवधयाचनालाभरो गठणस्पशमलसत्कार पुर- स्कारप्रज्ञाज्ञादशनानि सच्मसंपरायछबस्थवीतरागयो- अतुर्देश १० एकादश जिने ११ बादरसंपरांव सर्वे १२ ज्ञानावरणे ग्रज्ञाज्ञाने १३ दशनमोहांतराययी रद- शनालाभ। १४॥ चारित्रमोहे न&न्‍्यारतिसत्री निपयाक्रोशया- चनासत्कारपुरस्काराः १४॥ वेददीये शपाः। १६ एक - दयो भाज्या युगपृदकानाबशाते; १७ सासायकछेदोप- स्थाप्यपरिहारविसुड्धिसज्मसंपराययथाख्यातानि चारित्रयू १८ अनशनावमोदर्यबृत्तियरिसस्यानरसपरित्याग विब्िक्नश॒ध्यास- नकायब्लशा वाह्य॑ तप: १६ प्रायश्वित्तविनयभयाइच्त्यस्वा-

/( १२)

ध्यायस्युत्मर्ग ध्मानान्युत्तरम्‌ २० नये चतुंश पंच द्विभेद यवाफम ग्राम्ध्यानात्‌ २१ ॥' आलोचनप्रतिफमणतदुभयप्रि- तेफ्युत्मगंतपण्छेदपरिहारोपस्थापनानि २२ ज्ञानंद्शन- चारितोपचारा' २३ आचार्योपाध्यायतपस्पिशित्तसग्लान- गणदुलमघसाधुसमनोत्ञानाम्‌ ॥-२४ याचनाएन्ऊनाअजुप्क्षा स्तायधर्मापदेशा २४ चाद्यास्यतगेपध्यों ॥२६॥ उच्च- मसहननस्पेकाग्रचितानिरोधश्व ध्यानस्‌ २७ आमुहत्तीत्‌ रश८ आत्तरोद्रवर्म्मशुस्लानि,॥ २७ परे भोक्तहेतू ४० आततममनीज्ान। सप्योंगे तद्रिग्रयोगाण स्मृतिममन्याहार ३१ पेदनायाश्ष ॥| ३२ विपरीत मनोवानाम्‌ रे३ निदान फामोपहतचिचाना पुन ३४ तदपिरतदेशविर- तप्रमत्तमथतानाम्‌ |॥ ६३५ ,हिंसाअतृतस्तेयप्िपयसरक्षणभ्यो रोद्रमविर्तदेशतिरत्यों ३२६॥ आज्ञाउपायत्रिपाऊसस्थान पि- अयाम्र वम्मेमग्रमत्तरयतस्य 3७ || उपशातक्षीणकपाययोशथ | ३८ शक्नेचाथे ३६ क्लचाध्ये पूर्पत्निंड पूपेबिद ४० परे ऊयेलिन ४८१ प्रवकयस्‍्लेतितकेसल्मक्ियाप्रतति- पातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि | ०2२ तत्‌ *येक्फराययोगायो गासामू॥ ४३ एफाश्रये समितर्क पूर्ष ४४ अगिचार डितीयम्‌ ४० वितर्य/ अतम ४६ पिचारो54ज्यजन- योगेंगयक्राति ४७ सम्यरदष्टि भायकषिरतानततियोजर-

( १६ )

दशनमोहज्षपकोपशमकीपशांतमोहच्तपकन्नीणमोह जिनाः क्रमशों - इसख्येयगुणनिजरा: 9८ पुलाकवकुशकुशीलनिग्रेथम्नानका निग्रेथा! ४६ संयमश्रतप्रतिसवनाती थलिंगंलश्यो पपातस्थान- विकल्पतः साध्या। ४०

- इति नवसोीड्च्याय' -

जनननननन ननननाओ

अथ दशमो5्ध्यायः

मोहक्षयाज् ज्ञानदशनावणांतरायक्षयात्र केवलम्‌ १॥ बं- धहेत्वभावनिजरामभ्याम्‌ २॥ कृत्स्नकर्मन्नयो मोक्तः ऑपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्वान्यत्रकेवलस म्यक्त्वज्ञानद शनसि- ढत्वेम्यः तदनंतरसुध्वे गच्छत्वालोकांतात्‌ पूच- प्रयोगादसंगत्वाद्बंधच्छेदात्तथागात पारिणामाच तदूगतिः ६॥ ज्षत्रकालगतिलिंगतीथचारित्रग्रत्येकबुद्धबीघितबज्ञानावगाहनां तरस- ख्याल्पवहुत्वतः साध्या: ७॥

इति दशमाोव्थ्यायः

& इश्ति तलाथंसूत्र संपू प्‌ &

आर रसमप्रभाकर शान पुष्प साला पु० न० ११६

॥+*॥ श्री मजनाचार्य उमास्वाति विरचित 0 तत्वाथ सूत्र

हिन्दी सानुवाद ऑकार पिन्हु संयुक्त, नित्य ध्यायन्ति योगिन' ! कामद सोक्तद चेब, #काराय नमो नस १७

; शासत्र की प्रधानता

जीव अन-त हैं और पे सप्र खुख चाहते हैँ परन्तु उस की करपना सर की पक सदश नहीं है। विशास की त्तारतस्यता के अशुसार उन सर्णों के सक्षेप से रो विभाग हो सकते दे। पट्धिले विभाग में श्रपप घिकास घाले जीवों पा समावेस होता है और उनसे खुय की फल्‍्पना याह्य साधनों तक पहुचती दै। दूसरे विभाग थाले जीव इनसे अधिक चिक्रास बाले हैं ओर थे बाह्य अथात्‌ मोतिक साधनों की सम्पत्ति में दी सुय मानकर बेचल अध्यात्मिक गुणों की सम्पत्ति में दी सुस मानते हैं। दोनों वर्गवालों के माने हुवे खुय में यही तारतस्यता है फि एक का सुर पराघधीन है और दूसरे का स्वाधीन है। पराधीन सुपर को काम और स्थाधीन सुर को मोक्ष कइते हैं फाम ओर मोक्ष ये दो पुरपार्थ

£ ६) नत्वाथ सत्र

क्र

इनके सिवाय मुय्यत साध्यरूप कोड बस्तु नहीं हू धरम श्र को भी पुरुषा्थ माना दे तथापि मुस्यतया साध्यरूप है किन्‍ते वे अलक्रम से काम ओर मोज् के घधान साधन है | घपस्तुत शास्त्र का सुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष 6 इस लिये मोत्चष साथनभूत धम के तीन विभाग किये हैं जिसका निर्देश ( कथन ) प्रथम खत्र से करते हे

अध्याय पाहिला सम्यपर ज्ञान चारंत्राएं प्रमाक्त सागे।।॥ शा

अर्थ-सम्यगदशन, सम्यगपान ओर सम्यगचारित्र मोक्त थे. हे ॥२॥ विवेचन-भस्तुत सत्र में मोक्त के साधनों का नाम मात्र नेदेश है विस्तार पृूचक यथाथ स्वरुप आगे कहेंगे यहां मात्र संक्तेप स्वरूप हैं मोक्ष का स्वरूप-वन्ध कारणों के अभाव से आत्म विकास की पूर्णता होती हे वही मोक्ष है अ्रथोत्‌ ज्ञान ओर वीतराग भाव की पराकाष्ट ही मोक्ष है| साधनों का स्व॒रूप-जिस ग्रुण अथाोत्‌ शक्ति के विकास से तत्व ( बस्तुधम ) की घाधि हो ओर जिससे हेय- छोडने योग्य « उपादेय-स्वीकार करने योग्य तत्व की यथाथ अभिरूची हो उसे सम्यण्‌ दर्शन कहते हैं नय और प्रमाण से होने चाले जीवादि तत्वों का यथा्थ ज्ञान वही सम्यण ज्ञान है। बस्तु के शानानश को नय कहते हैं ओर

श० सु० (३०)

वस्तु के सपूर्र शान की ग्रमाय कहते है इसका सं्तिस्तार वर्णन आगे सत में किया जायगा

सम्यगशान पृवक्र कपायिक भागों की अयोत्‌ शगद्वेप की निउृत्ति से स्परूप रमणता छोतो है पी सम्यगधारिन है।

साधनोकी सहचारिता--एसैफत तीनों साधन पूणेतया प्राप्त होने से सम्पूण मोक्ष दोतो हैं अन्यथा एक भी साधन अपूर्णरूप दोने से परिपृर्ण मोत्त नद्दी दोती जेसे--सम्ययतशेन आर सम्यगशान परिपूर्णरूए में धाप्त दाते हुपे भी सम्यगचारिम की अपूणता के फारण त्तेरदर्य शुणम्गनक में पूर्णमोक्त अथात अशरीरसिदि ( विदेद् मोत्त ) नहीं दो सफती श्रो८ चोदर्व गुण स्थान में गैजेसी अप्रस्था रूप परिपूण चारित्र प्राप्त होते ही तीनों साथनों फी पृण प्रथलता दोने से पूछ मोक्ष घा सामथ प्राप्त द्वोतादे।

सहचारिता--पर्वोकत तोनो साधनों में से सम्यगदशन ओर सम्यगरूपान अधश्य सदयारी दोते हैं जैसे-सर्य का ताप ओर प्रफाश एक दूसरे को छोडकर नहीं रद्ता चैसे ही सम्यग दशन और सम्यग्गान एक दूसरे के पिना नहीं रहते पर-तु सम्यगवारित्र पे साथ इनकी सदचारिता पा नियम नहीं हे यपरण बिना सम्ययूचारित्र के भी क्रिसी समय सम्यगदशन और सम्ययाान देयने में अता दे परन्तु सम्यगयारित्र फी अबस्या में सम्यग दशन और सम्यग झान अवश्य ( नियम ) होते है

भ्श्न--भंदि आत्मा थे गुर्णो का विकास ही मोक्ष है

अीर सम्यग देशनादि खाघन भी आत्मा के सास रास शुणो या दिदास दे तो मोक्त और इनक साधनों में क्या थिशेषता ?

उत्तर--ऊँछेभी नहीं।

प्रश्न--यदि विशेषता नहीं है तो मोक्ष साइय ऋरर सम्यवत्व दरशनादि रत्नत्य इस के साथन यह साध्य, साधन भर केसे सममभना चाहिये ? कारण साध्य, साथन संवनन्‍्ध भिन्न स्वभाची है हि

उत्तर--मोक्ष ओर रन्नत्रय का साध्य, साधन भाव साध- अवस्था की अपेक्षा कहा गया है. किन्तु सिद्धावस्थ की अपेक्ता से नहीं कद्ा | क्‍यों कि साधक का साध्य जो मोज्ञ है. चद्द परि- पूर्ण रत्नत्नय रूप होते हुवे भी रत्तत्य की अनुक्रमिझ चिक्तास से ही इस की प्राप्ति होती है। यह शास्त्र साधक के लिये है. परन्तु सिद्ध के लिये नहीं इसी कारण यहां साधक के लिये ही उस के

किक आम

डपयोगी साध्य, साथन भेद वताये गये है

प्रश्न-ससार में धन, स्री आदि के साधनों से रुख की प्राप्ति प्रत्यक्ष दिखती हैं उसे छोड परीक्ष मोक्ष खुख का उपदेश किस लिये करते दो ?

उत्तर-मोक्ष का उपदेश इस लिये दिया जाता है कि वह सच्चा सुख है। संसारिक सुख है बह सच्चा सुख नहीं किन्तु खुखा भास है

ग्रश्न-मोक्ष में सच्चा खुख ओर संसार में खुखाभास केसे है

उत्तर-सेसारिक खुख इच्छाओं कि ठप्ति से होता है ओर इच्छाओं का स्वभाव ही ऐसा है कि एक पूरी हुईं वा हुई इतने में अनेक इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती है। उन सब का परिपूरी होना

हुये वृच्थ (9५)

धममय से लिये समा में इष्छाओों को गसि छाले पुर्थों से आएुप्ति गाते दुप्श वह धष्ठा मारी ही सश्षेगा। इसी छिये सलारिकि झुष को शुपामास धादा ८। माशाप्था ऐसी हि रष्पाओों पाए इशाय होवागा है अऋरश स्याधापिक्र सपोष घगर होता £ परी शुप रचा शुर टी हो मम्पग दशन का लक्षण सष्याघ भंदान सम्प्ग दशनम्‌॥ |

इरध- गाब ) जोशारि धशवुध्म भो (अप) पाये रूप से विधप कष्म की घदा परी राग्पग दर्कम 98 २7

दिलन 27 शार्ह्स से दहिताध शाप पहाणों कप शट्ाप कशदो शो दे ऋध री भा फशाशे हरवाध पया पाएस कदर गा को शाजधरुशार बादत घरहु गम थो पाप रुप गर शिधघ दश्जशा शग्यध >> ते ९) काजाप मएट हि जो पाप जैधा दे उथी रुप मे पशहइा विधप छिया शत इस पापए हज इडाइ७ टैं। शा पृत हदा१ ्ं पर का दिवद आग रिया फाहाच कक, बेदकच मे विस्दारा ढरता है। राइ+च | “ज९ व+ $

जम ६:0३ | हे सम्यंग दशन पी उपति दहिपएादापगणादा के है ॥।

अपुलचाद शशदधपशा७.. इेडिचतत * सॉरिकु्य >टच वा अत आफ का एकाम ) हा लिएिल डक इस 2+% 7११ +

दिए वध है सइुच्ओं दो दलनछ &त फन्‍्डके अत हज ते इश्क, ४0 ला>आफ्ो बग डरती है $ २4३ एत्थफड

(६) तस्वार खुब |

(२) अध्यान्मिक जो धन, धान्य, प्रतिष्ठादि ससारिक वासनाओं के लिये पदार्थ घान होता है बह सम्बगद्शन नहीं है उसका परिणाम संसार वृद्धि है। किन्तु मोक्ष प्राप्ति नहीं होती और अध्यात्म विक्रास के लिये जो तत्व रूचि दै वह केचल आतन्म तुष्ति के लिये होती है वही सम्यन दशन हैे।

निश्रय और व्यवहार च्ष्टी से पृथकता--अध्यात्म वि- कास से उत्पन्न हुवा अत्म परिमाण हीं निश्चय सम्यक्तत्व है. चह ज्लेव भात्र को तात्विक रुप से जानने की तथा हेय को छोड़ने की ओर उपादेय को ग्रहण करने की रुचि रुप है जिस रूचि के वलसे उत्पन्न होती हुई धर्मतत्व निष्ठा (जागृति) वह व्यवह्यर सम्पक्‍त्व है। सम्यकत्व की प्राष्ति के पांच लक्षण है। ( १) प्रशम-तत्व विषय मिथ्या पक्तपात से उत्पन्न हुवे कदञ्मह आदि दोपों का उप- शम, (२ ) संचेग-देह भोगादि से संसार वन्धन का भय, (३) न्विंद-संसारिक विपयों में अनाशक््त होना, (४) अजह्लुकम्पा- डु-खी जनों के डु.ख को दूर करने की इच्छा, (४) आस्ितिक्य- युक्ति धमाण से सिद्ध शास्प्रोक्त आत्मादि परोक्ष पदार्थों को स्वी- कार करना | यही सम्यकक्‍्त्व दर्शन है

हेतु भदू--सम्यक दशेन के योग्य आध्यात्मिक उन्नति होते ही सम्यग दर्शन प्रणट होता है. इस आविभौच के लिये किसी को वाह्य निमित की अपेक्षा रहती है ओर किसी को नहीं भी रहती जैसे-कोई विद्यार्थी शिल्पादि कलाओं को अध्यापक की मदद से सीखता है ओर कोई स्वयम्‌ घाप्त कर लेता है। आन्तरिक कारणों की सामान्‍्यता होते इचे भी चाह्म कारणों की अपेक्ता अनापेक्षा लेकर पस्तुत शाख्तर में सम्यगद्शन को निसरे ओर अधिगम रूप दो प्रकार से प्रतिपन्नस डि3ल 9 , / ४... 5.

है 6

आ० स॒० ४। (७)

एनिसग, परिणाम, स्वभाय और अपरोपदेश ये पकार्थ चाची शदद्‌ और ( अधिगम, आगम, निमित्त श्रवण, शिक्षा परे एकाथे बाची शब्द हैं

सम्यगदशन की प्राप्ति के लिये सत्सग या शास्त्र पठन पाठन, गुरु उपदेश, धार्मिक वम्तुयों का अवलोफन आदि अनेफ बाह्य निमित्त हे

अनादि कालिक ससार भवाहद में नानाप्रफार के दु स्वॉ का अज्ञभय फरता हुवा भव्यात्म किसी समय विशुद, परिणामी द्ोजाता है चद् विशुद्धता आत्मा को अपूर्य दे जिसे पद्िलि फभी प्राप्त नहीं फी थी इस शुद्ध परिणाम घारा को अपुरव कारण कहते हैः इस से तत्व अज्जुया वक राग द्वप की तिशता मिट जातीटे और सत्यता के लिये जाग्॒त द्वोता है. इसी अध्यात्मिक जाशति को सम्यकत्य कहते है ३॥

त्ें| के नाम

जीवाजीवासवधन्ध सपरनिजरामोक्षास्तत्वम्‌

अर्धथ-जीव, अजीब, आ्रव, बन्य, सबए, निजण और मोक्त ये तत्व दे |

पिंेचन-कई अन्‍्थों में छुएय, पाप को पृथक सानफर नो तत्व कहे दें परन्तु यहा इनफो श्राश्षव, वनन्‍्ध के अमस्तरभूत मानफर सात ही मेद किये है पुन्य, पाप हाय भाव रूप नो दो प्रकार के हैं। शुभ फम पुद्गल द्ब्य पुन्य है और अशुभ फर्म पुदूगल द्वष्य पाप है बे घन्ध तत्व फे अन्तर्भूत है क्योंकि आत्म सम्बन्धी कर्म घुदूगल या आत्मा और कर्म पुदूगलों का सम्पन्ध विशेष दी द्वव्य

बन्धतत्व है।

(८) तत्वाय खूब ।_

द्य पुस्य के कारण भूत जो अध्यचलाय है उनको भाव पुन्य कहते हैं ओर दृच्य पाप के कारण भूत अध्यवसाव को भाव पाप वे बन्धक्रे अन्त्भृत दें क्योंकि धनन्‍्ध के कारण भ््त कपायिक परिणाम को ही भाव वन्ध कहते हैं ओर भाववन्ध हे वही भावाश्रच हैं इसलिये पुन्य, पाप को आश्रव भी कहते है

अश्ष-आश्रव से यावत मोक्ष पर्यन्‍त पांच तत्व जीव अजीव की तरह स्थतंत्र नहीं है ओर वे अनादि अनन्त हे केवल ज्ञीव, अजीय की यथा संभव एक अवस्था रुप ह्दे तथ उन की ज्ञीव अजीच के साथ पृथक तत्व रुप से गणना क्यो की

उत्तर-यहां तत्व शब्द का अथ अनादि या स्वतन्त्र भाव से नहीं है किन्तु मोक्ष प्राप्ति के उपयोगी जेय रूप अथे है। घस्तुत शास्त्र का ध्येय मुख्य मोक्ष हे इसलिये मोक्ष ज्िक्षायुवों को तत्‌ विपयि वस्तु का ज्ञान करना अति आवश्यकीय है। ओर उसी का यहां तत्व रूप से प्रतिपादन है | मुख्यतापने साधन जो मोक्ष हे उस के साधनें को विना जाने साधक की घवृत्ति नहीं हो सकती। ओर वे मुसुक्षु मोक्ष विरोधी तत्वों को विना जाने योग्य प्रवृत्ति को प्राप्त नहीं हो सकते | सब से पहिले इस वात का ज्ञान होना चाहिये कि पूर्वोक्त तत्वों में कितने ओर कौन कौन से तत्व आत्म भावी है ओर उसी का यहां कथन है। जीव तत्व के कहने से मोक्ष के अधिकारी का यहां निर्देश होता है, अजीव तत्व से यह सूचित होता है कि एक्न ऐसा भी तत्व है जो मोक्ष के उपदेश का अधिकारी नहीं है, वन्धतत्व मोक्ष का विरोधी भाव है, और आश्रव तत्व उस विरोधी भाव का कारण है, संचसतत्व मोक्ष का कारण है ओर निर्जेरा मोक्षे पथ प्रदशक है | इन सब का लक्तणा दि भेद घिस्तार प्रवेक आगे कहेंगे

आर सु० ६। (४६)

फू निक्षेपों का नाम निर्देश नामस्थापनाद्रव्यभाउतस्तन्न्यास, ४॥।

अर्थ-नाम, स्थापना, हव्य पलोर भाय इन अज॒योगों से जीवादि तत्यों का न्यास अथात निक्तेप होता है

पिंपिचत-सर्य व्यवद्वार और शान भाव के लिये मुण्य साधन भाषा है और भाषा शन्दों से पनती हें और वे शब्द प्यो जन या प्रसग के अब्ठुसार अनेजारओं द्ोता हैं।ययपि इन के जादा विभाग कर सके तौसी चार विभाग अवश्य करने घाद्दिये जिस फो नि्षप कदते हैं. इन के अयवोध से तात्पय समभने में सरलता होती है. इस लिये धस्तुत सूत्र में चार निन्िप न्यास का निर्देश हैं. इस से यद्द ज्ञान हो जायगा की जो श-द्‌ सम्यग दशन ओर जीयादि तत्य में व्यवद्तत फिये जाते है, चे मोक्त फी साथफ्ता को फैसे भाप्त हो सकती दै उस या स्वरुप चार निक्षपा से यथा क्रम समभाते है।

(१ ) नामनिक्षेप-जिस शद्‌ की ब्युट्पत्ति आदि से सार्थकत सिरे नहीं दीती फेप्ल लोक झरढ़ी से (सकेतिफ) है उस फो नाम निद्षप कद्दते है, ( जैसे किसी में सेवक्‍ायि का एऋ भी गुण नहो ओर उसफो सेवक कहे घद्द नाम सेवव हैं।

( » ) स्थापना नित्षप-किसी वस्तु के आकार को भूर्ती, चित्र अथवा दूसरी चस्तु में आरोप फरे उस को स्थापना निश्षेप फहते हैं.

( ) द्रच्प विनेए-जो अर्थ भाषनिज्षेप फी पूर्प या उत्तर अपस्थारूप दो उसक्तो द्रब्य निछ्ेप कहते थें। जसेल्‍्कोई

(१० ) £ तत्वाथ सूत्र

व्यक्ति चर्तमान में सेवा नहीं करता तथापि भूतकाल में सेवा की थी या भविष्य में करेगा वह द्रव्य सेवक है।

( ) भाव निल्षेप-जो शब्द व्यापत्ति, प्रति अर्थ सहित पूर्ण रूप से प्राप्त हो उसको भाव निक्षेप कहते हैं। जैसे-कोई आदमी सेवकाई का काम कर रहा है वह भाव सेवक है!

इसी तरह जीवादि तत्वों का भी चार निक्तेप समककर अर्थ विभाग करे परन्तु मोक्ष मार्ग के लिये उनको + भाव रूप समझे

तत्व जानने का उपाय

प्रमाणनयरधिगमः

अथू-पएर्व कथित जीवादि तत्वों का ज्ञान प्रमाण तथा नय के द्वारा होता है ६॥

विवेचन-नय और प्रमाण दोनों ज्ञान है परन्तु इनमें परस्पर विशेषता यह है कि नयज्ञान वस्तु के एक अश का अबवो- धक है और प्रमाण अनेक ओशों का अथात्‌ वस्तु से अनेक धर्म होते हैं उन में से किसी एक घम छारा निश्चय किया जाय उस को नय कहते है ओर नितत्वादि घ्मों से आत्मा तथा प्रदीपादि वस्त॒ु- वों का नित्य नित्यादि अनेक रूप निश्चय किया जाय उस को प्रमाण

कहते हैं, तात्पये यह है कि नय प्रमाण का पक अश है और प्रमाण नयों का समूह है ६॥

4 भाव निक्षेप के कारण बिना अथम के तीनो निक्तेप निष्फल हैं

9 हे » शी * का

निकुप हैं वे मूल बस्तु के पयाय हैं आर स्व धर्म हैं। विशेषावश्यक भाष्य मे हु बिक है... शक, कप

कहा है चित्तारों वत्धु पत्कवा” तथा अनुुयोग द्वार सूत्र में साविस्तार वर्णन हैं।

अ० ७। (९१)

तस्र जानने के लिये ओर भी अन्य उपाय

निर्देश स्वाम्मित्त साधनाधि करण स्थिति पिधनत' (७) सत्सज्या ज्षेत्रस्पशन कालान्तर भाताल्यप्‌ हुस्न शंडा आअथ-१ निर्देप, वस्तु ताम सरीतेन स्वामीत्य, 8 साधन, अधिऋरण, स्थिति, विधान, भेद सय्या सत, मसण्या, क्षेत्र, १० स्पशन, ११ काल, १२ अन्तर, १३ माच ओऔर १४ अट्पाथहु से जीयादि पदार्थ ओर सम्पगद्शयादि पिपयों का शान द्वोता है

पिंवचम-थोटा, घडा कोई भी जिशासु किसी नचीन घस्तु को देखता दे या नाम सुनता दे तव उसकी जिशासाउत्ति जग उठती है और उस के लिये अनेक प्रश्न उड्घ होते दे जसे-यहदद चस्तु झ्िखि भकार के आकार, रूप, रग बाली है या इस फे चनाने बाला फोन है, तथा उपाय, छुदठता, सुन्दरता ओर स्वामित्व छिपयी नाना पका के भण्न उत्पन्न होते है उत संव का समाधान करके जिशाएु अपनी शान यूद्धि करता टै, चैसे दी अन्तर दृशष्टियाले व्यक्ति मोक्ष मार्ग फे लिये तद्विपयी अध्यात्म त्तत्वों बाग या उसवे' सतधी अनेक प्रकारके प्रश्नों द्वारा शान फो प्रवदित करे। * भम्तुत दोनो खूपों का यद्दी आशय है, और सूमोफ्त चौदद प्रश्नों द्वारा सम्यग दशन फा सत्तेप से घरणन करते हैं

(१ ) निर्देश ( स्वरूप )-तत्व फी ओर रुचि यही सम्यत्य का स्वरूप है।

(२) स्वामीख ( अधिकारीत्य )-तस्यग दशन फा

(१२ ) तत्वार्थ सत्र

अधिकारी जीव हैं. किन्तु अजीव नहीं, क्यों कि चह जीव का दी गुण, पयाय हैं

(३ ) साधन ( कारण )-सम्बगदर्शन के लिये सम्य- कत्व मोहनीय कम का उपशम, ज्षयोपराम या ज्ञायक ये तीन दी मुख्य कारण हैं, वाह्य कारण शास्त्र श्रवण, जातिस्मण, घमतिमा- द्शन, सत्संग इत्यादि अनेक प्रकार के हैं

(४ ) अधिकरण ( आधार )-कम्यसद्शन का आधार जीव हैं. क्‍यों कि वह उस का परिणाम हे।ने से उसी रहता है, उस से श्थक नहीं हैं, तथापि आधाराधेय भाव से सम्बगद- शन गण हैं इस लिये दोनों की मिन्नता बताई हैं

( ) स्थिति ( कालमयाोदा )-खस्यगदर्शन की जबन्य स्थिति अन्तर सुद्त ओर उत्कृष्ट स्थिति सादिश्ननन्त हैं, तीनो सम्यकत्व के उत्पत्ति का समय हैं वही सादि हैं परन्तु ओपशमिक ओर क्योपशमिक सम्यकत्व अवस्थित नहीं रहते किन्तु विनास भाव को प्राप्त होता हैं, इस लिये वे सादि खान्त हैं. ओर क्ञायिक सम्यकक्‍त्व उत्पन्न होने के पश्चात नए्ट नहीं होता इसलिये सादि- अनन्त हैं |

( ) विधान ( भेद )-खम्यक्त्व तीन भ्रकार का है (१) ओऔपशमिक, ( ) क्योपशमिक, (३ ) ज्ञायिक्र उक्त तीनों सम्यगदशन द्शनमोहनीय कम के ज्ञायिकादि तीनों भावों से होता हैं।।

(७ ) सत्‌ ( सत्ता )-सस्यकक्‍त्व ग्रुण सत्ता रूप सब जीवों में स्थित है। तथापि इसका आविरभाब केवल भव्य जीवों में होता है। उसमें भी गति आदि मारगेणा से यथा खेभव प्रूपणा

आ० सुण ८) ( १३ )

करनी चाहिये जैसे-सम्यफत्व में जोब के २८३ भेद हैं।

(८ ) सख्या-सम्पकत्व की सय्या का आधार इस को प्राप्त करने वालों की सरया पर है। भूत भविष्य काल फी ध्यपेक्षा से अनन्त जीव भाष्त इुबे और होदेंगे। इस हेतु से सम्यगदशन अन-त है। और बतमान की अपेत्ता सम्यगदशन अखससण्याते हैँ ओर सम्यगदष्टि अनन्त है। इसका फारण यद दे कि सम्यगूदशन

किसी समय नाश और किसी समय स्फुरायमान दोता हैं। इस लिये असस्याते फद्दा और केयली सम्यगृह्टिदे इस लिये अनन्त हैं।

(६ ) चैत्र ( लोकाकाश )-लोक के श्रलस्यात भाग में सम्यगद्शन हैं'। सम्यगदशन वाला पक जीव या अन-त जीयोँ फा अबगाद स्थान लोक फा असख्यातवा भाग हैं। इसलिये सम्यग दशन का क्षेत्र लोफ फा अस प्यातवा भाग कटद्दा। यद्ट अवश्य पिशे पता होगी कि एक जीव से दो आदि अ्रनन्‍्त जीयपों का अवगाद क्षेत्र विशेष रूप दोगा। यही अखप्यात भाग के परिमाण में तर तम्यता रहेगी।

( १० ) स्पशन-नियासस्थान ज्षेत्राइत प्रदेशों की स्पशना का इसमें समायेस द्ोता हैं। इसलिये क्षेत्रमाद खे स्पशना अवशाद विशेष है परन्तु परिमाण से लोक का असखण्यातवा भाग ही कहा जायगा |

( ११ ) काल ( समय )-एक जीय पी अपेक्षा सम्यफ्व की स्थिति ज़धय अन्तर मसुईत, उत्छछ छासठ सामरोपम या खादि अनात दें और नाना जीवों फी अपेत्ता अनादि अनन्त है! क्योंकि भूत, भविष्य, काख में पेसा कोई समय नहीं जिस में सम्पफ्त्वी रद्दा दो और सरदेगा। ताएये यद है कि सम्यकद्शन

( १४ ) तत्वाथ सत्र

का आविभाव का क्रम श्रनादि काल से प्रयाद्द रूप से चल रहा है ओर आगे अनन्त काल तक चलेगा

(१२ ) अन्तर ( विरहकाल )-एक जीव की अपा सम्यक्रशन का अन्तर जध्रन्य अन्तर 5मुहते आर उत्हष्ट अपादोे श्पुट्ल परावत परिमाण है। क्योंकि सम्यकक्‍त्वय से मिटा हुश्मा अन्तर मुहतेके पश्चात्‌ पुनः सम्यकत्व प्रामण कए सकताहे। कदायचित ऐेसा हो तो अपादं पुद्लल परावते के पश्चात्‌ अवश्य प्राप्त होता ही है। ओर अनेक जीवों की अपेक्षा विरद्द काल नहीं दे | किसी किसी को प्राप्त रहता ही है

( १३ ) भाव ( अवस्था विशेष )-ओपशमिकादि पांच भाषों में से तीन भावों में सम्यकत्व होता दे। अधथोत सम्यकत्व ओपशमिक, क्योपशमिक ओर ज्ञायिक अवस्था रूप दें यह अचस्था सम्यकत्व के आवरण भृत दशेन मोहनीय कर्म के उपराम ज्ञायिक और क्षयोपशम से उत्पन्न होती है। इन भाषों से सम्यकत्व की विशुद्धता का त्ारतम्य भाव घगटठ होता है। ओपशमिक सम्यक्त्व से क्ञयोपशम सम्यकक्‍त्व विशुद्ध हौता है। ओर तज्ञयोपशम

अन्तर मुहूर्त जघन्य ना समय से उत्कृष्ट ४८ मिनट का होता हे बीच का मध्यम है।

रे चादृह राज अथोत्‌ समग्न ल्ञोक में रहे हुए समस्त पुद्ल परमाणु को एक जीव अआदारिकादि सातों वरगणा हारा अहण त्याग करे उसमे जितना काल व्यत्तीत हो उसका पुद्ठल कहते ६। उससे किचित न्यूत को अपार पुद्टल परावर्त कहते ह। इसका सूच्म, चादर, द्रव्य, क्षेत्र काल, सावादि सविस्तार कम्मपयडी, कर्म अन्थादि अन्धो में है

यहाँ कस्योपशम को उपशम सर विशद्ध कहा हद वह परिशाम की अपेच्या नहीं है किन्तु स्थिति की अपक्षा समझना चाहिये। परिणाम की अपेक्षा

आ० है सू० ७। ( १५ )

सम्ययत्व से ज्ञायिक सम्यफ्त्व विशुद्ध होता है इसी तर उत्त सोत्तर विशुद्धता रही हुई हे ओऔदयिक और पारिणामिक भाव में सम्यकत्य नहीं है। अर्थात्‌ सम्यफ्त्व मोहनीय की उदयावस्था में क्ञायिक सम्पक्त्व पा आवि्ाध नहीं है। इसलिये औओदयिक भाव में सम्यफ्त्य का अभाष दै। और जीवत्व फे समान अम्यफ्त्य अनानि काल से श्रपर्भतत श्यस्था रुप नहीं है किन्तु मिथ्यात्व से आउच्डादित रहता दे इसलिये पारिणामिक भाष में भी सम्यफ्त्व का अभाव ही दे

( १४ ) अल्पावहूत्य ( न्यूनाधिरुता )-उपरोक्त तीनों सम्यक्‍त्य में ओपशम सम्यफ्त्व वाले जीव सब से न्यून हैं। स्थिति ओर आगमन फो अटपता के कारण हमेशा थोड़े ही ज्ञीय मिलते हैँ क्योंकि उपशम सम्यफ्त्व एक जीव को सम्पूर्ण भव भ्रमण में केवल पाच द्वी चाए भाष्त द्वोता दे, तथा उपशम सम्यक्‍्त्व से धयोपशम सम्यफ्टय वर्तों जीय श्रसस्याता गुणा अधिक हे | इस में मुख्य फारण स्थिति ओर आगमन की दो वाहुट्यता है। यह सम्पफ्त्व एक जीय को अ्सख्याती यार प्राप्त छोता दै। और झससे स्शयिर सम्यक्‍्त्व पाले जीप अनन्त गुणा दे सम्पफत्य फो प्राप्त हुबे ससारी जीय तो असय्याते दी दे। परन्तु सिद्ध अवस्था फी अपेक्षा श्रतन्‍्त जीय है क्योंकि सिद्धों को भी ज्ञायिक सम्प कत्व दे। इस तरदद सव भाषों का नाम, स्थापनादि से न्यास करके अमाणादि छागा उनका बोध सम्पादन फ्रना चादिये ७॥ ८॥

सो ओपरामिझ भाव ही पिशुद्धू है। फर्योकि क्रयोपशम सम्पकत्व में मिध्यार्थ का प्रदशोदय हे भर भ्रोपशमिक सम्यकद में मिध्यास्व माइनाय फा उदय नहीं होता

( १६ ) तत्वा् रब |

सम्यक ज्ञान के भेद

की का लि आप मतिश्रतावधिमनः पयाय केचलानि ज्ञानम्‌

अथे-शान के पांच सेद है। मति, श्रुति, अवधि. मनेः पयोय ओर केवल ज्ञान एवं पंचः |

विवेचन-जिस प्रकार सम्यकक्‍द्रशन का लक्षण खत में वतायाहैे घेसा सम्यक्नान का लक्षण नहीं बताया है इस का कारण यह है कि सम्यक्दशन का लक्षण समसने के पश्चात्‌ सम्यकन्नान के लक्षण का वोध सरल होजाता है जीव किसी समय सम्यग दर्शन रहित होता है परन्तु ज्ञान रहित नहीं होता सम्यण या अस- भ्यगू ( मिथ्यात्व ) ज्ञान अचश्य होता ही है। जिस शान के साथ सम्यकत्य की सहचारीता है वद सम्यक्नान कहलाता है ओर मिथ्यात्व सहचारी होने से असम्यक्‌ ज्ञान कहलाता हैं।

प्रक्ष-सम्यकत्व में ऐसा कीौनसा प्रभाव हैं इसके होने पर अश्रान्त बण, गन्ध, रस, स्पशोदि विषयों का अधिक से अधिक ज्ञान भी मिथ्यात्य कहलाता है ?। तथा अस्पष्ठ और भ्रम- णात्मक ऐसा थोड़ा ज्ञान भी सम्यकत्वय प्रगठ होते ही सम्यकज्ञान क्यों कहलाता है

उत्तर-यह अन्थ अध्यात्म विपयि हैं इसलिये यहां अध्या- त्म दृष्टि से ही सम्यकनान, असम्यकज्ञान का विवेचन किया गया है किन्तु प्रमोण शास्त्र के समान विषयात्मक नहीं है न्याय शास्त्र द्वोरा जो ज्ञान का विषय यथार्थ हो चही सम्यकृशान प्रमाण हैं! ओर जिसका विषय अयधाथ हो उसको असस्यकशान-प्रमाणा भास कहते हैं। प्रस्तुत शास्त्र को प्रमाण शास्त्र समत सम्यगू,

आ० सू5 १०-१२॥ (१७ )

वद असम्पक्‌ ज्ञान दै उसकी यददा गौणता दे यददी इस शास्त्र की मुख्य इश्टि दे सम्यक्त्वी जीव को सामग्री की न्‍्यूनाघिकता के कारण

सशय, भ्रम या अस्पष्ट शान होता है तथापि सत्यगवेपी ओर फदा भ्रद्द रहित स्वभाष होने से यथा ज्ञानचाले विशेष दर्शो मदृत्‌ पुरुषों से अपनी भूल खुधारने के लिये दस्ेशा उत्सुकता के साथ तत्पर रहता है। घह अपने ज्ञान का पोषण मुय्यता से विधयवासना में ही करता किन्तु अध्यात्म विकास के तरफ ही उसका लक्ष रहता है। सम्यक्त्व बिना के (मिथ्यात्यी) जीयों का स्वभाव इससे विप रीत होता है। कदाचित्‌ सामग्री की पूणृता से निश्चयात्मक और सुपष्ठ ज्ञान भी दोजाय परन्तु अपनी कदाभ्रद्द प्रकृति के कौरण अभि

से जिशेष दर्शी पुरुषों के विचार को भी तुरुछ समआता है और अपने शान को शध्यात्म उच्नतिं में लगाकर केवल ससार की मद्धत्व कक्षा में उसका उपयोग करता दै। पूर्वोक्त सम्यगूश्ञान है बही प्रमाण है इसलिये आगे के सूत्र से प्रमाण के मंद यताते दें <

तत्‌ प्रमाण १० शाधि परीक्षम॥ ११ प्रत्यक्षमन्यत्‌ १२॥

अथ-( तत्‌ ) वे पाचों शान दो प्रमाण रूप हैं। अ्रथात्‌ दो प्रमाणों म॑ं बिमफ़ हैं १०

प्रथम के दो शान परोक्ष प्रमाण हैं ११॥

शेष तीन शान अत्यक्ष प्रमाण हैं शव

विपेचन-प्रमाण के दो मेद हैं। (7) प्रस्यक्ष, (२) परत इनमें मत्यादि पाचों शानों का समावेश द्योता है

( श८ ) तम्वा् सत्र

प्रमाण लचणु-प्रमाण क। सामान्य लक्षण पहले कट आये हें कि जो पान वस्त के अनेक अशों को ग्रहण करे अधथात ज्ञाने बह प्रमाण है। *चिशेष लक्षण यह है कि ज्ञो शान इन्द्रय आर मन की सहायता के बिना केबल आत्मवल से प्राप्त हो उन को प्रत्यज्ष प्रमाण कहते हैं ओर मन नथा इन्द्रियों की योग्यता से उत्पन्न होने चाले णान को परोक्ष प्रभाण ऋहते हैं

पांचों ज्ञान में से प्रथम के दो अर्थात मतिशान, ध्वतिज्ञान सत्र क्रमालुसार परोक्ष प्रमाण होते हैं, क्योंकि थे इन्द्रिय ओर मन की अपेक्ता रखने दाले हैं

मतिन्नान इन्द्रिय, अनीन्द्रिय ( मन ) निमित्तक होता है बह नेत्रादि इन्द्रिय ओर मन छारा उत्पन्न होता है अथात्‌ आत्मा से भिन्न निमित्त की अपेत्ता रखता है. इसलिये परोक्त हे और मति पू्वेक परोपदेशअन्य होने से श्रुत भी परोक्त है

डे

अवधि, मन पर्याय ओर केचलज्नान ये तीनों घत्यत्ष

प्रमाण हैं अथाोत्‌ इन्हें अ्रनीन्द्रिय (इन्द्रिय रहित) ज्ञान कहते हैं ओर जिन के द्वारा सस्पूर्ण पदार्थ धरमाचिपयी भूत किये जांय अर्थात्‌ साक्षात्‌ अनुभव गोचर किये जांय उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं प्रश्न-इल शास्त्र में भत्यक्ष ओर परोक्ष दो ही प्रमाण हैं. ओर अन्य दशनीय अज्ुमान, उपमान, आगम, अथीपत्ती, अभाव

ओर सभच को भी प्रमाण रूप से मानते हैं इसलिये दो प्रमाण की व्याय्या असंगत घतीत होती है।

उत्तर-जिसको हम परोक्ष प्रमाण मानते हैं उस में वे अन्तर भूत हैं इन्द्रियां ओर पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने के ता पंदार के सान्कष से उत्पन्न होने के

>> 5 प्रमाखणनयराघगम: आअ० सूत्र के

आ० रे खू० रब ्‌श्ध

फारण पे सर प्रमाण मति, शत ज्ञान प्रिपग्नी हैं, अथरा शघुमाना दि सब अ्रप्रमाण है क्योंकि इस में मिथ्यादशन के वास्म्रद् है न्याय शास्त्र में इन्द्रिय जन्य शान फो प्रह्मनण और छेत तय शादादि जन्य शान को परोक्ष कद्दा है, इस लक्षण को यदा स्वीकार नहीं करते यहा तो मात्र आत्म सापेल शान को ही अत्यक्ष प्रमाण रूद माना है इन्द्रिय, मन फी अपेज्ा रसने चाले आन फो परोचा माना है मति, थ्रत शान इन्द्रिय, मन की अपेक्षा

सपता है इसलिये परोक्त हे और शेप तीन धान आत्मोश्नति (्त्मरल) से उत्पन दोते हैं इसलिये मत्यक्ष ममाण हऋु। इन्द्रिय

और मनोजन्य जान को भत्यक्ष कद्दा है यद्द लक्षण न्याय शास्त्र ओर लोकिक दृष्टि फा है॥ १०--१२॥

मतिज्ञान के समानाथक शब्द

मति स्पृति सज्ञायविन्ताउमिनिनोध हत्यनर्थान्तरम्‌ ॥१३॥ अय-मति स्मृति, सत्ता, चिता, अवनिवोध ये एका्थ घाची शाद है *३॥। का

५. प्रिचन-खशेक्त मति, स्मृति आदि शाद एकार्थबराची (खामान्य अथ चाले ) दे तथापि शकास्पद ड्रोने से प्रश्नोत्तर रूप से इनकी व्याख्या फद्दते दे

प्रश्ष-औौन से शान को मति शान कहने हो ? उत्तर-यर्तेमान विषयी शान को ससि छान कद्दते दे 3

(£० ] गर्माख सज

हे

जा के जिम्नी कम ४8 कदम जनक छिप क्र “मम

शुद्ध दा लि, गा | छूयो दि द्पाया -

इनरन मे #प की हुए घरत के सम श्टावा नम

प्डि। इसलिये पाः सनीत खिपयी के सेंधा हि # ध्नुमर

किया है धरे मान में उसे हैं. इसे गेरा हस्त हे छा सा हैं एल

खान का साम सा छथतवा प्रतिनिशाना: द्खलिये थे भट शर्त

और घलेमान उन दिपयी £ फैंर अविाधय उिपय शत इदुयारश। का नाम डिन्‍्ता है याद हनागत थिर्यी है

प्रश्षनद चर मे तो मति, न्मति, विश झादि पयाय

2]

हा हैं5 रु

घाती संतों ++॥ म्तवंयान ख्स्धाफक 567 8६2६ फ्ेगरधथ भर द्ःः उुनक्तर दिदय आदर धन बंद फोने एए, रभ्दी अति स्प्ाति

छादि घान फा छुप्य कारग मति छानावरणशीय क्रम का दायोपशम ही दे।इल झमिपाय से सामान्य रूप एकता प्रारा करभे मतति, स्मति आदि शब्द को पर्यायवायी झूद्ा

प्रक्ष-अभिनियाध शब्द | सम्बन्ध में आपने कुछ नहीं

जज

दा यह किस कान का बाचक हे + उत्तर-मेति स्सति, संधा, चिन्ता छझादि कान बिग्य अभिनिवोध शब्द का सामान्य रूप से व्यवहार किया जाता एै अथोत्‌ मतिणानावस्णीय कमे के पयापाए से उत्पन्न होने बाले जितने शान हैं. उन सब के लिये शभिनिवोध शब्द सामान्य दे छोर मति आपदि शब्द दे थे तुयोपशमजन्ध पृथरूर मान विपयी हैं। प्रश्न-इलसे झमभिनिवोध शब्द पर्योयवाची नहीं

सकता इसकी सथ मे सामान्यता डे और मति आदि शाह इसके घिशेषक हैं तो पर्योयवाची शब्द फैसे कद सकते दो

अआ० सू० १४-१५ | (२१)

| उत्तर-यद्दा सामान्य और विशेष की भेदविवत्ता विना फिये ही सर को पर्याय बाची कद्दा है १३॥

मातिज्ञान का स्वरूप

तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्‌ १४ _ अथ-(तत ) पूर्वोक्त मतिशान इन्द्रिय और अनीरद्रय निमित्त से उत्पन दोता है १७४॥ विवेचन-मति, स्मृति, सश्, थि ता और अ्रभिनियोध इन पाच पं्यौयकों से वाज्य मतिशान दो प्रकार का होता है, शद्धिय निमित्तक श्र अनीजिय निमिच्तक। चच्चु श्रादि इव््रिया बाह्य

साधन हैं ओर मन आन्तरिक साधन टै, इसी के फारण से इगद्विय अनीन्द्रिय सक्षक भेद माना गया है १४॥

मातिज्ञान के भेद

अय्ग्रहेहानाय घारणा' १५॥ झर्थ-मतिशान के चार भेद है, अ्रवभ्रद, ईंदा, अधाय ओर घारणा १५॥ विपचन-पूर्योक्त इन्द्रिय, अनीन्दिय निमित्तक भतिश्ान एक होने पर मी चार प्रकार का है। (१) अ्पप्रद (०) ड्द्दा। “१ ३) अबा (पा) (४ ) घारणा। उक्त अपकप्रद्दादि प्रत्येक फो

पाच इजिय और मन एव छू, इस तरदद छुश्ों साथ गिनने से चौयीस भेद मतिशान छे दोते दे यथा--

( २२ ) तत्वाय सत्र

स्पशन्द्रिय अवशग्नद ईंहा | अपाय | धारणा

निशद लि नल 3>मीवनी जनक» 3 है जीभ अल अब

ग्सैन्द्रिय

न्नननजल ओन हल जज 7777

सजी न्ज्ज्ज नली अजन नओओओलओ+न लि७०७घ ब्वलस्‍खओओओ ै“४+““+““““““ निज जमा 3. पनरि-ननमन-म-«-»मंना. हि अनानननानमजनममनननमननमीननभम

आ्राणे० ही हि के है

'उननन-मस-+-नम-म>->3न नमन अमनननन-मक->रम«-ंम-+ पं... फरननननननमन. 3 विन पीनकमन««मी "यान हि। जरिमानन-न मननाननननननमन--+नन- तन है हाा अन्‍ीनी नी सी डी क्‍ुा!

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शा नाना सन जनकन्‍«»«-+»+पन०-«न्‍>»>»«+ण>.. हि... ननरनननन-नमभ»-मक हि. परनिनननननननमननानमन»न-ीमननननननाानी,

मन 5

अवग्रहादि के लक्षण )

(१),अवग्रह-इन्ठियों छारा स्वविषयी पदार्थ का अप्रकट रुप से आलोचन अवधारण को अचग्रह कहते हैं। अवश्नह, अहण, आलोचन और धारण ये सब एकार्थवाी शब्द हैं-अथात्‌ विशेष कह्पना रहित मात्र सामान्य ज्ञ.न को अचप्रह कहते हें इस ज्ञान से यद मालूम नहीं होता कि यह स्प्श किस चीजूँ का है इसलिये अवश्नह अव्यक्त ज्ञान है।

(२ ) इंहा- अवग्नह से अहीत एक देश विपयी ज्ञान को विशेष रूप से जानने के लिये अजुगम अथोत्‌ निश्चय करने की अश्ा विशप को ईंहा कहते हैं। ईंहा. ऊहा. तक, परीक्षा, विचारणा+ ज्ञज्ञासा ये समाना्थक शब्द हैं। इस ज्ञान से विचार शक्ति उत्पन्न होती दे | जैले--यह डोरी का स्पशे है या सर्प का। अगर

आ० ? सु० ९६ ( २३ )

हे सर्य होता तो इतनी जोर की ठोकर सगने पर खुकार किये जिना नहीं रहता इस विचार को ईदा कद्दते

(३ ) अयाय-भ्रयग्रद्द, ईंडा द्वारा, गदीत विपय का अधिक आअयधान अथोत्‌ एकाग्रता से निश्चय करना उसको आवाय फहते ह। जेसे--वस्तु फे भुग दोष या योग्यायोग्य के विचार से निश्चय हो कि यह सर्प का स्पश नहीं फिन्‍्तु डोरी का स्पर्श है, उसको अपाय करते ह। अपाय, अपगम, अपनोद, अ्र अपगत ये सथ पएकार्थवावी शब्द ह॒

(४) घारणा-पदाथ के स्थरुपाजुस्धर उसका जो यथार्थ योघ तत्‌ चिपयी वचिरस्थिनि या अवधारण फो घारणा कहते दे अपधारणागृहीत छान कुल समय के पश्यात विसजन होता है-- पुन उसका लोप दोजाता है। परन्तु धद ऐसा हो कि योग्य मिमिच मिलने पर निश्चित विषय का स्मरण दोजाय ऐसी निश्चय फी सतत धारा तन्‌ जन्‍्य सस्कार और सस्झार जन्य स्मरण-बदी घारणा है कप प्श्न-उपरोक्त चारों भेदों का जो धरम दे वह निदेतु है ? या सहेतु दे ? |

उत्तर-भहेतु दे क्योंकि सूत्र फम के अजुसार उसकी उत्पत्ति है और उसीका यद सनक भी दे १४

अवग्रहादि के लक्षण चहुपहुतिधतिग्रानिश्रितासदिग्ध भवाणा सेतराणाम ॥१७॥ अव-पहु, यहुविध, छ्षिम, अति खत, झसदिस्थ, छप और इनसे इतर (प्रतिपक्षी सद्दित) १९ भेद अवमभद्दादि में दोते है ९६॥

( २७ ) - तत्वाथ सत्र!

विविचन-पांच इन्द्रिय और मन इन साथनों से उत्पन्न ? होनेवाले मतिन्नांन के अवग्नहादि वारह भेद होते है थे क्षयोपशम ओर विपय की विविधता से वारह बारह भेद होते हैं |

वहुआही .्िन्रदद ति इंदादि अवायादि।| धारणादि दर भद्‌ दे भद भसंद अल्पग्राही ड़ 99 छः ण्ठ चहुविध आही वर) कञ9 95 95 एकविध आही 99 95 हे 9९ ज्षिप्त ग्राही हे ह़ 95 अज्तिप > 9) न] रा कह आनाश्रत ग्रादा किला 8 हु 3 224 ण्र् क्र निश्चित आदी छः 99 99 संदिग्ध आही 95 99 99 99 संदिग्ध ग्राद्दी १5 $ ५) 45 भ्रव ग्राहदी 99 ११ है 5 अध्व झाही भरे हा बज है

है पक हम प्रोर कि (१--२) बहु का अर्थ है अनेक ओर अल्प का अर्थ है एक

॥। अआ० स० १७।॥ (२४ )

जैसे--दो या इससे भी अधिक पुस्तकों को जानता हुआ अवशच्न हादि चारों क्रम भावी मतिज्ञान अज्चक्रम से वहुआाही अवग्नद्द, बहु आही ईहा, वहआही अचाय, पहुप्राही चारणा और एक पुस्तक को जानता हुआ पूवाफ्त चारों मेद अटपग्राही कदलाते हैं

( ३-४ ) बहुविध ग्राही का अर्थ अनेक प्रकार से और पक विध आही का कथे एक प्रकार से, जेखे--रूप, रग, आकार, मोटाई आदि पियिधता वाले पुस्तकों को जानता हुआ उक्त चारों शान क्रम से बहुविध ग्राद्दी अवग्न हे इसी तरद दा, शवाय, धारणा फो भी वहुविध ग्राही कद्दते हैं, एवं एक प्रकार से पुस्तक फो जानने थाले का शान उपरोफ़त बहुविध ग्राही चार भेद फे समान एफ घिध आाही फहलावेंगे, यहु तथा अएप का अर्थ व्यक्तिगत्‌ सण्या बाची है ओर चहुविध, एक विध अर्थ उसकी विधिघता अवबोधक दै।

(५-६ ) ज्षिप्र शीघ्र अत्तिप्र < घीरे | पूषोक्त अवश्नद्दा दि चारों मेद शीघ्र आाही दोते हैं ओर विलम्य से ज्ञाने उस को अत्तिप्र ग्रादी फद्दते हैं। अनुभव सिद्ध हे कि शी यादि बाह्य सामग्री बरायर वरायर दोते हुए भी क्षयोपशम की तारतम्यत्ता के कारण पक मनुष्य को जछ्दी शान श्राप्त दोता है ओर दूसरे को विलम्ब से प्राप्त द्ोता दे। चही अबद्नद्दादि चारों शान के साथ ज्षिप्रग्नादी ओर अज्िप्रत्नाही भेद है

(७-८ ) अनिश्चित्‌ अर्थात्‌ लिंग हेतु विना निर्णीत चस्तु ओर निश्चित का अर्थ है लिंगादि से निणय फी हुई वस्तु जैसे-पूर्े में अजुभव किया हुआ शीतल, कोमल ओर सुकुमारादि स्पश रूप लिंगादि से बतमान जूही के फूल को जानने वाले को पूर्यक्त चारों भौन अजुक्म से निश्रित भ्राही अवग्रद्ादि रूप हैं लिंग के सिपाय फूलों को जानने घाले का ज्ञान अलुक्म से अनिशभ्चित आही झलिंग आाद्दी अवमग्नद्दादि है।

(२६ ) तत्वाथ सत्र

(६ १० ) असंदिस्ध का अर्थ है निश्चय और संदिग्ध का अप है अनिश्चय | जैसे-यद चन्दन का स्पर्श है किन्तु फ़ूल का नहीं इस तरह स्पशे को निश्चय रूप से जानने वाले का डपरोक़् चारों ज्ञान निश्चय ग्राही अवग्रहादि है। चन्दन ओर फ़ूल दोनों का स्पश शीतल होता दे इसलिये यह चन्दन का स्पर्श है या फुल का ऐसा अजुपलब्ध शान संदेहयुक्त होता है उसे अनिश्चयग्रादी अवग्रह्मदि शान कहते हैं

( ११-१२ ) ध्रुव का अथ है निश्चय और अध्यव का अर्थ है कदाचित्‌ | जैसे-इन्द्रिय, मनादि सामग्री समान दोते हुए भी पुक मलुष्य विषय को अवश्य जानता है ओर दूसरा कदाचित्‌ जानता है कदाचित्‌ नहीं जानता अवश्य जानने वाले के पूर्वोक्त चारों ज्ञान छ्वआही हैं ओर सामग्री होते हुए भी क्षयोपशम की मंद्ता ले किसी समय अहण करता है ओर किसी समय अहण नहीं करता ऐसा पूर्वोक्त चारों ज्ञान अध्ववग्नाही कहलाता है

प्रश्ष-ऊपर के बारदद भेदों में से कितने भेद विषय की विधिधता से और कितने ज्ञयोपशम की तारतस्यता से है!

उत्तर-वहु, अल्प, वहुविध, एकविध थे चार भेद्‌ विषय की विविधता से होते हैं। शेप अठारह भेद क्षयोपशम की तारत- स्यता से होते हैं

प्रक्ष-मतिज्ञान के सब कितने भेद हैं ?

उत्तर-दी सौ इठियासी २८८ भेद होते हैं। जैसे-पांच इ्न्द्रिय और मन इन को अवग्नह्दि चार भेदों के साथ गिनने से चौबीस भेद होते हैं। उन चोबीस को वहु, अल्पादि बारह मेंदों के साथ गिनने से दो सौ इठियासी २८८ भेद होते हैं।

शआ० सु० !७। (२७)

सामान्यरूप से अवग्रहादि का विपय। अर्थस्य १७ हे

अर्थ-अ्रपत्रद्द, ईंडा, अयाय, घारणा ये चारों भेद अथशभ्राही द्ोते हैं

विवेचन-जत्य और पयोव को पस्तु कदते हे इसका दूसरा माम अथे भी है!

प्रश्ष-हीद्रय और मनोजन्य अवग्रह्यदि शान क्‍या द्वव्य रूप बस्तु भ्राही दें या पर्याय रूप पस्तु झाददी हैं ?

उत्तर-उपरोक्त अवभ्रद्यदि शान मुख्यतया पर्यायगरादी हैं.।

सम्पूण दृव्यप्राही नहीं हे द्व्य फो पयाय द्वारा जानते दें. क्योंकि शी द्षय और मन फा मुण्य घिपय पर्यायप्रादी है पर्याय द्वाय का एक अश है। अविम्रद्दि चान द्वारा जब इन्द्रिय और मन अपने विपयभूत पर्याय को जानते हैं तय थे उन उन पयाय

रूप से द्रव्य फो भी अशत जानते है क्‍योंकि छव्य को छोड फे पर्याय रद्द नहीं सकता और उब्य पर्याय रत नहीं दोता। जैसे

नेत्र का विषय रूप स्थान, आकारादि है। वे पुक्रल ठव्य के एक पर्याय हे नेत्र आदर फल फो प्रदण फरवा है इसका भावाथ यही है कि उसके रूप, आकार विषयों को नता दे और थे फेरी से जुदे नहीं दें इसलिये स्थूल दृष्टि से यद्ध कद्ट सकते हैं कि सम्पूर्ण कैरी देपी परन्तु फेरी में उपसेक्त रूप, सस्थान के सिधाय स्यश, रस, गनन्‍्धादि अनेक पर्याय हैं उन सय का कान नेत्नों से नहीं दो सकता इसलिये पद्द असमर्थ हे इसी तरह स्पशद्विय, मायेदिदिय, रसेन्द्रिय वस्तु के पृथक? एयाय को जानती हैं जले

श्द) नत्वाथ सत्र

जलेबी के गरम स्पर्श को स्पश्न्द्रिय, मधुर रस को रलेन्द्रिय ओर खुगन्ध को घारेन्द्रिय ही जानती है | किसी भी एक इन्द्रिय से वस्तु के सम्पूर्ण पयायों का झान नहीं हो सकता। इस तरह भाषात्मक पुद्धलों फी ध्यनिरुप पर्याय को श्रोत्तेन्टिय अद्ण करती है ओर मन भी वस्तु के किसी पक्र अश का विचारक है, किन्तु सम्पूर्ण अशों की बिचारणा एक साथ नहीं होती। इस से यह सिद्ध होता है कि इन्द्रिय ओर मनोजन्य अवशग्नहादि चारों भद मुख्यता से पर्याय विपयत्राद्दी हैं ओर इसी पर्याय द्वारा दव्य को जानते हैं प्रश्ष-पूषेे कथित सूत्र से इस सत्र का क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-पूचे सूत्र में वस्तु की विशेषता अथात्‌ संख्या, जाति आदि दारा पृथककरण करके वहु अल्पादि विशेष रूप से बताया है और प्रस्तुत सूत्र में उप्ती का सामान्य रूप से वर्णन है अथात्‌ इस सूत्र में वस्तु के दव्य परयाय रूप से अवग्नहद्यदि ज्ञान का विपय सामान्य रूप से बताया है १७

अवग्रह अवान्तर भेद व्यजनस्याउबग्रह। १८ हि चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम १६ अथे-व्यंजन ( अव्यक्त शब्दादिका ) अवग्माही है १८॥ नेच और भन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है॥ १६ विवेचन-लंगड़े मनुप्य को चलने के लिये लकड़ी के सहारे फी आवश्यकता रहती है इसी तरह आत्मा की आच्छादित चेतना

अरुण हैं स्यृ० २४-२६! (५६ )

शक्ति ( पराधीनताके कारण शामोत्यक्ति ) के लिये सद्दारे फी अपेक्षा रदेती दें इसी कारण याहा खाधन इजिय और मन की आवश्यकता रहती दे। इन्डिया ओर मन इन सब का स्पभाच सदश नहीं है इसलिये इनके दारा होने वाली शान घारा का आा सिभाव परम भी एकूसा नहीं है किन्तु संक्षेप से उनके दो विभाग दोते हैं। ( ६) मन्दप्रम, ( २) पड़कम |

मदकम में ग्राष् चिएय के साथ अपने विषय को अहंण कस्ने चालो * उपकरणों देय का सयोग (व्यजन मे ) होते सी शान का आविभाव होता है, परस्तु बद चान आरम्भ में इतना झआर्प होता दे कि उससे सामान्य बोच दोना भी कठिन दोता दे परन्तु जैसे विपय और इंजियों का सयोग दोता जाता है बैसे? शांत पी मात्रा भी बृद्धि को प्राप्त दोती दे। इसी तरह उत्पन्न हुई आन-मात्रा से व्यजनावप्रद की पुष्टि के साथर बस्तु विपयी ( अधा घञ्नद ) सामास्यायवोध उत्पक्ष दोता है। इसफा अमिप्राय यदद दे कि अयावप्रदके पूर्षपती क्षात व्यापार ब्यजनावग्रद्द दे परन्तु ब्यज नायग्रद अश्ुकम से पु्ठिकर प्राप्त दोता डुआ अर्थायप्रद्द फी योग्यता को प्राप्त नहीं होता तने तक धद व्यजनावम ही कदलायगा फ्यों कि अच्यक्ष एान दोने से व्यजन साक्तेप है इस तरद्द व्यज़नावग्रद नामक दीघ शानव्यापार उत्तरोचर पु द्ोता दुआ भी इतना अरप दे कि उससे विषय फा सामान्यवोधघ भी नहीं दोता इसी कारण हे यह अव्यक्त अव्यक्ततम आऔर अव्यक्नतर धान फदलाता है और चद शानण्यापार पुष्ट दोता हुआ उसी अपस्था को धाप्त दो कि ग्रद् पया है ऐसा जो सामानाववोधक शानाश यही अथायग्रद्द फहनातादे प्रद ध्धवावश्रद फी उत्तर तप पा है बद् व्यजनावश्रद पी उत्तरोत्तर अचस्था का श्रीतम

इसका विस्ठार अध्याय सूत्र 39 मद्ा

(३० ) , __ ठत्वा4 सत्र

अश है बह विपय ओर इन्द्रिय साक्षेप हैं तथापि व्येजनावग्रह से पृथक करने का ओर अधाचग्रद्द नाम रखने का कारण यही दे कि ' झानांश से उत्पन्न होने चाले विषय का चोध जिजशाखुओं को सरलता से होजाय | अथावशग्रह के पश्चात्‌ इसके डारा सामान्य रूप से होने बाली विशेष जिश्ासा ( जानने की इच्छा ) ओर विपय को निर्णय तद्‌ विषयी घारा उससे उत्पन्न टुआ संस्कार ओर सेस्क्रार से उत्पन्न हुई स्मृति इस तरह पूवापर ज्ञान व्यापार होता है. वही ईहा, अवाय, धारणा रूप तीन विभागों में विभाजित है। मंदक्रम के लिये उपकरशन्द्रिय ओर विषय संयोग की सापेक्तता बताई दे चह मुख्यता से व्येजनावग्रह के अस्तिम अश ( अर्थावग्नद्द > तक है तत्पश्च)त्‌ ईहा. अपायादि ज्ञान व्यापार में उन सेयोगों की अ्रपेत्ना अनियाये रूप ( निश्चयात्मक ) नहीं है क्योंकि मान-ब्यापार की प्रचृति विशेषज्नादी होने से उस समय मानसिकाञ्नवधान (स्मरण) की प्रधानता रहती है अथात्‌ मानसिक यल की विशेषता है इस लिये सत्न का भी यही आशय हे कि व्येजन आवम्रही होता है अवग्रह का मतलब अव्यक्त शान तक व्येज़न की अपेक्षा रहती है |

पदुक्रम अर्थात्‌ शीघता के लिये उपकर्शन्द्रिय ओर विपय सेयोग की अपेक्षा नहीं रहती | आह विपय दूर दूरतर होते हुए भी योग्य सन्निधान मात्र से इन्द्रिय ततविषय को अहण कर लेती दे आर वह ज्ञान सामान्यता से अधथावम्रह रूप ही उत्पन्न होता है। उसके पीछे ईदहादि शान व्यापारों का ऋम पूर्वोक्त मन्दकम के समान प्रवृत्तमान होता है | तात्पये यह है कि इन्द्रियों के साथ आह्य विषय का संयोग हुए बिना ज्ञान धारा का आविभाव होना पदुक्रम है। इसका पहला अश अशथावग्नह और अन्तिम अश स्मृतिरूप धारणा है। मन्दक्म से गाहा विपय का इन्द्रियों के साथ संयोग होने के पश्चात्‌ श्ञानधारा का आविभाव होता हैं ज्लिसका

आ० सू० १८-१६ (३१)

प्रथम अश अ्रव्यक्षतम, अव्यक्ततर और व्यज़नावमद नामक ज्ञान है और दूसरा अश अर्थायम्रद् अन्तिम अश सरुठ्ृति रूप धारणा है।

इष्टान्त-मन्दक्म की शोनधारा का आरिभोव इन्द्रिय

और विपय सयोग फी सापेलता से द्वोता दै। इसफो स्पएता से समझाने के लिये सकोरे फा दृष्टान्त अति उपयोगी दे। जैसे-भट्टी में से तुरन्त का बादर निराला इआ अति रुक्त सफोरा एक बूँद पानी यो तुरन्त शोप लेता दे और उस एक देँद पानी का उसमें नाम निशान तक नहीं रद्ता। इस तरद्द क्तिने ही पूँदों को डालते रहो धरायर घद्द शोषता जायगा परन्तु अन्त में चद भीग कर उन पादी की बूवों को शोषण फरने के लिये असमर्थ द्वोगा तब परे जल फरण समूद्द रूप से एक्स दोकर दियाई देने लगेंगे परन्तु यद्ध बात भी ध्यान में रपनी चाहिये कि जिस समय में अर्थात्‌ जो सथ से पदली बूँद सफोरे में डाली गई थी चद्द भी उसमें मौजूद थी परन्तु चह इस प्रसार शोपण हुआ कि आऑँसों से दिसाई भी नहीं दी। जब अलुनम से पानी का प्रमाण शद्धि को घाप्त हुआ और सकोरे फी शोपणा शक्ति न्‍्यून हुईं तब उस में आद्रंता ( गीलापन ) दिसाई देने लगा तत्पश्चात्‌ नहीं शोषण हुआ पानी एकन्न होके दिखाई देने लगता है इसी तरद्द सोते हुए पुरुष को पुकारने से घे शाद्‌ डसके फान में जाते हैं और दो चार यार पुकारने से उन शब्दों डारा उसके कान भरजाते हैं। पूच दृष्टान्तवत परिपूरित दोने पर उन शब्दों को सामान्य रूप से जानने से ज्ञात -द्ोता है. यद्द फ्या , है ? यही सामान्य रूप से शब्द की स्फुटता प्राथमिक ज्ञान है इस छे आगे विशेष ज्ञान का अजुक्रम द्वोता दै। जैसे-सकोरे में फुछ समय सऊ पानी की चुद गिरने से वद्द भीग जाता दै और अन्तमे उस के अ“दर पानी दिखाई देने लगता दे उस्ती तरद्द कान में कुछ

( ३२ ) तत्वारथ सत _

समय तक शब्द के पुद्लों का संयोग एकच होने से सोते हुए पुरुष के कान भर जाते हैं. तथ सामान्य रूप से प्राथमिक ज्ञान होकर बह पुरुष जागृत होता है। तत्‌ पत्चात्‌ उन शब्दों की विशेषता का झान होता है। यह दृश्शान्त जागृत पुरुष के लिये भी # परन्तु चंद शान इतना शीघ्रमावी है कि साधारण पुरुषों के लिग्रे समझना ऋटिन होता है ओर सकोरे के साथ सोते हुए पुरुष का इष्टान्त सरलता से समझ-में आता है |

पहुक्रम शीक्रगामी धारा के लिये दपेण का दृष्टान्त सुगम है, जैसे दर्पण के सामने आई हुई चस्तु का प्रतिविव तुरन्त दिखाई देता है इस के लिये दर्पण के साथ प्रतिविधित चस्नु का स्पश रूप साक्षात्‌ खयोग की आवश्यक्का नहीं रहती किन्तु घनि्विवशाही दर्षण ओर प्रतिविबित वस्तु का संयोग स्थल संनिधान-सामिप्य अवश्य है ओर बद सामने होते ही प्रतिचिव पड़ता है. इसी तरह आँखों के सामने आई हुईं वस्तु सामान्य रूप से तुरन्त दिखाई देनी है इस के लिये वस्तु ओर नेच्त का सयोग साक्तेप नहीं है जैसे कान ओर शब्द के सेयोग की सापेक्षत। है। किन्तु दर्पण के समान औख आर वस्तु का केवल योग्य सल्निधान होना चाहिये इसी लिये पढठुक्रम की धारा में सब से पहली अर्थाचग्रह मान्य है मन्दक्रम घारा में व्यजनाचमह को स्थान मिलता है परन्तु पडुक्रम धारा मे ब्येजनावग्रह नहीं है।

प्रश्ष-चयेजनावग्रह कौन कौनसी इन्द्रियों से होता है ?

उत्तर-प्रस्तुत सूत्र में कहा हुआ है कि नेच ओर मन से व्येज़नावग्रह नहीं देता क्योंकि वे दोनों संयोग विनाही केवल योग्य सन्निधान से या अबधान ( स्मरण ) मात्र से अपने अपने माह्य विषय को जान लेते हैं यह स्वयं सिद्ध है कि दूर दूरतर

( ३४ ) तन्वार्थ सूत्र

ओर द्वादश भेद दोते हैं २० ॥| विविचन-क्षत, अवषप्तवचन, आगम, उपठेश, एतिहय

आम्नाय, प्रथवन ओर जिनवचन ये सब एकाथेवाची हैं। मतिश्नान कारण श्र श्रतशान कार्य है। मतिज्ञान से भ्रुन झ्ञान उत्पन्न होता है| इसलिये मतिश्ञान पूवक श्रतत्धान है श्रतज्ञान का जो विष्य प्राप्त करना है तत्‌ विषयी पहले मतिश्लान अवश्य होना चाहिये भ्रतज्ञान की पूणेता के लिये मतिज्ञान सहाय है। मतिज्ञान श्रतशान का बाह्य कारण है | वास्तविक फारण तो क्षयोपशम है. किसी विषय का मतिन्नान होते हुए भी ज्ञयोपशम के श्रभाव से तत्‌ विपयी श्रतज्ञान नहीं होता

प्रश्ष-मतिज्ञान के समान अ्रतज्ञान भी उत्पत्ति समय

इन्द्रिय ओर मनकी अपेक्ता रखता है तो दोनों में विशेषता कया है? श्रत शान को मसतिज्ञान पूवेक कथन करने की साथकता के लिये स्पष्ट विबेचन होना चाहिये | मतिज्ञान का कारण मतिज्ञाना- चरणी करमंका ज्ञयोपशम है और श्रतज्ञान का कारण श्रतज्ानावर- णीय कर्म का ज्ञयोपशम है | इससे दोनों का भेद यथाथ समझ में

नहीं आता कारण कज्षयोपशम्र का स्वरूप साधारण वुद्धि वालों के लिये अगसस्‍्य है

उत्तर-मतिज्ञान वर्तमान विषयी है. और अ्रतज्ञान ज्िकाल विषयी है | इसके सिवाय दूसरा भेद यह है कि मतिश्नञान शब्दोजेख नहीं होता ओर श्रतज्ञान शब्दोल्लेख है इस से फलित यह होता है कि दोनों ज्ञान इन्दिय ओर मनोजन्य होते हुए भी एक शब्दोल्लेख रहित है ओर दूसरा शब्दोल्लेख सहित है पुन दोनों में इन्द्रिय ओर मनकी अपेत्ता होते हुए भी मतिज्ञान से

अआ० सू० २०। ३५ )

अतज्ञान का विषय अधिक है और स्पपष्टता भी अधिक दे कारण अनजान में मनो-यापार की प्रधानता होने से विच्चाराश अधिक आर स्पष्ट होता है। ये दोनों परस्पए एक दूसरे के बिना नहीं रद्द सकते ओर यद्द भी कह सकते हैं कि मतिशान इवदिय और मनोजन्य दी व्यापार का प्राथमिक अपरिपक्व अश है और श्रत प्लान उत्तर का परिपक्क तथा स्पष्ट अश दे और जो भापासे प्ररूपित किया ज्ञाय घद ध्तज्ञान है ओर तत्‌ विषयी अपरिपक्त अवस्था दी मतिशान टै।

प्रक्ष-श्रुतज्ञान दो अनेक ओर बारद प्रकार से किस तरद्द द्वोता है ?

उत्तर-अग याहाय और अग प्रविष्ट रूप से धुत दो भकार का है| इसमें अगयाद्य सूत्र के उत्कालिक, कालिक आदि अ्रनेक भेद है और अग प्रविष्ट के आचारागादि वारद्द भेद दें

प्रश्ष-अगवाह्य और अगप्रविष् बी विशेषता किस अपेक्षा से टै 2

उत्तर-ये वक्का के भेद की अपेक्षा से है जिस ज्ञान को शीथकरों ने प्ररपा प्रकाशित किया) और गणचरों ने भ्रददण फरके सत्र रुप से रचना की उसको अग प्रविष्ट कद्दते हैं और उसी के अनुसाए शिप्यों को खुगमता से अययोथ फराने के लिये तथा से साधारण ये द्विताथे अन्य आचायी और पूर्वधरों ने अनेफ विषयों पर नाना शास्त्रों को रचना की है जिद अगयाह कदते हैं

प्रशक्ष-बारद्द अरगों के नाम कद्दो ओर अगयाध में मुण्य मुए्य प्राचीन पौन से प्र-थ हें ?

उत्तर-९ आचाराग, सूत्ररुताग, स्थानाग, समया थाग, व्यास्याप्रअम्ति, « शाता घेमकथा, उपाशक्दशाग

(

हि

) तत्वार्थ सत्र

अच्तकृतदश्शांग, अनुत्तरोपपातिकदर्शांग, १० प्रश्नव्याकरणा, ११ विपाक और दश्वाद-ये १२ अग कहलाते हैं सामायिक्र. चतुर्विशतिस्तव, घन्द्न प्रतिक्रमण, कायोन्सर्य ओर प्रत्याख्यान ये छु आवश्यक, दशवेकालिक, उत्तराषध्यन, दुशाश्रतस्कन्ध, करूप,

व्यववद्दार, निशीथ आदि शास्त्र अगवाह्य हैं।

प्रश्न-पूवाक्क शास्त्र ज्ञान को व्यवस्थित रूप से संप्रद्वित करने चाले हैं तो क्या वे इतने ही हैं |

उत्तर-नहीं भूत काल में अनेक होगये वर्तमान में कई हैं। भविष्य में होवंगे वे सब श्वुतन्षान हैं यहां जितने नाम बताये हें-वे जैन शासन के प्रधान आधार हें अन्य अनेक शास्त्र बने हैं ओर चतेमान में चनते हैं वे सब अगबाहय में समावेश होते हैं परन्तु वे खुबुद्धि ओर समभाव पृथक होने चाहिये

प्रश्न-चतेमान में विविध-विज्ञान विषयी शास्त्र, काव्य नाटक आदि लोकिक विपय के अनेक अन्धथ बनाये जाते हैं क्या वे भी श्रत हूँ!

उत्तर-हा !

प्रश्न-क्या वे श्रतज्ञान होने से मोक्ष के लिये उपयोगी हो सकते है ?

उत्तर-मोक्ष के लिये उपयोगी होना होना शाख का नियत स्वभाव नहीं है इसका आधार अधिकारी की योग्यता पर है। यदि अधिकारी योग्य और मुमुकु है तो-लोकिक शास्त्र को भी मोक्ष के लिये उपयोगी चना सकता है नहीं तो उच्चकोटि

के आध्यात्मिक शास्त्र भी उसके लिये नीची गति के हेतु हो जाते हैं।

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तथापि शाख का विपय और प्रणेता ( स्वयिता ) फी योग्यवा की दृष्टि से आध्यात्मिक शत लोकोत्तर के लिये विशेष डपकारी दे

प्रश्च-अ्रत है चंद शान थे तो भाषात्मक शाखफो और उसके साधन कागज, लेखनी आदि फो शत क्यों फद्दते हो ?

उत्तर-उपचार से कद्दते हैं। घास्तविक तो शान ही शत रूप है परन्तु उनको प्रकाशित करनेवाले भाषादि हैं वे साधन भूत हैं. और कागज कलम इत्यादि भाषा को लिपि यबद्ध, करके व्यवस्थित रूप से रखने के साधन हँ-। , इसलिये _भाष फागज आएंदि फो केबल उपचार मात्र से क्षत कहा गया है॥ २०॥

पे

अवधिज्ञान के भेद और स्वामी |. द्विविधोध्यधि! २६ ; तन भय्मत्ययों नारकदेबानाम ९९॥ यथोक्निमित्त पडविझल्प शेपाणाम्‌ २३ झआर्थ-अवर्धिणत दो प्रकार का है २९८ * केवल नास्वी और धवताओं को अवधिशान जन्म सिद्ध # भ्वप्रत्यय निर्मित से होता दे २९॥

ज्षेपाणाम्‌ अर्थात्‌ सियग, मलुष्यों में अयधिशान चयोप श्रम जाय प्रकार का द्वोता है <हे

विविचन-अवधिद्षान के दो भद हैं। (१) भवप्रत्यय, (९)

गुण प्रत्यय ज्ञो शान जन्म के साथ ठत्‌ समय उत्पन्न दो उसको सवप्रत्यय फद्दते दें इसये लिये यम नियमादि अनुष्ठान की आपका नहीं स्दती | जम सिद्ध अयधिशन भवप्रत्यय कददलाता

( इ८ ) तत्वार्थ सत्र

है और यम ( पंचमहाथत ) नियम-पदञ्चक्खानादि अज॒ष्टान के बल से धगट होने वाले को गुसप्रन्यय कहते हैं| यह ज्योपशम जन्य होता दे

ग्रशक्ष-भवप्रत्यय अवधिज्ञान क्या क्योपशम बिना हों सकता है ?

उत्तर-नहीं, इसके लिये भी क्षयोपशम की आवश्यक्ला रहती है

'प्रश्न-जब दोनों क्षयोपशम जन्य हैं तो वे किस तारतस्यता के कारण भिन्न होते हैं?

उत्तर- किसी भी प्रकार का श्रवधिश्नान क्यों हो परन्तु

योग्य क्षयोपशम के बिना नहीं हो सकता इसलिये अचधिजशाना- चरणीय कर्मका क्षयोपशम होना सब अवधि ज्ञान के लिये फ्क साधारण कारण है। तथापि एकको भवप्रत्यय और दूसरे को ग्ुणप्रत्यय कहने का कारण क्षयोपशम का आविभीव जिस निमित्त

से होता हो उसकी अपेक्षा से डै। जैंसे:--देवता नारकी के जीव अपनी गति में उत्पन्न

त्पन्न होते ही क्षयोंपशम की योग्यता के अनुसार उनको अवधिन्नान का आविभीव अवश्यमेय होताहै। इनको शत नियमादि अज्ष्ठान करने की आवश्यक्का नहीं रहती | केवल तज्षयो-

पशम की तारतम्यता से न्यूनाधिक रूप अवश्यमेव ( जन्मसिद्ध )

होता ही है और जीवत पर्यन्त रहता है। इनके सिचाय दुसरी

गति बाले जीवों को जन्मसिद्ध अवधिन्नान प्राप्त नहीं होता अथात

जन्म लेते ही अवधिज्ञान प्राप्त हो ऐसा नियम नहीं है। उनको अवधिज्ञान प्राप्त करने के लिये ज्वयोपशम का आविभीव हो ऐसे यम, जियमादि अनुष्ठ करने पड़ते है और योग्य गुण पाप्त दोने

आय० सु० २४) ( हे£ )

से ये पा सकते हैं परन्तु देवता नारकी के समान अन्य गति वाले जीव उसके अधिकारी नहीं हैं इसलिये मुख्य ध्ायोपशम रूप कारणु सामान्य द्ोते हुए भी कई जीवों को तपादि अचुष्ठान फी अपेक्षा रहती है। इसीलिये गुण प्रत्यप, भव भ्रत्यय ऐसे दो नाम रखे गये और देर, नारफी को भवप्रस्यय तथा मनुष्य तिरयेच को शुणण प्रयय अयधिक्षान होता है।

प्रश्न-ज्ञर चारों गतिघाले ज्ीच श्सकेः अधिकारी हैं तो एक को जन्मसिद्ध और दूसरे को तपादि अनुष्ठान करने पढते हैं- फ्ेसा क्यों ? हि

उत्तर यद्द विचित्रता अजुभव सिद्ध है | जैसे -पत्ती जाति में आकाश में उडने की शक्षि जन्म सिद्ध है परन्तु मनुष्य जाति में जन्म सिद्ध नहीं टै बे किसी विद्या या चतमान एगेप्लेन आदि से आकाश में गमन करते हैं. इन्हें सद्दायक पदार्थों की आवश्यकता रद्दती दे | दूसरा दष्टान्त यद्द है कि जैसे -फिसी एक भजुष्य को काव्यादि शक्षि स्वयम्‌ प्रकट दोती दे इत्यादि और कई जनों फो उसके लिये प्रयत्त फरना पडता है।

तियेच और मनुष्यों में भ्वधिशान प्रकार का दोता है। (१) अछगामी, (९) अनालुगामी, (३) वधमान, (४) द्ीय मान, ( « ) अपषस्थित, ( ६) अनवस्थित

(१) अनुगामिक-अपधिणान के प्राप्त स्थान से पुन अम्य स्थान गमन फ्रने पए भी उसका शान च्युत हो | अर्थात्‌ गमन करने पर भी उसके साथ रद्दे उसको अज॒ुगामी अयधिशान ऋद्दत हैं | जैसे सथे का भकाश।

(२ ) अनालुगामिक-ज़िसका पान प्राप्त स्थान से झय झूथान गमन करने पर च्युत द्ोजाय उसको अनालुगामिक

( ४० ) तत्वाथ सत्र

अवधि ज्ञान कहते है जैसेः-किसी पुरुष का नमितिकज्ञान ऐसा हे।ता है कि वह अपने स्थान पर बैठा हुआ प्रश्न का उत्तर दे सकता है पर अन्य स्थान में ठीक उत्तर नहीं दे सकता।

( ) वर्धभान-जो अवधिक्लान धाप्त होने के पश्चात्‌ परिणामों की विशुद्धता से प्रतिसमय वादढित होता रहे उसे चद्धमान अचधिज्ञान कहते हैं | जसे-अस्लि का कण घास को पाकर वृद्धि को प्राप्त होता है।

(४ ) हीयमान-जो अवधिशान असंख्याता द्वीप, समुद्र ओर ऊर्े, अधोलोक विपयी होके पुनः परिणामों की मंदता से हास को प्राप्त होता है उसे हीयमान अवधिजान कहते हैं जसे वर्षा के बन्द होने से नदी का प्रवाह |

( ) अवस्थित-जो ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात केवल ज्ञान पर्यनत च्युत हो अथवा आजन्म पर्यन्त नहीं गिरता है या जन्मान्तर में चिद्द के समान साथ रहे उसको अवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं

(६ ) अनवस्थित-जो ज्ञान जल तरंग के समान कभी बुद्धि स्यून भाव को प्राप्त होता हो और कभी नाश को प्राप्त हो उसे अनवस्थित अवधिन्नान कहते हैं।

तीथकरों को या अन्य पुरुषों को जन्मसिद्ध अवधिनज्ञान प्राप्त हाता है वह भी गुणअत्ययी समभाना चाहिये | परन्तु योग्य गुण रहने पर वह देवताओं के समान आजन्म ( उम्रभर ) नहीं रहता २१-२३ |

मनःपयोय ज्ञान के भेद ऋजुविपुलमती मनःपयोय: २४

आ० सू० २०। ( ४१ )

विशुद्यप्रतिपाताभ्या तडिशेष' २४ अध-मन पर्यायज्ञान के ऋजुमती, विपुलमती ऐसे दो

पद दोते हैं २४॥

इन दोनी में विशेषता थह हे कि एक दूसरे से विशुद्ध ओर पतनाभाव है ह;

वियचन-जिसके मन हो उसको सकी कदते हैं। वे किसी

भी कार्य या वस्तु का मन से चिन्ट्यन करते हैं उस समय चिन्त नीय वस्तु के भदालुसार चिन्तवन काये में प्रवत्तमान शुआ मन भी भिन्न आकृतिवाला दोता है। बे श्राकृतियाँ मन की पर्याय हूँ उन पयायों को साक्षात्‌ जाननियाले का शान सन पयोयशान कद्दलाता है। उस शॉन के वल से मन चितित आझाझृतियों को जान लेता दे परन्तु चि-तनीय वस्तु को नहीं जानता

अश्ष क्या चिन्तनीय वस्तु फो मन पर्योयशानी नहीं ज्ञान सकता ? _

उत्तर-पीछे से श्रनुमान दारा जान सफ्ता दे प्रश्न किस तरह ?

उत्तर-जैसे तीदुण वुद्धिधाला मनुष्य किसी के चेददरे को या दाव साय॑ को देखकर उसकी मनोगत यातों को ज्ञान लेता ह॑ अधथीत, अनुमान कर खेता दे इसी तरद्द मन पर्यायशानी मन फी आकतियों को प्रत्यक्ष देखता है। तत्‌ पश्चात्‌ अभ्यास की प्रथलता से अलुमान करता दे कि इसने अमुक चस्तु का चिन्तवन क्या 0 चद्दरा उस समय चिस्तित बस्तु की आइतियुक्त झरूर दोता दे

( ४२ ) तत्वाथ सच

प्रश्ष-ऋछजुमती ओर विपुलमती में क्या विशेषता ?

उत्तर-सामान्यरूप से विषय जाने वह ऋजुमती मनः प्योय और विशेषरूप से जाने उसको विपुलमती मन-पयोगयज्ञान ऋहते हैं

प्रश्न. सामान्‍्यग्राही दशन है इसलिये ऋजुमती को दशेन मान कर ज्ञान कहते हो इसका फ्या कारण है?

उत्तर-विषुलमती के समान विशुद्ध ( विशेषता को ) नहीं जानता इस अपेत्षा से ऋजुमती को सामान्यग्राही कद्दा हे | परन्तु उस सामान्य का नात्पयथ दर्शन नहीं है किन्तु विशेषता समझना चाहिये

ऋजुमती की अपेक्षा चिपुलमती का ज्ञान विशुद्धतर होता है। वह खूचमता से स्पप्टरूप जानता है इसके सिवाय इन दोनों में यह भी विशेषता है कि ऋजुमती ज्ञान उत्पन्न होकर

घिनाशभाव को भी प्रा होता हे परन्तु विपुलमती केचलन्नान पर्येनत रहता है २४--२५

अवधिज्ञान से मनःपर्यायज्ञान की विशेषता

विशुद्धिक्षेत्रस्थामिविषयेम्यो5वधिमनःपयोययोः २६ अथ-'पशुर्धि, क्षेत्र, स्वामी ओर विषय-अचधिज्ञान से मनः परयोयज्ञान विशेष है २६ विवेचनं-अचधि और मन-प्याय दोनों ज्ञान प्रमाणपने

अपूर्यरूप से समान हैं तथापि विशेषता रूप से भिन्न हैं| जैसेः- विश्वद्धिकृत, च्षेत्रकत स्वामीकृत और विषयक्तत भेद हैं

अ० ? सु० २६। ( ह३ )

(१) अवधिन्षान से मन पर्यायज्ञान अपने प्रिषय को बहुत स्पएरूप से जानता दे रसलिये पद्द विशुद्धतर दे

(० ) क्षेत्र से श्रवधिन्नान अग्ुल के श्रसप्यातव भाग से यायत्‌ सम्पूर्ण लोक प्रमाण देयता है शरीर मन परयायणान का ज्ञत्र मनुप्योत्तर-पर्वेत पय-त दे इससे परे नहीं होता श्रौर इस से परे रहे हुए. जीयों ये मनोगत भा्यों को जएनता है।

(३ ) श्रथधिज्ञान के स्थामी चारगति के जीव हैं अथात्‌ परी गति के जीयो को अयधिश्नान प्राप्त हो सकता है परन्तु मन पयाय ज्ञान मनुष्य म॑ केपल सयत (साथु ) को द्वीता है दूसरों को

नहीं होता

(४) अवधिकज्ञान सब रूपी द्रवयों के ऊतिपय पर्यौश्नों की सानता और मन पर्यौयज्ञान का प्रिषय उससे अनन्तव भाग ( सूत्र २६ ) मात्र मनोद्ठव्य दी दे

उत्तर-स्यून विषयी दोने पर भी मन पयोय शान को अपधिक्षान से विशुद्धतर माना इसका क्या कारण ?

उत्तर-यह कारण विपय की स्यूनाधिकता पर नहीं दे किल्‍तु विषयगस सूच्मता के जानने पर है। जसे एक भमुष्य अनेक शारत्रों को पढ़ता दे ओर दूसरा एक ही शास्त्र पढ़ा है परन्तु पद्द पक शास्त्र का पाठी यदि अपने विषय को सूच्मता के साथ विस्तृत रूप से प्रतिपादन करता दै तो उस अनेक शास्त्रों के पद़नेयाले से एफ शास्त्र के पदनेयाले वा शाप गिशुद्ध क्ददलायगा | इसी तरदद अटपधिषपयी होने पर भी जो सूत्म भाषों को ज्ञानता है इसलिये पिश्व॑यतर कद्दा है २६॥

( ४४ ) नंध्याथ सत्र |

मन पर्यायछ्ान के पश्चान्‌ क्रम प्राम्त केचलशमान का चेन ऋगणना चाहिये परन्तु इसका विशेषप से बणन दशवे अध्याय में किया दे

पाँचों ज्ञानों का ग्राह्म विषय

मतिश्रतयोनिर्षन्धः स्द्रव्येप्यसबंपयोयपु ॥॥ २७

रूपिप्ववधः ; शर८ तद॒नन्तभाग मनःपयोयस्य २६ सर्चेद्रव्यपयायपु फेवलस्य ३०

अर्थ-सम्पूण्ण ठव्यों में ओर ऋतिपय पर्चायों में मति श्रत कान की ज्ञायकता है २७॥

अवधिज्षान की प्रश्॒ुसि सच परयोय रहित केचल रूपी द्रव्य में है २८॥

मनःपर्यायज्ञान की प्रचुत्ति उससे अनन्तवे भाग सर्च पर्याय रहित केवल रूपीद्व्य में होती है २६

सम्पूर्ण दृव्य ओर सस्पूर्ण पयौयों को जानना और देखना क्रेवलन्नान का दिषय है ३०

विवेचन-मति, क्षतज्ञान रूपी अरूपी सब द्रच्यों को जानता पं # है परन्तु उनके सब पयोयों को नहीं जानता कतिपय पयौयों का शायक है।

प्रश्न-उपरोक्त कथन से मति, श्रतजश्ञान के ग्राह्य विषय में स्यूनाधिकता नहीं हो सकती क्या यह ठीक है ?

आ० सू० २७! ( ४५ 9

उत्तर-द्रव्यरूप प्राद्य की अपेक्ता से परस्पर तुल्य द्ध परन्तु पर्यायरूप आध्य फी अपक्ता से अवश्य न्‍्यूनाधिक होते है परन्तु उनमें सामान्यता यद्द हे कि थे दोनों भान द्रव्य के परिमित पयाय चिपयी है किन्तु 5ब्य के सम्पूर्ण पर्यायों को नहीं ज्ञानते। मतिशान धतमान पिषयश्राही होने से इम्द्रियों फी शक्ति और आत्मा की योग्यता के अनुसार कितने ही घतेमान पयोगों को अद्दण कर सकता और श्रुवशान त्रिकाल विषयप्राद्दी है घद अपने प्रदण योग्य जिक विपयी कितने द्वी पर्योयों को जानता है

प्रश्न-मतिशान चल आदि इन्द्रियों से प्राप्त दोता दे और इन्द्रियों में केवल मूत्तिमाम द्वव्य को ग्रहण करने की सामथ्य दे नो रूपी अरूपी सब द्रव्य मतिशान से कैसे ग्राह्य, दो सकते हैं ?

उत्तर-मतिशान झीद्रयों के समान भन से भी दोता ओर मन स्वयम्‌ अथवा शास्त्र से श्रवण किये हुए मूर्ति अम्ति सब द्रव्यों का चिन्तवन फरता है। इसलिये सब हव्य मतिधान आदी मानने में फोई दोप उत्पन्न नहीं दोता

अश्ष-स्थमेष अनुभव तथा शास्रधयण विषयों में मन डारा मतिशान धाप्त द्ोता दे बैसे दी धुत शान भी घाप्त द्ोता हैं इसलिये इन में परस्पर फ्या घिशेषता

उत्तर-मानसिक चिन्तवव शब्दोह्ेख द्ोने पर चंद शत नान कद्दलाता दे। ओर शब्दोएलेस रद्दित केवल चिन्तथन विपयक नान को मतिश्ाान फटे दें

अपधियान-शो हृव्य ( पदाये ) रुप थाले हैँ थे अवधि घान विषयक दै। उन रुपीठव्य के धम्पूण पर्यायों को अयधिहान

( ४६ ) तसवाथ सत्र

नहीं देख सफता | ऋतिपय पर्यायों को देखता है | " उन्हे

पर्सावधि में लोकमान अलीक में भी असेस्याते ग्वेद देखने का सामथ्य है तदपि अरूपीद्रत्य नद्दीं देख सकता

पन/पर्यायज्ञान-यह भी मर्ति दव्य को साज्नाव्‌ देखता

है परन्तु अवधिज्नान जितना विपयी नहीं है | अवधिशान द्वारा सब प्रकार के रूपी ग्रहण किये जाते हैं परन्तु मनःपयोयशान द्वारा कैवल मनोवर्गनापने परिणमन छुए पुल -वे भी मनुष्योत्तर ज्ञत्र के अन्तरगत रहे हुए हों तो ग्राह्म हेा सकते हैं इसलिये अवधिशान से मन पर्यायणान का विषय अनन्तर्वे भाग कहा ह्ै। मनः्पयीयजान कितना ही विशुद्ध हो तथापि अपने आठद्वव्य के सम्पूर्ण प्यीयों को नहीं देख सकता | उसके हारा केयल चिन्तवन शील मूर्तिमान मनोद्वव्य का ही साज्षातकार होता है पुनः अनुमान से तदलुयायी चिल्तित मत अमूत्त दृव्य को भी जानता हैे।

फेवलज्ञान-समस्त द्रव्य तथा उनके सम्पूर्ण पर्यायों का शायक है | मति आइि चारों ज्ञान अत्यन्त शुद्ध से विशुद् होने पर भी वस्तु के समग्र भावों को नहीं जान सकते वस्तु के स्थल आर सूध्म जितने पयोय हैं उन सब का सम्पूर रूप से एक केवलन्नान ही प्रकाशक है इसको परिपूराज्ञान कहते हें, चेतनाशक्ति के सम्पूररा विकास होने से प्रकट होता है. वस्तु के मुत्ते, अमृत्ते समस्त, भावों को प्रत्यक्षरूप से जानने वाला है. केवलज्ञान लोकालोक दिपयी अनन्तपर्यायी है ओर प्रत्येक हृव्य के अनन्त पर्यायों को सम्पूर्ण रूप से एक समय मात्र में जान लेता है। पूर्णभावी होने के कारण अपूर्णताजन्य भेद प्रभेदादि नहीं होते २७ “रे०

आ० * सू० ३१ | ( ४७ )

एक समय एक जीव में कितने ज्ञान होते हैं ? एकादीनि भाज्यानि युग॒पंदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ३१

अर्थ-7 कात्मा में एक समय एक साथ एक शान से यावत्‌ खार शान अनियत रूप से दोत हैं ३१॥

विवचन-पूर्वोक्त मत्यादि पाच ज्ञानों में से एक आमा मे एक समय युगपत एक, दो तीन या चार तन होते हैं पायों शान एक साथ नहीं होते | एक ज्ञान वाले फो फेवलशान, दो वाले को मति ध्रत तीन घाले को मत्ति, ध्त-अचधि, और चार घाले को मति, श्रत, अ्रथधि और मन पयाय शान होते हैं. परिपूरंण अथस्था में अन्य अपूर्ण घान नहीं दोते इसलिये एकत्र बेचलशाप ही कहद्दा है। उक्त पाच मानों में मति, भ्रत दोनों शञान,नियमा सदद घारी है। शेष तीन शानों में सद्दचारिता नहीं है और चारों शान जो अपूर्श भारी हैं उनमें मति और थुतिश्ञान प्रत्येक्ष जीव को अचश्य द्ोता दै। श्रवधि, मन पर्योयशान किसी को द्वोता हे ओर किसी क्रो नहीं भी द्वोत। जिसको दोता है उसके साथ मति, भरत अपश्य रद्दता है। बिना मति-भ्रुतश्ञान कै अकेला अवधि, मन- पयाय क्षान नहीं दोता | केयलचान पूर्ण भावी द्वोने से किसी झात फ॑ साथ सदयारिता नहीं टै कारण अंपूर्णता के साथ इसका विरोधी माय दे

दो, स्तीन या चार ज्ञान की समवता एक साथ दे यहद्द शक्ति की अपक्षा से दि कितु भन्वत्ति फी अपेक्षा से नदीं है।

प्रश्न-शक्षि और पपृत्ति का क्‍या अर्थ दे !

(्‌ छ्छ् ) स्या खत [

उत्तर-जा जीव प्रवोक्न दो, तीन था चार शान बाला हैं बह जिस समय मतिशान द्वारा किसी एक वस्तु का जानने के लिये प्रवत्तमान दोता दे उस समय शप शान के श्राधिभाव हाति हु भी उसकी उपयोगिता नहीं होती जीवको चार कान की शप्क एक समय होनी दे परन्तु उपयोग अथात्‌ प्रवन्ति रूप से चारों थ्वान नहीं होते एक समय एक ज्ञान का ही उपयाग हाता हैं। हो. तीन ज्ञान का एक समय एक साथ उपयोग नहीं हो सकता श्रतज्ञान की प््चत्ति में मति या अवधिन्नान की शक्कि प्राप्त हांते

ऋप भी उसकी उपयोगिता शक्कि प्रकट नहीं होती | तात्यय यह हे कि पक समय पक ज्ञान का ही उपयोग होता है दुसरे जान निशल्किय रहते हैं केवलमान के समय मति आदि चारों श्ञान नहों होते यह सिद्धान्त सामान्य होते हुए भी इसकी व्युत्पत्ती दो प्रकार से की जाती है। (१) कितने आचाये फा मन्तव्य है कि क्रेवलशान के समय भी मत्यादि चारों ज्ञान की शक्कि आत्मा में रहती है परन्तु ज्ैसे-सथ् के श्रकाश होने पर चन्द्र अहादि का प्रकाश उसमें लुप्त होजाता है वैसे दी मत्यादि चारों शान केवलशान के प्रकट होतेही निष्किय हो जाते हैं केवलशान के सद्भाव में उनका अभाय नहीं मानते किन्तु अनीन्द्रियजन्य आत्मक्ञान प्रकट होने से इन्द्रिय उप- लब्ध मत्यादि ज्ञान की आवश्यक्का नहीं रहती अवधि, मनः पर्यायज्ञान केवल रूपी ठ॒व्य विपयी है ओर मति, श्रतिन्नान के

सद्भाव में उनकी उपलब्धता ओर सहचारिता है केवलजश्ान के समय अन्य ज्ञान शक्तियों की प्रवृत्ति है परन्तु भिन्न रूप प्रकाशित

नहीं होती

हि]

ने

'आण है खु० ३०। ४६ 3

(० ) दूसरे आचार्यों का कर्थन है कि मत्यादि चारों “शान फी शक्ति आत्मा में स्वाभायिफ नहीं है कि तु फर्मापाधि सापेक्ष क्षयोपशम जन्य है' भौर केयलशान शानावरणीय कमे का सर्वेया अभाव अर्थो 6 कह होने से प्रकट होता है दस समय उपाधिसापेत्त शान शक्तियों का दोना असभय है इसलिये फैयल- शान के समय फेयल शरह्ति के सियाय अन्य मत्यादि शान शक्तिया नहीं होती और ईनरा पर्यायरूप कार्य दी होता है कई यह भी कहते है हि धानाचरणीय कम के विभाग पर्याय सब सरोखे है और उन अंविभांग पर्यायों में वश्णादि जानो की श्या अनेक पकार यौ हैं। उन शक्तियों दे ध्याविर्भाये क्री तारतम्यता से भत्यादि पित्त मिश्न भास ससे गये हैँ और आवरण का सर्दधा अभाष अथोंत्‌ क्षय होने से केपल शान सुदना है ३१

अज्ञान का निर्धारण और निमित्त मति श्रुवाध्यधयों मिपययथ ६२ मदसतोरपिशेषाद यध्च्छोषलन्पेरन्मत्यत्‌ ३३ अध--मति, शुत्त और अ्रधचि थे तीनों शान अपानरूष भा होते 3० | “सत्‌-असप्र” वास्तविक अवास्तविक की विशफ्ता को

जिना जाने “यरच्छा उपलब्धि” उम्मता के सम्रान स्वेन्छायारी > होने से शान भी अशान रूप दोता है ३३

विवेचन--भत्यादि पाँचों शान चेतनाशक्षि के धर्याय हैं ये अपने अपने विषय को यथार्थ रूप से प्रकाशित करने हैं इस-

( ४० ) तच्चाथ खच

लिये ने कहतकातल परन्तु इन में पृथष के मात, साले आझार टै अवधि अजश्ञान रूप भी होतेहें | के प्र्ष--मति, श्षतत और अवधि तीनों ज्ञान स्वविषय देः

अशान ये दोनों शब्द परस्पर विरोधी हें-जसे- ओर ताप, शीत ओग उष्ण अथवा अधेरा और प्रकाश | अरथान्‌ विरोधी भाव पक स्थान में नहीं रह सकता | उत्तर--अलोकिक दृष्टि से तीनों पर्याय जान रूप हो हैं परनन्‍त यहां इनको ज्ञान, अश्नान दो रूप से कहा यह संक्रेन केचल आध्यात्मिक शास्त्र का है। सम्यक दृष्टि की अपेक्षा उक्त तीनों पर्याय शानरूप से माने गये हँ ओर मिथ्यार॒ष्टि की अपेक्षा इन्हीं पयोयों को मति अज्ञान, श्रत अघान ओर विमंगप्तान कहद्दा दे प्रश्ष- क्या सम्पक दृष्टि आत्मा के सब व्यचशार फेदल प्रमाणभूत ही होते हेँ ओर मिथ्यादप्टि का सच व्यवदह्दार चेचल अप्रमाण भूत है? यह बात असंभवित है। अथीन्‌ सम्यक् दृष्टि को संशय, भ्रम तथा मिथ्याज्ञान विल्ककुल नहीं होता ओर मिथ्याहप्टि को हमेशा होता है, यद कहना अयधाथ भ्रमात्मक ) है यह कोई नहीं कह सकता कि सम्यक्‌ इष्टि की इन्द्रियलाधना सम्पूर्ण ओर निर्दोष ही होती है और मिथ्यादशि की अपू्ण और सदोप ही होती है। मिथ्यादपष्टि भी पीले रंग को पीला, छाले रंग को काला गत को शीत और उपष्ण को उप्ण, इसी तरद्द शेप इन्द्रियों के विपय को भी सम्यक्त्वी के समात देखता है ओर कहता हैं तो आपणटीत सम्यकत्व ओर अन्यग्रहीत मिथ्यात्व यह कहना असेगद है और विज्ञान तथा साहित्यादि विपय को प्रकाशन करने वाले

समस्यकरट्॒प्टि ही हों पेसा-भी नहीं कहते अन इसका यथाथ तत्पय क्या हद ड्

आत्मा रागदेप की तीघता ओर आध्यात्मिक पर्स बी अनभिमता केकाग्ण खपने विशाल जान शशिका छपयोग केवल खससार ही के लिप कर्ता हे इसलिये उसके छान को अशान कहा

आर घी शरागरेप की तीम ता को माद हीाता रचा आम्र्ति

( ४२ ), तच्चार्थ सत्र,

उपाजन करने का हेतु होता हो तो उस ज्ञान को छान ही कहेंगे। इसी का नाम आध्यात्मिक दृष्टि है॥ ३९--३३

७० 0 पे नय के मंद मेगमसग्रहन्यवहारजुसत्रशब्दा नया ३४

ढक

आच्यशब्दी द्वित्रिभेदो ३७ -

अथे--नैगम, सभह, व्यवहार, ऋजुसूतच ओर शब्द ये पांच नय-हैं ३७ ॥- -

नेगम ओर शब्द नय के.यथाक्रम दो तीन भेद हैं ॥३९॥ .

विवेचन--नय भेदों की सेंख्या के लिये एक. परम्परा नहीं हैं सामान्य रूप से वाहुल्यता, सात भेदों के प्रतिपादन की है यथा-नैंगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूच, शब्द्‌ समभिरूढ़, एवभूत + यह अस्नाय श्वेतास्वरीय; दिगस्वरीय ग्रन्थों में प्रख्यात रूप से' प्रचलित है परन्तु कहो कही छ, पाँच, चार, दो आदि भेदों की ब्याख्या भी मिलती है | सिसेनद्विाकर की' परूपना नेंगेम नय॑ को छोड़ के शेप नयों' की है ओर. प्रस्तुत अन्थकार पाँच नय प्रतिपादन करतें हैं तथा विशपावश्य भाष्य गाथा २५६४-६७ में सात, -छ, पांच, चार ओर दो-भेदों' का उल्लेख मिलता हैं: और धत्येक नय के सोः सौ' मेद भी कहे हैं। इसक? चंसन : स्याह्ाद रत्नाकर, रत्नाकराचतारीटीका और नयप्रदीपादि भ्नन्‍्धों में

सविस्तार लिख है .नय स्वरूप

अनस्त- घमोत्मक वस्तु-के-( नित्यःया अनित्य » किसी, एक ओश को-पहणकर प्रकाशित किया जाय उसको नय कहते हैः!

आ० घु० ३४ ( छत )

अथवा-एम पण्छु या अनेझ वस्तु दिपय प्टझ या अनेक मजुप्पो के विद्यार नाता प्रफार के दोते हें और थे बास्तत्रिक रूप से अपरिमिन हैं| उनके प्रत्येक विचारों को भ्रदण' करके यम्तु फा अवयोध फरना फठिय हैं ।'इसलिये अति सप्म' शोर अति रूपूल को छोड के मध्यम घेणी' से पतिपादन' फरना ही नयवाद अर्थात

नयस्थवरूप छू कह नय निरूपण अथवा विचारों का धर्गीकरण और नयवाद

अर्थात्‌ विचारों फी मीमासए इनर्म केवल विचारों, के कारण या उनके परिणामों फी तथा उनके विपयों की दी चरचा नहीं है किन्तु वस्तु के पारस्परिक दिखते धुए विरोधी भाषों का घास्त

विक रीति से अधिगोधपने फी गवेपणा फरनी यद्दी मुस्य हेतु दे इसलिये नयचाद फा तात्पर्य अथे यद्द है कि विरोधी भाषों के प्रिचारों का अधिरोधपने समन्यय' कराना जेसे'-शासरों में फिसी।ज्षमद् आत्मा एफ और फिसी जगद आत्मा अनेक यह वघिगेधी भाष, दिलाई देता'है' एसी अवस्था में उस घिरोधी भाषों' के कारण शार्र असगित' दोता है'। इसलिये! नयधाद से उसका समन्वय करा द्रिया' कि व्यक्तिगत'रप्ि से आत्मत-व अनेक है परस्तु थे शुदयेतना'दर्टि से लघ सदश इसलिये एक हैं। इसी तरद आत्मा मित्य/ओर अनिन्‍्य भी हैं, कत्तो और अफर्तामी है इत्यादि घिरोघी भावों का एफीकरण अर्थात्‌ अधिरोधपते एकता इृष्टि से घटाना इसको नयधाद कड्ते दे यद्दी इसका सुष्य तात्पय है इस नयधाद फो अपक्तायाद भी कद्दते दैं

ज्ञान से नयवाद, की: पृथक देशता। का कारणन पश्य--पूययथित ( सूध्तार० )शान/निरूपण में धेत की चर्य आजएी दे उत यह वियारत्पक्त शान है और नया

( ४४ ) नसवाथ सच

विचारात्मक जान है इसलिये नय श्रत में समाजाता है। चास्‍्तने पहला प्रश्न यह उपस्थित होता है कि थुत निमूषण के पश्चात लय प्ृथऋ देशना देने का क्या कारण ? अगर नपयाद से ज्ञन तत्वशान की एक विशेषता मानी जाती है ऐला कहोंगे तो नवबाद है वह श्रत है ओर श्ुत है बह आरम प्रमाण है | इस तरह जने- तर दशन चाले भी प्रमाण चरचा में आगम प्रमाण वा सिन्परा करते हैं | दूसरा प्रश्न यह है क्रि जब इतर दशनों में श्रागम प्रमाण को स्थान मिला है तब आगम प्रमाण में समावेश होने घाले नय- चाद की केवल पृथक प्रस्यणा करने से ही जन तत्वन्ञान की विशे- पता क्‍यों मानी जाय ? ओर जन दरशनों ने श्रुतत प्रमाण के उपरान्त नयवाद को स्वतेच्र रूप से प्रथक्‌ कहा इसका क्या उद्देश ?

उत्तर-नय और श्रुत दोनों चिचारात्मक है तथापि परस्पर भिन्नता है। ज्ञो विषय को सर्वांश स्पर्श करता हो या सवांश स्पशे करने के प्रयत्वन का विचाग्क हो उसको थ्वत ज्ञान कहते हैं ओर उसका मात्र एक अश गअ्रही नय है इसलिये नय . स्वतंत्र रूप से प्रमाण नहीं कह सकते तथापि अप्रमाण भी नहीं है। जैसे --अगशुली का पेरवा अंगुली नहीं कहलाता तथा वह अग्रुली ही नहीं ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि चह अशुली का अश है इसी तरह नय प्रमाण का अंश है

विचार का उत्पत्तिक्रम आर उससे होनेवाली प्रवत्ति की दृष्टि से नय निरूपण श्रुत प्रमाण से प्रथक होता है | किसी भी विषय का विचार अश: अश से उत्पन्न होता हुआ अनुक्रम से पृर्णता के परिणाम को प्राप्त होता है। जिस क्रम से विचार उत्पन्न होता है उसी क्रम से तत्ववोध का चणणन होना चाहिये और

आ० सू० 9४। ( श्र )

प्सा द्ोने से स्वयम नय निरूपण भत प्रमाण से पथक हो जायगा

चाद्दे जितना पूण शान हो परन्तु उसका उपयोग व्यवद्दार पयत्ति में क्रमण होगा इसी से सम्पूर्ण विचारास्मक थश्रत की अपेक्षा अश विदारात्मफनय निरूपण प्रथर्‌ घोना चादिये।

जैनेतर ”टर्शनों में मी आगम प्रमाण फी चरचा और उसी आगम प्रमाण म॑ समावेश द्ोने याले नयवाद की जूदी प्रतिष्ठा जन दशा वालों ने फी दे उसका द्ेतु यद्ध दे कि मलुप्य फी चानप्रूत्ति समान रूप से अधरी द्वोती दे और तत्‌ व्रिपयी इच्छा प्र्ृत्ति पिशेष होते से पद्द पूणता की प्राप्ति के लिये दीटा दौड़ प्रेरित हुआ दूसरे सदूविधारों फो तर मानकर अपने 'अ्शात्मप ज्ञान फो परिपूण रूप से मान पैठता है इसको नयाभाष अथोत्‌ दुनय फहदने थे इसी दुनय फे कारण घस्तु विषयी जूदे जूदे विचार होते से परस्पर थाद ब्रियाद उपन्न दोते हैं घास्तविक सत्य घान का छार यन्‍्द दोजाता दे

उत्तर--किसी जगह किसी समय ओर किसी अयस्वया में रहा हुआ मलुप्य यदि समुद्र फी नरफ ऐिना शिशेषना ते झथात्‌ उसके रग, स्वाद, गद्दराई, छिछलापन या सीमा थादिय तरफ ध्यान देता छुशा पेपल पानी फे तरफ ही सामान्य शप्दि से पतर दौड़ाता है उसको ड॒व्यार्थिक यय कद्दते द्वे। घद्द पस्तु फो सामा“य दृष्टि से देखता है धौर जो उसके रग स्वाद, गद्दराह सीमा आदि विश्ेपाथ प्राद्दी टप्टि से कथन, चिःतयन, अधलोप नादि पा विद्यारफ द्वो उसको पर्यायार्थिष नय कदते देँ। इसी तसरद आय भीतिक बस्तुओं में भी समभ; लेना चादिये ससार मैं योई भी एसी पम्तु "दीं दे कि जो सामा-य, यिशेष स्थभायवती नद्दो।

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रण औ!

$ ' ऋच्याथ सत्र “सामान्य सक्षण-किसी भी घिपय को सापेन्नता से निरूपण करना अध्बा विचार करना उसे नय कहते हें। भय के सत्तेप से दो भेद हें (१) दृब्याथिक्कत (२) परयोयाधिक | सेसार में छोटी बड़ी सभी चस्तुओं में समानता या असमानना दो घर्म रे हुए है।। केवल एक समानता या शससानता रूप अतुभव नहीं होती इसीलिये चस्तु डसयान्मक कदलाती है। मानव चुद्धि किसी खमय खामान्य अर की चरफ प्रवाहिन होती है झार किसी समय विशेष ओअश की तरफ प्रवाहित होती है। उसी सामान्‍य विचार को दृव्याशिक सनय ओर विशेष विचार को परयाधाशिफ नथ कट्दते हैं घह सामान्य, विशेष विद्यारात्मक दृष्टि शक्त सदश नहीं होती इसलिये इनके उत्तर भेद्‌ सात्त हैं। द्ृव्याथिक फे तीन और प्रयायाथिक के चार यह दृष्टि विभाग माण, प्रधाव भाव की अपेक्षा से समभने चाहिये। प्रश्न--प्वाक्क नय सरल दृश्ास्त पूथेक सममासये ?

किसी एक दरानवाले अपने माने हुए. आपत्मादि विपय के एक देशीय विचारों को सम्पूर्ण रूप से मानते £ं तच दूसरे दशन चाले उसके विरोधी पक्त को अहण करके डसे प्यप्रमाशित आनकर उसकी अवृगणना करते हैं। इस्ती तरह पहला दुसरे की दूसरा तीसरे की इत्यादि परस्पर अचहेलना करते हुए समता की जगह विषमता उत्पन्न करते हैं। इसी घिवाद को दूर करने के लिये नयचाद की प्रतिष्टा की है इसके टारा थर सच्ित होता है कि प्रत्येक विचार यदि सापेक्ष हो तो वे आरगम प्रमाण - कहला लकते हैं अर्थात्‌ सच देशीय बियार इस कोटि में प्रमाण भूत होते हैं ऐसा नयवाद छारा सूचित करना यह जैन दशन की ही विशेषता है

अ० स० ३४। ४७ ) नयके विशेष भेदोंकास॑रूप

पूवोक्त ध्रब्याथिक, पयोयारिक नय को विचार श्रेणी में विभाजित करने से अनेक भेद ;होते हैं यथा विशेषाएश्यक भाष्य जापन्तो वयणपहा तावन्तो वा नय॑विसद्दाओ ( भाथा २२६५ )

उन सब का अवयोध सामान्य दृष्टि बालों के लिये अग्राहां है इसलिये खुख से अवयोध कराने के हेतु ठ-प्रार्थिक नय के तीन आर परयायाथिक नय के चार भेद डिग्रे हैँ

(९) नेगम नयजो घिचार लौकिक रूढ़ी सेवा लोविंक खस्कार के अनुसरण से उत्पन्त द्ोते हैं उसे नंगम नय पंदते हैँ

(२) सप्रह नय--एक वचन, एक अश्रध्यवलाथ या एक डपयोग से एक साथ ग्रहण या अपरोध फिया जाय अथवा जो वाक्य समुदाय अथे को अद्देण करे उसको सम्रह नय कहते है |

(३) व्यचद्दाए नय--सम्रह नय से अ्रद्दित यस्तु अथात्‌ सामान्य विचारात्मक वस्तु को व्यायहारिक प्रयोजनाजुसार विभा जित करना ही व्ययद्वार नय है और उक्क तीनों नय 5-याविक कदलाती है।

इष्ठान्त-देशकाल और लोक स्वभाय की विविधता से लोक झूढ़ी अऔर तत्‌ जन्य सस्कार सी अनेक प्रकार होते है इसलिये उससे उत्पन्न होने वाली नेगम नय के भी अनेक॑ भद हो सकते हैं और इसके दृष्टान्त भी शास्त्रों में अनेक प्रकार के मिलते हद ओर यथा मति करपना करके भी कद सकते हैं जेसे जगल में जाते हुए किसी मलुप्य से किसी नें पूछा तुम केदा जाते हो उत्तर में चंद कंहता'डै म॑ कुष्दांडे का बेट ( लकी )' यां' धं(न मापने की पायली विशेष लॉनें के लियेजाता ईं इस प्रत्युत्तर से

( #5 ) | 'तच्चाथ सुत्रा। पूछने वाले को कुमाज्ञाह उदोज्ञातो है आई वह समृझलेता है कि यह लोक रूढ़ी के झा असुसार मन के अभिप्रायिक शब्द हैं | बह अपने अधिप्राय के अनुसार काप्ट कोपलाकेर वस्त नैयार करेगा | ओआओथवा-मंहांवीर स्वामी के निरवोण काल 'को सेकेडो वर्ष होगेयें तंथापिआंज'दिवाली को महावीर स्वांमी को निधोणें हवा ऐसा कहते हैं। यह +री' लोक - रूढ़ी है'या दो-" सेनाओं का यद्ध:देखकर कहते हैं कि चीन ओर (हिन्दुस्थानम्का युद्ध 'होः रहा है, ईत्यादि कहने सुनने वाले को/लोक >रूंढ़ी के: अनुसार उसको।बोध/हो जाता-है ओर उससे:उत्पक्ष होने - चाले विचार -.नेगमनय की अ्रणी में।समावेश दोते हैं; कक

नहा हु न्ज्त जजल ना ओडा ७5. है के अदेक के हु 6 हे हक लहर

५3 सिखार में जितने पद्ाथ है-डन सब्र में...लत्‌ लक्षण उत्पाद व्यय धव,युक्कंलत | सामान्य रूप से-रद्ा .हुआ;दे उसी के,तरफ्‌- दृप्टि-रखता हुवा विशेष स्वभाव की ओर ध्यानान देकर सभ्ली वस्तु: को एक रूप समझे.वह सम्मह नय है। सखार में ऐसी कोई वस्त नहीं है जिसमें संत्‌ लच्तण्ण हो संदरूपता लक्षण सभी वस्तुओं में सामोन्य रूप से रहा हंवा' है इंसलिये- संग्रह नथ में संसार की. सभी वस्तुओं का समावेश होता है? जैसेः--बैख्र अनेक प्रकार होते हैं उनकी विशषता की तरफ दृष्टिपात करके केवल सामान्य लक्षण को ग्रहण कर संब को वस्त्र ' ( कर्पड़ी। ) कहना यंहे वाक्य सं्रंह् नयग्राही हैं संग्रह नय की विशेलता सीमान्यता के अंन- सॉंर है और विरविध-वस्तुओं के सामिन्यि तत्वों का एकीकरण ही

संग्रह न्य हे! ज्फाज फंड क्र + करराद | वर आओ आज ६६ ४+४++%॥। कान कफ 5 - विवि गफपल कर एफ

एक रूप से अहरण, बते / ध.. बूस्तुओं की, विशेषता: समभनी हो अथवा व्येवड हर. में उसका डउंपयोग करना हो उस...

ध्य ए.

समय पथकुकरण करता अडूत[एहै /जुले व्यवहार कहते हैं |:

आठ सूं० ३४। (( श्श

जैसे -खादी मे खरीदने; पाले फ़ो मान उपडा[ ऋद्यते से इच्छित चृस्तुलञड मिल स़ड़ती | कप्रूड कई प्रकार के ,द्वोते,हैं. इसलिये ल्विभाग करके उसे।खादी कदना। प्रडेग़ाबऔर-उसमें:भी।मील नवर- आदि विशेषता प्रगटा करनोपड़गी।इसी तरदः सद्रूपता में सब पदार्थों का समाघेश दोताहे परम्तु उसकी विशेषता प्रदाशताकरने पर संदूरूपता के दो भेद (५ )जेड (७) चुत य। उसके विशेषा_ विशेष भाव अनेक मकार के होते हैं. उसका 'पृथककरण ही प्यपयद्दार ह। | गण प्फ्फस्ताए #० 4 उत् 3 स्कछ ह# 7 जुपरोक्व दस्टाणत से नगर्मनेयों लॉकसिंदी वे आवारवत्ती है और लोकरूंढी ओोरोपषि, 5 कल्प रूप 'सामरान्य ततस्थाश्रयी' सन लििकमनंव कहो रो, मर कप तीर नेट ६४१ 3084 हि है। सग्मह नय+ एकीकरण खेपतयापार - पिप्रयी दोने. से सामान्य- गामी हैशओर ययटटार नये उकरणोस्मुखी होने पए भी उसकी क्रियाकियल सामान्य पठयर चित्रिताहोने'से वेह सामान्य बिपयी है इसलिये तीने['नय द्रध्याधिक हैं ए। प्एू' "या 5+ प्रा 39 गप ६हउफ 7। फ्एे का वेद ७२६: सम प्रिपप्क्तम/सथ उसे विस्तीण इस्‍रबंद सामान्य औएमिशेप बोनों को लोक़द्ठी के अनुसार कभी सुऊुय और क्री: गाणभावासे माननी-दैन| सम्रदे नप्न का विस्तार जैधमेनय, से न्यूलज हू पद केरल सामान /जत्नी कश्यीयत्य॑यडाए तय , का दिपय सम्रह+ नय से न्यून दैकियाकि बह सप्रद/मेटित बेस्ते को प्रथक्करर “रूप क्ेयलविशुषप्रादी हे ध्स तरद उत्तरेश्तर सकुचित क्षेत्र होते हब) भी पूर्वोपर सम्बन्धि! चीली है | नैंगेमनय “सामान्य पिशेप मय" सेंवोघेक है और इससे सप्रद भय की उत्पत्ति है! और सम्रद मय ? के एटपर ही व्यवहार नये आलेखित हैं। 5 फर्म + चर

( ६९ ) तत्चाथ सूत्र

है कल्प हप्ह पंयायार्थिक नय के चार भेद (१) ऋजुसत्र नय--भूत, भविष्य काल के विचार को छोड़ के केवल वर्तमान समयप्रादीदो' डसको ऋजुखूत्र नय कहते हैं। (२) शब्द नेय--बाच्य अथश्राही अथात्‌ घट शब्द के अथ का जिसमें संकेत, हो उसको घट कहे वह शब्द नय (३ ) समभिरूढ नय्य-शब्द की व्यूत्पत्ति के आधार पर उस अथ भेद की कल्पना करे वह समभिरूढ़ नय है ( ) एवंभूत नय--जो शब्द फलितार्थ अथात्‌ परिपृरं, अवस्था को प्राप्त हो उसे पर्वंभूतनय कहते हैं रे भूत, भविष्य काल की विचार कल्पना का.मलुप्य एकानन्‍्त परित्याग. नहीं कर खकता तथापि किसी समय केवल चतेमान प्राही ब्रिचारों के तरफ प्रवाहित, हो के उपस्थित.,वस्तु को दी.चस्तुः रूप मानता है क्योंकि भूत, भविष्य वस्तु काये खान नहीं होती शल्यचत्‌ है। चतेमान-समेद्धि खुख के लिये साधन भूत है। पंरन्तु भूत स्मृदछि का स्मरण, ओर भावी.ऋछि की.करुपना वतेमान मे खुख का साधन नहीं है ।'इसी,तरह वतेमान में'जो माता- पिता की सेवा करे वह पुत्र है। परन्तु, भूत, भविष्य; पुञ- रूप, नहीं' है हेसे वतेमान कालिक विचारों को ऋजुसूत्र नय कहते हैं

जब, विचार तर्कः:की लहर पर चढ़ता है' तब उस में कई प्रकार की तरंगे उठती' है' वह उसकी/गहराई में उतर कर सोर्चता- है-कि भूत, भविष्यत्‌ काल को छोड़ के मात्र वर्तमान काल'कोः ही अहण [ स्वीकार] करते हैं तो एक ही शब्द में काल, लिंग; संख्या, कारक, पुरुष, उपसंगोदि' भिन्न भिन्न. शब्दों के-अयथे से.चस्तु -लबेथा सिन्न होजायगी ओर यदि मात्र एक त्रतेमान काल स्थित” वस्तु/रूप, है.तो भूत, भविष्य कालिक शब्द से:बस्तु सवेथा भिन्नता रूप॑ /मंननी पह़ेगी?? और, शाखरों मं-ऐसा: भी उल्लेख-है. कि. राजगृद नास-का- नगर था इस वाक्य का स्थूल अये“यह-शोता है कि- चद-नगरः भूत

श्र० र्‌ खूब ३४! ( 9

काल में या वर्तमान काल में नहीं है परन्तु जब लेसक के समय भी राजशुद्ध नगर यतंमान है तो उस में भूत कालिक क्रिया “था! लिखने कही क्या जरूरत है। इस सघाल के जवाब में शब्द नय की आवश्यकता टै। घद्द शब्द नय की अपेक्षा से कहदेगा कि चर्नमान गजगदह की अवस्था से भूत कालिक राजगृद फी अवस्था दूसरी ही है और प्रस्तुत धर्गन उसी राजगद्द फा है इसीलिये भूत कालिक था! का धयोग फिया यद्द काल भेद से अथ मेद सूचित करना शब्द नय फा काम दै। इसी तरद्द कुआ,कृर,अथवा ससरथान प्रस्थान, उपस्थान, आराम, विराम इत्यादि एक धातु के अनेक शुष्द्‌ पनते है तथापि उस में जो श्रथ मेद है वही शब्द' नय फी आूमिका है। उस विश्व प्राकार्कि शब्दों में अनेक' धर्म रहे है जिन के अथे मेद की मान्यता अनेक प्रकार सें प्रचलित है जो शब्द नय की थ्रेणी में समावेश होंती है शब्द मेंद के आधार पर अथे भेद की करपना फरने घाली बुद्धि जब आगे बढ के व्युत्पत्ति भेद फरने के लिये भश्न॑त्त मान होती है और यह विचार उत्पस दोता हैं फ्िं जो इन्द्र, सफ्ेल्द्र पुरेन्द्र, ए्जेन्द्र आदि अनेकः शब्द एकार्थी मानें गये हूँ परन्तु व्युत्पत्ति मेद्‌ से उनका अथ पृथक द्वोता है प्ग ०... प्रशन--लिंग, सख्यादि से अरे भेद मानने घाली शब्द नयःउनका अथ भेद फ्यों नदीं कर देती ? हे उत्तर--राजा, भूपषति, नृपति आदि अनेक शब्दों फो पुकार्थी मानना यद्द शब्दनय फा विपय है और समसमिस्दनय-उन शब्दों फी व्युत्पक्ति के अमुसार अर्थ पोधक दै जैसे -रान्य चिह से सुशोभित दो बह राजा, प॒थ्चीं का पालन करे यहद्ट भूपतिः महुष्यों फा पालन करे चद्द ,नृपतिं इस तरद्द व्युत्पत्ति से अथ सेट करना सममिंख्द मयःफा।काम है। यद्द नय पयाय भद से अगर

|] २0 | +स्दाकी,

'_तरवाथ सत्र _ मंद खबकत्दे॥ह 4 “० कर्ण 7 वि गाए |. 'परिवार्धित-हुई विचार अणी विशुद्ध चुद्धि की ऋसीटी पर च़ढ़ती है.तव उसका चार्तविक -रुप मलक उठता है वह केवल' इ्युत्पत्नि भद-को,ही.हीं' किन्तु वस्तु की यथाथता ' याने-एवं' भूत नय. प्ररिपूण बस्ठ को डी वस्तु स्वरूप मानता हैं अथोत्‌ समभिरूद नयू, का माना हुवा ज्युत्पक्ति भेद -इसको घमान्प है ।' जब' तक आ्युत्पत्ति. भद:पूरणरूप अथसिद्ध हो- किन्तु -एक पर्याय भी न्यून हो ,तो;उस्॒को ग्रहण नहीं. 'कयता वह केवल वस्तु की परिपूर अवृस्था को ही स्वीकार, करता है उसे एवमूतनय कहते हैं ।' जुसे:-न राजचिह से: खुशोमित शिहासन परुवबैठा हुवा-स्यायः करता, दो, उस समय: ब्रृह-८्याजाए कदलायग्रां ओर:जिस समय वास्तविक:करूप से प्ृथ्क्षी की पलना।करने सें तत्पर हो उस समयो बह भूपति कहलायगा इसी “तरह उपयोग: संहितः<चित्रकारी के- वम,में तत्पर-हो-खद्दी चित्रुकारः है परन्तु वही व्यंक्ति यदि सोता हो, खाता-हो या अन्य किसी:>क्राम में, लगा हो/उस “समय उंसेः चिजकार नहीं, कृहता/क्योंक्रि-डस समय शब्द प्रयोग की बारत-ः

जिकत॒ए दिखाई 'गहीं-देती- ।जो-शब्द पूरप्रयोगावस्था,रूप हो-चही* ए्वभूतनय ग्राही है | फ्रवा &ै. वक्त 5. है? रऋजछ

६9 प्रवोक्-चारों:प्रकंतकी/:वच्चनन:अणीमें पूवीप राजो विशेषता है वह स्पष्ट रूप है उस में: पूवन्नर्ती- नये से' उत्तर /सूरम, सूच्मतर;* सूंदमर्तम विषय्ाष्हे और उत्तरोतर भर्थ के विषये का आधार पूवे पयोयाधश्चिक है इसलिये ऋजुर्सत्र न॑य से पंयोयार्थेक्‌ नये का प्रास्म' नय-के विषथ पर रहा?हुवा हैं।इेन चारो नयोँ को पर्योथो थिके नय॑ कदेते हैं। इसका क्रार्ण यह है कि ऋजुसूत्र नय मूत; भविष्यत को छोड़ के/केवल वतेमान त्राही है।' खह।स्पए रूप से सामास्य जिप्य को पंसित्सागनस्करके "मात्र विशेषः पधद्शों होनेःसे पंयाय

अआ०-ह « सू० ३८ ( छघड »)

माता 'गया हैंव+ऋजुलच्र समय के” पश्चात्‌ तीनों नंय उत्तरोत्तिरे विशेषगामी दोने से स्पष्ट रूप से पयायोथिक ही हैं|? 7, 77 प्रक्ष-यहाईस घात का स्पष्टिकरण होंनों स्थोडिये कि परयोयाधिक चारों नय का विषय पूदे से उत्तर सरदेसोफदा गया है तो उत्तर'से पूरे उतने अश सांमान्यगांमी ही होगा ओर ऐसी हों भूमिका द्रव्याथिक नंय की है उनमें मी नेगमांदि तीनों नेंय 'पूर्वा पैर खूचम विषयी हैं तय तो उतने अ्रश में भी विशेषगभी/ हैं ! तो तीन'द्रब्याथिक और चार प्योयाथिक कहने का फयों हेतु 7 * !* » - उत्तरप््॑द्रव्यायिक और पंयायार्यक! भय फक्‍ही/ गई उसका झुस्य द्वेतु यद्दी है कि!भ्थम की तीन नये स्थूल रूप से सामान्य तत्वश्राही शोर उत्तर शहीचाए भय विशेष 'तत्वप्राहीं हे यहा केयल विशेष्फी स्प्टता, :थस्पण्टतो के अधिर परें मुस्यता गौणता' के ध्येय से इनके हृब्यांधि+) पर्योयारथेक दो विभाग किये गये हैँ घास्तविफ रीति से प्िचार क्यिा,जाय तो. प्त्येक धस्तु में सामा-ये, शो५ विशेष घम्म, एकीक्षाव से रहा हुआ दे ।सीमान्य व्रिशप रद्दित विशेष) सामान्य रहित |, अधित्‌ नखामास्य पिशेष" रादित नहीं दोता |श्रीए-न विशप दी सामतेय से इद्धित है' इसलिग्रेट एक नय कार्वपिषय दूसरी नप्म॑ से फुकान्तपने पृथक नहीं दोता। जैसे -पश्नत्येक यस्तु का;सन्मुस्ताऔर-पृष्ठ दानों।विभेग श्रविभारा रूप से रहाहुआ: दे र/हश १.रव्वयात +- ४४ जय, प्रापक ( झथे विशेष,को प्राप्त फ़रने।घासिा 3 कारको क्िशिष काय करेनेवाक्षा )साभ्रछ, |नियेतका निमासक ( किसी अधथ का प्रकाशक )ठफ्लमक तथा>व्यञ्ञक प्ले प्रग्रोयधाद्ी समा नाथक शब्द हैँ जो जीप्रादि-पद्राधे( को ,भाप्त कराते दूँ प्राप्त होते हू, प्राप्त करते हैं सिर“ फरते दे स्यवद्ाराम् बताते है,उफ्लन्थ ओऔर भगद बरते हैं पे नय हैं 4 झधवा कयरप्रि। विच्ास्मरणी और

8.० तस्वाथ सूत्र_

सापेक्ष अभिप्राय ये सब एक अर्थ के प्रकाशित करने वाले शब्द | किसी एक वस्तु विपयी ज्ञान प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं ओर उस अनेक विचारात्मक सरणी का यहां स्थूल रूप से सात विभाग कम्के बताया है। ये सातों विभाग उत्तरोत्तर सुच्म विषयी हैं इन्हीं को व्यवहार नय ओर निश्चय नय भी कहते हैं | व्यवहारतय स्थूलगामी ओर उपचार प्रधान है ओर निमश्चयनय खच्मगामी तथा तत्वदर्शी हैं। वास्तविक रूप से एवंभूत नय ही निश्चय तय की पराकाप्टा हैं। इन सात नयों के ओर भी अन्य प्रकारसे दो भेद्‌ किये हैं (१) अशथनय, (२) शब्द नय -जिसमें अथे का घधानपना है डसे अधथनय कहते हैं वह लेगमादि चार नय हैं। ओर शब्द प्रधान को शब्दनय कहते हैं उसके शब्दादि तीन ( शब्द० समधि० एवमू० ) भद हैं

इसके सिवाय ओर भी कई दृष्टियां हैं। जसे:-न्लान दृष्टि, क्रिया दष्टि। जो विभाग मात्र सत्य विचार ओर तत्व स्पर्शी चह जान दष्टि-ज्षान नय कहते हैं ओर जो खत्यता आच्छादित है डसकाः पथ प्रदशेक क्रिया दृष्टि अथोत्‌ क्रिया नय कहते हैं। उपरोक्त खातों नय तत्व विचारक होने से ज्ञान नय है ओर उन्हीं खातों नयों के आधार से सत्यता संशोधन कर जीवन को सत्य सथ बनाना वह क्रिया दष्टि। उस समय उसे क्रिया नय कहते' हैं

प्रश्न--उपरोक्त सांतों नय. पांच ज्ञान ओर तीन अनजान में कीन नय किस. जान की आश्रय दाता है ?.

उत्तर--नैगमादि तीनों नय विपयाीय सहित संव ज्ञान आश्रय झ्यित्य है जो सम्यकरण्ठि से उसे शान होता-हैः और म्रिथ्यान्ची को! अज्ञान-तथा ऋजुसखत्र नय मति ब्लान, अज्ञान को छोड़, के शेप्त छुशञान का आश्रय करता-है और श्रुतज्ञान- ओर: केवलनान का ही आश्रय करता है।

बन पद यो

' द्वितीय अध्याय

तट 5 कक + तर पदले भध्याथ में सातः परों का ताश तिरेश जि।ध। आप द्वितीयादि सघ अध्यायों में गम शीवादि भात परां ( अ्याप सूत्र 3 के ] यधापम सपिश्तार भणैम फेरंगी | गरतुत पिप्तीप अध्याय से यापत्‌ यतुर्ध भध्याप पर्यश्त है| भीध ताप क| १+ प्‌ भेद प्रभेदादि सहित प्रतिणद्‌स करते है ! |

पाँच भावा का खरूप ओपशमिकलासियंग गाया गिभ्ेश और रवतबगीदुगिर

कपारिणामिकी च॥ १॥ घशू््ह श्प श्र ह$

7. द्विननाष्टालशविशतिविमंदा सथकेश » सम्यस्तचारित्र बान देंशन बाय लाभ भोगेषभीग सीयाशि थे ब्ञानावानदशनतानादिवदबयभत विंग वधा# /सम्यक्त्य चारिग्रसयमासयमाश्र

ग्रतिक्पायलिगमि/्याद गेनामानाग सा तिद्।व टू पे सुस्स्येड कसकपेट मठा। * ,. जीउमस्यामल्ययादीनी | | ५८ ही |, छाविर, श्यीत मित्र /॥िक्ष/ अथास-अीडपिक, एव धचि कब की #ै जब कम

|

(६८ ) तत्याथ सत्र

उक्त पांच भाषों के अनुक्रम से दो, नव, अरठारह, इकीस जोर तीन भेद होते हैँ २॥

(१ ) ओपशमिक भाव के दो भेद (१) उपशमससमस्यकाव !२) उपशम चारित्र

(३) ज्ञायिक भाव के नी भद्‌। (१) केवलशान, (२) फेचल द्शन, (३) दान, (४) लाभ, (४) भोग, (६) उपभोग, (७) चीये. (८) ज्ञायिकसम्यकत्व, (९) च्तायिक जारिय

(३ ) ओपशभिक भाव के अठारह भदू-५ चार भान, तीन आज्ञान, १० तीन दर््न, १५ पांच लब्घी, ६६ क्षयोपमसम्यव्त्य १७ देशविरती और १८ सर्च विरती एवं १८॥४५॥

(४ ) ओदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं-४ चारगती, चआरकपाय, ११ तीन चेद, १५ मिथ्यात्व, १३ शज्लतन, १४ अस्ंयम १* असिद्धन्व, और २१ छुलेश्या एवं २१ ६॥

(५) पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं-जीवन्च, भव्यत्य आर अभव्यत्व

विवेचन-आत्मस्वरूप के मन्‍्तव्य विषय जैन और जैनेतर दर्शन में कितना मत भेद्‌ है उसी का! प्रस्तुत सूत्चों से दिगदरशन कराया है। सांख्य और वेदान्त दशन आत्मा को कूटस्थ नित्य अथात्‌ अपरिवेतन शील नित्य मान के इस में किसी तरह का परिणाम नहीं मानते ज्ञान ओर खुखदुखादि परिणःम वे प्रकत्ती को मानते हैं | चैशेषिक, और नैयायिकदरशन ज्ञानादि को आत्मा का गुण मानते हैं | तथापि बे आत्मा एकान्त नित्य अपरिणामी मानते हैं। ओर नवीन' मीमांसकों' का मन्‍्तव्य भी यही है चोद्ूदशन जात्मा को एकान्त क्षणिक अर्थात्‌ निरन्वयपरिणामों का भ्रवाह मानते हैं और जैन दर्शन का कहना दै कि जैसे प्रकृति

अ० रू* (5६७ )

(ज्रपदाय म॑ यृर्स्थ नित्यता नहीं है चेसे दी एका-त) चाणिस्ता सी नहीं हे कितु परिणाम्ी नित्य है) अथोत्‌ ज्ञो वस्तु अपने स्पमाघ स्थित रहती हुई भी देश, फारासुराग परियतनशील याने पलटने ये स्थमाव घाटी हो डसफो पारिणामिक नित्य कद्दते हूं। उसी तरइ आत्मा को भी परिणामी निय मानते हैं इसीलिये शाम जोर सुछ, दुसादि पयाय अए्म! के ही समझने चादिये। झात्माफे सब पयोय एफ अपस्था चाले नहीं होते फितनेफ पक अ्बस्धा पाले और फितनेफ़ अन्य अपम्धा चाले द्वोते दें अथोय्‌ भिन्त अवस्था धाले दोसे है पर्याय की मिश्यस्था शो ही भाघ फदते दे सामा“य रूप से पाच (५) विभागों में प्िमा जित करे बताये गये हैं. यथा (१ ) ओपसमिक, (२ ) क्षायिक, (३ ) दायोपशमिक (मिध),( ) भौदयिक, (५ ) परिणामिक हैँ

(१) ओपशमिक भाय--यर्मो के उपशम से उत्पन्न दोने याक्े को औपडामिक भाव कहते ऐं। यद अप्मा की एक प्रकार से घद्धायस्था दे जसे।-मजलीन पाती स्थिरतर पाकर कुछ समय का लिये स्पच्छ दोजाता है कयोंलि उसमें कायरादि जो मेलापना था थह्त नीचे यैद जाता है। पैसे दी सत्तागत कर्म या उदय सपा रुषझ जाने से को भए्पा में निमेल्ता उत्पन्त दोती दे उसे भोपश मिक साथ छदसे हैं

(५) क्ायिव-पर्मो पे रूप से उत्पन्न होने धाले भाव को चादिव भाय कदते हैं ( पद शयस्था आरमा की परम पिशु झुसा रूप दे जैसे मारीर पाती कबरादि निव्रालने से स्पद्छ इोशएा दे। पैसे ही कर्म घन्‍य थे चाप होने से जो पिशुदता प्रगढ होती दे उसे लायिद साय कहते हैं

(६) दंपोपशमिक माय--कर्मो फे छय और उपशभ से

(६८) _ तस्वा्थ रत्न उत्पन्न होने वाले भाव को ज्योपशम भाग कहते हैं। यह भी आत्मा की एक प्रकार से विशुद्धता हैं जो नहीं उदय मे आन चाल्ले कर्मो के अश को उपशमाने से आर उदय धाप्त कमा के क्षय से प्रगट होती है इसी को क्षयोंपशम भाव कहते दे ।इससे मादक शक्ति सर्वेधा नष्ट नहीं होती अद्ध-जरित काए के समान मिश्रभाच होता है 7

(४) ओदथिक साव उदय से प्राप्त होने वाले भावों को ओदसयिक साव कहते हैं यह आत्मा की पक प्रकार से कलुपिता-

चस्था है जसे -मैल से पाती में मलीनता थ्ाज्ञाती है चेसे ही कर्म विपाक के उदय से कलुपितता आती है उस अचस्था को आअ,दयिक भाव कहते हैं

(४) परिणामिक्र भाव-यह धाव जीवादि सब द्रव्यों में होता है परन्तु सूत्रोक्त ( जीवन्च, भव्यत्व,. अभव्यत्व ) तीनों . भेद जीव विशेष है अर्थात्‌ जीव मे ही पाये जाते हैं खचसलातवां (७)के आदि शब्द से शेप अस्तित्व, नित्यत्व, अरूपत्वादि अनेक भाव सूचित होते हैं वे सब दव्यों भे पाये जाते हैं और वे स्वाभाविक तथा कृत्रिम दोनों परक्रार के होके है परिणामिक भाव: जीवादिक द्रब्यों का एक परिणाम अथौत्‌ स्वाभाविक चिशेप है बह द्वव्य के अस्तित्व से स्वयम्‌ सिद्धि होता है। अथात्‌ सब द्रृब्यों का स्वाभर्ट विक स्वरूपपरिणामन ही परियामिक भाव कहलाता है ।+ +. '

डपरोक्त पांच भाव ही आत्मा का स्वरूप है' अथाव्‌ खेसारी किया मुक्त कोई भी व्यत्मा क्‍यों हो उनके सब पर्मार्सी में उक्त पांच भावों मे से किसी मे दो से यावत्‌ पांच भाव न्यूना: थिक रूप से अचच्य होते है। इन पांच भावों के ५३ भेद कहे के वे जीव विशेष है। अजीब मे वे संभवित नहीं होते इसलिये नें जीव स्वरूप हैं ५०

+ ०»

आ० २ुसू ७। (६६ )॥

जीव में पाचों भाप एफ साथ दो ऐसा नियम नहीं है मोक्त प्राप्त हुवे सब जीवों में उक्त पाच भावों में से केबल दो ही भाव होते है ( १) क्ञायिक और (२) परिणामिक। सासारिक ज्ञीय कई तीन, कई चार और कई पाच भाव बाले होते व्छ इनमें दो भाव नहीं होते अजीव में एक परिणामिक भाष होता है उसकी यद्दा व्याख्या नहीं है प्रस्तुत सूत्र जीवराशि की अपेक्षा से डै। परिणामिक भाव के भेद सूचित करने दाले खूजच्र में जो आदि शब्द हैं चद् उक्त तीन (३) पथायों के सिंधाय जोर भी पर्याय सूचित फरता है थे जीव, अजीब दोनों म॑ पाये जाते हैं। इसलिये प्रस्तुत सूत मेजीय समवित पयायों की गणना है और थे ज्ञीवही में पाये जाते हैं.

ओऔदयिकमाव के जो पर्याय दे वे वेभानिफ और शेप चार भायों के पर्याय स्वभाविक रूप हैँ परन्तु यह व्याय्या पाथ भाधों के ५३ मेद आभ्रयी हैं जद्दा पारिणामिक भाव के सेद की अनेक रूप से व्याख्या होगी वहा वड़ भी स्वाभाविक, विभाविक ऋूप उसय घम वाला होजायगा।

हि

पांच भावों के उत्तर ,भेद है

को

(१) उपद्ाम कैयल मोद्दनीयकर्म काही होता है मोद'

नीयकर् के उपदयम से औपदमिफ भाव भप्रगट होता है। दशन

मोहनीय के उपसम से उपशम सस्यकत्व और चारित्र मोहनीय के

उपशम से उपशम चारिच्र प्रगट दोता है इसल्यि उक्त दोनों भेद उपद्ाम भावी है

(५२) केवल पझानाप्नरणीय कम के च्य से केपलछ शान

झोर फेचल दशनावरणीय फम के क्षय से केवल दशन इसी तरद्द

पांच अस्तराक्षय होने से लाभ, जैसे-अनन्तदान, अनन्तलाभ, अन- न्तमोग, अनन्त उपभोग, और अनन्त वीये रूप पांच लब्चियां प्रगट होती हैं। दशन मोहनीय कम के क्षय से क्षायिक सम्यकत्व और चारित्र मोहनीय कम के क्षय से क्ञायिक चारित्र प्रगट होता है उक्त नो प्रकृतियों के क्षय होने से क्तायिक भाव प्रेगट होता है ओर इसी से ज्ञायिक भाव के नो भेद माने गये है |

(३) मती, श्रति, अवधि और मनः परयायज्नानावरीय, कम के ज्योपशम से मति, श्रुति, अवधि और मनः पयाय बान प्रगट होता है| मिथ्यात्वयुक्त मती शानावरणीय, ध्त ज्ञानावर्णिय अवधियज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से मति अज्ञान, थ्र॒नि अज्ञान, ओर विभशकज्ञान प्रगट होता है चचछ्ुदशनावरणीय, अचचक्षुद्शना- बरणीय और अवधिदशनावरणीय कम के क्षयोपशम से चक्तु, अचचछु ओर अवधिदर्शन प्रगठ होता है, पंचविध अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से दानादि पू्वाक्त पांच लब्धियां क्षयोपशम भाव से प्रगठ होंती है, अनन्तानुवंधी चतुप्क ओर दशन मोहनीय के क्षयोपशम से जो सम्यकत्व प्रगट होता है उसे च्ययोपशम सम्पकत्व कहते हैं, ओर प्रत्याख्यानावरणीय कपाय के क्षयोपशम से देश- बिरती ओर अ्रश्नत्याख्यानावरणीय कषाय के ज्ञयोपशम से सर्वे विरती चारित्र प्रगठ होता है! इस तरह उक्त अठारह भेद क्षयोपशम सम्यकत्व के माने गये है

(४ | गति नाम कम के उदय से नरक, तीर्यच, मलुष्य और देवगति, तथा कषाय मोहनीय के उदय से £ क्रोध, ८६ मान, माया, छोम ओर वेद मोहनीयकम के उदय से ख्री १० पुरुष, ११ नपुंसक तथा मिश्यात्व॑ मोहनीय कर्म के उदय से १० मिथ्यादशन अशथात्‌ तत्व विषयी अश्रद्धा ओर शानावरेणीय

आ० सू) ७। (७१)

कर्म के उदय से १३ अशान, २४ असयत अर्थात्त विरती का सर्वथा अभाव जो अनन्तानुपन्धी बारह प्रकार के चारित्र मोहनीय के उदय सप्राप्फल रूप हैं और १५ अखिद्धत्व अथात शरीर धारण फरन/ यद्द नाम कर्म तथा बेटनीन, आयुष्य और गोत्र कमे उदय जनित होता है, “६ कूप्ण, १७ नील, १८ कापोत, १९ तेमो, २० पद्म और शुफठ ये प्रकार की लेश्य ये कपायोदय रजित किया योग प्रवृत्ति के फलरूप मोदनीय कमे और नाम कमे उदय जनित है. एवं “१ भेद उददयिक भाव कहलाते हैं।

( _ ) जीवत्वन्चेतन्यत्व, भव्यत्व>्मुक्ति फी योग्यता, अभव्यत्य-पुक्चि की अयोग्यता। ये तीनों भार स्थाभाषिक रूप हैँ किन्तु कर्मी के उदय से या क्षय से या ज्योपशम से या उपशम से उत्पन्न नहीं दोते अनादि सिद्ध अथात्‌ आत्मद्रव्य के आस्तित्य से ही सिद्ध हैं इसलिये इन्हें पारिणामिकर भाव कहते हैं. परिणामिक भाय के और भी अनेक भेद हैं | जेले -अस्तित्व, अनिष्यत्य, कठ़ेंत्य, भोफ्ठत्य, ग्ुत्य, प्रदेशत्व, असवशत्व ओऔर अरुपत्व इत्यादि |

प्रश्न- पूर्योक्त खूज में पारिणामिक्र भाव के तीन ही भेद फ्यों बताये ?

उत्तर-प्रस्तुत विषय ज्ीय स्घरूप विपयी हैं. और उसकी पहिचान के लिये केयर जीव के ही साधारण भाव यताये गये हैं अर्धात्‌ उन भाषों को यहा वक्तव्यता है जो जीव के सिधाय अन्य द्रव्य में सप्राप्त हो इसल्यि औपशमिकादि भावों के साथ बेही पारिणामिक भाव पताये गये हैं जो केवल जीव ही में पाये जाते ह#। शप अस्तित्वादि पारिणामिक भाव के भेद हैं वे जीव के समान अजीव में भी पाये जाते हैं इसलिये वे जीय 'के असाधारण माव

७२ ) तन्वाथ सच्चे

चक

कहलाते | इसी कारण उन भेदों का यहां निर्देश नहीं है अन्त आदि शब्द से वे सचित किये गये हैं

जीव का लक्षण

उपयोगोलक्षणम्‌

अधथ--डपयोग यह जीव का छत्तण है

विधवेचन-- जीव जिसको आत्मा और चेतन्य भी कहते वह अनादि सिद्ध ( स्वतन्त्र ) ब्य है तात्विक दृष्टि से अच्पी होने के कारण इसका ज्वान इन्द्रियों छारा नहीं ही सकता परन्तु स्वसंवेदन अत्यक्ष तथा अन्ुमानादि से हो सकता है | तथापि साधारण जिशासखुओं के लिये एक ऐेला रूक्षण बनाना चाहिये जिस में आत्मा की पहचान होज्ञाय यही ध्येय भस्तुत खच का है आत्मा लज्न है. ओर उपयोग छत्तण अथेत्‌ उसके जानने का मुख्य उपाग्र है संसार में जड़ और चैतन्य दो पदाथों का मिश्रण है। इसमें जड़ और चैतन्य का विवेक पूर्वक निश्चय करना हो तो उपयोग छत्षण कहने से उसकी सहज ही में प्थकना हो ज्ञायगी क्योंकि चढ़ (उपयोग) सब आत्माओं में तारतम्य भाव से अवश्य रहा हुआ है और जिल पदार्थ में डपयोग नहीं है चह अजीच अथात्‌ जड़ कहलाता है| दि " प्रशन--उपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर--वोधरूप व्यापार को उपयोग कहते हैं $ प्रदन-आत्मा में वोधकिया होती है चैसी जड़ में क्‍यों नहीं होती ? हे . न्‍ उत्तर-वयोध की कारण चेतना शक्ति है बह शक्ति जिस में होगी उसी को बोध ही सकती है जीव क्रे सियाय अन्य पादाथों

अ० २० ८। छह )

| में चेतना शक्ति द्ोने के कारण उनफो बोध नहीं होता इसोलिये थे ज़ड कहलाते हैं। बोध शक्ति केवल आत्मा में ही

प्रश्न-भात्मा स्वतन्न द्वव्य ह॑ इसमें अनेक गुण होने चाटिये फेघल उपयोग ही को लक्षण फैसे कट्दा

उत्तर-धास्तविफ रूप से आत्मा में श्रनेक शुण पर्याय तथापि उन सब में मुस्यता उपयोग की है वद्दी स्पपर प्रफाशक रूप है. अनेक प्रकाए के गुण पयायों की शानकत्व शक्ति का भाजन उपयोग ही है अस्ति, भास्ति आदि अनेफ पयोयों को जानना ओर उस बिपय में नजु-नच करना खुय दुख फा झअजुभव फरना स्थ और पर पर्याय का भान प्राप्त करना यद्द सब उपयोग फा ही फाम &ै। इसलिये सब पयोयों में उपयोगपयोय मुण्य समझा | गयाएे। प्रश्न-पदले पाच भाषों से जीव फा स्थरूप समझाया ओर 'प्रथ उसफा लपक्तण पताते हों तो फ्या लक्तेण स्वरूप से मिन्न है! उत्तर--लक्षण स्थरुप से भिन्न नहीं है

प्रश्न--तव लक्षण स्थरूप से मिप्त कददने की फ्या आय श्यकता

उत्तर--पाच भाव जीप का असाधारण धम है अथात्‌ वे जीप के सिवाय अ-य पदाथो में नहीं पाये जाते। परन्तु वे सघ आत्माओं में सदश रूप नहीं होते | फतिपय खत्त द्वोते हुवे मी फिसी समय सलक्तरूप होते है ओर पिसी समय लक्तरूप नहीं दोते आर उनमें कितनेक भेद ऐसे जो फ्सी एक आत्मा में सर्वधा नहीं दोते जैसेः-अमव्यत्य, मब्यत्वादि ओर क्तिनेक पयाय ऐसे

( ७४ ) तत्वाथ सत्र

हैं जो रिकाल लक्षरूप रहते है उनमें समन्न रुप से लच्ष में रहने चाला तजिकाल वी असाधारण धरम उपयोग दे इसलिये लक्षण रुप से इसको ए्थक्र कहके समझाया है। इससे यह भी सचित होता है कि ओपशमिकरादि भाव जीवस्वरूप हैं परन्तु वे सब जीवों में एक साथ नहीं मिलते ओर सब त्रिकाल वर्ता भी नहीं जिकालवर्ती ओर सब आत्माओं में सदश रूप से रहा हुआ हैं तो एक जीवत्वरूप पारिणामिक भाव ही है। जिसका फलिताथ उपयोग ही होता हैं इसलिये डपयोगोजीवलक्षणम / यद्द सक्तणरूप से श्थक्‌ कह वतलाया है| उपरोक्त ४३ मेद में जीवत्व को छोड़ के शेष ४२ भेदों को हम आत्मा का लक्षण भी कद्द सकते है। परन्तु वे लक्षांश हैं अर्थात्‌ कम सापेक्ष होने से उन्हें उपलक्षण भी कद सकते हैं लक्षण और उपलक्तण में विशेषता यह है कि जो मूल वस्तु बस्तुस्वरूप है उसे लक्ष कहते ओर उस चस्तु में जिकालवर्ती रहा हुआ धम अथोत्‌ जो स्वभाव लक्ष को छोड़ के कभी पृथक नहीं होता तीनों काल लक्त में प्राप्त रहे झैसेः-अश्लि में उष्णता उसे लक्षण कहते हैं ओर जो धम किसी लक्ष (वस्तु) में हो और किसी में हो जैसेः-अश्नि में घूँआ यह किसी समय होता दे जझौर किसी समय नहीं होता अथोत्‌ स्वभाव सिद्ध हो उसे डउपलक्षण कददते है इसल्यि उपरोक्त सूत्च उपयोगोजीवलक्ष- णुम यह आत्मा का जीवत्व लक्षण हैं उस जीवत्व को छोड़ के शेप ५२ भेद्‌ कम सापेक्ष होने से उपलक्षण हैं ८॥

उपयोग की विविधता साहिविधोष्टचतुरभंद। अथ- वह उपभोग दो, आठ ओर चार प्रकार का है॥*॥

आ* २० ६। (७५ )

विभेचन--सब शआत्माओं में सेतना शक्ति चरावर होते हुए भी शान क्रिया अथात्‌ बोध व्यापार अववा उपयोग सामा-य रूप से नद्दीं दोता उसकी विविधता बाह्य अभ्यन्तर काण्णों के समूंह फी विविधता पए अवलब्बित है। विषय भेद, इन्द्रियादि साधन भेद, देशकाल भद्‌ इत्यादि विविधताएँ याह्य सामभ्री से दोती हैं. और आवरण फी वीमता मदना का वास्तम्पता भाव आन्तरिक सामभ्री फी विविधता पर है। इन सामश्रियों फी चियि अ्रता से एऋ ही आत्मा में भिन्न समय नाना प्रकार पी जोथ क्रियाये हुआ फरती दे ओर अनेक शात्मा एक ही समय में भिन्न उपयोगी द्वोते हैं यह बोध विविधता अज्ञुभप सिद्ध है। तथापि सचछ्षेप से इसका वर्गीफरण करके बताना ही प्रस्तुत खूज़ फा उद्देश दे उपयोग राशि के सामान्य रुप से दो प्रिभाग दो सकते हैं। एक सपाए उपयोग श्र दूसरा मिराकार उपयोग | विशेष रूप से सकार उपयोग फे आठ भेद और निराकाए उपयोग के चार भेद्‌ हो सकते हैँं। एवं सत्नोक्ल ब्याय्या से उपयोग के बारह भेद द्ोते हैं।

मतिशान, श्रुतज्ञान, श्रधघिशान, मन पर्यायज्ञान, फेघल शान, मतिश्रन्नान, श्रेतअज्षान और विभगश्नान एवं शाठ प्रफार साकार उपयोग कहलाता है

चचुदशन, अचच्चुदरशन, अवधिदशन और केयलदशन ये चारों निराफार उपयोग हैं &

प्रश्न--साकार और निराकार किसे फद्दते हैं

उत्तर--जिस चोध द्वारा ग्रादह्मय चस्तु विशेष रूप ज्ञाय उसे साका” उपयोग कहते दें और भाहय घस्तु

नराफार उपयोग कदते है।

(७६ ) _ तत्वार्थ सत्र _

झथवा सविकल्प वोध कहते हैं ओर निराकार को दर्शन अथवा निर्विकल्प वोध कहते हैं

प्रश्न--उपरोक्त वारह भेदों में से कितने भेद पूर्ण विकास चैतना शक्ति काये विपयी हैं ओर कितने भेद अपूर विकास चैतना शक्ति काये विपयी हैं ?

उत्तर--केवलज्ञान और केवलदशन दो उपयोग पूर्ण विकसित चेतना शक्ति व्यापार रूप हैं ओर शेष दश उपयोग अपूर्ण विकसित चेतना शक्ति व्यापार हैं।

प्रश्न--विकास की अपूर्णावस्था में उपयोग की विविधत संभव हो सकती है परन्तु परिपूणं विकसित अवस्था प्राष्त होने पर उपयोग के भेद केसे संभवित हो सकते हैं

उत्तर-विकास की परियपूर्णता में भी केवलशान ओर कफेवलदशन रूप दो उपयोग माने गये हैं वह केवल ग्राह्य विषय की छिरूपता है। अथोत प्रत्येक वस्तु सामान्य और विशेष रूप उभय स्वभाव चाली होती है ओर तद्‌ रूप जानना ही पूर्णीवस्था है इसलिये वस्तु उभय स्वभाव होने से तद्‌ विषयी चेतना जन्य व्यापार भी ज्ञान, द्शन रूप दो पकार से माना गया है|

प्रक्ष--साकार उपयोग के आठ भेदोंमें ज्ञान ओर अज्ञान में क्या विशेषता है ?

उत्तर--शान सम्यकत्व सहभावी है और अज्ञान असह भादी है यही परस्पर विशेषता है

प्रक्ष--तव तो सब ज्ञानों का प्रतिपक्ती अ््ान और से दशनों का प्रतिपक्षी अद्शन मानना चाहिये ?

रे

उत्तर--मनःपर्यथष और केवल ये दो श्ञान सम्यकत्व के

आ0०२ स॒० १०। (७७ )

दिता हो दी नहीं सकने इसलिये इनके प्रतिपक्ती अज्ञान नहीं है दशन विषय केयलदशन यिना सम्यकत्व दे हो नहीं सकता। शेप 'तीनद्शन सम्यक्त्व फे अभाव में होते हैं। परन्तु इनके प्रति पक्ती दशन नहीं फदने फा कारण यद्द है कि दर्शन छेवल सामा न्‍्याव घोध है इसलिये सस्यक्त्वी ओर मिथ्यात्वी फा भेद्‌ दृशन घिपयी व्यवद्दार में नहीं बताया जा सकता।

प्रश--उपरोक्त घारद्द मेद्‌ फी व्याय्या फ्या है !

ऊत्तर--शातर के आठ भर्दों का स्वरूप अध्याय सून से ३६४ पर्यत में घणन कर चुके हैं. ओर दर्शन के चार भेदों फा स्परूप यद्द है. (१) नेच्र सिवाय किसी भी इन्द्रिय और भन से छोनेवाले सामान्यावधोध को अचकछ्ु दशन कहते हैं। (२) नेध जन्य सामान्यावयो को चच्ुद्शन फ्द्ते हैं (३) अवधि लब्धि से मूक्तमान पदार्थों का जो सामान्य अवधोध है चद्द अवधि दर्शन (४) प्रत्येक चस्तु सामान्य और विंशप स्वभाव चाली दोती है उन समस्त पदार्थों का सामाय घमम विपयी श्रववोव फो केदल दशन फदते हैं॥ ६॥

4 ).9.. की जांव राश (वेभाग ससारिणो मुक्काश १०

अर्थ-जीवों के दो भेद हैं। एक ससारी और दूसरे मुक्त॥ १०॥

पविधेचन--जीव अन-त हैं ओर चेतना रूप से थे सब पक समान है अधौोत्‌ एक स्वरूप हैं तथापि इनके जो दो विभाग

करके घताये दें थे उनकी विशेषापेस्षित दै अथोत्‌ एक ससार रूप पर्याय चाल्ले दूसरे मोक्त पर्याय पाले दें पदले प्रकार के जीवों को

।' धर ) भग्या थे ५5

सेसारी ओर इसरे का मोश् काते हैं संसारी जीय जे

करते झुप्ट सेसार में श्रमग करने है पुक्त फीर्यो का

में आवागमन नहीं दे वे जन्म ज़रा मरणु ये; सस्धन से सुझ हो गये हैं

बन्धन दो प्रकार के हे (१) द्रव्य बन्धन (०) भाव ये अर ये ही जीवों के. लिये सेसार रूप हैं। फर्म दल के विशिए यन्धन को दृब्यबन्ध करते हैं यहा तरहदे गांगरथानया पयननर झर गाग हवप की बासनाओं का सम्बन्ध भाव चन्धच है जो इश्क गणरूथान पर्यन्त रहता दे १०

ससारी जीवों के भेद प्रभेद समनस्काअमनस्का। ११ सेसारिणखसस्थावरा। १२ प्रथिव्येचु बनस्पतय स्थावरा; १३ तजोवायु द्वीन्द्रियादयश्र त्रसाः १४

अथे-संसारी जीवों के दो भेद हैं। मनवाले ओऔर मन रहित ११॥

4

पुनः संसारी जीबों के संज्प से तरस, स्थावर रूप दो भेद हैं॥ १२॥ पृथ्ची, पानी, वनास्पतिके जीव स्थावर कहलाते हैं अश्रि, वायु उन्द्रियादि जीव चस है १४ विवेचन--संसारी जीव अनन्त है उनका संक्तेप से दी विभाग करके बताया है' | यह दो प्रकार की कल्पना अनेक रूप से हो सकती है--जैसे खूदम ओर चादर, भव्य ओर अभव्य,

2३]

है

आ० सु० ११-१४ ( (७६)

परत और अपरत, सम्यफ्त्वी और मिथ्यात्यी इत्यादि परन्तु यहा सूत्कार के किये हुप्ट दो विभागों में पहली फ्टपना मन के सम्बन्ध से ओर दूसरी मन के असम्वन्ध से दे। जिसके मन दे चह समनस्फा और जो मन रदित हे फद्द अमनस्या | इसमें सब ससारी जीचों का समावेश द्ोता है। दूसरी कटपना दो प्रकार की हे उसमें जल और स्थाचर रूप दो विभाग ऊिये दें जो दलन, चलन क्रिया समर्थ उनको नस कहते ओर उक्त क्रिया से रहित हद उनको स्थावर कद्दते दे। इसमें भी सत्र सखारो जीचों का समावेश द्चोता है

प्रझ्च--मन किसे कद्दते है ?

उत्तर--जिंससे पिचार किया जाय उस झआात्मशक्ति को मन कहते श्रथवा आत्मशक्कि से ग्रदय किये हुए विचारात्मक भन घगेणा के परमाणुझों को भी मन कहते दें। आत्मशफ्ति को भाव मन कद्दते और मन बरगेणा के परमाणुओं फो द्वव्य मन फहते

भ्श्ष--मन रहित जीचों के द्वव्य मन या भाव मन दोता हऔयानदीं!

उत्तर--फेयल भाव मन द्वोता है।

प्श्न--तय तो सब जीव मन याले हुए फिर समनस्का, अमनस्का फद्ने या तात्पय फ्या हे

ऊत्तर--टवब्य भन की अपेत्ता से भेद क्यि गये हैं जैसे- घृद्ध मउप्य पाव और चलने की शक्कि के द्वोते हुप्ट भी लफडी के

. सदारे बिना नहीं चल सकता इसी तरद्द भाव मन के होते हुप

भी द्वव्य मन पे बिना स्पष्ट विचार नहीं फर सकता इसलिये द्वब्य' मन की अपेक्षा से दी दो विभाग किये गये है

(८० ) तत्वाथ खत्र

प्रश्न--चस और स्थावर किसे कदते हें ?

डचर--जिनकी चसनाम कर्म का उदय हो अथवा गति क्रिया स्वभावी हो उसको चस कहते हैं। जिनको सथावर नाम कम का उदय हो गति स्वभाव क्रिया से रहित हो उसे रुथावर कहते हैं

प्रश्न--चसत्व, स्थावरत्व किसे कद्ते हें

डत्तर--डद्देश्य पूचिक एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की शक्ति याने हलन चलन शक्ति हो उसे चसत्व कद्दते अन्यथा स्थावर है

प्रन--चल नाम आर स्थावर नाम कम के उदय की क्या पहद्िचान ?

उत्तर-छुःख को छोड़ने की ओर खझुख को घाप्त करने की जिसमें प्रवृत्ति दिखे बह चसनामकर्म का उदय हैं. इससे विपरीत स्थावर नाम कम का उदय सममभना चाहिये

प्रश्न-- इन्द्रिय के समान तेजस, वायुकाब जीव भी स्पष्ट रूप से गति स्वभावरी दिखते हैं तो थे भी अस है ?

उत्तर--बे अस नहीं हैं सश्न--तो इनको पृथ्वीकाय के समान स्थाचर क्यों नहीं कहा है

उत्तर--डक्कत लक्षण के अलुसार वास्तविक रूप से ने स्थावर नहीं है ओर अन्य कई अन्धकारों ने इसे स्थायर ही माना है। परन्तु यहां द्विन्द्रियादि के साथ गती सादश पर्ने से ही चस कहा है। चस दो प्रकार के होते हैं। एक गतित्रस और दसरे छब्घित्रस। जिनको गतिनामकर्म का उदय है वे ब्ास्तविक

झा स० १४-२० | (८१)

रूप से लब्धि चघस हैं जैसे -द्विन्द्रिय से थायत्‌ पचेन्द्रिय जीव ओर पएफ्रेठिय जीवों को स्थाघए नाम फम का उदय है परन्तु पस्तुत सूत्र में तेअसकफाय, वायुकाय को नस माना टै। यह केवल गति नस फी ही सापेत्षता हैँ वास्तविकरूप से एथ्वी,, पानी, अप्रि, चायु और चनास्पति ये सब स्थाचर हें ओर हिन्द्रिय, सेरीन्द्रिय, चोरीन्द्रिय और पचेन्द्रिय ये चस हैं. स्थावर सर्वथा मन रहित दोते हैं ओर फई नस मनवाते द्ोते हैं और फई मन रद्ित होते है ११-१४

इन्द्रियों की सख्या झोर भेद पच्ेन्द्रियाणि १४ दिविधानि ११ निरईत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्‌ १७ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियस्‌ १८॥ उपयोग स्पर्शादिपु १६॥ स्पर्शनरसनमायचक्ु शरेत्राणि २०

अर्थ--इन्ठ्रिया पाच हैँ १४

ये प्रत्येक दो दो प्रकार पी है १६

झब्येन्द्रिय निम्रत्ति और उपकरण रूप दे १७ भावेन्द्रिय लीध और उपयोग रुप है॥ १८॥ उपयोग स्पशादि विषयों में दोता दे १६ झुपर्शन, रसन, घाय चछु और ओोष ये पाच

इन्द्रियों के नाम हैं॥ २०

( ८२ ) तत्वाथ खूघ। _

विवेचन--४न्द्रियों की संस्या चताने फा उद्देश यद्द दे कि इस पर से संसारी जीवों के विभाग ऋरने हो तो अनायास हो सकते हैं ओर उसे सरलता से समझा भी सकते हैं | इन्द्रियां पांच हैं तथापि समग्र संसारी जीवों के पूण पांचों इन्द्रियां नहीं हें किसी के एक, क्रिसी के दो, एवं यावन्‌ किसी के पांच इन्द्रियां होती हैं। जिनके एक इन्द्रिय है वे पकेन्द्रिय कहलाते हैं। एच बिन्द्रिय, तेरीन्द्रिय, चोरीन्द्रिय ओर पंचेन्द्रिय पर्यन्त इन्द्रिय भेद से संसारी जीव पांच प्रकार के होते हैं

प्रश्न--इन्द्रियां किसे कहते है ?

उत्तर--जिससे ज्ञान प्राप्त हो थे इन्द्रियां कहलाती है

प्रश्न--क्या इन्द्रियां पांच से अधिक नहीं होती !

उतच्तर--हां इसी मर्यादा को सूचित करने के लिये ही यह सूत्र है। सांख्यादि शास्त्रों में जो इन्द्रियां कही दे जेसे-बाक, पाणी पाद, पायु, गुदा, उपस्थित ( लिंग तथा जननेन्द्रिय ) परन्तु वे सब कर्मन्द्रिय है प्रस्तुत केवल ज्ानेन्द्रिय का विपय्न है ओर ये शानेन्द्रिय पांच से अधिक नहीं होती

प्रशन--आ/नेन्द्रिय किसे कहते हैं ? ओर कर्मेन्द्रिय, किसे कहते हैं ?

उत्तर--जीवन यात्रा में वस्तु विपयी ज्ञान प्राप्ति का डपयोग जिसके छारा हो उसे सुख्यतया क्ञानेन्द्रिय कहते हैं ओर

जिससे आहार, विहार, निहारादि क्रिया होसके डसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं

पांचों इन्द्रियां द्रव्य ओर भाव रूप से दो दो प्रकार की हैं और जो पुद्लमय जड़रूप हैं बे द्रव्येन्द्रियां कहलाती हैं. ओर आएत्मिक परिणाम रूप भाव को भावेन्द्रिय कहते हैं।

ध्य० सू० १४-२० | ( ८३ )

दृब्ये| ठिय दो प्रकार की दे (१) निर्षुत्ति, (२) उपक रण ' अगोपागनामकर्म से वे निमाणनामकर्म के उदय से शरीर के अ्गोपाग फी योग्य स्थान में प्रदेश रचना होती है उस रखना विशेष को निषृत्ति द्रयेन्द्रिय रहते है यह बाह्य और अभ्य तर रूप दो भकार से है | उस निर्त्ति इन्द्रिय ( नेत्रादि ) की रक्ता के लिये उपकरण इन्द्रिय है। जैसे नेप की रक्षा के लिये डोला, पल्तक, भाफणादि है। उक्त दोएों ( निवृत्ति ओर उपर्ण ) द्वव्ये +ट्िय फ्दलाती हैं और जड रूप हैं। यद्द निवृत्ति इद्धिय अज्ुपघात तथा अलुग्रह ( द्वितवाह ) दोने से उपकारी हो सकती है चास्त विफ रूप से आग के आकार विशेष को बाह्य द्ब्येगह्रय कद्वते आर उस में रही हुई काली टीफी जिसमे लौकिक शक्तिदे उसको अभ्यन्तर हयेख्धिय फ्दते हे अथवा निवृत्ति द्ब्येडिय की पाह्य अभ्यन्तर पौक्नलिक शक्ति जिसके रिना निर्वृत्ति इन्ठिय शान पेदा करने वे लिये असमथ टै उसे भी उपक्स्णेन्द्रिय फदते दे।

भार्जे ठ्िय लब्धि और उपयोग रूप दो प्रकार की है जीव फी गति, थाति आदि कमी पे उदय से तथा इनके क्रावरणीय कर्मी के क्योपशम से और इरद्रिय श्राथय भूत फर्मी के उदय से उत्पन्न छो उसे लब्बि भायेतिद्िय कद्दते दे और पद्ध पाच प्रकार फी है (१) स्पर्शन्द्रिय लीध, (२) रसेडिय लब्धि, (३) घाणे ख्टिय लब्च, (४ ) चच्चुरिन्द्रिय लब्धि, (४) श्रोत्रेरिद्रिय लब्धि | उपगेक्ल निशत्ति, उपकरण ओर रान्धि तीनों के सम्मिलित होने से रूपादि धिपयों का जो सामाय अर विशेष बोध दोता है उसे उपयोग भावेन्द्रिय कद्दते दे इनफे जान, आनान और दशन रूप यारद भेद दें

मतिष्तान रूप उपयोग भावेविदय दे चद अरूपी अमूर्च

( 5० ) तन्ता न्वाध म्यूज्र |

पदार्थों को नहीं देख सकता केवल रूपी पदाथ को देखता है ओर उस रूपी पदाथ के सी सम्पूर्ण गुण, पयोयां को नहीं जानता मात्र स्परशीदि विपयों के कतिपय पयायों की जानता है।

प्रश्न-प्रत्येक इन्द्रिय के दृब्य, भाव, रूप दो दो भेद ओर उस दृव्य भाव के भी निर्वेज्षि उपकरण ओर लब्धि, उपयोग रूप दो दो भेद किये हैं परन्तु थे किस अलुक्रम से प्राप्त द्ोते हैं !

उत्तर--लब्धिरूप भावेन्द्रिय के प्राप्त होने पर निश्त्ति संभवित होती है ओर निव्ेत्ति के विना उपकरण नहीं हो सकता अथोत्‌ लब्धि घाप्त होने से ही निशत्ति, उपकरण ओर उपयोग दो सकता है जैसे-तलवार, तलवार की धारा, धारा की शक्ति शोर उसका उपयोग।

लब्ध भावेन्द्रिय के प्रौप्त होने पर निरक्ति, उपकरण, उप-

योग हो सकते हैं इसी तरह निशृत्ति के प्राप्त होने से उपकरण ओर उपयोग संभवित होता है ओर डपकरण प्राप्त होने पर उप- योग संभवित है। तात्पय यह है कि पूर्व इन्ठ्रिय भापण्त होने पर उत्तरोत्तर इन्द्रिय प्राप्त हो सकती है| परन्तु पूर्वन्द्रिय की घाष्ति बिना उत्तरेन्द्रिय प्राप्त नहीं हो सकती |

इन्द्रियों के नाम (१) स्पशन्द्रिय त्वचा (२) रसने- न्द्रिय जिला (३) घाणेन्द्रिय > नाक (४ ) चज्षुरेन्द्रिय 5 आंख (४ ) थ्रोतेन्द्रिय 5 कान ये पांचों इन्द्रियां लब्धि, निवेज्षि, उपक- रण ओर उपयोग रूप चार चार पकार की है| इन चारों के सम्मिलित होने से प्रत्येक इन्द्रिय पूण रूप समझी जाती है अन्यथा अपूरणो है।

पश्न--डउपयोग यह ज्ञान का विपय है ओर इन्द्रियजन्य फल है। इसे झरन्द्रय केले कहते हो *

आ० रूह २१-०० (८५ )

उतस्तर--पास्तयिहू रीति से उपयोग यद लब्धि, निईत्ति ओर उपफरण इत तीनों पा समिए्ट कार्य हे परतु यात उपचार मात्र से काय में पाग्गाता आझआागेप परप उपयोग को शम्द्रय ब्रद्दा द॥ १४-२०

5 कब # इन्द्रियों का ज्ेय विषय स्पशरसगन्धरर्णशब्दास्तेपामर्था २१ शुतमनिन्द्रिपम्प २२ ॥। आझधथ“>म्प/0, स्स, गा, पर्ग और शब्द ये पायों शा अम से पाथ इग्ट्रियों का छय पिपय / २१॥ शराक्षान झवीरिदिय अथात्‌ मन यिपयी दै ४० के

पिधेखत-ससार में पदाथ (पस्तु ) दो प्रषवारएऐ (१ ) मूर्सा (० ) अमूर्णी जिस यरा, माघ, रस और रुपशोदि दो उसको मूजेमात कष्दने £। इसपा भाव इस्ट्रियों शारा दोता रै ओर इससे पिपरीत को अमल पहले टे। पायों इस्ट्ियों दा पिपय गृधप रूप घगाया है यए सप्या दष्यात्मणा म्रिश्नापर्णा सम्परुप गहीं है दिशयु एप ही दस्य का मिप्र झश अथा्‌ पयाप रूप £ शारपप यह हैं शि पार्थों शीदए एक दी परयु की परस्थर मिप्रता धार्ती अपरथांय भागते थे ख्पि श्ुलयाए है इसलिए प्रस्भुत हर में चो बाग इशििपों हे पा पिचाए चताये गये दें थे स्थतत शप्यरूप अलग हगा पश्यु महों दे। पे एफ दी पर्शु एे पपाए झधात्‌ एफ ही दग्णु थो पाथ प्रदार के अपदोध बराती £। प्राधिक धरतु ऋगाज धमामद है पढे पायों दरिददा स्वपाता विषय

७३ हे

हो भिप्र बपशात प्रदशश' £ै। शैधे-स्पयीरिय से पग्सु एे शीजोच्च

(८६ ) तत्वाथ सत्र

स्पश का ज्ञान होता है बसे ही ज्ञिहा से तिक्तादि रख, नाच्िफा से दुरगेन्च, आंख से रक्त पीतादि वर्ग ओर कान से शब्दादि विपयों का घान प्राप्त होता दहे। उपरोक्त विषय एक ही बसतु भें सर्वाश से रहे हुए हैं किन्तु उनके लिये स्थान अलग अलग हो छसा नहीं है। वे एक ही ठच्य के अधिभाज्य परयाव हैं। केक्‍ल इत्द्रियों के चल से बुद्धि होगा विभाजित किग्रे जाने हँ | 7न्द्रिय। कितनी हीं प्रबल ओर पटु हो परन्तु स्वश्नात्य विपय के सिवाय अन्य विपय को जानने के लिये श्रसमथ्र है | शक्ति जूदी जूटी -ने के कारण इनका विपय एथऊ है।

प्रश्न--स्पशोदि पांचों चिपय सदचारी अथात रूपी पदार्थ में वे एक साथ रहते हैं | तथापि किसी एक वस्तु में उन पांचों की एक साथ उपलब्धी नहीं दिखती केचल एक्र दो की उप- लब्धी जान पड़ती है। जेसे-सू्यादि की प्रभा है उसका एक ही रूप दिखता है। शेप स्पश., रस, गन्धादि नहीं दिखते इसी त्तरह वायु का भी वर्ण, गन्ध, रस नहीं जान पड़ता ?

उत्तर-प्रत्येक रूपी व्ृब्य में उपरोक्त स्पर्शादि पांचों पर्याय होते हैं परन्तु वे स्थूल विपयी हो तो इन्द्रिय आही हो सकते हैं अन्यथा नहीं हो सकते कितनी ही चस्तुओं में स्पशादि पांचों विपय स्थूल रुप से दिखाई देते हैं ओर कितनी ही चस्तुओं में एक दो पयोय के सिचाय अन्य पयोय अजुत्क्ट अवस्था चाली होने से इन्द्रिय अग्माह्य होती हैं | परन्तु वे सच्मरुप से अवश्य हैं। इन्द्रियों की ग्राद्य शक्ति सब जीवों की एक समान नहीं होती | एक ज्ञाति के श्ाणियों में भी इन्द्रियों की पढुता विविध प्रकार की दिखाई देती है इसलिये स्पर्शादि की उत्कृष्टता, अनुत्कश्टता का विचार इन्द्रियों की पटुता के तारतस्य भाव पर निर्भर है

अआ० स० २२। (८७ )

पाच इच्दियों के सिपाय एफ और मी इददिय है जिसे मन कहते हैं। मन भी शान का साधन है। यद्द स्पशोदि फे समान याह्य साथन नहीं हैं. किन्तु आ्ान्तरिक साधन है इसे अन्त फरण भी कद्दते हैं मन का विपय वाद्य इच्द्ियों के समान परिमित नहीं डे। बाह्य इजिया पेवल मूत्ति पदाथ फो अश रूप से अददय फरने याली हैं: और मन सृत्ति, अमूत्ति समस्त पदार्थों को अनेक रूप से अ्दहण फ्रने चाला हे। मन का फार्य विचार फरने का है यदद इन्द्रियों द्वारा श्रदय फिये हुवे और नहीं किये हुए विषयों को चिफाश की योग्यता के श्नुसार विचार फरता है। इस विचार फो थ्रुत फद्दते हैं. इसलिये मन फ्रा विषय शत कद्दा गया है अथीत्‌

, मात, अमात्ति का तत्वस्वरूप मनका प्रउत्ति क्षेत्र है।

प्रश्य-जिसको श्रत फद्दते हो वद्द यद्टि मन का कार्य दो ओर मन एक प्रकार का स्पष्ट या विशेषय्नाद्दी शान है तो फ़्या मन से मति शान नहीं हो सकता

उत्तर--ठीऊ दे परन्तु मात के छारा सब से पदले जो चस्तु अटण शोती है. और जिससे शब्दाथ सम्पन्ध, पूथौपर झथोत्‌ आगे पीछे का अ्रन्लुसधान ओर विक्रप रूप विशेषता दो बह मतिशान दे | तत्पश्चात्‌ उत्पन्न द्ोने चाली विशेष विचारधारा ही शुतप्वान टै। तात्पर्य यद्द है कि मनोजन्य व्यापार की घारा का प्रायमिक अटपाश मतिशान है। तत्पश्चात्‌ श्रधिकाश श्रतश्ञान है स्पशादि पाच इंडिया से मतिश्ञान दोता है और मन से मति, थ्त दोनों शान दोते दें परन्तु प्रधानता श्रुतधान की है।

(दद तत्याथ सत्र

लेना पड़ता है। इस पराधीनता के कारण नास्वरीय अथवा अनी स्द्रीय कहा दे |

प्रश्न--नेत्रादि इन्द्रीयों के समान मन का भी शरीर में नियत स्थान है था सर्वत्र ?

उत्तर--मन के लिये शरीर में नियत स्थान नहीं हे वह सर्वग्र व्यापी है | क्योंकि शरीर के भिन्न अबययों तथा इन्द्रीयों दारा अ्रहण किये हुए सब विपयों में इसकी गति होती दे इसलिये शरीर में सर्वब्यापी मानना योग्य हैं परन्तु ठिमाम्वरीय सम्पदाय मन्तव्याठुसार मनका स्थान सर्चेत्न शरीर व्यापी नहीं हे। वे इस का नियत स्थान हृदय को मानते हैं ओर श्वेताम्बरीय अज्ञाय के मन्तव्याजुसार सब व्यापी है यथा-“यत्र पनस्तज्ञमनः” ॥२६-शशा

इन्द्रियों का स्वामी चास्वन्तानाममकम्‌ २३ कृमिपिपीलिकाअ्रमर्मनुष्यादीनामकेकबृद्भधानि ॥| २४ संज्ञिन! समनस्का। २४

र्थ--एथ्वी से लेकर धायु वनास्पति पर्यन्त जीदों के एक ही इन्हीय होती है २३॥

करूसि, पिपीलिका > चींटी, श्रमर ओर मनुष्यादि के यथा ऋम एकेक इन्द्रीय अधिक होती है २७

मन सहित हो उसे सेक्ी कहते हैं. २५॥

विवेचन--पूर्व सत्र १३-१४ में संखारी जीवों के दो विभाग करके बताये हैं। (१) स्थाचर (२) अस इन दोनों विभागों में मुख्य जातियां नो हैं| पृथ्वी, जल, तेजु, वायु ओर

+>जी,

आ० सू* २३-०५ (८६ )

चनास्पति ये स्थावर तथा एकेन्द्रीय कहलाते हैं | द्विन्द्रीय, तेरि स्ट्रीय, चोरेन्द्रीय श्रोर पचेन्द्रीय चल फदलाते हैं। पृथ्वी आदि पाच स्थापरों के एक स्पर्शन्द्रीय द्ोतो दे। रूमि, जलोप भआदि के स्पठी और रस दो इन्ड्रिया दो तो हैं, चोंटो, पदमल आदि तेरिजीय कहलाते हैँ इनके स्पश, रस ओर प्लाण तीन इन्द्िया द्वोती हैं म्रमर मक्तिया, विच्छु आदि चौरेतीडिय कद्दलाते हैं। उनके पूर्योक्त तीन शरीर चचछ ये चार हाीड्रिया द्वोती है; मलुष्य, पश्च, पत्ती, देवता नारफी जीवों फे श्रोतेतिय सहित पाच इडहिया होती है और ये पचेद्विय फदलाते है

प्रश्न--इवियों फी इस तरह सण्या बताई गई है घह इब्येटठ्रिय या भावे डिय अथया उमयेदिदिय में से किस पी अपेक्ता समभनी चाहिये

उत्तर--यहा कपल ड्ब्येद्ििय की अपक्ञा से ही इन्द्रियों का न्यूनाधिकपना पताया है। भावेन्दिय खब जीयों में पाच द्ोती है। इस में न्‍्यूनाधि झुता नहीं होती मु

प्रण्म--फ्या भावेखिय से जीव फिसी प्रकार का पुरुणा 4 यानि इलन चलन, देखना, सुनना आदि फ्ियायें कर सकता है!

उत्तर--नद्दीं अफ्रेली भावेद्धिय उम्त कियाये फरनेम असमध है इसके साथ दृब्येम्द्रिय की झायश्यक्ता रद्दती दै। पिना दठ्रब्येन्द्रिय फ़िसी मी प्रकार की क्रिया नहीं की ज्ञा सकती ! इसलिये एमि, चींटी चादि जीयों के आस और नाक रूप दब्ये डिय होने से थे देपने और सुनने के लिये शरसमय्थ दे तथापि थे धाप्त हव्येड्िय के बल से ये अपनी जीयनयात्रा या निर्शद्द करते है

पृथ्दीकाय से यायत्‌ चौरीदिय पर्याव आठ निःराय जीघों ऐे मन नहीं दोता वे असज्ी कट्दलाते है। पचेण्धिय जीच

( &० ) तत्वाथ खूब

सेशी; असंझी दोनों प्रकार के होते हैं। उपरोक्त पंचेन्द्रिय के चार भेद बताये गये है ठेवता, मारकी केवल संज्ञी होते है ओर मनुण्य, तिथच ( पशु पक्षी ) सेश्ी, अलेशी दोनों प्रकार के होते हैं। जो गर्भात्पत्ति वाले हैँ वे संत्री अर्थात्‌ मन बाले होते हैं ओर समूरलिंछम जीव मन रहित होते है उन्हें असक्षी कहते है| तात्पय यह है कि पंचेन्द्रिय जीवों में नारकी, देवता, रर्भज मनुष्य ओर गर्भज़ तिर्येच् मनचाले होते है ओर सेशी कहलाते है। सेमृच्छिम भन्ञ॒प्य, तिर्थच के मन नहीं होता ओर थे असंन्षी कहलाते हैं

प्रश्न-यह केसे जाना ज्ञा सकता हैं कि इसके मन दे वा नहीं !

उत्तर--संज्ञापर से जिसके संज्ञा है उसके मन है और ज्ञिसके संशा नहीं है उसके मन भी नहीं है

प्श्न--सेज्ञा बृत्ति को कहते हैं और वृत्ति न्‍्यूनाघिक रूप किसी किसी प्रकार की सब जीवों में है। जैसे-कूमि, चींटी आदि सभी जन्तुओं में आहार, भय आदि वृत्तियां दिखाई देती हैं इससे क्या यह सिद्ध होता है कि सब जीव मनचाले हैं ?

तल 86

: उत्तर-साधारण वृत्ति आहार, भय, मैथुन, परिग्रह को यहां संज्ञा रूप नहीं माना है। विशिष्ट इत्ति अथोत्त्‌ जिससे गुण दोष की विचार वृत्ति द्वारा हित को अहण करने की ओर अदित त्यागने की बुद्धि हो उसी को संज्ञा रूप में माना है। उसी का नाम सम्प्रधारण संज्ञा है। यही संज्ञा मन की चृत्ति रूप है जो देवता, नाग्की, गर्भज मजुप्य ओर गरभेज तिर्यच्र में स्पष्टरूप से दिखाई देती है ओर इसी सास्प्रधारण संज्ञा को सुख्यपने अहण करके सेसारी जीवों के संशी, असंज्ली रूप दो भेद किये हैं

प्रश्न--क्या कृमि, चींटी आदि जीव अपने अपने इृष्ट,

आ* स्रू० २३-२४ | (६१)

अनिए का ग्रहण, त्याग करने के लिये प्रयत्न नहीं कर सकते * उत्तर-फ्र सकते है। _, 55 प्रश्न-तय तो सपर जीयों के मन ओर सम्प्रधारण सज्ञा

माननी चाहिये? क्‍योंकि बे ताप, तजनादि दुससों का अनुभप

फरते दे श्रोर उसको नियारण करने के लिये प्रयत्न भी करते हैं ? उत्तर--उनका पूर्वोक्त धयत्न केपल देहमात्र के लिये उपयोगी है | तानपिन्दु आदि प्रन्थों में लिया हे कि हमि आदि जीयों के अरप विषय रूप सूदम मन होता है जिससे थे इश्टानिप्ट अहसण त्याग फी प्रउत्तिया करने के लिये प्रयत्नशील होते दे परन्तु देह यात्रा फे सिवाय अन्य बिपय विचारने के लिये असमर्थ हू इसलिये यहा उसकी गर्रेपणा करके विशेष विचार की योग्यता को सम्प्रधारण सश्ञा मानी है। तात्पय यद्द हे क्रि जिन जीवों को यावत्‌ पूय जन्म के स्मरण की योग्यता प्राप्त दो सकती | द्वीं को यद्दा समनस्फा फद्ा दै। यद्ध सश्ा केयल देय, नर की, गज मल॒ुप्य श्रौर गभज तियेच फो ही द्ोती है जन्म के स्मरण की योग्यता ये' अधिकारी इनके सियाय अन्य 'जीव नहीं हैं जो गहन या गूढ विपयों में फहपनाशक्कि से गुण दोष के विचार स्परूप घान शक्लि पिशेष हो वही सम्प्रधारण सज्ञा है श्रोग उसी सशा से वे सप्ती कद्दे जाते है २२-२५॥ पा ( [4 4 जा नह ससारी जीव गति फियावाले होते हें। पिग्रहगर्ती फर्मयोग' २८ ' अनुभेणिगति' २७॥ अविग्रद्यजीवम्य २८ जले

( ६२ ) _तन्वार्थ सत्र विग्रदवती संसारिणः प्रारू चतुम्यः २६ एकसमययोड5विग्रह! ३० * एक होवानाहारक। ३१

अशै--विश्रहगति जीव को कर्मयोग अशथात्‌ फार्मण योग से ही होती है २६॥

जीव की गति श्रेणी अशथ्योत्‌ सरल रेखा के अनुसार होती है २७

मोक्ष प्राप्ति के समय जीव की अविग्नह गति द्ोती दै॥२प्य।

सेसारी जीवों की गति अविग्रह, सविद्नद्द दोनों प्रकार की होती है चद्द चार से पूचे तीनादि समय चाली है २६

एक समय की गति को अविश्वह कहते हैं २०

एक या दो समय तक जीव अनाहारक रहता है ३१

विवेचन--पूर्वेजन्म मानने वाले दाशेनिकों के समक्ष गत्या- न्तर सम्बन्धी पांच प्रश्न उपस्थित होते हैं।

(१) जन्मान्तर या मोक्ष के लिये जब जीव गति करता है उस गत्यान्तर समय स्थूल शरीर होने से जीच पयत्नशील केसे हो सकता है!

( २) गतिशील पदार्थ गति करते हैं वे किस नियम से?

(३) गति क्रिया के कितने भेद हैं ओर कौन कौन से जीव किस किस गति के अधिकारी हैं ?

(४ ) अन्तरगति का जघस्य और उत्कृष्ट कालमान कितना है ! ओर किस नियमपर अवलम्बित है ?

(५ ) अन्तरगति समय जीव आहार ग्रहण कंरता है.

आम० सू० २६-३१ (६३ )

या नहीं ? अगर नहीं करता है तो कितने समय तक? तथा अना द्वारक् स्थिति का कालमान किस नियम पर अवलम्पित है *

ज्ञो सर्च व्यापी आत्मा मानने वाले हैं उन व्यापक आत्म चारियों फो भी उपरोक्त पाच प्रश्नों पर अवश्य विचार फरनो चाहिये क्योंकि वे भी पूर्वज-म फी उत्पत्ति के लिये नितान्त सूच्म शरीर और अ्न्तस्गति को मान देते हैं ओर जेन दशन देदवव्यापी आत्मयादी है। इसलिये उनको उपरोक्त प्रश्न अपश्य विचारणीय है और उसीको सून्नकार क्रमश बताते हैं।

(१) योग-अ-तरगति दो प्रकार की दोती है। एक ऋजुगति, दूसरी चम्रगति ! ऋजुगति से स्थाना-तर जाते समय जीय फो किसी प्रकार का एथीन प्रयत्न नद्दीं करमा पडता फारण

. उसका यद्द है कि जब वह पूर्व शरीर छोडता है उस समय उसको

कर

पूर्वशशीरजन्य बेग थाप्त द्वोता है। उसी के वल से दूखरे प्रयत्न सिवाय धजुष्य से छूटे हमे वाण के समान सीधा अपने नवीन स्थान पर पहुँच जाता है। चक्रगति से जाने घाले जीव को नवीन प्रयस्त फरना पडता दे पूर्वशरीरजन्य प्रयत्त से समभरणी जाता हुआ जब विश्रेणी फो प्राप्त दोता दे उस समय पूर्व देदजनित प्रयत्न मन्द दो जाता है प"उस समय भी ज्ीय के खाथ सखद्म शरीर तो रद्धता ही टै और उसी का भध्यत्न होता दे सूत्म शरीसजन्य पयत्त को दी फार्मण योग कद्दते हँ। इसो, आशय से सत्न में कट्दा है कि बरिप्रहगति में फा्मण काय योग द्वोता दै। तात्पय यद्द दे कि चक्रमति से जाता छुआ जीव मात्र पूर्वशरीरज्-य अयत्न से नचीन स्थान पर नहीं पहुँचता। घास्ते नवीन प्रयत्न के लिये फा्मण-सद्म शरीर दी साध्य है। उस समय दूसरा कोइ स्थूल शरीर नहीं रहता यिना स्थूल्त शरीर के मन, चचन योग नहीं दोता

जलन

>स्ट्त्न !

है] ३३ .)

( ६६ ) नत्वा

कद्दी

कही है बक्रमति का दो. तीन और चार समय कहा दे समय की दुछ्धि का आधार बांक के सेख्या दी वरढि के आधार पर है स्थापना- ऋजु ण्कववंका द्विवक्का त्रिवेंका | | कदर हि | | लिलस गति में एक बांक हे उल का कालमान दो समय का हैं, ज्िल में दा बांक है उसका कातमान तीन समय का हे और लिस में तोन चांक हे उसका कालमान चार समय के ह्ढे। सार्सश यह है कि एक विश्नद गति से उत्पत्ति स्थान में ज्ञाना हो तब पूर्व स्थान से बांक वाले स्थान पर पहुंचने के लिये एक समय और चांक वाले स्थान ले उत्पत्ति चाले स्थान को जाने के लिये एक समय एवं दो समय हूगता है, इस नियम के ,अलुसार

? प्र |

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्य [

दो विश्नद्द गति में तीन समय ओर तिन विद्रद्द गति में चार समय लगते हैं. ऋजु गनि हो था वित्रद्द गति हो जनन्‍्मान्तर के लिये प्रवाय॒ुग्य पूरा दाने के पहले ही नवीन आयुष्य, गति, आन- पूर्वि नामकर्म का बन्ब पढ़ जाता है। तदनुसार उदयावली को प्राप्त होता दे

(५) आहार कालमान--सुच्यमान अथोत्‌ मोज्ञप्रात्त के समय अन्तर गत विपय आहार का पश्न नहीं होता क्‍यों कि बह अशरीरी अवस्था है अर्थात वें सक्षम, चादर शरीर से रहित दो गये हैं ओर संखारी जीव है उनके लिये आहार का प्रअन अन्तर गति के लिये उपस्थित होता है। क्योंकि वे खत्म शरी से तो सहित कभी हो ही नहीं सकते और जब चादर नाम कमे- का उदय होता हे उस समय वे बादर शरीर को घारण करते हैं-। ससारी जीव कभी किसी अवस्था में अशरीरी

आ० मु: २५६ ३२१॥ (६७ )

।॒ रह नहीं सकते | आद्वार का मतलप है शरीर योग्य पुद्दलों को अदण करना और ऐसा ससारी ज्ीवाँ के लिये अन्तर गति समय भी उपस्थित है। परन्तु स्थानामाच के काग्ण वे ग्रंण कर नहीं सकते। स्थान का सद्भाव द्वोने से योग्य पुक्नलों को ग्रहण करके शरीरप्त परेणमाते हें। प० खुखनालजों प्रस्तुत सूत फे शुजराती अमुत्राद पृष्ट १२१ में लिखते हैं. ऋशुगति याले जीघ जिस समय पूर्व शरीर का परित्याग करते हैं उसी समय नयीस स्थान प्राप्त करते हैं। समया“तर नदीं होता इससे पएऋ समय में दो गति का स्पश होता है। यद शास्त्र ,सम्मत नहीं है विचारणीय विपय,दै। पूरे मव शरीर द्वारा ग्रहण किये इबे शाहएर का समय अथवा नवीन स्थान में अद्ण किये हुए आदर फा समय यही ऋजु गति का समय दे | एक पिग्नद्द गति चाले स्‍प्रधम समय' पूथे भय छारा भ्रदण किय्रे हुए आद्वार का।दे और ,छित्तीथ समय। उत्पत्ति स्थान में पहुचने का है जो नवीन शरीर फो धारण करफे आहार प्रहण करता है परन्तु त्तीन समय फी दो पिग्नद घाल्ती ओर चाए समय की तीन विप्रद वाला गति है वद्द अनाद्वारक स्थिति सप्राप्त है कारण इसका यह है कि उक्त दोनों गति में प्रथम समय त्यपक्त शरीर दारा ग्रहण जिये हुवे आहार का है। ओर) अग्तिम समय उत्पत्ति स्थान प्र प्राप्त किये हुवे आहार या है। इस तरद प्रथम और झग्ितिम समय को छोड़ के मध्य के समय अनादह्वाएक रहता हैं इसलिये द्विविप्रद गति में पक समय ओर तीन विश्रद्द गति मे वो समय अनाद्ारकः कद्दा है| यही प्रस्तुत खूघ का आशय है। फह प्रन्धें में अनाहाण्क दशा त्तीन, चाए समय को लिएी है वह पाथ समय प्राप्त चार विप्न॑द घाली गति की अपेष्ता है। देसो भगपती सूत्र श० 3 उ०

( ध्थ ) तत्वाथ सूत्र

प्रश्न--अन्तर गति समय शरीर पोषक शाहार स्थूल पुद्वलों के अहण का तो आपने अभाव बताया परन्तु उस समय कमे पुद्चलों को अहण करता है या नहीं ?

उत्तर--कर्म पुद्लों को अहण करता है

प्रश्न--किस तरह ?

उत्तर--संसारी जीव अन्तर गति समय भी कार्मण शरीर युक्ू होता है ओर शरीरजन्य आत्मदशा की प्रकम्पमान अचस्था को कामेण योग कहते हैं वह अवश्य होती है ओर जहां योग दशा है चहां कमेपुदलों का अद्दण अनिवार्य है क्‍योंकि थोग ही कम वर्गणा के आकर्षण का कारण है जैसे-पानी की वृष्टि के समय फेंका हुआ संतप्त बाण पानी के कणों को ग्रहण कर के सोषण करता हुवा जाता है। इसी तरह अन्तर गति , समय भी कार्मेण योग की चचलता से जीव कर्मवरगंणा के पुद्वलों को अहण करता है ओर उस को अपने साथ सम्मिलित करके स्थानानार लेजाता है २६-३१

जन्मयोनि भेद तथा स्वामी संमूछेनगर्भापपाता जन्माः ३२ सचित्तशीतसंबत्ताशसेतरा मिश्राअेकशस्तद्योनय! ३३ जरास्वण्डपोतजानमगर्भः ३४ नारक देवानामुपपातः ३५ शेषाणां समृछनम्‌ रेदे अथ--तीन प्रकार के जन्म होते हैं ( )समूछम ( २)-

है

अ० सु० २६-३१॥ (६ ६६ )

गर्भज (३ ) उपपात ३२ ॥_

उपयेक्क तीन प्रकार का जन्म नो प्रकार की योनी से दोता है (१) सचित्त (६) सब्बत (३) शीत, इन के 'प्रतिपक्षी (१) अचिच ( ६) उप्ण (३) विवृत्त तथा तीन मिश्र (१) सचित्ताचित्त, (६) शीतोप्ण, ( ३) सबृत्तविवृत्त एप नय ३३॥ है जरायुज, अडज़, पोतग से जन्म लेने बाले भाणी गज फद्दलाते हैं ३७४॥ ; ;

नारकी अर देवों का उपपात से जन्म द्वोता है॥ रेशता

शेप सप्र प्राणियों का समृदम ज-म छोता है ॥१६॥

विव्रेचन--( जन्म भेद ) बत्तेमान_ भव समाप्त होते ही ससारी जीव नपरीन भव धारण करता है इसके लिये इनको जन्म लैना पडता हे परन्तु सब जीवों का जन्म सदश नहीं होता। उसी का विप्रेचन करना भस्तुत सूत्र का उद्देश दे। पूर्व भव के स्थूल शरीर को छोड के पग्चात्‌ फेयल फार्मण शरीर के साथ नयीन स्थान में श्राफर भवधघारणीय स्थूल शरीर के लिये योग्य पुद्ढलों को पद्दते पहल ग्रहण करना उसी को यद्दते हैँ जन्म के तीन भद हे (१) समूछेम, (२) गर्मज, (३) पोतज्ञ | माता, पिता के रूयोग विना दी उत्पत्ति स्थान में झाफर प्रथम समय प्रदण किये हुये ओदारिफादि पुदूगलों फो शरीरपने प्रणमन करना समूदम जन्म कद्दलाता है। तथा माठापिता के सयोग से शुक्र, शोधित पुदूगलों को प्रथम समय भ्रदण फरके शरीर बनाना गर्भज जन्म कहलाता दे और मातापिता के सबाघ सिवाय उत्पत्ति स्थान में बक्रिय पुशलों को प्रददण कर शरीरपने परियमन करना दी उइपपात शम्म फदलाता दै ३० ॥। ,

( १०० ) तत्वाथे सत्र

योनि भेद--जन्म के लिये कोई स्थान अवश्य चाहिये जिस स्थान में रह कर प्रथम समय अ्रहण किये हुवे ओऔदारिकादि पुद्ललों को शरीरपने परिणमन करना अर्थात्‌ का्मंण शरीर के साथ साथ सम्मिलित होने के स्थान को योनि कहते हैं। योत्ति नो प्रकार की होती है सचित्त, शीत, संबत्त, अचित्त, उप्ण, विवृत्त, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण ओर सेचुतविवृत्त ( १) जो योनि जीव प्रदेशों से व्याप्त हो उसे सचित्त कहते हैं ( २.) जीव प्रदेशों से अत्याप्त हो बह अचित्त ( ३) कोई भाव जीव अधिष्टित हो और कोई भाव हो वह मिश्र (४ ) उत्पत्ति स्थान में शीत स्पशे हो चह शीत ( ५४ ) उष्णु स्पश हो वह उष्ण -योत्रि (६) किसी भाग में शीत किसी भाग में उष्ण चह शीतोष्णु मिश्र योनि कहलाती हे (७ ) उत्पत्ति स्थान ढका हुवा या दवा हुवा हो उसे संइत्त (८) शआ्राच्छादित ( ढका हुवा ) हो उसे विवृत्त ( £ ) ऊुछ ढका और कुछ खुला हो उसे संवृत्तविद्वत्त मिश्र योनि कहते हैं। '

कौन जीव किस योनि में उत्पन्न होते हैं इसके लिये--

जीव० योनि .नारकी, देवता अचित्त गरेज मनुष्य और तिर्यच्च' .... . ..:-«-»सचित्ताचित्त ( मिश्र )

बाकी के सब जीव अथांत्‌ पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और ; सचित्त, अखित्त, और मिश्र अगभज मजुंप्य तियंच ; गज मनुष्य, तिर्यच, देंवंता शीवोजा जि)

आर तेजसकाय दा 0.

शेष चार स्थावर तीनविकलेन्द्रि-- शीत, उष्ण और शीतोष्ण यञअगर्भज मनुष्य, तियंच ओर (सिर)

नारकी

अ० सू० ३०-३६॥। १०१ )

मारकी, देपता, <प्फ्रेद्धिय - |

सतत शाजज मलु॒ष्य, तिर्येच ' !.. सखत्त्त, पिवृत्त मिथ सीन विकले द्रव अगरभजमजुप्य, | | दिषुत्त 2 तियच

प्रश्न--थोनि और जन्म में क्‍या भेद है? है उत्तर--योनि आधार और जन्म आधेय है। अथात्‌ स्थूल शरीर फे लिये योग्य पुदलों का प्राथमिक भ्रदण ज"महे और ये पुए्ल जिस जगद्द पर अदण किये जाय चहं योनि फदलाती है। प्रश्न--योनि चौरासी लक्ष फट्टी ज्ञाती है और आप भौ(६)ट्दीफ्दते दो यद कैसे! उत्तर-चौरासी _लक्त फा, फथन है यह सबिस्तार दि से है। एृथ्यीकायादि जिन जिन निकायों के वर्ण, गध, रस, स्परी और सस्थानादि तरतम भाष चाले जितने उत्पत्ति स्थान दोते रे उनफ़ो एथफ गिनने से दौरासी लक्ष ,योनि होती है। प्रस्तुत खून्न में चीरासी लक्ष योनि को दी सचित्तादि रुप द्वारा सक्तेप विभाग से नी मेद करफे घताये गये हैँ. ३३ ही जन्म स्वामी-उपरोक्त तीन प्रकार के ( समू० भर्मज/ पोतज ) जन्म बताये हैँ उस फे अधिफारी कौन है उसी को सन्नकाए बताते हे कि ५328 जरायुज, अडज, और पोतज आाणी , गरम,जन्म बाले , द्वीत है ३४॥ देवता नारपी उपपात जन्म बाले होते है ३४॥ _ शेष पाय स्थायर, त्तीन विक्‍लेन्द्रिय और अगर्ज मनुष्य, तिर्थेथ समूछेम जन्म याले द्वोते हैं.॥ ३६

( ९०६ ) नसराड कराए"!

जरायुज मन प, गाय, भेस, बकरी ख्ादि जाति याले भीयों पर एक प्रकार का जाल नसा आबरग शोता # चार घह मास वे खून से सरा रहता शोर उन्प्त होने बाला ख्चा उससे लिपटा रहता है उसको जरायुज कहते €# इज 8 5 अडे से उत्पण शोने थाले बनने को अठस फहते हैं जसे-सांप, मयूर, कबूतर, फीआ आडि। पोतज # जिन जीयों के बच्चों पर क्रिसी सछार का झाय- श्णु नहीं होता वे पोतज कहलाते हैं। लेसे-- आदि जो स्ुले शरीर पदा होने वाले # उपपात रू देवता नारकी झिल नियस स्थान में उन्पक्ष होते है उछकोी उपपात कहते ससे--देख छाय्या यह देयों के उत्पत्ति का स्थान हे | नारक्ती चद्धमथ भींत के गवात्न मे उन्पप्त होते हैं उनके लिये यही उत्पत्ति स्थान है। ने अपने उपपात क्षेत्र में रहे हुए वक्रिय पुहलों को अहण करते; शरीर प्रयाप्नि सप्राप्त होते हैं समूलछम मल, मूत्र, सस्‍लेश्मादि पदाधो में स्वयम्‌ होनेवाले जीवधारियों को समृछेम कहते हैँ | जैसे--पांच स्थाचर ओऔर तीन विकलेन्द्रिय आदि ३६-३६

शारीरिक तिषयी

ओऔदारिकपेक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि २७ पर पर सच्मम्‌ रे८

वी, ससला, चूहा

& चआंटा, टोड़, बिच्छु आदि कई सम्‌.सदुम जाति के जाव भी अदा उत्पक्ष हांत है

/! ७»

इघ० 7 सू० 89-४६ | ( १०३ )

प्रंदेशत5मस्येयगुण प्रास्तैजसात्‌ ३६॥ « अनन्तगुणे पेरे ४० ' अग्रतिधात ४१॥

अनादिसबन्धेच ४२

सर्यस्‍्य ४३ '

तदादिनि भाज्यानि युगपंदेकस्पाचतुम्य ४४ निरुपभोगमत्यम्‌ ४५ ,॥

गर्भसमृझेनजमादयम्‌ ४६

बैक्रियमीपपतिकम्‌ ४७

लब्धिप्रत्ययच ४८॥

शुभविशुह्म्रव्याघाति चाहारक चतुर्दशपूर्वधारस्यैव ॥४९॥

| थे-शरीर' पाच भ्रकार के हैं. (१) औदारिक (२) चैक्रिय ( ३२) आद्ासरक ( ०) तेजस ( ) फामेण ३७॥

'उपरोक्त पायों शरीर यथा अलुफ्रम पूर्व से पर ( आगे आगे) के खूध्म हैं ३८॥

त्तेज़स के पूर्वचचर्ता तीनों शरीर फे प्रदेश परस्पर छत्तरोत्तर असस्यात गुणे अधिक हैं ३६॥ |

परे झथाव्‌ तेजस, कार्मण के प्रदेश अनन्तग्॒ुण अ्रधिक ह&॥ ४०॥

]

अन्त के दो शरीर (त्तेजल, फार्मण ) अप्रतिधाती है

( १०४ ) तस्याथ सूप

अधथात्‌ इनकी रुकावट कीं नहीं होती ४२

ओर इन दोनों ( ते० का० ) के साथ ऊीव का झनादि सम्बन्ध दे ४२

उक्त दोनों शगीर (ते० क्रा० ) सब संमसारी जीगों के होता दे ४३ '

उन दोनों को ( ते० का० ) आदि लेके एक समय एरऊ जीव के चार शरीर पर्यत विकल्प से होते हैं ४०

अन्तका ( कारमण ) शरीर उपयोग रहित है अर्थात्‌ खुख दुःख के अनुभव से रहित है ४५॥

प्रथम का ( ओदारिक ) शरीर समूछम तथा गर्मज़ रूप जन्म से उत्पन्न होता है ४६

वैक्रिय शरीर डपपान जन्म से उत्पन्न होता है ४७॥

ओर वह लब्धि प्रत्यय भी होता है ४८॥

आहारक शरीर शुभ पुहुलजन्य विशुद्ध रू निष्पाप काय कारी ओर व्याधात रहित द्ोता दें और ज्ञोदद पवेघण मुनिजनों फो ही प्राप्त होता है '४६॥

विधेचन--शरीर के आरंभ का कारण जन्म है अत, जन्म के पश्चात्‌ शरीर का चणन करते हुए तत्‌ सम्बन्धी अनेक विचार प्रद्शक सूत्र ऋमानुसार व्याख्या करते -हैं

(१) शरीर भेद--देहधारी जीव अनन्त हैं ओर वे सिन्न शरीरी होने से व्यक्तिगत भी अनन्त हैं| परन्तु यह बात अवश्य जानने योग्य है कि ओदारिक, वेक्रिय ओर आहारक भिन्न शरीरी जीव असंख्याते ही हैं। भिन्न शरीरी अथीतद प्रत्येक शरीर को चारणु करने वाले उक्त ('ओ० वै० आ० ) जीव अतंख्याते ही

कक आ० सर ३७-४६ | ( १०५ ) है परन्तु सेजस कामण की श्रपेज्ञा से भिन्न शरीरी अनन्त जीज्- है।। उनके काय कारण की साहशयतापेक्षा से सक्तेप रूप पाच विभाग फिये गये -हे थथा-(७ ) ओऔदारिक (२ ) वेक्रिय (३) आद्वाएक ( ४) तेजग्प (४)कामण। -

(१)जीव के क्रिया करने का जो साधन है उसे शरीर फह्ते हें | ज्ञिस शरीर का छेदन, मेदन, प्रजालनादि दो सके उसको श्रौदारिक शरीर फद्दते हैं। ,

!। (9०) जिस शरीर का आवश्यक्लाइसार सफोच धिकास अथात्‌ कमी छोटा कमी पढा/ कभी मोटा, कभी पतला; कमी एक, कभी अनेक इत्यादि विचिथ प्रकार के रूप फो धारण कर सके

, उसे पक्रिय शरीर कट्ते हूं, १४.7

(9 ) जो शगीर घेवल वोदद पूर्पघर मुनिराज़ ही अपनी धामिक शका समाधान करने के लिये नवीन रूप चना कर तीरथेकर या पेचली ये पास भेजते हे उसको आदार शरीर कद्दत्ते देँ। |; *

(४) जो शरीर तेजोमय अधथात्‌ प्रहण किये हुए आादा ' राठि को पचाने तथा देदिप्यमान करने के लिये कारणभूत दो उसे तेजस शरीर कद्दते हें।

(५ ) फर्म समूद फो फकामण शरीर कहते दे

डक्क शरीर ससारी जीपों के द्वोता हैं. ३े७

(२ ) स्थूल तथा सूच्म भाव उक्त पायों शरीर में ही

» दारिक सब से स्थल है। इससे पैफिय शरीर सूत्म है। पम्िय से आद्ार्क शरीर सन्‍्म दे इसी तरद आद्वारक से तेजस और सेजस से कारण सनम सत्मतर है गा

प्रश्न- यहा सत्म और स्थूल कदने था ता-पर्य क्या है?

( १०६ ) तत्वाथ सत्र

उत्तर-शरीर की स्थिलता ओर सघनतापेज्ञा यहां स्थल, ओऔर सुच्मता का बन है। ओदारिक से पेक्रिय सध्म है परन्तु आहारक से स्थल है इसी तरह आहारझादि शरीर पूर्व पूर्व की अपेत्ता से सूच्म ओर उत्तर उत्तर की अपेक्षा से स्थृूल है अथात्‌ यह सूक्म ओर स्थल भाव परस्पर की सापेज्षता से है। जिस शरीर की रचना अन्य शरीर की रचना से शिथिल हो बह स्थल है और जो स्थल अपेतज्ना सघन हो चह सच्म | रचना की शिथि- लता ओर सघत्तता का आधार पौद्लिक परिणुती पर है| पुद्ठल अनेक प्रकार परिणमन स्वभावरी हैं। वे उत्तर की अपेन्षा से परि- णाम रूप थोड़े होते हुए भी यदि शिथिल रुप में परिणत होते हैं तब वे स्थूल कहलाते हैं ओर पूर्व की अपेक्षा से अधिक परि्ाम वाले होते हुए भी यदि सघनता को प्राप्त होते जाय तो थे रूचष्म सूच्मतर कहलाबेगे। जसे-आक ओर सीसम की लकड़ी तोल में वरावर वरावर परिणामचाली होने पर भी आकार में न्‍्यूनाधिक पना दिखाई देता है वह उसकी सघनता, शिथिलता का कारण है। शिथिल पुद्दल हैं बे स्थूल रुप हैं ओर सघन -गाढ़ हैं वे सच्म रूप से दिखाई देते हैं ६८

डपादान द्रव्य परिमाण > उपरोक्त व्याख्यासे यह स्पष्ट हो गया कि जो स्थूल ओर खच्म शरीर है वह आरंभ अचस्था में पूर्व पूर्व शरीरसे उत्तर उत्तर शरीरके आरंभिक दृब्य परिणामसे अधिक अधिक होते हैं तथापि उनमें कितनी अधिकता है उसी का स्पष्टीकरण उक्त ( ३६-४० ) दो सखत्ों छारा करते हैं

शरीरका निर्माण परमाणुओंके स्कनन्‍्धोंसे होता है। जो परमाण स्कन्धरूप में परिवर्तित हुए हैं बवेही शरीर परिणत्तिको प्राप्त हो सकते है| प्थक्‌ परमाणु रूपमें रहे हुए परमाणाओं से

अआ०0 सू० ३७-४६॥ ( १०७ )

शरीर नहीं बनता। परमाणओं के पूजफ़ों स्मृन्ध बहते दे और डसीसे शरीण यपता हे। वे स्कन्ध परिमाणसे अनन्त अणु्ोवाले होतेदे। अथात्‌ अभव्यसे अनन्तगुणे और सिद्धके अनस्तयें मागकी राशिके परिमाणवाले होते हैँ दारिक शरीरफे प्रारभित्र स्फन्‍्वोॉसे बेक्रियशरीग

प्रार्भ स्रस्‍्योंके परमाणु असस्यातगुण हैं। अर्थात्‌ ओदारिकशरीर के प्रारभ स्फन्‍ध अनन्त परमाणुओों से बने हुएए है और बेक्रियशरीर के स्फाध भी अनन्त परमाणशों के बने है तथापि वेक्रिय शरीर स्कम्थगत परमाणुनओओं की अनन्त सख्या है वह ओदारिफ शरीर स्कन्धगत अनन्त परमाणशों पी सस्या से असस्यातगुणी अधिक है इसी तरह पैक्रिय और अद्दारक शरीर योग्य स्कन्‍्धगत परमा खुओं फी संय्या परस्पर असख्यात गुणी समभनी चाहिये। आद्वारक शरीर योग्यगत अन'“तपरमाणओं पी. सग्या से त्तेजस शरीर स्फ्रन्‍्धगत पग्माणओं की रास्या अन-तगुणी अधिक। है इसी तरद्द तेजस से फर्मण शरीर योग्य स्फन्धगत परमाण अन-त, गुणे अधिक है हे

ड्स विपय मे सब आयाया का मन्तव्य सरश नहीं हैं। फई ओऔदारिकादि पायों शरीर योग्य स्कन्‍्धगत परमाणशं को परस्पर साधिक मानते हैं ओर कई सय को अन-तगुणे ऊद्दते दे इसका सविस्तार विपेचन भाषा-तर प्रन्थों में देसना दो तो घिशे पायश्यक भाष्य सून्न ६३१ आदि फा गुजराती अनुवाद तथा फम प्रह्ति ग्रन्थ गाथा *८ फा गुजराती अनुवाद ओर भी ऊर्मग्रन्थादि प्रकरणों में इस प्रिपय की स्पष्टरूप से चरचादे। परन्तु यद्ध निधि वाद सिद्ध है कि पूथे पूष शरीर से उत्तर उत्तर शरीर योग्य स्कन्‍्वगत परमाण अधिक, अधिफ्तर, अधिकतम अवश्य है ओर परिणिम्तन की विचित्रता से वे उत्तरोत्तर निपृड, नियड्तर,

( १०८ ) तत्वाथ सत्र

निवड़तम ( घनरूप ) होते हुए भी सूच्म, सृच्पतर रूप से परिण- मन-होते हैं

अन्त के दो शरीरों की विशेषता-पूर्वोक्त पांच शरीरों में से प्रथम के तीव और अन्त के दो शरीरों में परस्पर जो भिन्नता है उसको तीन प्रकार से तीन स॒त्रों द्वारा बताते हैं

तेजस और कार्मण शरीर अप्रतिधाती हैं इनको समशञ्न लोक में किसी की रुकावट नहीं होती -े कठिन से कठिन वज्च सरीखी चस्तुओं में भी विना किसी प्रकार की रुकावट के सरलता से प्रवेश कर जाते हैं क्योंकि वे अत्यन्त सूच्म हैं यद्यपि सूर्तिमान पदाथे से मूर्तिमान पदार्थ का प्रतिघात होता है। यह फेचल स्थूले वस्तुओं के लिये है। किन्तु सच्मके- लिये नहीं है | सूच्म वस्तु समस्तलोक में विना रुकावट के प्रवेश करती है। जैसे लोहे में अभि ' प्रश्न-बैक्रिय ओर आहारक को भी अप्रतिघाती कहना चाहिये क्‍योंकि पू्े ( ओदारिक ) शरीर से वे सूच्म हैं ! उत्तर--यह यथाथे है वेक्रिय ओर आहारकशरीर भी प्रतिघात बिना प्रवेश करते हैं परन्तु यहां भ्रतिधघातक उसी को माना है जिसकी लोकान्तपर्यनत अव्याहत यानि अस्खलित गति हो तात्पये यह है कि जिसकी लोकान्तपर्यन्त रुकावट हो उस की अप्रतिवातक मानाहै। वेक्रिय, आहारक भी श्रव्याहतगति वाले है परन्तु तेजस, कारमेण के समान सम्पूं लोक में उनकी अव्याहत

गति नहीं है केवल लोककी चसनाड़ीमें ही नियंत स्थान पर्चन्त अव्याहत गति करसकते हैं

जैसा तेजल और कामंण शरीरका आत्मा के साथ अनादि प्रवाहरुप संबन्ध है- बेसे भथम के तीन शरीरों का नहीं

अआ० सु० ३७-७६॥। (१८६)

है। अवस्था के अनुसार उन (औ० घे० आ०) का परिवर्तन दोता रहता दै। स्वश्नवस्थामें नियमानुसार स्थायीरूप रद्द सकते हैं। पश्चात्‌ उनका अवश्य परिवतेन द्ोता है इसलिये र्थचित स्थायी सम्बन्ध पाले फ्हे गये हैं और तेजस, कामण अ्नादि भ्रवाहरूप पाले हैं. ।! प्रश्न--ज्ञिसका जीव के साथ अनादि सम्पन्धहे उसका कदापि अभाष होना चादिये | हि उत्तर--उपरोक्त ढोनों शरीर प्रवादकी अपेक्ता से अनादि है किन्तु व्यक्तिगतापेज्ञा अनादि नहीं हैं इसलिये ये उनका अप जय, उपचय हुआ फरता द्व।जो वस्तु भावात्मक व्यक्तिरुप से अनादि हो उसका नाश नहीं द्वोता | जैसे--परमारण | ! जितने |ससारी जीव हैं वे सर तेजस, कार्मंण शरीर को धारण करने वाले है। परन्तु आओदारिर, वेक्रिय, आदारफ शरीर को सम्पूर्ण जीच धारण नहीं करते। जैसे-देवता, नारकी में केचल वैक्रिय शरीर होता है, चौदद्द पूष के पाठी प्रमत्त मुनि शाज़ ही आद्वारफ शरीर चनाते हैं इत्यादि कितनेक जीव ओदा रिक शरीर के स्वामी हे | प्रश्न--तेजल और कार्मण शरीर के परस्पर फौनसी विशेषता और कितना अन्तर है ?

उत्तर--सम्पूण शरीरों का भूल कारण कार्मेण शरीर

ही है फ्योजि वह फर्मस्वरूप है औएण सब कायो का निमित्त

कारण है चह भी कर्म दी है फार्मण के समान तेजस शरीर

/ ऋरण रूप नहीं है। यह सपके साथ अनादि सवन्ध से रहकर भुक्त आहार को पाचनादि में सद्यायक होता है॥ ४१-७३

लभ्यमारन शरीर--लसारी जीवों को ससार काल

(६९० ) -न्चाथ सच |

पर्यन्त त्तेजस, कार्मण शरीर अवश्य होना दे परन्तु अदारिकादि शरोर बदलता रहता है अथान्‌ उनका अवस्था के अनुसार पार- बतेन हुआ करता हे | इसीलिये यद्व भशन उपस्थित होता हे कि प्रत्येक जीच को एक समय जबथन्य, उत्सण्ट कितने शरीर दोते हैं ? इसीका उत्तर शाखकार प्रस्तुत खत्न द्वारा देते दें

ससारी एक जीव को एक्र साथ जधन्य दो शरीर होते हैं ओर उत्कृष्ट चार शरीर होते हैं किन्तु पांच शरीर एक साथ किसी समय भी नहीं होते। दो शरीर होते हे उस समय तेजस, कार्मण होते हैं »ऐए तीन होते हैँ उस रूमय पूर्वोक्त गे क्रेसाथ ओदारिक या बेक्रिय होता है ओर चार शरीर होते हैं उस समय तेजस, कार्मण, ओदारिक, बेक्रिय अथवा तेजस, का मेण्‌ ओदारिक ओर आहारक इस तरह घपिकरुप से होते हैं परर पांचों शरीर एक साथ नहीं होते | दो शरीर बताये थे गत्यान्तर में होते है, उस समय अन्य शरीर नहीं रहता | तीन शरीर मनुष्य तिर्येच अथवा देवता, नारकी के जीवों में झाजन्म पर्यन्त रहता है ओर चार शरीर के दो विकल्प बताये है उसमें पहला विकल्प ( त्े० का० ओए० चे० ) वैक्रिय प्रयुजक मनुप्य, तियंचों में होता है ओर दूसरा विकल्‍प मात्र चोदह पूर्वधर मुनिराज को आहारक लब्धि प्रयुजते अथोत्‌ प्रयोग समय होता है। पांच शरीर एक साथ नहीं होते जिसका कारण यह है कि वैक्रिय ओर आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ नहीं होता क्योंकि चेक्रिय लब्धि हे चह केवल प्रमत दशा में होती है ओर आहारक लब्धि प्रयोग पश्चात्‌ मुनि अप्रमत दशा को प्राप्त होता है। प्रयोग के समय तो प्रमत रहदता है परन्तु आहारक शरीर वनाने के पश्चात्‌ शुद्ध अध्य-

है|

अ* सु० ३७-४६ | (१११ )

चसाय समवितद्दोनेसे अ्रप्रमत भाव प्रगट द्वोता हे। प्रस्तुत खज़ का आशयहै फ्ि चार शरीर एक साथ हो सकते दें परन्तु पाच शरीर नहीं दोते यही दिसाया है। यद्यपि आह्रक लब्धिवाले मुझ को चैक्रिय लब्धि फी योग्यता भी समय्रित है परन्तु प्रस्तुत सूत्र केपल आविभावपेक्ती है। शक्किरूप से पायों शरीर एक साथ रहते है

प्रण्न--उक्त रीति से तीन या चार शरीरों के साथ एस समय पर जीव का सम्पन्ध फैसे घट सकता है?

उत्तर--जेसे-ए+ प्रदीप फा ध्रफाश अनेक घस्तुओं पर एक साथ पड़ता दे चैसे टी एक जीव का अनेक शरीरों के सा 4 सम्बन्ध दो सक्तता है।

प्रश्म--किसी समय पक जीव के एक शरीर नहीं दो सफता !

उत्तर--उपरोकफ़् व्याख्या फी गई दे घद साप्रान्य सिद्धात अपेक्ता दे इस विपयमें कई आचारयो फा मत हे कि फामणशरीर के समान तेजसशरीर यावत्ससार भावी नहीं है। किन्तु आ्रादारक लब्वि के समान लीधि जन्य हे। इसलिये विश्रद्वगति में मान कार्मण शरीर दोता शोर चतुथ फरश्रन्थ में अनादारक मार्गणा विपय पक कार्मण यार्ययोग ही कदा है और सामायिक चारित्र मागणा में तेजस, फामण योग का अभाव छहा दे इत्यादि अनेक प्रकार फे मतातर अय अन्धों में पाये जाते हैं और एक शरीर भी सभवित द्वोता दे ४४॥

प्रयोजन--विना प्रयोजन फोई बस्तु नहीं दोती धत्येक यस्तु से घोड फोई धयोजन अधश्य रद्दता है। इसलिये शरीर भी सप्रयोजन दोना चाहिये इसका मुख्य थयोजन क्‍या द्वे? और

( ११२ ) तन्वा्थ सत्र

वह सब शरीरों में सामान्य स्पहे या विशेषता बाला है ? इसी का यहां उत्तर द्यागया हैं कि शरीर का मुख्य सयोजन उपभोग जो प्रथम के चार शरीरों में सिद्ध है केचल अन्तिम कार्मण शरीर से सिद्ध नहीं होता इसलिये कार्मण शरीर को निरूपभोग अधात्‌ उपभोग रहित माना है।

प्रक्ष--उपभोग किसे कहते है ?

उत्तर--इन्द्रियों छारा शुभाशुभ शब्दादि विपयोके हर कर उसके खुख दु खादि को अनुभव करना तथा हाथ, पांच आदि अवबयदों द्वाग दान, हिंसादि से शुभाशुभ क्रिया करके शुभागभ कर्म रूप बन्‍्धन को प्राप्त करना और पद्धिन्र अजन्ुशनों द्वारा कमे की निजरा अर्थात्‌ चय करना इसको उपभोग कहते है

परक्ष--ओदारिक, वैक्रिय. आहारक शरीर सेन्द्रिय तथा सावयच है इसलिये उक्त प्रकार का उपभोग साध्य हो सकता है परन्त॒ तेजस शरीर से वह असंभवित है क्योंकि वह इन्द्रिय और अवयवों से रहित है। विना इन्द्रिय ओर अचयचों के उपभोग का अनुभव नहीं हो सकता ?

उत्तर--तैजस शरीर सेन्द्रिय और सा वधान>हस्तपाटादि युक्क नहीं है तथापि इसको उपभोग पाचनादि कार्य में होता है। जिससे सुख, दुख का अज्ञुभव सिद्ध नहीं है और दूखरा का स्लाप, अजुग्नह रूप है अथवा पाचनादि कार्य में तेजस शरीर का उपभोग समस्त संलारी जीव करते हैं और विशिर्ठ तप के करने' चाले तपस्थ्री अपनी तपस्या की प्रवलता से. तजस लब्थि सेप्राप्त है वे कुपित होने पर, भष्मीभूत कर सकते है और किसी पर प्रसन्न होके उसे शास्ति भी दे सकते हैं। इसलिये स्राप अजुगह में उपयोग होने से सुख दुख का अनुभव तथा शुभाशुभ कर्मच-

म्र्द्ध ले

आ० सू० ३७-२६॥ (११३)

न्धादि दोता हे इस हेतु से उपभोगयुक्त माना गया दे। प्रश्म--इस सूष्म दृष्टि से तो कार्मण शरीर भी उपभोग

युक्त माया जासकता है फ़्योंकि अन्य शरीसों के उत्पत्ति का मूल फारस यही है। वास्तत्रिक रूप से देखा जाय तो अन्य शरीर फा उपभोग दे वह फार्मण का ही उपभोग दे बिना फामण के उनकी उत्पत्ति द्वी नहीं दे इसलिये इसे तिरूपमोग केसे कह सफते दे ?

उत्तर--ठीक दै। उपरोक्त रीति से कामेण को सउप्भोग कह सकते छै। परतु यहा निरूपभोग कददने का अभिप्राय रूपसे उपभोगफो सिद्ध करने के लिये ओदारिकांदि चारो शरीर ही मुस्य दे इस छेतुसे इन बारों फो उपभोगसद्दित माना टै ओर कार्मय परम्परास्प साधन द्वोनेरे कारण निरूपभोग कहा टै

तत्वायभाष्य अध्याय सूत्र ४४ के हिन्दी अनुवाद पृष्ट >४ में लिपा है कि कार्मण शरीर से कर्मो का बन्धन, कर्मी की निर्जंरा नहीं दोती पर-तु फर्मग्रन्थ में कामेण काय योगी जीय को ७या कमेया पन्वक कद्दा है 2९॥

जन्मसिद्ध तथा हृत्रिमता-यहद्द भी प्रश्न उत्पन्न दोता दे कि उक्त पाच शरीरोंसे झितने जम सिद्ध हैं ओर फितने एृज्रिम है? अन्मसिद्ध पौनसा शरीर क्विस ज-म से भाप्त होता है? और शथत्िस पहनेवा कारण क्‍या दे?! इस्रोका चार सुभरों द्वारा प्रति घादन फर्ते हैं के

तेजस और कामंण शरीर जन्मसिद्ध भी नही हे कौर रृत्रिम भी नहीं है फ्योंकि पूछ और उत्तर दोनों अयस्था में होते हैं इसलिये अनादि सम्बन्ध वाले है। औदारिक शरीर जन्म सिद्ध है और बद गमज तथा समूर्छुम दो प्रकार के जन्म से भाप्त दोता है तथा स्वामी इसका तियेच, मनुष्य है | चैत्रिय शरीर जन्मसिद्ध

( ११४ ) तन्वाथ सच्र _

ओर कृत्रिम दोनों प्रकार से होता है। नारकी, देवता को वह अन्मसिद्ध ही है। कृत्रिम, वेक्रियशरीर लब्घिजन्य दे ओर तपोबल् से घगट होता है इसके स्वामी गर्भ मजुप्य ओर गर्भज ति्च हे तथा इसके लिये एक प्रकारकी दूसरी लब्धि भी मानी गई हे वह तपो जन्य नहीं है इसके अधिकारी वायुकाय माने गये है। इन में जो वेक्रिय शरीर माना है वह कृतघिम चक्रिय एक प्रकार की लब्धिजन्य स्वाभाविकता से उत्पन्न होता है। आहारक शरीर केवल कृत्रिम ही होता है इसका कारण विशिष्ट लब्धि जन्‍्य दे तथा अधिकारी केवल मनुष्य वह भी संयति, चोदह पूथे का पाठी ही है

प्रश्न--चोदद पूर्व के पाठी इस लब्धि का उपयोग किस लिये करते हैं ?

उत्तर--जब उनको किसी सूच्म विषयमें सन्‍्देह उत्पन्न होता हे उसको निवारण करनेकेलिये वे आहारकशरीरका उप- योग करते हैं अथात्‌ उनको दाशनिक विपयमें किसी प्रकारकी शंकासमाधान करना हो ओर उस समय सर्वश्ञका संनिधान हो ओदारिक शरीर से अन्य क्षेत्रमें जाना असंभवचित हो उस समय वे अपनी विशिष्ट लबव्धि का प्रयोग करते हैं. ओर उसके डारा किंचित्‌ न्‍्यून एक हाथ का शरीर चनाते हैं। वह शुभ पुद्नलों से अतीच सुन्दर ओर अत्यन्त सूच्म होता है उसको किसी प्रकार का व्याघात नहीं होता अथोत्‌ किसीके रोकनेसे नहीं रुकता प्रशस्त उद्देश वाला होने से निवेद्य होता है। वह अन्य क्षेत्रमें सर्वश्चक्क समीप जाके उन चौद॒ह पूर्वीके शंकाका समाधान करता है। इस की स्थिति अन्तर मुहते की है चह अपनी वध्यस्थिति में शंका निवारण करके स्वस्थान आकर विसजेन होता है

अआ० सू* ४०-४९ | (११४ )

तेजस शरीर को भी कई आचाये लब्धि जन्य मानते हैं ओर कई नहीं भी मानते | परन्तु जेसा वैक्रिय, आद्वारक शरीरका यथारूप आबिभीव है धेसा तेजस शरीर फा नहीं हे | चद फेचल प्रयोग काये जय लब्धि रूप है ३७-३६

लिग ( वेद ) विभाग नारकसमूछिनों नपुसकानि १० देवा' ५१॥ आप-नारकी श्र समूर्छम नपुसफ दोते हैं २० देवता नपुसक नहीं होते ५१॥ चिवेचन--शरीर चणन के पश्चात्‌ लिंग ( चेद ) का प्रश्न उपस्थित द्ोता द। ससारकी भनुप्यादि चार गतियोंमें लिग का फ्या नियम है उसे बताते हैं। ओऔदायिक भावों फी व्याख्या अ० खूच्र में फद्द आये हैं फ्ि वेद तीन हैं (स्त्री, पुरुष, नपुसक ) इसी को लिंग भी कहते हैं। च्यारित्र मोहनीय कपाय फा आगे चर्रन किया जायगा वहा भी सीन प्रकार के बेद्‌ फी ही व्याण्या दोगी | उपरोक्त लिंग अर्थात्‌ बेद ( स्त्री, पुरुष, नपुसक ) प्रकार के होते दे ( १) द्वव्य बेद, (२ ) भाव बेद्‌ | छव्य वेद का अथे बिहद्ष अथात्‌ आकार विशेष दे ओर भाव घेद का अर्थ विषय की अभिलापा जिसको इच्छा कद्दते दे (१ ) जिस चिद्व द्वारा पुरषकी पहचान की जाय उसे रुप वेद कहते हैं| यद्द द्ृव्य चेद द। खीससग या सुपकी अमि खापा को भाव पुयष चेद कद्दते छू (० ) ख्रीत्य के पदचान का जो साधन है उसे ख्री वेद

हि

( ११६ ) नेत्याथ सन

कहते हैं। यह दृच्य स्त्री वेद है जो पुरुष प्त्यथि सेल था खुस्प

की अमिलापा वह भाव स्यी वेद कहलाता & )

(9 ) जिसमें स्ीन्च, पुरुषत्व दोनों के चिह्न पाये जांय या दोनों से थिपरीत चिह्त हो उसे व्रच्य नपुंसक बेद कदने # फोर ख्री, पुरुष दोनों के संसगकी श्भिलापा हो उसको भाव नपुंलक घेद कहते है

हब्य बेद पोह्नलाकृति रुप, नामकम उदय फलस्वरूप ओर भावधद है वह एक प्रकार का मनोविकार रूप मोहनीय कर्म का फल है। ह़ब्य ओर भाव वेद का परस्पर साध्य, साथन. पोष्य, पोपक सम्बन्ध है

विभाग--नारकी ओर समूछंम जीव नपुंसफर्वेंदी होते देवताओं को नपुंसक बेद नहीं होता थे रत्री, पुरुषच्रेदी दोते हैं। शे गर्भज मनुप्य गर्भज तियंचों को तीनों वेद होते हैं अर्थात कोई रह कोई पुरुष, कोई नपुंसक चदी होता है

विकार की तरतमता-तीनों चेद के विकार की स्थायी रूप से तुलना कीजाय तो पुरुपचेद का स्थायीरूप रिक्रार सबसे न्‍्यून समयवती है तथा पुरुषवेदसे स्रीवेद का स्थायी विकार विशेष समय वाला है ओर इससे भी नपुंसक चेदका स्थायी

< हि

विकार अधिक समय वाला है। इसकेलिये यद्द उपमा बताई गई है

कि पुरुष वेदका विकार भ्रज्वलित घास की अप्लि के समान है वह शरीरकी रचना विशेपसे शीघ्र प्रणट हाता है ओर शीघ्र ही शान्त भी हो जाता है। स्त्री वेद का विकार अगारा के समान है

वह पुरुषबेद के समान शीघ्रता से शान्त नहीं होता | और नपुंसक _

वेदका विकार तपी हुई इंट के समान है। चह बहुत समय के पश्चात्‌ शान्त होता है। स्त्री में कोमलत्व, पुरुपमें कठोरत्व ओर

आ० सखु० ४२ | ( ११७ ) नपुसऊमें उमयभाव की सुख्यता रदती है ५०-५१॥ आयुष्य भेद ओर उसके स्वामी ओऔपपातिफचरमदेहोत्तमपुरुषाउस ख्येयपर्पाञयपो5्न पर त्या- सुप ५२

अथ--आऔपपातिक, नारकी, देवता चरम शरीरी, उक्तमपुरष और अखय्यातवर्षजीयी ये सब अनपबर्तनीय आयुष्य बाले होते हैं ५२॥

विवेचन--ससारफी चार गतियों में आरयुप्य स्थिति फी कया व्ययस्था है * क्‍योंकि युद्धादि जिप्लवों में हजारों दृए पुष्ठ नवयुवक मरत दिखाई देते है और बृद्धावस्था से जजरित देहवाले भयानक आफतोंमें से उचते हुए देख यद्द सदेह होता है कि फ्या श्रफाल झुत्यु है? जिससे अनेक व्यक्ति एक ही साथ मृत्यु शर्या पे जाते हैं और कई मर्णान्‍्त फष्ट को पाफर भी जीवित रद्दते

हैं। इसीका यहा स्पटीकरण करते हैं आयुप्य दो प्रकार फा दोता टै (१) अपवतनीयायुप्य, (२) अनपवर्तनीयायुप्प जो आयुप्य बन्धसमय की स्थिति के बिना परिषृंण हुए शीघ्रता से भोगलिया जाता है| उसे अ्रपचर्तनीय आधुप्य फद्दते है ओर आयुप्य के बन्धकालकी स्थिति परिपूण दोनेखे पहले जो समाप्त नहीं होता उसे अनपवर्तनीय आयुप्य कद्दते हैं अपवर्तनीय श्योर अनपवर्तनीय आयुप्यका वन्‍्ध स्वाभाविक नहीं होता चद्द परिणामोक्े तारतम्य भावोंपर अवलम्पित है। भाषी जन्म के आयुप्यका निर्माण बतमान जन्ममें दोता है। आयुप्ययन्ध के समय परिणामोड्नी शिथिलतासे शिथिलयन्ध दोता है और निमित्त मिलने पर काल मर्य्यादा घट जाती है। उसे अपयर्तनीय

4॥

(

कि]

रद ) तत्वाथ सच

आयुप्य कद्दते हैं इससे विपरीत अथात्‌ परिणामों की तीघता से आयशुप्यका वन्ध प्रगाढ़ होता है। उसे केसा भी कारण क्‍यों प्राप्त हो परन्तु अपनी मर्यादित काल स्थिति से कढापि न्‍्यून नहीं होता | डसे अनपवर्तनीय आयुप्य कहते हैं जैसे-अपने वल पृथक अत्यन्त दढ़ता से खड़े हुए पुरुषोंको कोई भेद नहीं सकता ओर यदि वे शिथिलता से अनडपयोग खड़े हैं तो साध्य हो सकते हैं: अथवा यदि कोई पुरुष किसी वस्तु की गठड़ी वांधकर अपने कन्धे पर उठाये हुए किसी चिन्तित स्थान पर जा रहा है यदि उसकी गांठ शिथिल्न बन्धी हुई है तो योग्य निमित्त मिलनेपर बिना प्रयास केही खुल जायगी ओर यदि वह गांठ प्रचल यानि प्रगाढ़ बन्धी हुई है तो केसा भी कारण क्‍यों पाप्त हो वह रास्ते में खुल नहीं सकती | इसीतरह तीत्र परिणाम से बनन्‍्धा हुआ आशयुष्य शस्त्र विषादि के प्रयोग होने पर भी अपने नियतकाल की मयौदा से पहले पूर्ण नहीं होता ओर मन्द्‌ परिणाम से उपार्जित किया हुआ शिथिल वन्धवाला आयुप्य विष, शस्रादि प्रयोग प्राप्त होते ही अपनी नियतकालकी मयोदा के पहले अन्तर मुहँत मात्र में सम्पूर्ण भोगलिया जाता है। इस तरह आशुष्य के शीघ्र भोग को ही अपवर्तन अथोत्‌ अकाल सत्यु कहते हैं ओर नियत स्थिति- बाले भोगको अनपवर्तनीय अर्थात्‌ कालमृत्यु कहते हैं। अपवर्तन आशयुष्य सोपक्रम अथात्‌ उपक्रम सहित होता है | तीत्र शस्त्र, तीव विष, तीघव्र अभि आदि के निमित्त से जो अकाल मृत्यु होती है उस निमित्त प्राप्ति को उपक्रम कहते हैं। ऐेसा उपक्रम अपवर्तनीय आयुप्य को अवश्य संप्राप्त होता है। क्योंकि वह आयुप्य नीयत कालकी मर्यादा विना प्राप्त हुएही भोगने योग्य होता है परन्तु अपवर्ततीय आयुष्य सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों प्रकार का होत।

आ० 7 स॒ू० ५२॥ (१९६ )

है। उक्त आयुप्यफो अकालमृत्युके योग्य निमित्त प्राप्त होते भी हें ओर नहींभी दोते। यनि यथोक्त निमित्त सनिधान हो भी जाय अरथीत्‌ अफालस्त्यु के सयोग आप्त हो भी जाय परन्तु अनपवत सीय आयुप्य अपनी नियत काल मर्यादा के पहले फदापि पूर्ण नहीं द्ोता

अधिकारी--अनपवतेनीय आयुप्य के अधिकारी शअओओ पपातिक श्रर्थोत्‌ उपपाव सशक जन्मवाल देवता, नारकी, तथा चरम देद्द - तद्भव मोक्षमासी, उत्तम पुरुष>तीर्थकए, चक्रवर्तों, चलदेवादि और असर्येय वर्पायुप्य बाले दोते है! परन्तु इसमें ओऔपपातिक ( देवता, नारफी ) और अ्रसस्येय वर्ष आयुप्यचाले कई मलुष्य, तिर्यथ निरुपक्रम > अनपवर्तनीय आयुप्यवालेही दोते ह&। तथा चरम शरीरी और उत्तम पुरुष सोपक्रम, मिश्पक्रम दोनों प्रकार फे अनपवर्तनीय आयुप्यवाले होते हैं | इनवेः सियाय शेप सब ससारी जीव अपवतनीय, अनपवतेनीय दोनों प्रकार के आयुष्य पाले द्वोते है

प्रश्न--नियतकालस्थिति के पद्दले ही आयुप्य फर्म अप बतित द्वो जाय अर्थात्‌ न्‍्यून या नष्ट द्वो जाय तो रत नाश, अछू तागम और निष्फलता दोष प्राप्त द्ोता है? जो शाखर को अमान्य दै

उत्तर--कोई भी फर्म बिना भोगे नष्ट नहीं दो सकता

उसका प्रदेशोदय अथवा विपाकोदय अवश्य भोगना पदढत, है प्रदेशोद्य कमे के विषाक ( खुखदु खादि ) जीय को अजुभय नहीं

, दोते और विपाकोदयी छुस डु अजुभव दोते दे आयुप्य कम फो जोड फे शेप कर्म दोनों प्रकार से भोगे जाते हैं। परन्तु आयुप्य कम विपाष अनुभव किये पिना फदापि छूट नहीं सकता टीचे काल के आयुप्य को शीम्र भोगलेने में ह्तनाश ओर निष्फलता

( १२० ) तत्वाथ सत्र

दोप प्राप्त नहीं हो सकता और शिधिलवन्ध फर्माउसार प्राप्त होनेवाली स॒त्यु से अकृतकर्मके आगमनक्का वोषारोपण भी नहीं होता | जैले--घनीभूत श॒ुप्क ठृणशराशिमें एक्क किनारे असप्निकी चिनगारी लगादेनेसे वह एकेक तणकों जलाती हुई बहुत काल में उस गंजीकों जलाबेगी ओर यदि उसीके चारों तर्फ अश्विकी चिनभगारियां रखदी जाय ओर थे पच्रन के भकोरेसे प्रज्वलित हो ज्ञाय तो अण्पकालमें उस गजीओो दद्दन करदेगी | इसी तरह शीत्र परिपाक होनेवाले आयुप्यक्ो अयवर्तनीय आयुष्य ऋहते हैं |

इस बातको विशेष रुपले स्पष्ट करनेकेलिये शास्मे ओर भी दो दृष्टान्त पाये जाते 6 (१) गणित क्रिया का. (२) बस्तर खुखाने का | जैसे--कोई बड़ी संख्या का लघुत्तम निकालना हो तब गणित विद्या का निपुण जसा जल्दी जवाबढेगा चैसा अन्य पुरुष नहीं दे सकता दोनों का उत्तर समान है परन्ठु क्रियाको सित्नताके कारण ही समय भिन्नता होती है। इसीतरह किसी एक बख्रको दो, चार या अधिक परत करके सुखाया जाय तो बह विलम्ब से सूखेगा ओर यदि उसी को एक परत करके पवन की जगह धूपमें सुखादिया जाय तो वह बहुत जल्दी सूखेगा ।|डस बखतमें पानीके कण अथात गीलापन समान रूप होने पर भी क्रिया के सेद मात्र से समय का सेद होता है यह शीघ्रता ओर विल- म्व॒ता केवल क्रिया के आधार पर निर्भर हे | ऐसे ही यथोक्त चिप, शख््रादि निमित्त भूत होने से समान परिणामवाला आयुषप्य भी अपचर्तनीय, अनपवर्तनीय होता है इसीलिये पूवाक्ष दोप “कृतनाश, अकृतागम ओर फलाव" की यहां प्राप्ति नहीं होती ४२

इति त्ाथ सूत्र द्विनीय अध्याय समाप्तस

अव्वल शक2ज 2 वा हम 3 तृताय अध्याय

[६४०७७ तीय अध्यायमे गति-अ्रपेक्षा सारी जीयोंके नारक्ी, ;ठ्वि | तियच महुप्य, और देवता ये चार /मेद कट्दे। अब का | इन्हीं के स्थान, आयुप्य और अवगादहनादिका बेन तीसरे ओर चौथे शअध्यायमें क्रिया जायगा। प्रस्तुत भअ्रध्यायमें नारकी, तिर्थेंचों ओर मज॒प्य झे स्थानादि का पर्णन है देवताओं का घर्णन चौथे अध्यायमें करेंगे (5 नारका का वन ग्त्नशर्करायाल्ुुकापक धूमतमोमहातम 'प्रभा भूमय्रो घनाउया- ताफाशप्रतिष्ठ8 स्पप्ताधोज्धः प्रशृुतरा'॥ १॥ तासु नरका,॥ २॥ नित्याशभतरलेग्यापरिणामंदेहप्रेदनाविक्रिया' परस्परोदी रितदु'सा' सॉक्लिए्ठासुरोदीरित दुःसाथ आर चतुर्थ्या: तेप्वोकत्रिसप्तद्शसप्तद्शद्वीतिशतिनयल्धिंशत्सागगेपमा: सच्यानाम्‌ परास्थिति 5 हु « अथै-रत्वप्रमा, शर्करामभा,. चाल्ुकापभा, पकम्रभा,

( (*२ ) तथा खच

घृम्नपमा, तम:प्रभा ओर महातमः्प्रभा ये खातों पृथ्वी अधोश्वथः भूमिमें विस्तारचाली हैं. ओर घनाम्वु, घनवात तथा पश्यकाशमप्रदेश के ऊपर स्थित अथात्‌ ठहरीहुई १॥

डन रत्नप्रभादि भूपियोंमें नरकाचास है ये नरकाबास निरन्तर अशुभत्तरलेश्या, अशुभतरपरि- णाम, अशुभतरदेह, पीड़ा ओर विक्रिययाले हैँ ॥३॥ उन नरकावासोंमें नारकीजीव परस्पर दुख उत्पन्न करने चाले होते हैं चीथी नरकभूमिसे पूर्व अर्थात्‌ पहली, दूसरी ओर तीसरी नर्केभूमिमें नारकी जीवोंको सेक्लिए परिणामवाले अखुर ( परमा- घामी ) से उत्पादित दुःख सहन करने पड़ते हैं ५॥ उन नारफॉके-जीवॉकी परां अथात्‌ उत्कर् स्थिति अज- है क्रमसे एक, तीन, सात, दश, सचह, चारेस ओर तेतीस सागरोपम की है ६॥ विवेचन--जिस आकाशप्रदेशमें जीवादि पदाथ्थ है उसे लोक कहते हैं ओर शेप आकाश अलोक कहलाता है। सस्पूणी लोकके तीन विभाग माने गये हैं। अधो, सध्य और उच्च अधो अथात्‌ नीचेका भाग डसे कहते हैं जो मेर-पर्वेतकी समतल भूमि से नव सी योजन नीचेकी शथ्वी, चहींसे लोक का अधोभाग माना गया है, जिसका आकार डल्टे हुए. सकोरेके समान ऊपरी भाग संकी्ण ओर नीचे अलुक्रम से विस्तार चाला है। मेरु-पर्वतकी समतल भूमिसे नदी योजन नीचेफी श्थ्वी ओर नवसो योजन ऊपर आकाश एवं अठारहसो योजन मध्यलोक कहलाता है। जिसका आकार मालर के समान>आयामविष्कंभ ( लम्बाई चौड़ाई ) चरावर वरावर है। उसे मध्यलोक कहते हैं ओर मध्यके

आ० सू० १-६। ( १२३ )

ऊपरी सम्पूराविभाग को उर्दलोक कहते हैं जिसका आकार पया घज् के समान है। ऊपर और नीचे सकीर्ण और मध्यभाग विस्तार घाला है मारकीजीवोंके निवासस्थान भूमि को नः्कभूमि फऊद्दते &। बह अधोलोफमें है। उस भूमिके सात विभाग माने गये हैं ओर ये सातों विभाग समश्रेणी नहीं हैं किन्तु एक दूसरेके ऊपर नीचे है। उसका आवधाम विप्फम अनुक्रमसे नीचे नीचे पिस्तार चाला है अ्थात्‌ पदली नर्फ भूमि से दूसरी नरभूमि विस्तारयाली है। दूसरी से तीसरी एवं यावत्‌ सातवीं नरक भूमि अधि अधिकतर विस्तारवाली है सातो नरक भूमि एक दूसरी के नीचे है परन्तु थे भूमि कार्ये परस्पर सलम नहीं हैं। उनके परस्पर प्रहत अन्तर है। उस आवरमें अस्तुत खत़फारते घनोदधि, पनवात और आकाश ,प्रदेश ही कह्दा है, परन्तु अन्य शास्प्रोम इस क्रमसे कथन है। अथात्‌ पहली नरफ्भूमि, के नीचे घनोदधि, घनोदधि के नीचे घनयात, घनवातमे,मीच तनवात ओर तनवातके नीचे आफाशप्रदेश दहै। उस आफाशप्रदेश के पश्चात्‌ दूसरी नरकभृमि है। इस दूसरी नरक भूमि और तीसरी नस्कभूमि के वीचमें घनोटधि आदिका क्रम पूच यत है एप सप्तमी नरक्मूमि पर्यन्त घनोदि, घनयात, तनयात ओऔर आफाशप्रदेश अवस्थित रूप है इसका घर्णन भगवती सूप श० 3० में सचिस्तार है। बद्दा इस यातका भी शफा समा धान है कि बायु के श्राघार उदद्घि और उदधिके आधार पृथ्पी कैसे ददवर सकती दे ! इस समाधानफे लिये पानी और पायु से भरी हुई मसकया इष्टा देकर समझाया है

ऊपर ऊपर की नरक भूमिसे नीचे नींचेफी नरकभूमि की

+

( ४४) पद पर

जादार पधीन मोटार स्यून श्यूभ है $ विरे-्प्रधम मार्णीदी गोटाए पएयः लागा झास्मी शदार | [८०७०० 9 धीतन 63 शरपरी शग्ड्धुमि थी मोटा: एक सारा यर्तीख तार बी जने पप ये उरी हरी | ६४ ४८४२८ सीधीदीा रखणवण, परचिर्धीकी कद्िल्यक, हट्रीसोी भशलकरत चोर सानवींफी ६४८४०८७ योफजन था लादशानस ६२ भाडाएँ 3 8॥ सस्ती नरक भृमि दे, नीय नीच सास धनोदिधिर घर निटो हे उसे सास शी जझाहाई समान साय है चेचास शर्म सरीशी मीस चीख ह्पादश साइन परमागा डे पार जो सान सनातन अर खाट इनदाजओ के धर (नह) हे थे सब झसेग्यान योजन अमर री हाशर याचे हैं परन्तु परस्षण स्यूुनाशथिक हैं | जसे- परी मारदीका सनधात, खस- धात असेरयानत योजन | उस से इसरी सगक भ्मिये! धर सड) विशेषाधिक हैं एव याधत सातयी नरदे सृमि लक संगत आर सनवात के थर (सह) की जाहाई बि!७»पराधिक, दिक्षपाथिक्र $ सर यही क्रम आरआकाशप्रदेश का

पहली नरक भूमि रन प्रधान होने के फा गे उसे स्न्‍्नप्रमा नाम क॒द्दा गया है, इसी तरह दूसरी सफर में छंकरों की यराहुबवना हू तीसरी चालुका अधथानत श्ती की भुायषत्ताा बाला ६, साधी पक आअधात कीचड़ की प्रधानता याली हं, पॉंचर्यों धूम अथान अभ्रश्त प्रधान है, छुट्टी तम अर्थात अन्चकार को विशेषता चाली # ओर सातवीं तमतमप्रमा अथाव प्रचुर प्रेघचकार बाही ८। इनके माम अज्ुक्रम से घमा, चेसा, सेला, शअजन्ग, रीप्या, माधध्य अर माघवती हैं।

रत्प्रभा नारकीके त्तीन कांड (करंड) अथीात तीन विभाग है पहला सबं से ऊपरी विभाग खर कांड पुर श्त्तमयी दे। उखकी मोटाई ( जाड़ापन ) १६००० हजार योजन प्रमाण

अआण० रे सू० १-६ | (्‌ १२४५ )

इसके नीचे दूसरा फाड पकवाइलय अवात्‌ कद्ृममथ ८४००० हजार योजन प्रमाणक्की मोटाईवाला दे और इसके नीचे तीसरा भाग जलवाहुट्य अथोत पानी से भरा हुआ दे जिसकी मोटाह ८००० योजन प्रमाण है। उक्त तीनों फ्राढ सम्मिलित दोने से पहली नरफ भूमि की सम्पूर्ण मोटाई एफलास अस्सीदजार योजन प्रमाण दे | दूसरी नस्क भूमि से यावत्‌ सप्तमी नरक भूमि पर्यन्‍त उपरोक्त विभाग नदीं है करण उनमें फककर ओर चालु आदि जो जो पदार्थ हैं वे सब सदश रूप हैं रत्वप्रभाका प्रथम फाड दूसरे काड पर है, दूसरा काड तीसरे काड पर और तीसरा काड घनोद्धि और घनवात क्रे थर पर हे घनवात तनवात के थर पर है और तनवांत आकाश पर पत्रिप्टित है और आकाश का स्वभाव दी ऐसा है कि उसे दूसरे की आवश्यकता नहीं रद्ती- स्वात्मप्रतिध्ति है सब पद।था फो अवकाश देना आकाशका दी धर्म है। दूसरी मस्क पृथ्वी के कग्ड ( विभाग ) नहीं हैं बद्ध घनोद्धि घलीये के आाधारपर स्थित है घनोदधि घनवात पर, घनवात तनवात पर, तनवात आकाश पर ओर आकाश स्वप्रति धित है। यही श्रजुप्तम यावत्‌ सात्ीं नरफ पयन्त दे। ऊपर की पृथ्दीसे नीचे नये वी पृथ्वी.फ्ा बाहुट्य ( जाड्ाईपन ) न्यून द्वोते ,हुए' भी आयाम, विप्फम ( लम्बाई, चीटाई ) सब फा अजुक्रम से अधिफ अधिक दे। इसलिये इनफा सस्थान ( झाफार ) छुत्नाति- छभ्न अर्थात्‌ जामे के आकार है।

साता नरक-भूमिया जितना जिताा बाद्ल्यपन ऊपर कहद् आये हैं उसके ऊपर नीचे एक एक दजार योजन छोडके शेष मध्य भागमे नस्फावासा दे। जिसमें नाग्की जीय रद्धते दे सैसे- शत्नप्रभा सारकी एकलास अस्सीदजार, योजनवाली है उसके

( १२६ ) तत्वाथ सत्र

ऊपर नीचे एक एक हजार योजन छोड़ के शेप मध्यभाग के " १७८००० योजन प्रमाण एथ्वी पिंड नरकाबासा है यही अजुक्रम खातों नरक भूमिका है. उन नरकवासों के घातक, सोचक, रोर व, सैद्र, पिए्पचनी, लोहीकर ओर उप्ट्रकादि अशुभाशुभनाम हें-जिन के सुनते ही भय प्राप्त होता है। रत्नप्रभागत सीम॑त नामक नरका वाससे यावत्‌ महातम प्रभागत अप्रतिष्ठान नाम नरकाबास पर्यन्त सव नरकावास छुरे के समान चज्मय तलिये बाले हं | परन्तु संस्थान सब का सदश नहीं है थे सिन्न मिन्न आकारवाले हैं। कितनेक जिकोन, कितनेक चौकोन, कितनेक कुंभ, हलादि नाना- प्रकार के आकार वाले एक, दो, तीन मंजिलवाले मकान के समान प्रतरवाले हैं इनकी संख्या अनुक्रम से यह है। रत्नप्रभाके तेरद प्रतर, शकेरप्भाके ग्यारह प्रतर इसी तरह प्रत्येक नरक के दो दो , प्रतर घटाने से ६-७-४-३-१ प्रतर हैं अथोत्‌ खातवीं नारकी में ' एकही प्रतर है। इनमें नारकी जीय रहते हैं

नरकावासों को संख्या

प्रथम नरक भूमि रत्नप्भामें तीस लाख नरकावासा है, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी मे पन्द्रह लाग, चौथी में दूल लाख पांचवीं में तीन लाख, छुट्टी में ६६६६५ और सातवीं में केचल पांच नरका वासा हैं

प्रश्न-प्रतरों मं नरक दै इसको क्‍या तात्पय ? उत्तर-एक ओर दूसरे प्रतर का अचकाश अर्थात्‌ अन्तर है उसमें नरक नहीं है किन्तु प्रत्येक प्रतरकी तीन तीन

हजार योजन प्रमाण पृथ्वी पिड है अथात्‌ मोटाईपन है उसी में विविध प्रकार के नरक हैं

आ० २'सु० १-६॥। (१५७ )

प्रश्चन--नरक और नारक का फ्या सम्पन्ध हे!

उत्तर--नारक जीच हैं ओर नण्क उनऊे रहने का स्थान है अथीत्‌नरक में रहने वाले या उत्पन्न होने वाले नारफी ऊद्दलाते हैं।

पहली नरक मूमिसे दूसरी नरफ्भूमि अशुभ हे। इसी तरद्द यावत्‌ सातवीं नरफ भूमि अशुम अशभतर रचना वाली है ओर इन नरकों, में रहनेवाले नारफी जीवों के भी परिणाम, लेश्या, देह, बेदना ओर क्रियादिभी उत्तरोत्तर अशुभ अशुमतर होती है।

लेश्या-सत्नप्रमा और शर्फरप्रभा में कापोत लेश्या दे परन्तु शर्श्रप्रभा की कापोत लेश्या ग्त्नप्रभारी लेश्या से तीत्र सफ्लेश बाली दे, यालुप्रभा मे फापोत भोर नील लेश्या, पकप्रभा में नील लेश्या, धमप्रभा से नील ओर हरृप्ण लेश्या, तम प्रभा में कृष्ण लेण्या और तम तम प्रभामे मद्दा कृप्ण लेश्या दे।

परिणाम--प्रण, गन्ध, रस, स्पर्श ओर शब्दादि अनेक प्रकार के पोद्नलिक परिणाम हे थे सातों भूमि में उत्तरोत्तर अशुभ अशुभतर दोते हैं

शरीर--सातों भूमिके नरकॉका शरीर अशुभ नाम कमे के उद्यसे अधिक अधिऊतर अशुभ वर्ण, गन्ध, रख, स्पर्श, शब्द ओर सस्थान वाले तथा अशुचि, बीभत्स अथोत घृणाजनक द्वोते हैं

चेद्ना-सातों नरकभूमि के नारा की वेदना उत्तरोत्तर अधिफ अधिकतर पे सवसकफी तीन नरज़्भूमि में उप्णयेदना है, चऔौधी में उप्ण शीत, पाचवीं में शीतोप्ण, छट्टी में शीत और सातवीं में अतिशीत बेदना द्वोती ।उष्य और शीतपने की बेदना इतसी तीत्र दोती दे कि इस वेद्नाको भोगनेवाले मारकोंको यदि

श्श्व ) नस्वाथ सच

झ॒त्युलोंककी तीत्र से तीव्र उप्ण या शीत में रखा जायतो बह स्थान उनके लिये सुख प्रद है

विक्रिय--उन नारकों की क्रिया भी उत्तरोत्तर अधिक अधिकतर अशुभ होती है। वे दु से व्याकुल होकर छूटने का प्रयत्न करते हैं परन्तु चह उनके लिये विशेष डु.खदाई होता है। जिसे वे सुख'का साधन समभते हैं चह दुःखका साधन होता है ओऔर वैक्रिय लब्धिसे शुभ बनाने की-इच्छा करते दे तथादि उनका बनाया हुआ अशुभ ही होता है।

प्रश्न--लेश्यादि अशुभभावोंको नित्य कहा इसका क्‍या तात्पय है *

“ऊत्तर--नित्य को अथे निरन्तर है | गति, जाति, शरीर ओर अगोंपांग नामकर्मके उदयसे नरकगति में लेश्यादि भाव जीवन-पर्यन्त अशुभही वने रहते हैं.। क्षण भरके लिये भी किसी

समय अन्तर नहीं पड़ता थे परिणाम पल भरके लियेभी शुभ भाव को प्राप्त नहीं होते

प्रथम तो नरक में शरदी गरमी का दु.ख भयंकर रूप से

होता है इससेभी भूख और प्यास का. दु अति भयंकर है। भूख

का दुःख इतना अधिक है कि जितना अधिक आहार लेते हैं

* उतनी हीं भूख अभ्नि के समाद जाज्वल्यमान होती ज्ञाती है।

किन्तु शान्ति प्राप्त नहीं होती | इसी तरह पियास काभी भयानक

उ'ख है। इससे भी अधिक दुःख उन्हें परस्पर, के बैरभाव से

उत्पन्न होता है | जैंले--विंलली ओर चूहे के या सप और ,मौलीये

( नोरा ) के जन्म से ही शत्चुता होती है इसीतरह उनके भी जन्म

* शत्नता है। इंसलिये कुत्ता के समान परस्पर 'नित्य लड़ाकरते हैं: ओऔर भयानक दें:खं उंपाजत करते हैं

आर है ररू० १-६ ) ( १२६ )

नरक में तीन प्रकार की चेदना दे जिसमें ज्ेनजन्य और परम्परः से उत्पन्न होने चाली बेदना का वर्णन पदले करछुके जो सातों नरक भूमि में समान रूपहे। अब तीसरी परमाधामी जनित बेदना बताते हैं जो केपल प्रथम तीन ( १-२-३) नण्क सूमिकाशों में दोती है ओर इन्द्दी तीन नरक भूमिकाशों के अन्तरों में बे पस्माधामी ेव निवास फरते है ये एक प्रकार के अखझुर देच हैं स्वभाव से श्रति कुए ओर पापस्त द्वोत्ते है। इनकी श्रव, अबथरस इत्यादि पन्द्रद जाति हैं। थे स्वभाव से इतने निर्दयी ओर फुतृदली दोते हैं कि इड दूसरों फो सताप देने में या पीढा पहचाने में ही आनन्द प्राप्त होता है इसलिये थे नारफी के जीयों फो नाना प्रकार के प्रदारादि से अनेक प्रफार के दु दिया करते हैं थे कुत्त, साड या पहलवानों फे समान उन नारकी जीवों फो दम्ेशा लद्ाया फ्रते है ओर उठे लड़ते दुए देख कर आनन्दित द्योते दे उन परमाधामी देवों के लिये आर भी अनेक सुर सावन दे तथापि पूर्वज़न्म एंत तीघर दोष के उदय से थे दूसरों को सताप देने में ही विशेष प्रसक्ष रहते दं। नारकी मे जीप घेचारे फमथश अशग्ण होगे आजन्म पयन्त त्तीम घेदुना सहाय परते दे। इन्द्र कितनी दी घेदना फ्यों हो परन्तु फिसी की भी शरण नहीं है शरीर उनका आयुप्य अपवर्तनीय ( न्‍्यून दोने धाला ) दैःकि जिस से दु जददी समाप्त द्वा अधात्‌ पे प्ररिमित भायुप्य याले दोोते दे

स्थिति--चारों गति के जीवों की स्थिति अथात्‌ आयुप्य मर्यादा जधरय, उत्हृष्ट हो प्रकार की होती है न्‍्यूनको जघ-य और झधिक को उत्हृष्ठ कद्दते है प्रस्तुत सभ उत्हृ्ट स्थिति विषयी है| जघस्य स्थिति आगे झ० सत्र ४३--४४ में कहेंगे

5 करे) _तत्वार सत्र पहले नरक मे उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, दूसरी में तीन सागरोपम, तीसरी में सात सागरोपम चौथी में दस सागर०, मे मे हि को बड़ पांचवीं में सत्रद्द सागर०, छुट्टी में वाईंस सागर०, ओर सातवीं में डे | तंतीस सागरोपम की है।

डपरोक्त खत्ालुसार विशेष रूप से चशन किया गया है | ॥० किक जे पुनरपि विशेष ज्ञान प्राप्ति के लिये गति, आगति ओर द्वीप समुद्र की व्याख्या करते है

गति-वतेमान आयुप्य को पूर्ण करके जिस गति में उत्पन्न हो सके उसे गति कहते हैं | असंज्ञी जीवों की गति पहली नरक भूमि पयेन्त है। आगे दूसरी आदि नरक भूमि में वे उत्पन्न नहीं होखकते, भुजपरि सपे की गति पहली और दूसरी नासकी, पत्ती तीसरी नरक भूमि, सिंह चौथी नरक भूमि, सर्प पांचवीं नरक भूमि, स्त्री छुट्टी नरक भूमि ओर मत्स तथा मनुष्य मरके सातवीं नरक पयेन्त उत्पन्न होते हैं। तात्पये यह है कि मनुष्य, तिर्यच मरके नारकी में उत्पन्न होते हैं परन्तु देवता, नारकी मस्फे नारकी में उत्पन्न नहीं होते क्‍योंकि देवों में संक्लिए अध्यचसाय का अभाव है | नारकी मरके तद्भव देवगति में भी उत्पन्न नहीं होता किन्तु मज्ुप्य या तिथजन्न में ही उत्पन्न होता है।

'आगति--प्रथम की /तीव नरक भूमि के नारकी आ- युष्य पूर्ण करके यदि भनुष्य गति प्राप्त करेतो उत्कृष्ट तीथकर पद्‌ की योग्यतावाले हो सकते हैं, चोथी नरक भूमि के नारकी मनुष्यत्व पाकर निरवोणपद्‌ प्राप्त कर सकते हैं, पांचवीं नर्क भूमि का जीव मलुष्यगति पाकर सर्वविरती संयम प्राप्त कर सकता है, छ्ट्ठी नरक भूमि से निकला हुआ नारकी मलुष्यत्व को पाकर देशविरती की योग्यता प्राप्त कर सकता है और सातवीं नरक भूमि से

आर दे खू> २-६। ( १३१ )

निकला हुआ नारफी भनुष्यत्थ को पाकर सम्यफ्त्व प्राप्त कर सकता है। सातो नरक भूमि के नारकी यदि मलुप्यगति को प्राप्त करें त्तो किस हद तकऊी योग्यता को पा सकता है. उसी का यह दिहरशन है

द्वीप समुद्र-रत्नप्रभा नरक भूमि को छोड फ्े शेप छुओं नरक भूमि में द्वीप, समुद्र, पर्यत, ग्राम, नगर, बृक्त, लता, गादर वनस्पति ढ्वि द्वय यावत्‌ पचेन्द्रिय तियच तथा मनुष्य नहीं हैं ओर इत्तमसा भारफी को छोडझऋर किसी प्रकार: के देवता हैं। फहने का तात्पर्य यह है कि इस नरक भूमि का फैंचित्‌ ऊपरी भाग मध्यलोक सम्मिलित है कारण मेर पर्वत फी समतल भूमि से मंवती योजन ऊडी (गहरी) सलीलायती नामक विजय है, जिसमें उपरोक्त टीप, समुद्र, देवतादि पाए जाते हैं। शेप नरक में इनका अभाष है बहा केवल नारकी ओर सूदम पकेन्द्रिय जीव ही पाये जाते हैं यह सामान्य नियम है परन्तु किसी अपक्ा से तीसरी मरक पयन्त मनुष्य, तियच और देयता भी पाये जाते हैं क्योंकि फारणवशात्‌ वैफि यलब्धि से उनका आवागमन द्दोताटे इससे आगे वे नही जासकते जैसे-पूर्वज-म फी मित्रता के फारण स्नेद्द से प्रेरित दोफे उस नास्फी को अत्य॑न्त दु सो से मुक्त करने के लिये जाते हैँ और। फेवली समुद्धात की अपेक्षा से लोक व्यापी आत्मप्रदेश दोते हैँ इस लिये इन्हें ज़गतव्यापी मानते हे

पस्माधामीदेयों को नरकपाल भी कद्दते डें उनका जना

तीखरी नरक पर्यन्त आनाजानाहोता है और ब्यन्तर, चाणब्यम्तर देव पदली नण्क भूमि में ही दोते हैं १-६॥

मध्यलोक वन जम्बूद्वीप लवशादय' शुभनामानों द्वीप समुद्रा,

( १३२ ) तत्वाथ सत्र

परित्तेपिणो [आर

हिद्विविप्कम्भाः पूर्वपूर्व परिक्तेपिणों बलया कृतयः ८॥ ' तन्मध्ये मेरुनाभिवंतो योजनशतसहसख्र विप्कम्सो जम्बूद्वीप॥६ तत्र भरत हेमवतहरिविद्हरम्यकहरण्यबतरावतवर्पाः चषेत्रा- णि॥१०॥

तह्विभाजिनः पूवापरायता हिमवन्महाहिमवज्षिपधनीलरुक्मि-

शिखरिणो वर्षधर पर्वताः ११॥ दिधातकीखण्डे १२ पृष्कराधच १३॥ ग्राछ मनुप्योत्तरान मनुष्या: - आयोम्लच्छाश्र १४॥ भरतेरावतर्विदहाः कमभूमयो5न्यत्र देवकूरूत्तरकुरुस्य ॥१ ६॥ नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तसुहूर्ते १७ तियेग्योनीनांच १८॥

अथ--जस्वृद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप और लब- णादि शुभ नामवाले समुद्र हैं

ये द्वीप सम्ुद्त एक दूसरे से छिग्रुण द्विगुण विस्तार वाले तथा पूर्व पू्े के हीप समुद्र पर पर के द्वीप समुद्ध से वेष्ित हैं, घिरेह॒वे ओर बलयाकार>चूड़ी के आकार गोल हैं ८॥

इन द्वीप संमुद्रों के मध्यभागमें लक्ष योजन विस्तार

अआण० 3 सू० ७-रै८। ( १३३ )

चाला जम्पूद्वीप है जिसमें नाभि के समान घत्ताकार भेद पर्चेत है |

इस जम्बूद्दीप में भरत, परवत्‌, हेमबत्‌, हरिवर्ष, विदेद, रम्यफ्‌ टैसएयचत्‌ एवं सात वर्ष घर क्षेत्र हैं॥ १०॥

इन मरतादि ज्षेत्रों का विभाग करने के लिये पूरे, पश्चिम आयाम ( लम्पाई ) बाले द्विमवान, मद्दाद्दिवान, निपढ, नील, रुफिम और शिखरी एवं वर्षधर पर्वत कहलाते है॥ ११॥

जम्बूद्वीप के पर्यत्‌, चोत्नों से घातकी खड के पर्यत्‌ क्षेत्र दिगुण सख्या बाले हैं॥ १२॥

पुप्करादे में भी पंत, छेत्र धातकी सड के समान दैं॥१३॥

मजु॒प्योचर पर्वत के पूर्वी भाग में जो द्वीप हैं उनमें मजुष्य रहते हैं १४

थे मदुष्य आय्ये ओर स्लेख दो प्रकार के हैं॥ १५

देवकुरु, उत्तरकुरू भादि को छोड़के भरत, ऐेरचत और विदेद फम भूमि टै १६॥

मनुष्यों का भ्रायुप्प जघन्य अन्तर मुहते और उत्हृष्ट तीन पटयोपम का है १७॥

तियेयों का आयुष्य भी मलु॒प्यों के समान है॥ १८॥

विधेचन--मष्यलोक फी आकृति झालर के समान फ्ट्टी है इसमें असस्पाते दीप समुद्र हैं वे दीप के पश्चात्‌ समुठ ओर समुद्र के पश्चात्‌ द्वीप इस अजुक्म से वियस्थित हैँ उनकी -ध्यास रखना और आरति का यर्णन फरते हुए उक्त स॒तन्नों द्वारा भध्यलोक का झाकार प्रदर्शित फरते दे

ब्यास--जम्पूद्दीप का पूर्य, पश्चिम ओर उत्तर, दक्षिण

( १३४ ) तत्वाथ सूत्र

विस्तार एक लक्च योजन को है लवणसमुद्र का विस्तार इससे " दूना अथात्‌ दो लक्ष योजन का है | धातकीखंड का विस्तार इससे भी दुगुना अथोत्‌ चार लक्ष योजन का है इसी तरह कालोदधि आदि आगे आगे के जितने द्वीप समुद्र हे वे परस्पर एक दूसरे से दुग्मने डुगने है तात्पय यह है कि जम्बूद्दीप सेयावत्‌ स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त जो असंख्याते द्वीप समुद्र है वे परस्पर एक दुसरे से दुग॒ने विस्तार वाले हैं। सच हीप सम्ुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है बद्द असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाला है उसके परे पू्वाक्त तीन वलिये ओर अलोकाकाश है।

रचना--जअम्बूद्वीप थाली के समान या चाक के समान अथवा चक्रवत्‌ गोलाकार है ओर लचणसमुद्र ले वेश्ति है, लबण समुद्र धातकीखेंड से वेश्ति है, धातकीखेड कालोद्घि से, कालो- दधि पुष्करवर द्वीप से ओर पुष्करवर द्वीप पुप्करोदधि समुद्र से, थही अलुक्रम यांवत्‌ अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्‍्त समभलेना।

. आकृति--जम्वू दीप थाली के समान गोल है. और

दूसरे असंख्याते द्वीप समुद्र है वे चूड़ी के आकार ग्गेल आ- कृति वाले हैं ७-८॥

जम्बूद्यीप ओर मुख्य पर्ब॑त्‌, क्षेत्र-अमस्त द्वीप, समुद्नों से बेष्टिते ओर मध्यवर्तीं द्वीप को जम्वूहीप कहते हैं वह सबसे पहला, थाली के समान लक्ष योजन विस्तार चाला है. लवण ख- मुद्र के समान वलयाकार नहीं है अथीत्‌ कुम्हार की चाक के संमान है ओर इस जम्वृद्दीप के मध्यभाग में मेरु पर्चत है इस की ऊंचाई एक लंच योजन है इस के समान ऊंचाई चाले दूसरे पवेत नहीं है अन्य द्वीपों में ओर भी चार मेरु पर्चेत हैं परन्तु उनकी ऊँचाई जम्बूढीप के मेरू से किचित्‌ न्‍्यून है इसे सुमेरु भी कहते

झ० है सू० ७-८

है। अथीत्‌ तिसके लोक में इस के समान ऊचाई चाले पर्वत नहीँ दै.। लत्त योजन फी ऊँचाई में एक जार योजन प्ृथ्यी में रहा हुआ है शेप ६६ इजार योजन प्रथ्वी के ऊपर है एथ्वी के भीतरी भाग की खम्धाई चोडाई सब जगद् देश इजार ग्रोजन है और जो पृथ्वी फा घादरी भाग डै उस के सर्वोपरी अझश को चूलिका फद्दते दे उसका तला एक दजाए योजन विस्तार चाला दे धहा पय्त चार चनों से घिरा हुआ दे ओर इसके तीन प्रिश्लाग हैं, आअथोत्‌ पदला भाग एक हजार योजन पृथ्यी में है, दूसरा भाग जेसठ इजाप योजन और तीसरा भाग छत्तीस इजार योजन पृथ्वी फे उपर है पहले भाग में शुद्ध श्थ्यी और फफरादि हैं, दितीय भाग में चादी और शफरादि है तथा तृतीय भाग में स्पर्णादि है. भठ्ठ साल, नदुन, सोमनस 'ओर पाइफ नाम के चार चन हैं. लास योजन की ऊंचाई के पश्चात्‌ सब से ऊपरी भाग में एक चूलिका ( चोटी ) है जो प्रमाण से चालीस योजन ऊंची दे उसका मूल भाग बारह योजन, मध्यमाग आठयोजन ओऔर उड़ भाग चार योजन विस्तार वाला है॥६॥

जम्बुद्दीप में मुरय सात क्षेत्र है उन फी बस चर्ष या घास क्षेत्र कहते हैं. जम्बूद्वीप फे दक्षिण माम में भरत क्ेज, भरत जक्षेतले उत्तर रे द्वेमचत्‌, द्ेेमवतसे उत्तर दरिबर्ष, हरिवर्षसे उत्तर विदेद, विद्ेदसे £ स्म्यफ, रंम्यक्से दविस्एयथत और उससे पे्‌रवत +इस तरद्द उपरोक्त क्षेत्र एक एफ से उत्तरीय व्यवद्वार से दिशाओं का यह नियम है कि सूथे उदय को पूर्व द्विशा नाम देकर शेप दिशायें नियत की शई हें इस नियम के अल

सार खातों ज्ञ्॒नीं से मेर उत्तर भाग में ही रदता है॥

+समवायाँग सूत्र के खातदें समवाद्द में मी साहही घासज्ञेन्र फद्दे है |

( १३६६ ) मत्याथ खनन |

सातों क्षत्रों को एथक करने के लिये छू पर्चत हे ते बर्ष- घर कहलाते इनकी लम्बाई पूवे से पश्चिम की ओर है, भरत ओर देमवत के मध्यवर्तोी अथात इनका विभाग करने बाला हिमवान पर्वत है इसी तरह हेमचत ओर हरिब कछत्र को एथक करने वाला महा दिमवान पवेत है, हरिव्ष ओर बिटे को निपरधपर्चत, विदेह ओर रभ्यक्र को नील पर्वत, रम्यक ओर हिग्स्यवतत को रुक्मि प्चेत ओर हिर्णयवत्त तथा परघत को पृथक करने वाला शिखरी पर्रत है उपरोक्त पर्चतों से सान क्षेत्र विभाजित माने गये हैं ये पर्वत उनक्षेत्रों के मध्मवर्ती हैं ॥१४॥

है". बिक [3 & धातकी खण्ड ओर पुष्कराडई हीप &

जस्वूद्वीप की अपेत्ता से घातकी खेड में मेरू, एवेत ओर घर्पधर दुगुने हैं अथात दो मेरू, चोद्ह चर्षक्तेत्र ओर बारह चर्षघर पर्चत सदश नाम चाले हैं अथोत जो नाम जम्व द्वीप के पर्वत क्षेत्रों के हें वेही सलाम घातकी खग्ड के पर्चत क्षेत्रों के हैं चलयाकृत धातकी खंड के पुत्री, पश्चिमारं दो बिसाग हैं प्रत्यके विभाग में एक एक भेरू सात सात वर्षलेच्र ओर वर्षधर पर्वत हैं उक्तत दोनों विभागों के मध्य में उत्तर, दक्तिण विस्तार वाले हैं बाण के समान सीधे दो पर्वत हैं ओर उसीसे दो विभागों की कल्पना द्वोती है उन दो विभागों में पूर्व, पश्चिम विस्तार वाले छु चर्षंधर पंत और सात सात चर्ष क्षेत्र हैं तथा उनके मध्य में एक एक मेरू है इसका भीतरी भाग लवणसमुद्र ओर वाहरी भाग कालोदधि समुद्र से स्पर्शित है वर्षधर प्ेत मानों गाडी के पहियों में लगेहुए आएों के समान हैं ओर मध्यभाग में भरतादि सात क्षेत्र हैं १२॥

मेरू, वे ओर वर्षधरों की सेख्या ओर रचना जो घातकी

आ० सुर ७-८६ ( १३७ )

सड की घताइ गे दे। वही पुप्कराद द्वीप की एक जम्बूदीप पर घातकी सड और अर्दध पुपफरदीप मिलये अदाई दीप कदलाते हैं। बस्तुत अ्रध्याय सूछउ १० के अनुसार इनमें फुल पाच मेरु, तीस चर्षधर पर्वत और प्‌दीस घपक्षेत्र है। जिनमें पच भरत, पान धर्बत और पाच महाप्रिदेद एथम्‌ पन्द्द फ्रभूमि फद्दलाता है यद्दा असी, मसी, फसी, आदि कर्म ध्यापार है अंग कर्मरूपी मल फो दूर करके भोतक्षपद भाप्त फरने योग्य ऊम सिडि. की यही भुमि है श्रन्य स्थानो में इसका अभाव है इसलिये यद्द क्मभूमि कदलाती है पाच हैमयत, पाथ हरिघर्ष, पाच रम्यछू ओर पाच हेरणयवत्‌ एवम पीख अफर्म भूमि फही है परन्तु अन्य शाख्रशारों में तीस अश्म सूमि कद्द ये प्तालीस यपत्तेत्र ग्रथात्‌ मनुष्य के यासस्थान यताये दै प्रस्तुत सूत्ञकार ने जो पतीस ही चासरुथान फद्दे इसका तात्पय यद्द है कि थे मद्दाविदेद्द के पूछ, पश्चिम दो विभाग है उन हो थिभागों के मध्य में अथात्‌ मेरु पर्यत्‌ के दारनों तरफ देवफ्रू, उत्तकुरू दो युगलिक चेन दे उनको दिदेद्द क्षेत्र में मान के पैतीस ही पंप क्षेत्र बताये हैँ यथा 4 में देपकुरू, उत्तरकझुर अफ्म भूमि दे शोर इसी अध्याय ये सूत्र *६में इनको प्रथफ फरवे भरत, पेरवन और मद्दाविदेद्द को कर्मभूमि फट्दा है #% पुष्फरघर दीप में जो मालुष्योत्तर लामणः पचत दे पद चूडदी के आकार गोल और पुप्म्रथर दीप था दीया पीचॉदीच शदर पनाद के समान घिरा छुआ दे इसी कारण दीप फ॑ दो घिभाग स्ैगये है भीतरी भाग में मयुप्पों का बासस्थान है और इसी करण इस पर्यत्‌ या सालुष्योत्तर नाप्न रुग है। इसके भीतरी भाग में अर्दे पुष्करयर शीप, वालोद्धि सप्तुद, घानकी खवदठ, लयण समुठ और जम्बूद्ीप यथाम्रम से हैं। इन छषत्रों में मनुष्यों का जम मग्ण

( १४८ ) तायार्थ सत्र

होता दे इसलिये इसको मनुप्य लोक कहते £ ओर इसकी सीमा ग्खने चाले पर्वत को मनप्योत्तर परत ऋहते है | इस पवत के पर जितना क्षत्र है उसमें मनुप्यों का जन्म मरण नहीं होता वहाँ केवल विद्यासपन्न सुनि या वक्रिय लब्धि वाले मन्यों का ही आवासमन

होता है। परन्तु जन्म मरण नहीं होता उनके जन्म मरण का झरथान मनुप्य लोक ही है

53] 4 ही को (5 मनुष्या का सस्थात जचुत्राद |

उप्रोक्त मनपष्योत्तर पद्त के भीतरी भाग में अढाई हीप,

दो समुद्र हैं उसको मनुष्य लोक कहा है परन्तु वास्तविक रुप से मनुप्यों का जन्म मरण सब जगह नहीं होता उनकझा स्थान अढ़ाई हीप के अन्दर केवल पू्राक्त पततीस क्षेत्र ओर छुपन्न अन्तर दीप है संहरण या विद्यालब्धि हारा अढ़ाई हीप में सब जगह जन्म मरण पाया जाता है और मालुप्योक्तर पर्वत के परे रुचकचर हीप पर्यन्त क्रेवल आवागमन होता है ओर उर्द मेर की चुलिका पर्यन्त जाते है: परन्तु जन्म मरण वहां नहीं होता। उन रूचकादि क्षेत्रों में गये

हुए मलुप्यों के नाम भारतीय, धातकीखंडीय इत्यादि क्षत्रों के नाम से व्यचह्मत किये जाते हैं १४

मनुष्यों के मुख्य दो भेद हैं एक आय ओऔर दूसरे स्लेच्छ। निमित्त भेद से खाये पघकार के माने गये हैं। (१) क्षेत्रायं, (२) जाति आर्य, (३) कुलाये, (3) कमोये, ( ) शिल्पाये, (६)भाषाय

ज्षत्राय--पन्द्रह कर्मभूमि में भरत, ऐरवत के २४५४५ देश ओर पंच महाविदेह की एक सो साठ चक्रवर्ती विजय ये अर्थ संज्षक देश कहे जाते हैं इन क्षेत्रों में जन्मे हुए मनुष्यों को क्षेज्राय कहते हैं

हि

है

अए० हे सु० ७-६८। ( २३६ )

जाति आर्य--जैपे-इदवा कु, विदेद, दरि, अम्पछ्ठ, शात, कुरू, घुवनाल, उभर, भोग और राजन्य आदि इन जातियों में उत्पक्ष होनेवाले मनुष्य जाति आय कहलाते है

घछुलाय--औैसे-कुलकर, चक्रय्ती; चलदेब, बाखुदेय और सप्त कुलकरो में प्रथम के तीन छोड के शेप चार कुलरुर और भी जिनफा विशुद्धकुल और प्रसुति है वे सप कुलाय सकश्षक हैं

कर्माथ-जैसे-यजन, याजन ध्र्थात्‌ यज्ञ (पूजन) फरना, करान। तथा पठन, पाठनादि प्रयोग करने वाले अथवा रूपि, लिपि, वाशिन्यादि से आजीजिफा फरने बालों को कमोये कद्देते द।

शिटपार्य --जैसे-शटप्पप या अनिन्दित कार्य करके भा जीबिका करने वाले, ततूचाय ( कपडा पुनने वाले ) तनुवाय (खत कातनेयाले ) अधवा अन्य अनेफ प्रफार की शिएप कलाओं को जानने वालों फो शिटपाय ऋद्दते [

भाषाय--जेसे-तीथफर, गणधर आदि जो अतिशय सपन्न पुरुष हे थ्रे शिए्ट पुरुष कट्लाते दें, उनकी मान्य भाषा सस्कझ्त, प्राकृत, अर्द्धमागधी इत्यादि लोक प्रसिद्ध जो श्रार्य व्यवहार में लाते हैं उसे भाषाय फद्दते है। इस से विपरीत फो स्लेड कद्दते है

इस प्याट्या से ३० अक्मभूमि और छप्पन अन्तर द्वीप के रहने

चाले घुगल मन्॒ष्य भी स्लेछ ही में समिलित द्वोते दे और प्रस्तुत शास्त्र के भाष्य मे स्पष्ट उप्तय है कि छुप्पन अन्तर द्वीप के रहने घाजले मनुष्य स्लेछ हैं. परन्तु अन्य शास्त्रों में केघल पन्दद् कर्म भूधि के मनुष्य ही आर्य, म्लेछ सशा से सचोधित फिये गये हैँ त्तीस भोग भूमि और छुप्पन अन्तर द्वीप श्रफ्म भूमि टै इनम रहने चाले मनुष्षों में उक्त ( आये, अनाय ) सपा नहीं मानी है म्लेच्छ सका वेपल कर्म मूमि के अनाय॑ देशों से उत्पत्न दोने घाले मनुष्या

( १४० ) तत्व थे सूत्र

की अपेज्ञा से मानी गई है ऊँसे-शक, यबन, कवोज्, शबर, बंदर, पुलिदादि देशों में रहने वाले मनुप्य | जीवासिंगम सूत्र में छप्पन हीप को अकर्म भूमि कहा है यथा-- / अन्तरदीवग अकम्मभूमग मणुस्सित्थी -- खेभते। इदत्याद्वे ओर भाष्यकार इन हीपों के मनुष्यों को विज्ञानिय कहते हैं १४॥

ला मसाम नदश

जिन क्षेत्रों में मोत्न मार्ग के जानने चाले और उसके उप- डेशक तीर्थंकरादि उत्पन्न होते हों उन्हें कर्मभृमि कहते हैं। अरढ़ाई द्वीप में पैतीस क्षेत्र और छप्पन अन्तर दीप हे यही मनुष्य उत्पत्ति के स्थान हैं। ्‌ हु

प्रशन--अन्तर हीप कहां है ?

उत्तर--हिमचत्‌ आर शिखरी परवेत्‌ के दोनों किनारे लवण समुद्र को स्पश किये हुवे है उन किनारों में दो, दो शाखायें हाथी के दो दांतों के समान निकली है उसे गज़दन्त भी कहते हैँ वे लवण समुद्र के ऊपर स्थित है। अर्थात्‌ हिमवान पर्वत्‌ की चार शाखायें ओर शिखरी पर्वत की चार शाखायें एबम आठ गजदन्त कहलाते हैं उन भधत्येक गजद्न्तों पर सात, सात होय हैं थे अन्तर दीप. कहलाते हैं। जस्बृद्वीप की जगती से तीन सो योजन दूर अथोत्‌ लच॒ण समुद्ध के पानी पर तीन सो योजन दूर जाने पर तीन सो योजन के आयाम विप्कंभवाला एक अन्तर

हक भवाल हीप है इसीतरह जगती से चारसी योजन की दूरीपर चारसो योजन के आयाम विष्केभ वाला तथा पांच सौ योजन की दूरीपर पांच सो योजन के

आयाम विष्कंभ चाला, सो योजन की दूरीपर सो योजन के 20. क, 5 कि हट”

आयाम वप्क् वाला यावत्‌ ने सो योजन की दूरीपर नो सो योजन

के आयाम विप्कन्न वाला सातवां अन्तर डीप है | इसीतरह एंक

5]

आ* रू० ७-है८॥ ( १४१ )

गजदत पर सात सात हीप समान्य आयाम विप्फमवाले विवस्थित है | दिमवबान पवत के चार यजदातों पर जिस नाम के शठाईस अतर द्वीप उसी नाम फे २८ अन्तर दीप शिसरी पथत के चार गजदूतों पर ओर जिस नाम के थे दीप उसी प्रकार के वहा मनुष्य निवास फरते है जेसे-( १) एकोरुप+ ( २) लागूल (३) घेपाणिक ( ) अभाषक उक्त चारों द्वीप लयण समुद्र जगती से तीन सी योजन दूर तीन सौ योजन अयम विप्कम याले दे इसीतरदद घाग्सी योजन के दुरीपर दृयकर्ण, गजकर्ण, गौकरण, शप्कुलीकरण, पाच सी योजन पर गजमुस “याधमुस, आदरशमुप, गोमुस बाक्ते, छसोयोजन फी ट्रीपर अश्यमुय, दस्तिमुस, सिदसुस, व्याधमुस बाले, सातसी योजन फी दूरीपर अभ्वकर्ण, सिंदकर!, इस्तीक्ण, ऋशणेप्रचारण, प्याठ सो योजन पी दूरीपर उरकामुसा, विद्युज्निरद भेपमुस, पिद्भुदन्तों घाले और नवसी योजन पी दूरीपर नो सो योजन फे विस्तारवाले प्रभद“त, गृददनन्‍्त जिशिष्टद्‌त तथा शुद्धद"त नाम थे चार द्वीप हे एवम्‌ २८ अ-तर हीप द्विमयात पर्चत के चार गजदतों पर ओर अठाईस अ-तर दीप शिलखरी पर्वत फे चार गजदन्तों पर दे रनयो अर ठीप फद्दते दे उच्तरफुरू, देवफुरु फो छोड के पाच भरत, पाच ऐस्चत और पाय महाविदेद को फर्मेभूमि फददते हे शेप थीस क्षेत्र श्ौर छापा अन्तर डीपए अकर्मभूमि टे देवकुर, उत्तरफुर मदाविदेद के समिलित टै तथापि यद्द अक्मेभूमि दे। जद युगलियों या नियास और युगलिक धरम द्वा उसे अकरमेसूमि यददते छू यदा खारिधादि घमम फदापि समचित नहीं होता १४

के जापाणिंगम सूत्र में सुगछ मनुष्यों शरोर पा थणन विस्तार से दिया जियो को सु-दरता चर्वाईक बनणाइ |

( १४२ ) नत्वारथ सच मनुष्य तिथचों की स्थिति |

मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति ( जीवनकाल ) तीन पहथयों पम्॒ की ओर जघन्य स्थिति अन्तर सुहंत प्रमाण की है इसी त- रह तिर्येचों की थी जधन्य, उत्कूए स्थिति समभलेनी अथीत्‌ मनुष्पों के समान उत्कृष्ट पत्योपम ओर जश्न्य अन्तर मुह की स्थिति है।

पुनः स्थिति दो घकार की है ( १) भव स्थिति. (२) काय स्थिति जो प्राणी अपने जपन्य या उत्कृष्ट आयुप्य प्रमाण से जीचित रहे उसे भव स्थिति कहते हैं ओर चही प्राणी दूसरी जातिमें जन्म लेकर वारंवार उसी उसी जाति में जन्म मरण करे डसे काय स्थिति कहते है अथात्‌ एक ही जाति में बारंबार पैदा होना काय स्थिति है। मजुप्य और तिर्यच्च की उपरोक्त स्थिति बताई है उसे भवस्थिति कहते हैं। जमन्य कायस्थिति मनुष्य और तियच की भवस्थिति के समान अन्तर मुहत है परन्तु उत्कृष्ट काय स्थिति भनुष्य की सात, आठ भव है अथीत्त्‌ मनुप्य मनुष्य जाति में लगातार ( बारंचार ) सात, आठ बार जन्म अहण कर

सकता है पश्चात्‌ अपनी जाति को छोड़ के अवश्य अन्य जाति में जाना पड़ता है |

समस्त तियचों की भवस्थिति और कायस्थिति एऋ सामान नहीं है इस लिये किंचित्‌ विस्ता: पूर्वक्ष चशत करते हैं ध्रथ्वीकाय की उत्कृष्ट भचस्थिति (आयुप्य) वाईसहजारवर्प प्रमाण है, अपकाय की सातदजारवप, चायुरायकी तोवहजारवर्, और वेडकाय की तीन अहोरात्रि की उत्कृष्ट भवस्थिति है और उत्कए कायस्थिति इनकी असख्यात काल असेख्याती अचसर्पिणी, उत्स- पिंणी की है। वनास्पतिकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति दशहजारवर्ष

आ० 3 सु० ७-रै८) ( १४३ )

की और उत्हश फायस्थिति अनन्त काल प्रमाण की दे, ही द्विय जीवो की उत्सष्ट भवस्थिति बारदयप की, तेरिन्द्रयथ जीयों की उल्कृए भवस्थिति (४६) अहोराजि की और चौरिजिय जीवों की उत्हश भवस्थिति मास प्रमाण की दे तथा इन तीनों की उत्हृ४ फायम्विति सस्याताइजास्वर्पों की है. तियेचप्चेड्रिय गज और समुचम नो प्रशार के दोते हैँ इन दोनों फी भधरियति पृथक पृथक है मर्भजजलचर, गर्जउरपरि, गर्भजभुजपरि इन की उत्कृष्ट भयस्थिति पूच कोड नर की हे तथा खेचरों ( पक्षियों ) फीडत्टट भयस्थितिप ट्योपम के असस्यातर्दे भागकी ओर स्थलखचर ( चार पाव वाले जानवरों ) पी उत्हण भयस्थिति तीनपटयोपमयी है समुद्देम जलचर की उत्हृष्ट भवस्थिति ( आयुष्य ) पूष फोड ब्ष पी, उरपरि वी १३ देज(र बर्षे, मुज॒परि फी ४२ पयालीसद्जार बप, पत्तियों की ७९ दजास्वप, रुथलचर की चीरासीदजारबर्ष की छत्टूए भवस्थिति दे ओऔर पयचेद्धियतियंचों की उत्हष् फाय स्थिति सात, आठ भव अमण रूप डे तथा समुर्थम तियंचपचे (द्वय की उत्हष फायस्थिति सात भव अमण की है विशेषाधि

कार पन्नचणा सूत्र में है ७-९८ के 0

इति तत्त्वार्थ सूत्र तीसरा अध्याय हिम्दी अनुवाद समाप्तम्‌

ई(एठ ल< (0 5. 09 7 हक

चाथा अध्याय ।:

तीसरे अध्याय में नारकी, मनप्प और तिययों का चणुन किया गया है झब सस्तुत अध्याय मे देवताओं का घन करते £ दवा के भद | दवाश्वतुत्तकाया। अर्थ--देवता चार निकाय प्रकार के होने है॥4१॥ विवचन+एणक ग्रकार के समृह या जाति को निकाय कहते है। देवों के चार निकाय हैं ( १) भवनवासी (२) ब्यांतर (३ ) ज्योतिषी (४ ) चैमानिक १॥ लतापर नेकाप का लघच्या। वृतीयः पीतलेश्याः २॥ अर्थ--तीसरे निकाय वाले पीत लेशी हैं ॥| विवेचन--पू्वाक्त चार निकाय के देवों में तीसरी निकाय ज्योतिष्कदेवों का है वे तीसरे निकाय वाले केवल पीत अथोत्‌ तेजो लेश्या वाले होते हैं श्लेश्या दब्यल्श्या अथात्‌ शारीरिक वर्ण से भावलेश्या नहीं, भाव लेश्या प्रकार की होती है २॥

चार निक्राय के भद्‌ | दशाष्टपंचद्भाद्शविकल्पा कल्पोपपन्नपर्यन्ता: ॥३॥ कक

3 लश्याक ।वशप स्वरूप का चंणंन दखना हा ता दखा अन्य का पाराशंष्ट पष्ट ३३

ज्यातिम्क देव या का अथे यहां है किन्तु अध्यवसायरूप तो चारों निकाय के देवों में छ्ओं

हेन्ददी चोथे कम

आ० सू० ४-५। ( १४५ )

अध--कऋष्पोत्पन्त पर्यनत चारनिकायके देवता श्रदुुकम से दश, आठ, पाच और बारद भेद वाले द्ोते दे ३॥

विवेचत--पूर्योक्त चार निकाय देवों के अजचुक्रम से भुवत पतिके दश, व्य-तरके आठ, प्योतिप्कके पाथ, और चैमानिक के यारद भेत होते हे। सूत्रफारने जो करपोत्पन्न पयात फट्टा सपा तात्पर्य यद्द है कि बैमानिय देवों के दो भेद है॥ ( १) फण्पो त्पक्ष (२) कणप्पातीत (श्र० स्‌ (८) इनमें से उक्क भेद कल पोत्पन्न के ही समझने चाहिये सीधर्म से यावत्‌ अच्युत पर्यन्‍्त बारद्-देवलोकः कटप कदलाते हैं ओर ऊपर के कश्पातीत है, इनका वणन आगे करेंगे '

चार निकाय के अवान्तर भद। इन्द्रमामानिफतरायाशिशपारिपयात्मरक्षलो ऊपालानी कप्रफी - शुकामियोग्य किल्बिपिझा अकशः

आ्रायाश्षेश लोकपालप्रज्यों व्यन्तरज्योत्रिप्का।॥ अशथे--पूर्योक्त छाए निकायों में प्रत्येक निकाय के इम्ठ, सामानिषादि एक मेद करके उक्त दस भेद होते हैं (१)ह८ (० )सामानिकफ ( )परायारिंशक ( ) परिषद ( ) झात्मरक्तव' (६) लोकपाल (७) अनीका (८5) प्रकोण (६) अभियोग (१० ) विश्विपिक | स्यातर सथा प्योतिष्क देव घायस्रिश और लोकपाल रदित होते है विवेचन--भवनपति के देष आउुरादि दृृसप्रकांर के है में अयेक सत्रोक्त दश हश भेद सदित दोते दे उछ दश सेदा में (१९

( १४६ ) _तत्याध सत्र

जो स्व रव निकायके देवों का अधिप्ति होना है उसे इन्द्र कटने हैं (२) सामानिक् जो श्रायुपादि में इन्द्रके समान शो और 'झामसर्य पिता गर उपाध्यायके समान समान्य मदस्च था महिमाचाले हा केवलइन्द्रत्व उनमें नहीं होता थे सामानिक ऋदलाने दे (३) जो भरी या पुरोद्धित का काम करते हैँ वे घ्ायरिःष्तक कहे जाते दें (४) मित्र स्थानीय को परिषद्‌ (५) शरीर की रक्षा के लिये शर्तों का धारण करनेवाले आत्मरक्तक् (६) सरहदफीर दा करनेयाल या कोतवचालको लोकपाल ( ) सनिक शअथंया सेनावति को शनिफ ) नगरवासी या देशवासी को प्रफीण (६) दाल दे; तुस्य दे मे अभियोगिकल्लेवक ( १० ) जो शद याने नीचजञाति के समान हैं उन्हें किक्चिपिक कहते हैं आठ प्रकार के व्यन्तर ओर पांच प्रकार के ज्योनिष्क देवों में चायस्थिशक तथा लोकपाल चजे के शप इन्द्रादि आठ ही भेद होंते हैं अर्थात्‌ व्यान्तर और ज्योतिप्क निकाय के देवों में आयरिशक तथा लोकपाल जाति के देवता नहीं होते किल्विपिक देवों का स्थान पहला तीसरा ओर छठा

देवलोक हैं तो शेप वेमानिक देवों में दश भेद फैसे पाये जा सकते हैं यह विचारणीय दे #

इन्द्रों की सख्या पूर्वेयोह्द्राः |

& श्री भगवतीजी सूत्र श० उ० में किह्विषिक देवों की उत्पात जधन्य भपमनपति देवा में ओर उत्कृष्टि क्रांतकस्वगेतक बतलाई है इस सूत्रोक़त चारे

निकाय के देवे। भ॑ कल्विषिक देंव होते हैं पर लांतक देवद्धोक के ऊपर थे नहीं

पर निकरायापक्षा चारा निक्राय में पाये जाते हैं

आर सू० १] ( १४७ )

अधे--प्रथम की दो निकाय भवनपति, व्यान्तर में दी दो इन्द्र हैं.॥ ७॥ ने

विधेचन--भवनपति दूस और व्यन्तरों की आठ निकाय

के दो दो इन्द्र हें दक्षिण के और उत्तर के हैं. कोप्टफद्धारा बतलाते हैं

सतत देया कै नाम |. दक्तिगन्ठ |_ उत्तरेन्द्र | अखझछुरकुमार . चमरेन्द्र , - लिख ; २३ | नागकुमार चघर्णेन्द्र भूताइनद

| खुबणकुमार चैणदेव चैख्ूदाली

3 | विद्युत्कुमार , | दरिकान्त हरिसिंद न्‍ | अपग्निकुमार अश्निसिह अप्लिमानव॒ - < | द्वीपडुमार पूणेन्द्र विशेष्टेद्ग

| दिशाऊमार जलफान्त जलप्रभा

| उदधिकुमार अम्ृतगति अमृतबहान

& | वायुकुमार चेलबइस्द्र प्रभजने

२० | स्तनित्‌कुमार घोषेस्द मद्ाघोपेस्क

पिशाब कालेद मशाकालेन्द्र डिक भूत खुरूपेय प्रतिरुपेद्र

| यक्ष पूर्णभठ्ठ मणिभद्र

| राक्तस भीमेद महद्ामीमेन्द्र

| किन्नर «| कितरेन्ध मद्दाकिष्नरेन्द « | फिंपुरुष सापुरुषेद महापुरुपेक

| मोहरग झतिकायेन्द्र मद्दाकायेन्द्र

5८ | गन्धर्य गतिर्ती गतियशेठ

( १७५ ) तत्वाथे सच। .

प्रस्तुतसूचसे प्रथम की दो निक्रायों “भवनपति व्वन्तर ' में दो दो इन्द्र कहे हैं इसले यह सूचित होता है कि शेप दो निकायों में उक्त संख्याका अभाव है। ज्योतिष्कोंमें चन्द्र ओर खये दो इन्द्र हैँ तथापि वे गिनती में असंख्याते हैं क्योंकि मलुप्यलोक में चन्द्र ओर खूथ के २६७ विमान कहे हैं ओर शेप तिरछ लोकमें अखे- ख्याते विभान हैं. उन से के पृथक इन्द्र हैं इसलिये असंख्याते इन्द्र होते हैं | वैमानिक निकाय में पत्येक कल्प का १-१ इन्द्रहे। जैसे-सोधर्ममें शक्रेन्द्र, ईशानमें ईशानेन्द्र, सनत्कुमारमें समन्‍्कुमा- रनामका इन्द्र है इसीप्रकार सवदेवलोकोंमें उसी देवलोक के नाम चाले एकेक इन्द्र है। परन्तु आनतप्राणत इनदोदेवलोकॉका एक ही इन्द्र है उसे प्राण्तेन्द्र कहते है ओर अरण, अच्युत इन दो देवलोऋ में भी एकही इन्द्र है उसे अच्युतेन्द्र कहते हैं एवम्‌ भवनपतियों के वीस इन्द्र हैं। व्यान्तरों १६, ज्योतिषियों के वेमानिक्रों के १० कुल ४८ इन्द्रहुण अन्य शास्त्रों में ६४७ भी कहतेहे ५॥

प्रथम के दो निकायों की लेश्या। पीतान्त लेश्या। ७॥

अथे--प्रथम के दो निकायवाले देव-तलेजो पर्यन्त

लेश्यावाले होते हैं अथोत्‌ कृष्ण, नील, कापोत और तेज़ों लेश्या चाले है ७॥

विवेचन--भवनपति और व्यन्तर ज्ञातिके देवोंमें शारी-

& दुश भवनपतियों के २० इन्द्र सोलह व्यन्तरों के ३२ इन्द्र | ज्योति- पिया के इन्द्र। वेमानिकों के ३० इन्द्र | एवस्‌ कुल ६४ माने गये है। एवम चाौसट इन्द्र सेमिक्षित दो के भगवान्‌ के जन्मामिपेषादि महोत्सव करन के लिये अति है

अआ० सू> ८-१० | ( १४६ )

रिक्र वण रूप द्वव्यलेश्या। चार मानी गई | पता देवों की प्रचारणा | * कायप्रवीचारा एशानात्‌ ८॥,' , शेषा स्पर्शरुपशब्दमन, अवीचारा इयोदयो। & परेउ्प्रयीचारा' १० हु हि अर्थ-भवनपतिसे ईशान पर्यन्तके देव कायप्रपीचारक अथात्‌ मल॒प्य सदश शरीरिक खुसभोगने चाले द्वोते ८॥

अप देवों में दो,दो फरपवासीदेव अजुक्रम से स्पश, रुप, शब्द और सकरप दारा विपयसुखमोगते हं

क्टप से परे कटपातीत डेवद्द वे सरूप्रकारसे प्रचारणा रदितदे अर्थात्‌ उन्हें विषययासना उत्पन्न नहीं होती १०

पिवेचन--भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्फ, पदले और दूसरे स्व के बेमानिक देव ये सथ मनुष्यों के समाम काय भ्रवीचारका है अथोत्‌ सर्वाग शरीर दारा मैथुन विषयोंका उपभोग सभोगकरत्े हुए प्रसश्नता को प्राप्त दोते दे

तीसरे स्वगेसे यावत्‌ बारदर्वे स्पर्ग पर्यन्तके देय मन्नुष्यों के समान सर्वोग शरीर स्पश द्वारा फाम सुपभोगनेवाले नहीं दोते, थे अन्य रूपले विषयसुपका अलुभव फरते हई। जैसे-तीसरे और चौथे स्यगेयासी देव देवियों के मात्र स्पर्श से ही कामवासनासे चप्त होकर प्रसक्षचित्त द्वोते हैं। पाचर्चे और /छट्ठे स्वर्गंचासी देव, / देवियों के सुसज्जितरूपको देसकर विपय जनित खुससे सतोपित होते है। सातवें और आठवें स्वर्ग फे देव देवियों के मुसारफिन्दसे मनोद्दस्यिलास जनित मधुर तल्लताल युक्त गीठ गान और द्वास्यादि

( १४० ) तत्वाथ सत्र

शब्दों के श्रवण माच से धरीतिको प्राप्त होकर कामवासना के अनु- भव आजननन्‍द से संतोपित होते हैं नोवे, दशा तथा ग्यारहवें बार- हवथे इन चार देबलोकोंके देवोंकी कामचासना की तृप्ति देवियों के चिन्तवन मात्र से होजाती है वे अपने मनके सकछय मात्रसे ही परमपीति को प्राप्त होते हैं| इनको देवियों के रुपश अथवा रूप ठेखनेकी या गीतगानादि खुनने की श्रावश्यक्वा नहीं रहती। देवियों की उत्पत्ति का स्थान? पहला ओर दूसरा स्व ही है। तथापि चे विपयस्रुख की उत्सुकता के कारण या उन देवताओं को अपनी ओर आदरशील जानकर तीसरे आदि देवलोकों में रहे दहुए देवों के पास पहुंच जाती हैं ओर तीसरे तथा चौथे देवलोक के देवता उन देवियों के हस्तादि स्परश मात्र से ही कामचासनासे तृप्त होकर परमानन्द को प्राप्त होते हैं इसी तरह पांचवे, छट्ठे देख- लोकके देव उनदेवियों के सुसज्जित मनोहर रुपको देखकर ओर खातवे आठवें देवलोक के देवता उनके सुरीले गीत गान या मन को प्रफुलित करनेवाले शब्दों को सुनकर विपयानन्द सुखोंका अनुभव करते हैं इसके परे अथोत्‌ ऊपर नोें आदि स्वगा में वे नहीं जा सकतीं, ने से वारहवें स्व पर्येन्त के देवता उन देवियों के चिन्तवन मात्र से काम वासना रहित हो जाते हैं। आगे प्रेचे- कादि स्वगवाली देव हैं उन्हें कामवासना नहीं होती इसलिये बे उपरोक्त देवियों के स्पशोदि की अपेक्ता नहीं रखते वे अन्य देवताओं से अधिक खंतुए्ठ ओर खुखी होते हैं यह अनुभव सिद्ध है कि जिन्हें किसी भी विषयकी अधिकवासना है वही अधिक दुःखी है उनका चित्त हमेशा चंचल और कलुषित रहता है पहले दूसरे देवलोक की अपेक्ता यावत्‌ बारहव देवलोक के देव मंद, मे- दतर, मंद्तम कामवासना वाले होते हैं अर्थात्‌ ऊपर ऊपर के

आ० स्वु० ९१-१६) ( १५१ ) स्थगवासी देवोकों नीचेकी अपेक्षा फामवासना भद्द होने से उनके चित्त मे सफ्लेंस फी माचामी कम होती है काममोग फे साघन

भी कम दोते दे बारदयें देवलोफसे ऊपर के देव शान्त और सतोष जन्य परमसुख में सदा निमग्त रहते दे ८-१०॥

पृवोक्त देवों के भेद प्रमेद._ भवनवासिनो्सुरनाग पिद्युत्सुपर्णाग्नि, वावस्तनितोदधि

द्वीप दिक्‌ कुमारा' ,. ११॥ व्यन्तरा' किन्नर किम्पुरुपमहोरगगान्धव यक्तराक्षसभूत पिशाचा। .. १२॥ ज्योतिष्फा उया्नन्द्रमसो ग्रहनक्षत प्रकीर्ण तारकाथ)१३॥ भेरू अदक्तिणा नित्यग॒तयों नृलोके १४॥ तत्कूत फालविभाग १५॥ चहिखस्थिता। | ॥१६॥ वेमानिका' लि १७॥ कल्पोपपन्ना, कल्पातीताश् १८॥ उपर्युपरि - )॥ १६॥

सोधर्मेशानमनत्कुमार माहेंद्रमक्षत्ोक लान्तकमहाशुक सह- खरेप्वानतग्राणतयोरारणाच्युतयोन॑उसुग्रयेयकप॒विजयवै जयन्त जयन्तापराजितेपुमवर्थसिद्ेच _ ॥२०॥

अथ-अखुरकुमार १, नागकुमार २, खुबशकुमार ३, विद्युस्कुमार ७, अग्निकुमार », चायुकुमार ६, स्तनितकुमार

श् १५४२ ) सम्वाथ खून |

( डद्घि कुमार 5, छीपकुमार ओर दिक्कुमार ७ये भवनवासी निकाय के देव है ११॥ किन्नर, क्मिपुरुष, महोरग, गान्धर्व, यज्ष, राक्षस, भूत ओर पिशाच व्यन्तर निकाय के देव है २१२॥ खूये, चन्द्र, अह, नक्षत्र ओए प्रक्रिण-तारा-ये ज्योति- प्क निकाय है १३॥ वे ( ज्योतिष्क ) मनुपयलोक में मेरु की प्रदित्तणा करने वाले नित्यगतिशील हे १७ चर ज्योतिष्कों द्वारा काल का विभाग होता दे ६४॥ महुप्यलोक के वाहिर ज्योनिप्क हैं वे स्थिर रहते है दा वैमानिक निकाय के देव हैं १७॥ वे कल्पोत्पन्न ओर कल्पातीत रुप दो प्रकार दे दे १८॥ ओर एक दूसरे के ऊपर ऊपर व्यवस्थित है १६ उनके चासस्थान सोधमम, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र बरह्म- लोक, लान्तक, महाशुक्र, सहखार, आनत, प्राणत, अरगय, अ- ज्युत, नो प्रेवेक ओर विजय, बेजयन्त, जयन्त, अपराजित सर्वाध सिद्ध ये पांच अजुत्तर विमान कहलाते है इन विमानों में चैमानिक निकाय के देव रहते हैं २० विव्रेचन--चार निकायों में से घधथम निकाय मवनवासी है। इसलिये यथाक्रम पहले इन्हीं का वर्णन करते है . दश घकार के भवनपति देवों का आवासस्थान मदहामन्दिर 'मेरु पर्वत के नीचे या तिरदा उत्तर दक्षिण दिशा में अनेक कोटा कोटी लक्ष योजनपर्यन्तरहते हैं अखुरकुमार बहुधा आवास में और कभीकभी भवनमें निवास करते है शेप नागकुमारादि का निवास धायः भवनोंमें ही होता है वे भवन रत्नप्रभा पृथ्वी पिंड को एक

झआ० स० १९-९६। ( रैश्३े )

संदस्नरयोजन उछें, अधो भाग छोड के शेप पकलापश्रठहत्तरदजार योजन में आवास दर जगद द्ोते दे ओर स्त्नप्रभानारकी के नीचे नगरके समान द्वोते उसे भपन कहते है। ओर झायास चहुघा सप्रञ्गद्द पाये जाते दे औओर वे मडप के आकार के होते दे

प्रश्न-भवनपततिदेयोंको कुमार फ्रिसलिये कद्दते हैं ?

उत्तर--प्रे कुमारोंके समान दिखनेमें मनोदस तथा खुक मार मूढु, मधुर जातियाले और फरीडाशील दोते हैं पूवाक् दश प्रकार के भुवनपतियों के चिह्मादि सम्पत्ति स्यजातिके अद्भसार प्रथए्‌ +? दोती है जैसे (१ ) अखुण्कुमारोंके मुकुमे झुडामणिक्ता ज्ि'हरद्ता है इसीतरद् (२) नागकुमाफे नाग (सप) (३) विद्युत्छुमास्के चंद्र (७) सुपणऊुमास्के गयड़ (५) अप्रिषुमार के फ्लश ( ६) यायुकुमार के मगर ( ) स्तनिते्‌ कुमार के घत्र समान (८) उदचिकुमार के गऊ ( ) द्वीप कृपार के सिंद और दिकुछुमार के अश्य का चिन्द्र दोता है। नाग छुमारादि के चिन्द्र आभरण विशेष में रदते हे ओर स्रपर फे बा शख्राभूषणादि नाना प्रकार के दोते है ११॥

व्यन्तर-छ्वितीय निक्राय व्यस्तर है। उनके घासस्थान जो भवन और आवास दें थे उद, अथो और तीयग अथात्‌ लोक में तीनों जगद्द पाये जाते है वे श्रपनी इच्छा से या दूसरे फी प्रेर णा से दरण्क ऊगद आया जाया फरते इनमें से कष्ट मनुष्यों फी सेवा करने थाले भी है त्तथा पिविध अफार के पद्दाड़, घन, गुफा ओर अतरोंदिमें निवास करते दें इसी कारण ये व्यन्तर फद्दलाते हैँ इसमें जो फिसिर नाम के ब्यन्तर हैं थे दश प्रकार ये जसे-प नर, फिंपुरप, किपुर्पोत्तम किप्तरोत्तम, दृद्यगम, रूपशाली, अनि रिदत, मनो सम, रतिपीय और रतिश्रेष्ठ किंपुगप नाम के व्य-तर भी दप अफार पे दोते हैं जसे-पुरुष, सतपु्प, मद्दापुरुष, पुरुषप

( १५४ ) तत्वार्थ सत्र

घम्, पुरुपोभय, अतिपुरुष, मरूदेव, मरुत, मरुप्रभा ओर यक्षस्वाना महोरग दश प्रकार के हैं जैसे-भुजग, भोगशाली, महाकाय, अति- काय, स्कन्धशील, मनोरम, महावेग, महेप्वक्ष, मरूकान्‍त और भास्वन्त गन्धवे-वारद घकार के है जेसे-हाहा, हह, ठुंबुख, नारद आऋषियवादिक, भूतवादिक, कांदव, महाकांदव, रेवत, विश्वावसु, गीतरति ओर गोतयस॥ यक्ष त्तेरह प्रकार के हैं जैसे पुरभद्र, मणि- भट्ट, भवतमद्र, दरिमद्र, सुमनोभद्ग, व्यतिपातिकमद्र, खुभद्र स्चे- तोभद्र, मनुप्ययक्ष; वनाधिपति, चनाहर, रूपयक्ष, ओर यक्षोन्तर राक्षस सात प्रकार के हैं जेसे भीम, महासीम, विष्न, विनायक, जलराक्षस, राक्षस राक्षस, और ब्ह्मराक्षस॥ भूत नो प्रकार के हैं जसे-खुरूप, प्तिरूप, अतिरूप, भूतात्तम, संकदिक, महास्के- दिक, महावेग, प्रतिछन्न, ओर आकाराग॥ पिशाच पन्द्रह प्रकार के डे जैसे-कृप्माएड, पटक, जोप, आन्हक, काल, महाकाल, चोक्ष अचोक्ष, तालपिशाच, मुखरपिशाच, अधस्तारक, देह, मदहाविदेह, तप्णुकि. ओर वनपिशाच उक्त आठउप्रकारके व्यन्तरोंके चिन्ह- यथाक्रम दे जैसे-अशोक, चम्पक, नाग, तुंबर, चट, खद्वांग, ( यो- गीजनों के पास खपर चाला दंड ), खुलस, ओर केंदव, खटवांग, सिवाय वाकी है चिन्ह बृक्त जाति के हे वे आभूषणादि में रहते हैं। १२ ज्योतिप्क--तीसरा निकाय ज्योतिष्क देवों कां है वे पांच प्रकार के हे आर मेर की समतल भूमि से ७६० योजन पर्य- न्‍त ऊँचाई का परिमाण है। तिरछा असंख्याता दीपसमुद्रपरिमाण है समतल भूमि से ८०० योजन की ऊँचाई पर सर्यका विमान है इससे ८० योजन ऊचाई पर चन्द्रका विमानहे और चन्द्रमासे बीसयोजन अहद, नक्षत्र तथा तारागणह किंतनेहीतारागण अनि- यतचारी हूँ वे किसी समय खय ओर चन्द्रमा के नीचे ओर किसी समय ऊपर गति करते हें। जब नीचे गति करते हैँ उस समय

आ० ११-१६॥ ( १४५ )

थे सूयसे १० योजन पर्यन्त नीचे रहते चन्द्रमासे चाण्योजन ऊचाई मे नक्षत्रोंफे विमानह नक्तत्रोंले चारयोज्ञन थुयत्नह, घुध से तीनयोजन शुक्र, शुक्र से तीनयोजन गुरू, शुरू से तीनयोजन मगल, मगलसे तीनयोजन शनिश्चए का विमान है ज्योति अर्थात्‌ प्रकाशमान पयिमानों में ग्हने के फारण सूथादि य्योतिष्क कददलाते अथवा प्रफाश रूप होने से थे ज्योतिष्क कहे जाते उनके मस्वक पर जो मुकुट है उनर्म उज्वल वेदिप्यमान भास्कर मडल के समाप सूये फे ओर चद्धादि, ताराओं फे मडल रूप अपने अपने चिन्द्द यथाक्रम से चिस्द्ित चर--पूर्षे अ० स॒० १४ में कद्द आये ह॑ कि मासुष्योत्तर पर्वत पर्यःत मलुप्य लोक है इसमें रददनेवाले ज्योतिष्फ नित्यगति शील होकर मेरकी प्रद्ित्तणा करते हुए सदैच अ्रमणकरिया करते दे ओर ये मेर से ११२१ योजन दूर रद्ते मज॒ुप्य लोक में १४२ सूथ ओर १३२९ चन्द्रमा हैं. मैसे-जम्बूद्टीप मे २९, लयणसमुद्र में ४०, घातशीसड में १२१०, फालोदघिसमुद्र में ४२ ३२, पुष्रा द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्रमा दे। एक्क चन्द्रमा का परिवार २८ नक्षत्र म८ भद्द ओर ६६६७५ कोटाकोटी तारागण वे ज्योतिष्क विमान लोकमयीदा अथवा प्राकृतिक स्वमावसे सदा स्पयम्‌ फिरा फरते दे तथापि ऋदिविशेपके लिये अभियोग्य ( सेवक ) नामक मे डउदयहें जिनफो ऐसे नित्यगतिसे प्रीतिरपनेयाले देवश्रमण कराते हु अवात्‌ प्रीडाशीलहदोफर पूयदिशीरम सिंदारूति, दक्तिणदिशीर्म शजाह ति, पश्चिमदिशीम ध्ृपभरूप और उत्तरदिशीमें अभ्यरूपको घारण फरके विमान फो उठाकर अतिवेगसे भ्रमणफरते दे “दौटते है! | फाल-को ब्यवद्यार मुहत, घडी, अद्देशरात्र, पत्त, मासादि तीत, अ्रनागत, सप्येय, असर्येय, अनतरूप, अनेक प्रकार का है यद्द केवल ममुप्पलोक से ही व्यवद्वार किया जाताहे मनुष्यलोकफे

( १४६ ) तत्वार्थ सच

वाहिर कालका व्यवहार नहीं है क्योंकि वहां ज्योतिप्क देवों की संचारण अथात्‌ भ्रमण विशेपगति नहीं है तथापि अपेज्ना से बहां जो काल का व्यवहार माना जाता है वह केवल मनुप्यलोक व्यच- हृत काल समझना चाहिये। कालका व्यवहार नियतक्रियाके आ- धार पर है और वह क्रिया चर ज्योतिष्क देवके प्राकृतिक स्वभाव विशेषले हुआ करती है इसलिये स्थूल कालविभाग सर्च आदि ज्योतिष्क देवोंके गतिपरही अचलम्बित है ओर इसीसे जानाजाता है। समयादि सूक्मकाल विभागसे नहीं जाना जाता वह सबसे जघन्य गति परिणत परमाणु का पलटन स्वभाव विशेष है और इतनासूच्महे कि उसे परमऋषि केवलीके सिवाय अन्य नहीं जानते। नियत स्थान में खये का दर्शन होना और लुप्त होना ही उद्यास्त है उस उदय और अस्त के मध्यवर्ती क्रिया को दिन कहते हैं। इसीतरह सूर्य के अस्त से उद्यवर्ती मध्य क्रिया रात कहलाती है दिन, रात का तीसवां भाग मुहते है पन्द्रह अहोराच का पत्त, दो पक्तका एकमास, दोमासकी ऋतु, तीनऋतुकी अयन, दोअयनका वर्ष, पांचवर्षका युग इत्यादि अनेक प्रकार से लोकिक काल विभाग सथे की गति क्रिया से कहाजाताहै। प्रव्तमान क्रिया वतेमान काल है और होचुकी चद अतीतकाल है, जो क्रियाहोनेवाली है वह अ- नागतकालहै। जो काल गिनतीमें आता है उसे संख्येय, जो गिनती

में नहीं आता केवल उपमा छारा समझाया जाय चहं अखेख्यात्‌

जैसे पल्योपम, सांगरोपम इत्यादि और जिसका अन्त नहीं उसे ५2०

अनन्त कहते हैं १५

स्थिरज़्योतिप्क--महुप्यलोक के वाहिर खुर्यादि ज्योतिष्क विमान स्थिर है उनका स्वेभाव ही ऐसा है कि थे विचरणा क्रिया नहीं करते उनकी लेश्या और प्रकाशभी एक रूप से स्थित रहता है। अथोत-राह्ट आदि की छाया पड़ने से 'डनका .स्वाभाविक

धर० सु ११-२६। ( १५७ )

रग ही रहता है। उद्यास्त नहीं होने से भरक्राश मौ लक्ष योजन प्रमान में एक समान स्थित रूप रहता है॥ *६॥।॒

वेमानिर देव--चतु + निकाय चेमानिक देयों का है यह नाम कैयल परिभाषिक है फ्योंफि प्रिमान सें रहनेवाले ज्योतिष्क आएि अ-य देव भी हैं, परन्तु उन्हें वेमानिक नहीं कहते १७॥

चैमानिक देयो के दो मेद हैं (१ ) कत्पोत्पन्न (२) कई स्पातीत, करप, आचार आर व्यवहार ये एफार्यवाची शत्द दे जिन देवों को तीर्दकरादि के जम कस्यानफ आदि कार्यों में श्रवश्य जाना पडता है थे कल्पोत्पन्न फ्दलाते हैं। अथपा जिनमें स्वामी सेवक झआादि न्यूनाधिक्पनेका व्यवहारददे वे करपोत्पनक्न कहलाते के और जिनको फ्रिमी प्रकार का श्राचार व्यवद्यार नहीं करना पडता ओर स्वामी सेवकांदि का भाव है सप सामान्यरूप से गहते है उन्हें फल्पातीत कद्दते हैं॥ १८॥

उनके विमान सब एफ स्थान में नहीं किन्तु यथा निर्देश क्रम के अनुसार वे एक दूसरे के ऊपर ऊपर स्थिरहिं १६

कटप के सोधरम, पेशानादि चारद भेद हे ज्योतिषयक्ष से असय्यात योजन ऊपर सोधम करप है। वद भेर से दक्षिण दिशा के आकाश प्रदेशों में अवस्थित है इसके उत्तर दिशा में देशान कफटप है सोधम कटप से समग्रेणी असस्यात योजन ऊपर जाने पर सनस्कृमार फरप है, पेशान करप वे ऊपर सम श्रेणी महेन्द्र फटप दे, इन दोनों के ऊपर 'मध्यचर्ती भह्मलोक करप है, अर्थात्‌ ठीक' मेर शियावी समथणी पर है, इसके ऊपर डुक्ष्म से लातक, मद्दाशुक तथा सहस्तार ये चारों फरप एक दूसरे के ऊपए ऊपर है, इस से ऊपर सीथरम ओर पेशान करप ये मान उत्तर दक्षिण दिशा में आनत, प्राणत दो करप हैं ओर इनके

( शश८ ) तत्वाथ सत्र

ऊपर समर्रणी आरण तथा अच्युत बह हैं, इन कऋल्पों के ऊपर अलुक्रम से एक दूसरे के ऊपर नो विमान हें वे पुरुपाकृत लोक के ओऔवा स्थानीय होने से अय्रेक कहलाते है इनके ऊपर विजय, वे जयन्त, जयेत, अपराजित ओर सवाध्थसिद्ध ये पांच विमान है सबसे ऊपर यानि प्रधान होने से अज॒त्तर कहलाते है। सीधर्म से यायत्‌ अच्युत पयेन्त के देव कव्पोत्पकन्ष कहलाते है आर इनसे ऊपर के सब कण्पातीत है वे सब इन्द्र के समान 8 इसलिये अहन- मेन्द्र कहलाते हैं। किसी भी कारणवश वे मनुप्य लोक में नहीं आते ओर अपने स्थानसे ही चलित होते है। हलन चलन क्रिया करने वालों को कल्पोत्पन्न कहते हैं ११-२०

विषय की न्यूनाधिकता स्थितिग्रभावसुखद्युतिलिश्याविशुद्धी निद्रयाउघिविपयतो 5

(०

घिकाः हर गति शरीरपरिग्रहाभिमानतो हीना; २२ है अथ-सोधमंकल्पोके ठेवों की अपेन्नासे ऊपर ऊपर के देवोंकी स्थिति, प्रभाव, खुखदयुति, लेश्या विशुद्ध है और इन्द्रिय विषय, अवधि विपय में श्रधिकाधिक है गति, शरीर, परित्रह और अभिम/(नमें वे ऊपर ऊपरके देव हीन हीनतर हैं २१-२२ विवेचन--सोधमांदि नीचे के देवोंकी अपेक्ता ईशानादि ऊपर ऊपरके देव उक्त सात वातोंमें अधिक होते हैं जैसे:-- लि (१) स्थिति जिसका सविस्तार वर्णन आ« स० २३में गे।

(२) प्रभाव--निश्रह, अज्ञुत्रह अथोत्‌ अहित, हितका सामथ्य, अणिमा, महिमादि सिद्धि का सामर्थ्य आक्रमणादि करके अन्यदेवोंसे कामकरवाना इत्यादि प्रभाव ऊपर ऊपर के देवोंमें

झा स० २१-०२) ( १४६ )

अधिफ अधिकतर होता दे तथापि अभिमान और सक्केश से पे हीन द्वीनतर द्वोतेह

(३७) खुस और द्युति--प्राह्म विषयके अजुभवोंकों सुस और शरीर वखाम रणादिके सेजको दूयुति कद्दत हैं। ये दोनो विपय ऊपर के देवों श्रधिक होता टै क्योंकि क्षेत्र स्वमावसे शुभपु- झइलोंकी उत्तरोत्तर प्रकृएतता है।

(४ ) लेश्या--इसका स्पष्टिफरण आगे सू० २३में करेंगे। यद्दा इतनाही फद्दते हे कि नीचेकी अपेक्ता ऊपरके देव विशुद्ध विशु झनर लेश्यावाले दें

(६) इन्द्रिय विषय--दूर से इप्ट विषयको ग्रहण करना यह दीद्रयों का धर्म है यद्र उत्तरोचर गुणवूद्धि और सक्केश फी न्यूनता दोनेसे सीधमोदि देवोंकी अपेक्षा इशानादि देवोंको हीद्गिय पाटय उत्तरोत्त: पिशुद्ध विशुद्धतर द्वोता दे

(७) अवधिश्वान विषय--अवधिशान फा सामथ<्य भी उत्तशोत्तरदेयों फो विशेष विशेषतर द्ोताटे पहले श्रीर दूसरे स्पर्ग के,देवोकी अध रत्मप्रभा पयात तथा तिद्दों असग्यातालक्षयोजन आर उसे अपने विमानकी पताया पर्यन्त अवधिणशानसे देखने जा मनेका सामथ्य है, तीसरे और चौये स्पगफ़े ऐेच नीचे शर्करप्रभा, नारकी, उ्े अपने विमान वी पताका ओर तिद असस्याता दीप समुद्र पर्यन्त देख सकते दे, इसीतरद प्रमश अज॒त्तर घिमानवासी #ब सम्पूर्ण लोफ्नालीफो अवधिशानसे देख सफते दे। जिन देवों फो अपधिकानकी सामान्यताटे वे मी नीचेषी अपेक्षा ऊपरके देव उत्ती विपय को विशुद्ध विशुद्धवर देसते हैँ २२

श्य उन चार विषपयोका घरणन करते दे लिसमें नीचेकी अपेक्षा ऊपर फे देयॉमें न्‍्यूनता पाई जाती दे

(१ ) गति--गमनक्रियाफी शक्ति और गमन क्रिया पी

( १६० ) तन्वायथ सत्र

प्रवृत्ति ये दोनों वात उत्तरोत्तर देवों में हीत हीनतए होती है

फि ये अधिक भाग्यशाली ओर उदासीनतावाले होते # इसी लिये उत्तगोच्तर गमन और <ति आदि क्रिया में वे हीन विपयी दे। जसे सनत्कुमारादि ठेव जिनकी जघन्य स्थिति दो सागरोपमरक्की होती है वे नीचे सातवीं नरक पृथ्वी ओर तिरछा असेस्याता हजारों कोडा कोडी योजन पर्यन्त जानेकी सामथ्य रखते है इससे ऊपर के विमानवासी देव गति विषय हीन हीनतर होते हुए यावत तीसरे नरक पर्यन्त जा सकते हैं। गति विपयक शक्ति चादे कितनी अ्रधि- हो परन्तु यद्यप कोई भी ठेव तीसरे नरकले आगे गया शोर जावेहीगा

(२) शरीर परिमाण--पहले और दसरे स्व्गके देवोंक्ी ऊँचाई सात हाथ परिणाम है. तीसरे और चोथे स्वर्गमें छे हाथ, पांचवें, छुट्टे स्वगमें पांच हाथ, सातवें, आठवें स्व॒गंमें चार हाथ, नोचे से वाहरवे स्व्रगे पर्यन्त तीन हाथ, नौग्रेचेकर्म दो हाथ, ओर पांच अुत्तर विमानवासी देवोंके शरीरकी ऊँचाईका मान पक हाथ काहीहै।

(३ ) परिशग्रह--पहले स्वरगगमें वत्तीसलतक्ष चिमान हैं, दसरे में अट्टाई ललक्ष, तीसरे में वारह लक्ष, चोथेमें आठ लक्ष, पांचर्चे में चार लक्ष, छंठ्ठेम पचासहजार, सातव में चालीस इज्ञार, आउठवेस हजार, नोवे से वाहरवे पर्यन्त सातसी, अधोवर्ता नीनग्रबेक में एक सोग्यारह, मध्यवता तीनगवेक मे एबं सो सात ऊध्चेके तीनगैवेक में एकलो ओर पांच अज्ञत्तर विमान में एकेक विमान काडी परिसर

अभिमान--अहम्‌ भावको कहते है | बह स्थान, परिग्रह शक्ति, विषय, विभूतनिस्थिति आदि आदि से उत्पेन्न होता है। कपाय की मंदता होनेसे उत्तरोत्तर देवोंको अभिमान भी न्यून न्‍्यूचतर होता है ह॒

आ० 3 सू० २१-२२॥ ( १६१ )

इनके सम्पन्धमें दूसरी और मी पाच बातें जानने योग्य है (१) उश्यास (२) आद्वार (३) बेदना (४) उपपात (४ ) अलुभाव

(१ ) उश्यास--जेसे उत्तरोत्तर देयों फी स्थिति घढती दे बसे उनके उभ्यास का काल मान भी बढ़ता है यथा दुमहजार पके आयुष्ययाले देव सातस्तोर ' परिमाण फालमें एकउश्वांस लेतेंदे एकपट्योपम श्रायुष्यवाले प्रत्येफ मुहत एकउश्याल लेते हू, एक साारोपम आयुप्यघाले एकपक्षमें उश्वास लेते हैं एथ जितने सागरोपम का आयुप्य हो उतने ही पक्तमें थे एकवार उश्वास ग्रहण करते हैं

(२) श्राहर--इस सम्बन्धमें ऐसा नियम है क्रि दस हजार पर आयुप्यवाले देव एक एक दिन की आड से आद्वार रते दे पल्योपम श्रायुप्यधाले देव पृथकव दिन (२ से पीस श्याकों पृथकत्थ माना है ) में एक बार, सागरोपम आयुप्यवाले देवोंके लिय्रे यह नियम है कि जितने खांगरोपम का अआरयुप्य हो थे उतने ही हजार चर्षोमें एक्यार आद्वार प्रहण फरते हैं जैसे एकसागरकी आखुप्यवाला परद्धजारवपष, दो सागरोपम फी आयु प्यवाला दोहजार वर्ष इत्यादि

(३) वेदना-सामान्‍्य रीति से प्राय. वे सातावेदना अथाव्‌ खुप फा द्वी अजुभव फरते दे, फदाचित दु उत्पन्नद्दो तो अन्तरमुहतसे श्रधिक नद्दीं रदता। साता बेदनी मी श्रधिक से अर घिकर छू मास पर्यन्त एकखी सामान्यरूप रद्दकर पश्चात्‌ अयश्य स्यूनोधिक रूपसे उसका परिवतेन दोता है। _

(४) उपपात--इसका चअथ्थ उत्पत्तिस्थान की योग्यताई। अन्य लिंग “जनेतर लिंग” मिथ्यात्दी पारदयें स्पगे पर्यन्त उत्पप्त हो सकता है। स्थालिंग मिथ्यात्वी अैदेक पर्यन्त, सम्यफ्दध्टि पद्ले स्वग

( १६२ ) न्याय सत्र! से यावत्‌ स्वार्थ सिद्ध पर्यन्त उत्पन्न होने हैं। परन्तु चतुदश प्रवी संयती छुट्टे स्व॒ग से नीचे उत्पन्न नहीं हाता।

(५) अनुभाव- इसका अथ लोकऋस्थिति, लोकानुमन, लोकस्वभाव, जगद्धमे अनादि परिणाम खेतति है। विमान, लिख-

शिलादि निराघारपने आकाश में रहे ऋए है इसका मग्य कास्ण

लोक स्थिति है। सगवन्‌ महर्षि अहत्‌ के जन्माभिपेकादि परसेगोपर सव देव चाहे बेठे, सोते या खड़ेहों अथवा अन्य क्विसी भी दश्शार्मे हों उनके आसन शयन अकस्मात शीघ्रता से चलायमान होते दें तत्पश्चात्‌ अवधिज्षान के उडपयोगसे भगवान के जन्मादि पांच ऋ- ल्याणकों का शुभ समय जानकर तथा उनके नामकम से उन्पन्त हुई विभूति ऐश्वय ! को अचधिशान से देखकर संवेग "भक्ति सध्टित चैराग्य” उत्पन्न होनेसे सतथर्म चहुमानसे प्रेरित डोऋर किनने ही देव उनके समीप जाकर स्त॒ति, चंदन, पूजन, उपासनादि से अपना अप््मकल्याण करते हैं ओर कितने ही देव अपने स्थानमें रहे हुए ही सद्धमके अनुरागसे त्िकसित नेत्र हो हाथ जोड़ दरडवन प्रणाम

नमस्कारादि से तीथकरों की पूजा, अचो करते है यह लोकाजुभाव काय है २१-२२ के

चेमानिका मे लेश्या | पीतपद्म शुक्ललेश्या द्वित्रियशपेषु २३

अथे--प्रथम के दो वेमानिऋ देवोंमें कृत ' देजो ' लेश्या तथा उसके ऊपर तीन विमानों में पद्रलेश्य और शेपमें शुक्ल लेश्याहै २३

विवेचच--चतुथनिकाय देवोंमें लेश्याकी यह अचस्थाहै कि प्रथमके सौधम,पेशान दो करूपोंमें पीत अथात तेजोलेश्या होतींहे उसके ऊपर तीन “' सनत्कुमार, महेस्द्र, च्रह्म ऋतपोंमें पद्म-

आ० 2 स* २०। १६३ )

लेएया ओर शेर पेमामिकदेवॉममं श॒ुय्ललेश्यादोतीदे सामान्यलेश्या चालेदेयॉमे भी ऊपर ऊपरफे चैमानिक्टेवॉमे अधिफ अधिरतर विशुद्दज्ेश्याहोतीहें | यह नियम शारीरिक रूप ह्ृव्यलेश्या वि पयफ्हे | फ्योंकि अध्ययसायरूप भावलेश्या तो सबदेवोमें छओं प्रकारफी होती है २३॥ कल्प की परिंगणना प्रागग्रयेयकेम्य' कल्पा २४

अथ--पभ्रवेयकसे पूयके बेमानिक्रकटप कहलातेहे २४

विप्रेचन--जिसमे इन्ठ, सामानिक, नायसरि्रशादि रूपसे देखोंकी तिभागकटपना फी जाय उसे फटपकद्तेदे। सोधमसे आदि लेकर मर त्ेयकफे पूर्व अ्र वीत्‌ अन्युतपय-तके देव ऊटपोत्पन्न कहलाते हैं और ग्रेवेयकसे आति लेकर उत्तर बना देव करपातीतहे फ्यों फ़ि उक्त पिभागरूप करप उनमें नहीं है।

प्रश्न--भगयान्‌ परमपि अ्हत्‌ के ज-मामिपेकादिमें जो द्वेयजातेहे पे सब सम्यन्दि द्वाते हैं ? उत्तर-नहीं किन्तु चेद्दी सम्यग्दष्टि जो सद्धम बहुमानपूथफ अतिप्रसन्नचित्तहोफे जन्मादि स्थानों पर जातेहेँ और आनन्दसे रोमाचितहोऊे गदगद स्पर से भगवादफी स्तवना प्रति-डउपासना फरते अथवा धमापदेश सुनतेहे जिससे कर्मोक्ी अमन्‍त निज्वरा दोतीटे मिथ्यादृष्टि देयद्द वे कपल चित्तविनोद वा इ-द्रकी अनुरझूल तासे परस्परपे आनन्दसे अथवा सपदेव ऐसे फरते आयेद्दे इस लिये दमको भी करना चाहिये, ऐसा समभक प्रसन्नता को प्राप्त होते हुये जन्मामिषेफादि उत्सवॉम सम्मिलित होतेहँ और चद्दा भगदान्‌ फी स्वुति फरते हुए या उनका उपदेश खुनके कितनेऊ देव सम्पस्प्यको प्रौतऊरतेह और जिनको सम्पकत्य प्राप्ति ये क्मोषी

बे:

१६४ ) तत्वाथ सत्र

यथा स्वरूप निजंरा करलकते दें २४ हि क्ोकऋान्तक देवोका चणएन। ब्रह्मतोकालया लोकान्तिका। २५ सारस्तादित्यवह्मयरुणगर्दतोयतुपिताब्यावाघमरुती 5 रिट्टाश्वः २६ अथै--जिनका बत्रह्मदेबलोक निवासस्धानंदे वे लोका- न्तिकदेव कहलाते हैं २५ उनके सारस्वत, आदित्य, चक्षि, आरुणु, गतोय, सुपित अव्यायाध, मारुत और अरिए ये नी भेद हैं २६ विवेचनू--लोकान्तिक देव विपयरह्धित होने से देवर्पि क- हलाते हैं.। उनमें परस्पर स्वामी सेचकपने का भाव नहीं टे। किन्तु सच स्वतंत्र भावसे रहतेहें ओर तीथंकरों के निप्कमण अधथौोत्‌ सूहत्याग-दिक्ता समय जब समीप होताहैे तव वे उनके पास आ- कर वुज्कह, चुज्कह शब्दहारा निवेदन करते हुए अपने आचार का पालन करतेहें उनका स्थान अह्यलोक नामक पांचच स्वगेके चोतर्फ हैं, अथोत्‌ चार दिशी विदिशीके सिवाय अन्यस्थान में नहीं रहते वे वहां से च्युत होकर मलुष्यजन्म पाके मोक्षपद्प्राप्त ऋरते हैं २५॥ प्रत्येक दिशाविदिशा ओर मध्यभागमें एकेक जातिका निवासस्थान है। इसहेतुसे इनकी नो जाति भानी गई है | जैसे--- पूर्व, उत्तर अथात्‌ ईशान कोणमें सारस्वत. पूर्वेदिशीमें आदित्य इसीप्रकार अज्ुऋकमसे आठ विमान प्रदक्षिणाकृत्य ओर नोचां अरिक नामक विमान उनके मध्यवर्तिहँ इनमें रहनेयाले देव लोकार्तिक कपल 22 की: 0८ 60कल पक 2 कक

4 रायचन्द्र जन शास्त्र साला से छुपी हुई पुस्तक सें ( ऑरिष्ठाश्र ) यह पाठ कोष्टक से दिया है

शआ0० सू० २७->घ। ( १६५ )

/ कदलातेंदे अर्थात्‌ उनफानिवासस्थान लोकका अन्तिमभसाग (क्निा | ९) ) है सारस्पतादि विमानेकि नामसे ही उनदेवोंके नाम प्रसिद्ध है ( दिगाम्यरीय सूत और भाष्यफारोंने लोफान्तिकदेचोंके आठही मेद कद्दे हैं। उनमे मस्तका उसलेसनहींद्वे पर-तु ठाणागादि खूज़ा में दो सेद कहे दे ओर उत्तमचरित्रम तो दस मेदका भी उत्लेय है.॥ २४५-०६॥ अनुत्तर देवाका विशेषत्व। परिजयादिपु ह्विचरमा' २७ आयथ-विजयालि देव केवल दो बार विजयादि पेमानमें डेयभच धारण फर सिद्धावस्थाको धाप्तददोते हैं २७ पिपरेचन--अनुत्त रचिमान पाचप्रकारकेहँ जिसमें परिजय घजेय-त, जयन्त और अपराजित इन चार बिमानों के देव द्विच रमा अ्रथात्‌ अधिकसे अधिक दो यार जिजयादि घेमानमें देवभय घारणकर मोक्षपदप्राप्तरुस्तेहें जेसे अनुत्तर विमानसे च्युत द्ोपरए महुप्पजन्म ओर इस मनुप्यजन्मसे फिर अउत्त रविमानमें उत्पन्नद्दोत है बद्दासे पुन मलुप्यजन्म धारण कर मोक्षपद प्राप्त करते हे, परन्तु सर्योवसिद्ध विमानवासीदेव केचल एफ दो चार मलुप्यज-म लेकर उसी भय मोक्षप्राष्तकरतेहें इस प्रकारका नियम अन्य किसी प्रफारके देयों के लिये नहीं है, क्‍योंकि कोई पकयार कोई दो फोई तीन कोड चार फोई कोई इससे भी अधिक चार जन्म धारण करने चाले होते & २७॥ पिथेंग योनि विपय। औपपातिक मसुप्येम्यशेपास्तियगयोनय,.. २८ अथ-ओपपतिक ओर मलुष्योंके सिवाय जो शेप रहेहँ

( १६६ ) तम्थाथ मन

तियग योनिके जीव हैं म्८घ विवचन-+तियंथ क्रिसको कनेह ? इस प्रण्नका उत्तर प्रस्तुतसतअभे भिलताहे | ओपपातिक “* दव, नारकी ! छोर महुष्य को छोड़के शेप सवससारी जीव तियंच कहलातेदँ परन्तु तिथ्च कहनेसे एक्रेन्द्रियसे यावत पेचन्द्रियका बोधहातांदे अल नियय एन्ठ्ियसे पंचेन्द्रियतक सब एक प्रकारके होते हूं देवता, नास्फी ओर मनुयों के लिये जसे नियनस्थानहं बसे तिथच्रोकि लिये नि- यतस्थान नहीं है | अथीत्‌ देवता, नारकी मनुप्य, लाकके छिस्ती एक विभागमें पायेजातेह परन्तु तियनों के लिये खास नियत स्थाननहों है वे समस्त लोकमें पाय्रे जाते 6। अधिकार सूत्र स्थितिः २० || अशथे-स्थिति आयुप्य का वर्णन करते हैं ध६ विवेचन-मजुप्य ओर तियनोों की जपघन्य. उत्छृष्ठ स्थि- ति आगे कह चुके अब इस वर्तमान अध्ययन की समातति पर्य- सत देव, नारकी के स्थिति विषयी अधिकार कहते हैं भमवनपतते निकासकी उत्कृष्ट स्थिति भवनेपु दक्षिणाधाधिपतीनां पल्योपम मच्यधम्‌ ३० ॥| शपाणां पादोने ३१ असुरेन्द्रयोःसागरोप ममधिकेच ३२ अथ--भवनवासी देवोंपें असुरेन्द्रवज के दक्तिण, इन की डेढ पल्योपमरकी स्थिति है ३० शेप इन्द्रोंकी स्थिति पोने दो पल्थ्रोपम की है॥ ३१ दो अखुरेन्द्रों की दक्तिण और उत्तराधिपति बी

आय? 2 सु० ३३-३८ ( ६७)

अमुक्रम से सागरोपम तथा कुछ सागरोपम से भी अधिर स्थि लि है ३५॥

विवेचन--यहा भवनपति निक्षायकी जो स्थिति बताई जाती है. वह उत्मष् समभनी चाहिये जघन्य स्थितिका चर्णुन सूप ४४ में आवेगा। इनके अखुग्ऊुमार, नागकुमारादि दश भदोंरे नाम सूत्र में क्दथआये हैं। वे दक्तिणाधिपति और डत्तराधि पति रूप दो तो इन्द्र जिनफ्रेनाम सून्च के विप्रेद्ननमें लिखे इनमें दक्षिणार्धका स्यामी चमरेन्द्रफी उत्हृष्ट स्थिति एफ सागरो पम्र और उत्तराधा स्पामी चलेन्द्रकी साधिक एक्सागरोपमरी डत्हएस्थितिटे शेप नागऊुमारादि नो प्रकाररे भयनपति दक्तिणा घम्ेम्यामी धररोन्द्रादि ज्ञो नो इन्ठद्र उनकी उत्सप्रस्थिति ढेड़ पट्योपम की टैे आर उत्तराध के भूताईनद्रादि नो इन्द्र रे उनकी कुछ न्‍्यून दो पटयोपम की उ० स्थिति है।

चैमानेकों की उत्कृष्ठ स्विति।

सोधर्मादिपु यथाकममर्‌ 3३ सागरोपम-अधिकेच ३४ ३५॥ सप्त सनत्कृमारे ३६

पिशेषत्रिसप्त देशकादश जयोदश पचदशमिरधिक नि च।३७।

आरणास्युतादूधरयमेकरेन नवमु प्रेयेयफ्रेप प्रिजयादिषु 6

साध सिद्षच ॥३८॥ अथे--सौधमारटिदेध झोक दैँ उनकी यवाप्रप्रसे उत्सष्

किउ्ति फहेंगे। 3३

सीधमेफ्टपके देयोंकी परा स्थिति दो सागरोपमकोरे।३४। इंशानकरपके दर्वादी साधिकरी सायरोपम ३५ सनतफुमास्करपत रेबॉकी सात ख्ागरोपम ३६ ॥|

( श्कूप ) नत्वाथ खत

यहां पूर्व सच्से सातकी अजुबुती आतीदे इसलिये सा- घिक सागरोपम, तीनसे अधिक सागरोपम., सानसे अधिक सा- तसागरोपम, सातसे अधिक दससागरोपम, सातसेअधिक स्थार- हसागरोपम, सातसेअधिक तेरहसागरोपम, सानसेशधिक पन्‍्द्रह सागरोपम, अधिक परास्थिति है महेन्द्र से यावत्‌ अच्युनत करूप वासीदेवॉकी है ३७

अरण,, अच्युतके ऊपर नोश्रेवेक्र, चारअनुत्तर और स- वीधसिद्धके देवोंकी परास्थिति एक एक सागगेपम अधिकरे ॥+८॥

विवेचल-यहां जो वैमानिकदेवोंकी स्थितिबताई हे बह उस्कृए्रस्थितिहे जैसे सोधमंदेवोंकी दोसागरोपम, ईशानदेवोंकी साधिक दोसागरोपम, सनन्‍्कुमारदेयों की सात सागरोपम, महेन्द्र. देवोंकी साधिकसातसागरोपम, बह्मलो कदेचों की दशसागरोपम, लोकान्तिकदेवोंकी चौदहसागरोपम महाशुक्रदेबोंकी सच्चहसाग- रोपम, सहस्वारदेवों की अठारहसा० अण॒त्‌ उन्नी० सा० प्रणत्‌ चीस० सा० अरण इक्कीस सा« अच्युत वाचीस सा० प्रथमनत्नीक पे- बेग पचीस सा० दवितीयबिकग्रैवेग अठाचीस सा० ठदीयनरिक्ग्रीचैंग एकतीस सा० अज्ञत्तरवैमानवासीदेवोंकी तेंतीमसागरोपम की परास्थिति हैं जघन्यस्थिति आगे सूत्रसे चतलाते हैं

जघन्य स्थिति | अपरा पलल्‍्योपममधिक

हा ३६

सागरोपम-अधिके ॥४०॥ ४५१ (१ 0५

परतः परतः पूवा पूवानंतरा ४२

अथ--अपरा जधन्य' स्थिति पहले स्वर्गकी एक पल्यो- पम और दूसरेस्वर्ग की साधिक पलयोपम है ३६

आ० सू० ३६-४४॥। ( श्द्पफ )

तीसरे स्वगेकी दो सागरोपम ४६ चौथे स्थगकी उससे साधिक ॥४१॥ पूर्व पू् स्वगे में जो उत्कृष्ट स्थिति है वद्दी पर२ स्वग की जघन्य स्थिति समभना चाहिये ४२॥ विधेचन--सोधमेस्वनेके देवोंकी जघन्यस्थिति इस अनु क्रमसे है जेंसेन्पदिले स्वरकी एक पद्योपम, दूसरे की उससे साधिफ, तीसरेकी दोसागरोपम,चौथेकी दो सा० सेझधिक, पाच्े [फी सातसा० छद्ठेमी दस सा० सातवेंगी चौदृद सा० आठयकी सचद् सा० नोयें की अठारह सा० दशर्चेकी उप्नतीस स्रा० ग्यारदर्े फी घीस सा० यारद्दर्फी इक्थीस सा० नी प्रेवेयक में नीचे प्रप की ०२२३०० सा० मध्यके पक की २५-२६-२७ ख्रा० ऊपरवे भकफी २८-२६-३०सा० चारशअलुत्तर विमानफी ३१ सा० सर्वार्थसिद्ध फी ३३ सागरोपम की जघ स्थिति है ३६-४० भमारकी की जघन्य स्थिति नारकाणाच टवितीयादिपु ४३ दश चर्षसहस्राणिप्रधमायाम्‌ ४४ अथ--दवितीयादि नरकभूमिमें भी पूप पूपप फी जो उत्ह्ट स्थितिदे वद्दी उत्तर पी जघन्यम्थिति द्ोती है २३॥ पहलीन स्फ्भ्रूमिमें जधन्यस्थिति दश दजार घपकी है ।४४) विवेचन--जैसे ४२ ये सूप्रमें देवां फी जघ-य स्थितिका अनुफ्म पतायादे बद्दी अनुक्म दूसरीसे यावत्‌ सातवीनरक पर्येन्‍्त समभना जैसे ३०००० घप १-१० १७-२२ सागरोपम जधमन्य स्थिति है ४३ ४२ मपनपाति, उपन्‍्तरदयों क्री ज० स्थिति

( श्छ्पख ) तत्चार्थ खत

भवनेषुच ॥४५॥ व्यन्तराणांच ४६ प्रा पल्योपमसम्र 2७

अथ--भवनवासी और व्यन्तरदेवों की ज० स्थिलि १०००० वर्ष कीहे और व्यन्तरोंकी उ० स्थिति एक पत्योपमकीऱे ४५-४६-०७ ज्योतिष्कों की स्थिति ज्योतिष्काणामधिकम्‌ ग्रहाणामिकम्‌ नक्षत्राणामहम्‌ तारकाणां चुतभांगः जपघन्यात्वष्टेभाग! ॥»+६ चतुर्भागः शेपाणाम ४३ अथ--्योतिष्फ अथात्‌ सूर्य, चन्द्रकी उन्कण्ट स्थिति पल्योपम साधिक है ४८॥ भ्रद्दों की उत्कृए स्थिति एक पल्योपमकी है ४६॥ नक्तत्रोंकी उत्कृष्ट स्थिति अर्देपल्योपमकी है ४० ताराओं की उत्कृष्ट स्थिति पल्‍्योपम का चतु॒र्थभागहे ॥५१॥ ताराओंकी जघन्य स्थिति पल्योपभ का आठचांभागहै ।४२। तारागण छोड़के शेष ज्योतिष्कों की जधन्य स्थिति पलयो- पम का चतुर्थ भाग है॥ ४५३ इति तत्वाथ सूत्रस्य चतुथों5अ्रध्याय हिन्दी अनुवाद “* समाप्तम :-

9०८॥॥ ४६ 9४० ४१

'कण्टरी मै इप्कमेन हपजलड बस्ती मद पर *८ वर हे,

| पॉचवॉअध्याय | .' पाचवा ग्ध्या

है. अब इसमे आदर , कल बटन २७5 सदर

दूसरे से यावन्‌ चतुर्थश्र न्याय पर्यन्‍त जीवतप्यफा निरूपण किया शअय परतंमान अ्ध्यायर्म अजीयनप्यका भिरू- पण करते |

्ह आअजीवके भेद

अजीयकाया धम्राधर्माकाशपुरला'

अर्थ-घधर्माम्तिफाय, अधर्मास्तिकाय, आरफाशास्ति- काय और पुहलास्तिफाय ये, चार अजीयकाय कदलाते दे १॥

विधेचन--निरूपण पद्धक्षिके अछुसार पहले लक्षण और पीछे सेटनिउड्पण धोना चादिये तथापि खश्॒फपारने नियम उलेधन पर पदले मेद निरूपण क्या जिसका फारण यह ता कि अजीय लतेण॒पा पघान सीय लक्षणसे दो सफ्ता दे जैसे- घजीव अधास्‌ जीय नहीं यही अज्ञीय उपयोग जीवफा लक्षण है जिसमें उपयोग "हो से अप्तीय पत्य फटने दैँ अधात उपयोग झभाष दी अजीय तप्वा लक्षर द्द्‌ा

अजीप दे यद् जीपफा पिराघो माया-मफ त-प है परन्तु घद फेया अमापाध्मपण नहीं €।

घमादि चार अरतीप तथा वो चास्तिकाय फटा विसदाय आझतिप्राय यद दे कि मान्न एक प्रदशनप अथ्या ण्यः झप-

( १७० ) नन्‍्वाशथ सज

यव रूप नहीं है क्रिन्तु प्रचय अथात्‌ समूह रुप दे घमे, अधमे आर आकाश ये तीनों प्रदेश प्रचयरुप हैँ | आर पुट्ल अवयय रूप तथा अवयवब गचय रूप है |

अजीवतत्वोंके भेदोंं कालकी गणना नहीं की जिसका कारण यह है कि इस विपयमें मत भेद है को? कालको तन्व रूप भानते है. कोई नहीं भी मानते। जो तत्व रूप मानने चाल हें थे भी केचल प्रदेशात्मक मानते हे किन्तु प्रदेश प्रचयरूप नहीं मानते इसलिये कालकी आस्तिकायों के साथ गणना नहीं हो सकती आर जो काल को स्वतेत्र तत्व नहीं मानने वाले हैं उनके मतानुसार काल तत्व रूप भेदोंमें हो ही नहीं सकता

प्रक्ष--क्या उपरोक्त चारों तच्च अन्य दशशनियों को मान्य हैं ?

उत्तर--नहीं, केवल आकाश आर पुल इन दो तर्त्चों को बैशेपिक, न्याय, सांख्यादि अन्य दर्शनीय मानते हैं. परन्तु चर्मास्तिकाय, अधमास्तिकाय, इन ' दो तत्वॉको जैनदशन के सिचाय अन्य कोई भी दर्शन चाले नहीं मानते. जनदंशन जिसको आकाशास्तिकाय कहते है उसको दइसरे आकाश कहते हैं आर पुहलास्तिकाय यह संज्ञा भी केवल जनशासओ्रों में ही है | अन्य दशनीय तत्व स्थान से इसका प्रकृति या परमाणु शब्दों से उपयोग करते हैं १॥

मूल द्रव्य कथन

दृब्याणि.जीवाश ।॥ २॥ , अथ--उक्त धर्मास्तिकायादि चारों अजीच तत्व ओर जीव ये पांचो द्रव्य है २॥

आ० सु० ३-६ | ( २७१ )

विवेचत्त--जैनदष्टि के अजुसार जगत्‌ केवल पर्याय अथात्‌ परिवर्तन रूप दही नहीं है किन्तु परिवर्तनशील होते हुए भी अनादि मिधन है जैनमताझुसार जगतूमे मुख्य पाच द्रव्य है आर उन्हीं के नाम इन दो सूझों मे बताये हैं.

बतेमान सूजसे आगे क्तिनेफ सूजों तक ठव्यके सामान्य तथा विशेष धर्मों का बन फरके पुन इनके पारस्परिक साधम्य वेधम्य भाव को बताया है साधर्म्य का अथे सामान्यवम समानता, ववस्य का अर्थ विरुद्ध धम असमानता

प्रस्तुत सूज में जय द्ग्यत्व का विधान है बह घमास्ति- क्रायादि पाच पदाधाका व्ृव्यत्वरूपले साथम्ये है आरए उसी में बैधम्येत्य भाव गुण पयायापेक्षी है फ्योकि ग्रुण पयौय हैँ थे स्थय द्वब्य नहीं हैं “गुणानामथयो छव्यम्‌ और 'पयाय पलटन स्वभावी दै २॥

मूल द्रव्य का साधम्ये वेधम्ये '

नित्यायस्थितान्यरुपाणी रूपिणः पुशला ॥४॥ आ5इ5काशादिकरूपाणि ॥५॥ निष्फियाणि

अथ-पूर्वाक्त पायो ऊब्य नि-य स्थिर भ्रार अरूपी हैं॥रा पुहल रूपी अथात्‌ मूर्सामान है ४॥ आकाश पय॑न्त तीन द्वाय एक एक हैं ४॥ आर बे “घधर्माघमाऊाश ! तीनों छव्य निष्किय हे ६॥

(६ १७२ ) ननवाथ खतन्न

विवेचन-धर्म, अधर्, आकाश, पुल आर जीव पांचों द्ृव्यनित्य हें, अथात्‌ थे अपने अपने सामान्य विद्ञे- पत्व धर्म से कढापि च्यत नहीं होते “नदज्भासाब्यवे" निन्‍्यमः ख० खू० ३०” यह चही हें एसा पतिमिणान हेतु रूप भाव को नित्य कहते हँ नथा उक्त पांचों अ्रवम्बित रूप है के अपनी पंचत्व संख्यासे न्‍्यूनाधिक नहीं होने | सखाबस्था अचस्थित है आर धरम, अधचम, आकाश दथा जीव थे चार्योद्र्य अरूपी हें परन्तु पुद्तल हृवब्य रूपी हू नित्यत्य तथा शअवबम्धि- ज़तत्व इन दोनों का पांच उच्यों में साधर्म दे आर अमूपीन्य सुद्डल को छोड़ के शेप चार द्वब्यों का खाथम्य है धमादि चज्यार द्रव्य अरूपी अथात्‌ आकार-माक्ति तथा तद विषयी चरण, शंध, रस, स्पशे रहेत होने से समान वर्मा हैं

प्रश्ष--नित्यत्व आर अवचस्थितत्व के शब्दाथ में कया भचेशेषता है ?

उत्तर--अपने अपने सामान्य विशेष खरूप से च्यत्त होना ही नितल्यत्व है आर स्व-खरूप में कायम रहते हुए अन्य स्वरूप को भाप्त होना अवस्थित्‌ धम्मदे जैसे-जीवघ- सत्य अपनेद्र॒व्यात्मकफ समान्य रूप को ओर चेननात्मक पविशेष रूप को कभी नहीं त्यागन करता यह नित्यत्व है ओर उक्त स्वरूप को छोड़े बिना अजीवतत्व के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता यह अवस्थितत्व है सारांश यह है कि अपने स्वरूप को त्यागन करना-ओर-अन्य स्वरूप को धारर करना ये दोनों अशधथमसे सब द्वव्यों मे सामान्य रूप हैं उथापि इससे पहला अश नित्यत्व आर दूसरा ओअश अचस्थि- लत्व कहलाता है द्वव्य के नित्यत्व कथन से जगत्‌ की-

आअ० खू०३-६। ( १७३ )

सा“वतता मसचित होती है आर अवस्थितत्व कथन से इनका परस्पर मिश्रण नहीं होता अर्थात्‌ असरूर्ता सूचक हे। सत्र द्वत्य परिपर्तनशील होते हुओ भी स्पस्परूप में स्थित रहते दे ग्रार एक साथ रहते हुपे भी एकत्र दूसरे के स्परभाव को रुपशे नहीं फरते इसीलिये जगत्‌ अनादिनिघन है और मूल तत्वों की सरया अपरियतनशील है

प्र्ष--धर्मास्ति क्ायादि अजीवतच्य यदि द्रग्य आर तत्द & तो इसका कोई स्परूप अवश्य मानना पडेगा ? तब के अरूपी फसे ?

उत्तर--अरुपीपन से स्परूप निपथ नहीं दोता घर्मा- स्तिकायादि सर्व तत्यों का स्परूप 'अपश्य है बिना स्वरूप के पस्तु सिद्ध नद्वीं होती जसे सिश्रग या आकाश पुष्पवत्‌ अरूपीत्य कथन से रूप शअ्रयरात्‌ मूृत्तिपन का निपव है | रूप का अर्थ यहा मूर्त्तित्व है रूप आऊार पिशिप अथवा रूप चरण, गन्‍ध, रस, स्पश के समुदाय को मूत्ति कद्दते हैं इस मूत्तित्य का धर्मास्तिझायादि चार तत्वों में अ्रभाव माना है परन्तु स्वरूप मानने में किसी प्रकार की वाव/ उपस्थित नहीं दोती आर बद्द श्रूपीय का वावऊ है!

रूप, मूचत्व, मूत्ति ये शब्द सामाना 4ंक है। रूप रसादि जो गुण इन्द्रियो द्वारा अदृण किया जाय ये शीडय झाहय गुण दी मूत्ति दें आर वेरूप रसादि पुल में पाये जाते हैं: इस- लिये पुल द्वी रूपी दे इसके सिवाय अन्य फोई द्रव्य सू्त्ति मान नहीं दे क्योंकि ये “घर्माधधाकाशजीव” इन्द्रियः अग्राह्म हे रूपीत्य के कारण द्वी पुषहल आर घमास्तिकायादि चार

( २७४ ) नन्वार्थ सत्र

तत्वों की असमानता होने से परस्पर चधम्य भाव उत्पन्न होता है अथात्‌ असामानता को ही चघ्य कहते हे

यद्यपि परमाणु पुहल अति सच्म होने से ग्रतीन्द्रिय दें उसके गुण इन्द्रियों डारा ग्राह्य नहीं होते तथापि घिशिप्ट परिणाम सप किसी अचस्था में वे इन्ठ्िय द्वारा अहण होने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं इसी कारण वने अतीन्द्रिय होते हुवे भी रूपी कहलाते हैँ आर घमास्तिकायादि जों चार दुब्य अरूपी हैं. वेइन्द्रिय श्राह्मय किसी अवस्था में हो ही नहीं खकते क्योंकि उनमें बह योग्यता ही नहीं हैं | योग्यता के भावाभव से ही अनीन्द्रिय परमाणु पुल तथा ध्र्मास्ति- कायादि को रूपी अरूपी माना है

उपरोक्त पांच दव्यों में तीन दृब्य “घर्माघमाकाश'” एक एंक व्यक्ति रूप हैं अथात्‌ एकेक पिड रूप हैं वे परथक रूप से दो, तींन आदि नहीं है, आर निष्किय अथात्‌ क्रिया रहित हुं।एक व्यक्तित्व तथा निष्क्रियत्व ये दोनों घममोंका उक्त तीन अच्यों में साथम्ये है जीव तथा पुद्ल अनेक व्यक्ति रूप हैं और क्रियाशील हैं धर्मास्तिकायादि तीनों उब्य को निष्क्रिय कहा है सो वे जीव, पुट्ल के समान चले भाव को पाघप्त हो कर अदेशान्तर गमन क्रिया नहीं करते परन्तु वे अपने चतन खहायादि शुर्णों से सक्रिय कहे जा सकते हैं क्‍योंकि वे शुणः अपनी अपनी किया में नित्य प्रवततेनशील है

जीव के विपय अन्यदाशेनिक्रों का जेसा मन्तब्य है चेसा जेनदशेन नहीं मानते जेैसे-वेदान्तिक आत्म दुव्य को ब्शक व्यक्ति रूप मानते हैं आर सांख्य तथा चैशेषिकादि बेदा-

आ० सु० ७-११। ( १७५ )

स्तिक के समान एक हदब्य मान कर निष्क्रिय नहीं मानते औए जेनद्शन इसको अनेक तथा क्रियाशील मानते हैं अशन--जेमद्शन परयायपरिणमन रूप उत्पाद व्यय खब दब्योमें मानते हैं यह परिणमन क्रियाशील वव्यों में हो सकता है, अशिय द्वव्यों में कसे मानते हो ? उच्तर--यहाँ निष्कियन्व से गति क्रिया का निपेघ है किन्तु क्रिया माचरका नहीं अथात्‌ निष्किय “घधमाथमाकाश” द्रव्य का अर्थ जेनद्शन में मात्र गति शन्य हृव्य भाना है खैर उन धमास्तिकायादि गति शन्‍्य ठव्यों में भी चलन सहायादि गुण अपने विषय का उत्पाद, व्यय रूप माना है जेनदशन उत्पादव्ययभवयुक्तसत्‌ इसको हव्य का लक्षण मानते हैं ३-६ 0 प्रदेश सख्या विचार असरयेया प्रदेशधर्माधमंयों ७॥ जीवस्य ८) श्राकाशस्यानन्ता मेग्पयाञ्मग्पपेया 4 पुदलीनामु १० नाणो ११॥

अर्थ--घमास्ति०अधमास्तिप्के असपय्यात प्रदेशद ॥७॥ आर एफ जीव के प्रदेश असस्यात है आकाश अनन्त प्रदेशी है पुहल ठ्व्य वे सप्याते, असपस्याने अनस्ते प्रदेश हैं ॥१७) अखु “परमाणु ' अपनेणशी हैं ॥र्शा

( २७६ ) तन्वाय खून |

विवेचन- - धनादि चार अजीब आर परचवा जीव इन पीच हच्यों को वत्तमान अध्याय के प्रथम सत्र में काय

प्िन्न रूप से कदापि उपलब्ध नहीं होता! घर्मास्तिकाय, अधमास्तिकाय इन दोनों के असख्यात

श॒हदे प्रदेश दकब्य के लूच्म ओअश को कहते दें. जिसके विभाग की कह्पना सर्चेत्ष की चुद्धि से भी नहीं हो सकती ऐसे अवधिभाज्य सच्म अशफो निरश अश भी कहते हैँ घमे० अधमे० ये दोनों एक एक व्यक्ति रूप हैं इनके प्रदेश “अवि- भाज्य अश” अलख्यात हैं. इससे यद्द फलित होता है कि उक्त दोनों द्वव्य एक ऐसे अखंड स्कंध रूप छृब्य हें कि जिसके अखखज्यात अविभाज्य खच्मअश केवरू चुद्धि से ऋल्‍िपित किये जाते है। वे चस्तुभूत स्कन्ध से पथक नहीं होते

जीव द्व्य व्यक्षिरुप से अनन्त हैं आर पत्येक जीव व्यक्ति गत एक अखंड बस्तु उमास्तकाय के समान असबखण्यात धदेश परिमाणवाला है

पुल द्रव्य के स्कन्ध घमादि चार द्वच्यों के समान नियत रूप नहीं है। वे कोई संख्यात, कोई असंख्यात कोई अनन्त परदेशी हैं आर कईे अनन्तानन्त प्रदेशी भी हे १०

पुहल आर अन्य द्वव्योंके घदेशोंमें पररुपर यह भिन्नता

झ० सरू० (४-११ | रेंअ७ )

है कि पुदल के प्रदेश अपने सुऋन्य से जदे दो सकते हैं. परन्तु

चमादि चार द्वब्य के प्रदेश अपने स्सन्‍वय से प्‌ 4क नहीं हो सकते क्योंकि वे अमृत्त हे आर असडित रहना उनका स्वभाव है मित्तने, विपरने की क्रिया केयल पुट्ल स्फन्‍यो में ही होती टै आर उपके छोटे पडे अशोंको अवयय कदते है। अययय का अये स्कन्धच से प्रथक होने याला अश टै वद्द उमादि चार 5ःय आर परमाणु के नहीं होता

मूर्सिमान एक परमाणु पुदलरूप हाय दे उसका आदि सध्य आर भदेश नहीं है। वह अप्रिनाज्य द्वाय है। उसके अशकी फरपना उुद्धि से भी नहीं की जाती यह पुशल फा वास्तविक स्परुप है आर डेखुऊादि स्कन्पो की उपत्ति भी इसीसे है, फार- शमेव सूल्मो नियश्थ भयति परमाणु,” यदद परमाणु फालक्षण है। द्वेजुफादिसे यावत्‌ श्रन-तामात प्रदेशी स्क यो फा फारण परसाणु हूँ परन्तु परमाणु का फारण फो” नहीं है | यह ठव्य व्यक्ति रूपसे निरश थार निय रूप है प*न्‍्तु पर्याय रूप से ऐसा नहीं कद्द सकते क्योंकि एक परमाणु में भी यणे, गन्ध रस, स्पशादि मेक पयाय पाये जाते दे इसलिये पयाय से उसक अश फी मी फपरपना की गई है। वे परमाणु पफ्ुय्य के भाप रूप अर एक व्यक्तिगत द्ाय परमाणु मे घणादि भावपरमाणु अनेक माने गये दे

प्रश्य--धर्मादि प्रदेश आरण पुहल परमाणु में मिश्नता फ्याह?

उत्तर--परिमाण की दृष्टि से कोह भिसता नहीं दे ज्षत्र परमाण दोनों का तुटय है। और वे श्धिमाज्य अश दि तथापि एक आावाश प्रदेश की अपगाद में जैसे अन परमाणु समा सफक्‍ते

फ्सा न्यप्राप धर्मावमाकाश ये प्रदेशों का नहीं दे परमाणु मसे

( श्ऊ८ ) नच्चाथ खनन !

अपने ठेखुकादि स्कन्‍्ध से पृथक रहता है बैसे प्रदेश अपने रुफन्‍ध से अलग नहीं होते | यद्यपि तन्परिमित परिमाग फी दृष्टि से प्रदेश और परमारु तुल्य है तथापि भिन्न स्वभावी है

पश्न-पुहल हच्य के लिये अनन्त पट की घ्राव्त्ति प्रच सूत्र से ले सकते हो परन्तु अनन्तानन्त पदकी व्याग्या किस सच के अधार पर है ?

उत्तर- अनन्त पद सामान्य है चह सब धकार के अनन्‍्तेका वोध करा सकता है इसलिये वर्तमान अध्याय के ६चे सत्र की अनुबृत्ति से उक्त अथे किया गया है ७-११॥

द्रव्य को स्थिति का विचार

लोकाकाशेआगाह: १०२ धर्माघमयोः कृत्स्ने १३ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुहलानाम १४७ असेख्येयभागादिषु जीवानाम्‌ १५॥ प्रदेशसंहारविसर्गास्यां प्रदीपचतत १६

अथ--जो अचगाही अश्वात रहने चाले द्वव्य हैं वे उनका “स्थिति स्थान” लोकाकाश है श्श॥

घर्माधर्म की स्थिति “अचगाह स्थान" समझे लोका- काश है॥ १३

पुद्ल दृव्यों का अबगाह आकाश के एकादि प्रदेशों में विकल्प अथात्‌ अनियत रूप से है १७॥

जीवों की स्थिति लोकके असंख्येय भागादि में होती

अआचगाह

है॥१४॥ उन “जीवों” के घदेश प्रदीप के समान संकोच विस्तार चाले हैं १६॥

आ० सु० १९-१६॥ ( १७६ 3)

विवेचन--ससार में पाये ठव्य अस्तिकाय रूप है। इनमें आधाराधेय भाव किस प्रकार है ? क्या इनके आधार के लिये इन से कोई मिन्न दृब्य है? अववया इन पार्चों में ही कोई एक दृब्य आधार रूप है? इसी उत्तर के लिये अ्रस्तुत सत्र है। स्थिति करने चाले ड्ष्यों को आधेय कद्दते हैं और बे जिस में स्थित दो घद्द आधार है। उक्त पाच द्रव्यों में आकाश आधार रूप है आर शेष चार ढृष्य आधेय हैं यद्द उत्तर फेवल व्यवद्दार दृष्टि से दे किन्तु जलिश्चयदष्टि से नद्दीं | निश्चयटप्टि से सब ठ़व्य स्वप्रतिष्ठित हैं श्थात अपने शपमे स्परूप में स्थित हैं कोइ जिसी में नदीं रहता

भश्न-व्यवद्दार दृष्टि से धर्मादि चार यो फा आधार आकाश माना जाता टै तो आकाश का आचार फ्या है ?

उत्तर--आकाश फो किसी द्रव्य फा आधार नहीं है क्योंकि इससे पिस्तीरी या इसके परावर परिमाण याला कोई पदाथ नहीं है इसलिये व्यवद्दार तथा निश्चय दृष्टि से आफाश स्वप्रतिष्ठित दी है. अन्य धमादि द्रव्य इससे न्‍्यून परिमाण चाले' हैं झ्राकाश के एक देश तुट्य है इस हेतु से श्राघाराघेय. अब- शाहावगाही' भाव माना गया है। आकाश सयसे यडा द्वय है।

आधेयमूत धमादि चारो द्वष्य समग्र आकाश व्यापी नहीं हैं। आकाश के एक परिमित भाग में स्थित हैं. जितने भाग में वे स्थित है उस आकाश विभाग का नाम लोक है। पाच अस्तिकाय रूप ही लोक है, इसके परे केवल आकाश अनन्त रुप है, उसको अलोकाकाश कहते हैं। अन्य डब्यों का असमाव दोना अलोक कद्दलाता है आर उफ्त कारणों से आधाराधेय भाव भी होता है।

घमास्तिकाय अधभारितिकाय ये नोनों असर दाय हैं

( शृ८० ) तस्वाय सच आर सम्पूर लोक में स्थित हें वास्तच्चिझ रूप देखा जाय तो आकाश दृब्य के दो विभाग की कह्पना युद्धि, इनन्‍्टीं दो द्र्व्यो से होती है आर लोकालोक की मयादा का ऊंयनन्‍्ध भी इन्ही से है पुहल ढव्य का आधार समानतया सोकाकाश ही नीयद है तथापि उन पुद्ल ठव्यों की भिन्नता “पृथकता" के कारण आधार क्षेत्र के परिणाम में भी न्‍्यूनाधिक्ृता होती है पुद्धल ठ्र्व्य घर्मास्तिकाय अधमास्तिकाय के समान व्यदितः एक द्च्य नहीं दि इसलिये इसके आधार क्षत्र की भी सेमावमा एफ रूप से नहीं की जासकती पुद्वल द्ृव्य विविध प्रझार से पतेक रूप मैं इसलिये क्षत्र परिणाम भी अनेक हैं जले कोई एहल लोकाकाश एक घदे- शावगाही है, कोई दो पेश कोठे तीन यावत्‌ संय्यान, असेस्प्यातत अदेश अचगाही सी है। तातूपय यह है कवि आधार भूत ऋजर के धदेशों की सख्या आधेय भूत पुल दृव्य के परमाणुतरों की सेख्या से न्‍्यून या वरावरी की होसकती है परन्तु आधेय के प्रदेशों से आधार के धदेशों की संख्या अधिक नहीं होती, इसलिये एक परमाणु एक आकाश प्रदेश में, छेखुक एक या दो प्रदेश मे इसी 'सरह उत्तरोत्तर संख्याता अणुक स्कन्य एक प्रदेश, दो प्रदेश यावत्‌ संख्याता आकाश, प्रदेश अबगार के रहता है, परन्तु संख्याता भदेशी स्कन्ध के लिये असंख्याता प्रदेशी क्षेत्र की आव- 'झयकता नहीं रहती-एचम्‌ असंख्याता अरुक्र स्कन्च सी एक प्रदेश से यावत्‌ अपने वरावरी के प्रदेशों में स्थित रहता है और अनन्त अखुक चथा अनन्तानन्त अखुक स्कन्‍्ध भी एक प्रदेश से यावत्‌ -असंख्याता प्रदेश क्षेत्र में रहता है। इसके लिये अनन्त प्रदेशी क्षेत्र की आवश्यकता नहीं रहती। सबसे वड़ा अचित महा स्कन्‍्ध

अनन्तानन्त अशुवों का होता है वह भी लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशावगाही है

आ० सू० १०-१६॥। ( श्यर »

जेन दशन में आमा का परिमाण आकाश के समान च्याप+ नहीं है फिन्तु मध्यम परिमाण घाला माना दे वद्द मध्यम परिमाण प्रदेशों की सखण्या दृष्टि से समान अवात्‌ तुय्य चा सदा रूप है परन्तु आधार क्षेत्र समा एक समाम नहीं है उसफा कारण शरीर साम ऊम्म की न्‍्यूनाघिकता पर निभ्र है

प्रक्ष--तयतों जीय द्वाय का आयाग क्षेत्र न्यूज से न्यू ओर अधिक से अधिक कितना मानना चाहिये?

उत्तर-ज्िस समय जीय के सूच्रम नाम फर्म का उदय होता है उस समय एक आफऊाश प्रदेश पर अ्रनःत जीच एक पिंड रूप खूधम शरीर को घारण फरफै रहते हैं. आर यादर आर प्रत्येफ नाम फम के उदय से एक जीव का आधार क्षेत्र लोकाफाश के असपस्याते भाग से यावत्‌ सम्पूर्ण लोकपत्ता होता हैः अधात्‌ एक जीव का आधार क्षेत्र कमसे कम अगुल का असख्यातषा भाग बताया है उस अग्ुल के असस्यातव भाग में भी आफाश' के असप्याते प्रदेश होते दे सम्पूर्ण लोकाफाश के असंप्याते आफाश प्रदेश कद्दे गये हैं परन्तु उच्च असश्यात का परिमाण इतना अधिक है फि असरयात भाग सें भी असश्यात प्रदेश रद्दते हैं. उस छोटे से छोटे एक विभाग में भी एफ जीव रद्द सकता है दो घिभाग में भी एफ जीव रद्द सकता है। तीन, चार, पाच यावत्‌ सम्पूण लोकवर्ची भी एक जीव होता है सम्पूर्ण लोकाकाशचर्सी अवस्था फेचली समुद्धात समय की है अन्यथा शरीर के परिमाण की न्‍्यूनाघिकता से आजाश के प्रदेशों फा न्यूनाधिकता भानी गई है। गदर जीपों के शरीर का परिमाण सब का सदश रूप नहीं द्वोता उपरोक्त अपगाइना एक जीवापेत्षी है सम्पूर्ण जीव राशि को अपेत्ता से जीवतत्य का आधार क्तित्र सम्पूर्र लोकाफाश दी हैः

ह८% ) तावाय खूब

प्रश्ष-तल्य परदढेश वाले जीवों में शरार की न्‍्यूनाधिकता किस कारण से होती है? एक ही जीव काल भेद से न्‍्यूनाघिक रिमाण बाला होता है इसका क्या कारण है ? उत्तर--कर्मा क्री विविधता से जीव की विविधता दिखाई देती है | कमा छा जीव के साथ अनादि सम्बन्ध दे आर थे सब जीवों के एक समान नहीं होते तथा प्रत्येक्ष जीवके ही सदा एक समान रहते 8 | ज्ञिस समय कमी का जसा उदय भाव होता है उस समय वैसी ही शरीर की विविधता दियाई ठेती है। आदारिकादि शरीर है वे भी कमी के अनुसार छोटे चढ़े होते हैं 'चस्तुतः जीव अमूत्ते है परन्तु अनन्तानन्त अणु घचय-रूप अनन्त कर्म पुद्लों के सम्बन्ध से जीव सूत्तिमान होजाता दे प्रश्त-धमास्तिकायादि के समान जीव ठव्य भी अमृत कै, तो घधर्मास्तिकायादि के मानने में न्‍्यनाधिकपना नहीं होता आर जीव में होता है इसका क्या कारण है ? उत्तर--वस्तु अनेक स्वभावी हे आर पन्येक पदाथ के “स्वभाव भिन्न भिन्न हुवा करते हैं उनमें से कितनेक स्वभाव कई पदाथी में एक समान होते हें ऊसे घमास्तिकायादि अमूर्तित्व आर कितनेक स्वभावों में परस्पर भिन्नता होती है इसलिये जीव के स्वभाव सेद का ही कारण है कि वह निमिच पाकर प्रदीप के प्रकाशवत्‌ संकोच विकास को प्राप्त होता है जैले-घदीप खुली जगह में रखदिया जाय तो डसक्रे भकाश का प्रसार पूर्णतया होगा आर यदि उसीको परिमित स्थान में रकखा जाय तो स्थान के अनुसार ही उसका प्रकाश प्रसारित होगा चेसे ही जीव भी नाम कर्म के उदथिक भावालचुसार ओआदारिकादि नाना शरीर को धारण करता हुवा तदनुसार न्‍्यूनाधिक परिमाण चाला दिखाई देता है !

आ० सू० १९-१६। ( ९पओ )

प्रक्ष-जीय का समोच स्वभाप है तो चद्द आकाश के पक, वो त्तीन आदि सख्यात अरदेश क्री अवसाह में क्यों नहीं समाता इसीतरह विकास स्वभाव बाला है तो लोक के समान अलोक म॒ व्याप्त क्यों नहीं दोता ?

उत्तर--सकोच की मयादा कार्मण शरीर पर है आर चह ( कामण शरीर ) अग्ुुल के असस्यातर्वे भाग से न्यून नहीं द्ौता इसलिग्रेजीय का सोच पना भी फार्मण शरीर की सकोचित विफसित अवस्था पर निभर है। आर विफाश की मयादा लोफा ऋोश परयन्‍त मानी गई है' जिसके दो कारण दे पद्चिला कारण यदद है कि एक जीय के प्रदेश आर लोकाकाश के प्रदेश तुटय हें: इस- लिये पूर्ण चिफ्शित श्रवस्था लोक के प्रत्येक आकाश प्रदेश पर स्व प्रदेशों फो म्थापित फरता दे इस से परे स्थापित रमे के लिये अदेश ही अधिक नहीं है दूसरा फारण गति कार्य है बद धमे- म्तिकाय के पिना हो नहीं सकता | इसीलिये अतोकाकाश में जीच की व्याप्ति नद्दीं है उपरोक्त दृशा ससारी सलकमावरुया बिपयी है शरीर की अवस्था के अछुसार प्रदीप के प्रकाशयत उनके प्रदेश सकोच आर विकास को धाप्त होते हे सिद्धावस्था फी श्रवमादना शग्त्रिम शरीर वे जिभाग से किंचित न्‍्यून मानी गई दे अथात्‌ चद भी लोक के थसपस्येय भाग “यापी दे

प्रश्ष-असरयात श्रदश याले लोकाकाश मे अनन्त मूर्तिमात परमाणुयों से निष्पस शरीर बारी अनन्त जीय फेसे समा सफक्‍्ते है

डसतर-सदमत्य परिणाम भावी होने से निगोद तथा साधारण झवस्वा मे शादारिफ शरीरी श्रनत जीप एवं साथ एक आपाश प्रदेश पर रद्दते दे पुट्ल ठब्य अनन्तानत मूतों-

( श्थछ ) तच्चाथे सत्र

मान हैं तथापि उनमें सच्मत्द भाव परिणत होने की झक्ति है तहरूप खत्म भाव प्राप्त होने से एकाकाश पघद्ेश पर वे भी समा- ज्ञाते हैं आर पक दसरे के व्याघात किये बिना अनम्तानस्त स्पःस्ध भी उसी स्थान को घाप्त करते दे जसे-०णक्र दीपक का पकाश दूसरे दीपक के घकाश में बिना व्याघात समाजाता है

स्थूल भाव में जब पुहल परिणशुत होता है सब वह व्याघातशील होता है | सच्मत्च परिणमन दशा में वह किसी को व्याघात पहुँचाता आर स्वयम्‌ किसी से व्याघात दाता दै। १२-१६॥

धर्माधर्माकाश का लक्षण

गतिस्थित्युपग्रहो घर्माघभ्योरुपकार। | १७ आकाशस्यथावगाहः १८

अर्थ--गति ओर स्थिति में निमित्तक होना अनुक्रम से धमम अधर्म द्रव्य का उपकार गण" है॥ १७ अवकाश के लिये निर्मित्त होना, आकाश द्र॒च्य का! काये है १८ विवेचन-- धर्मास्ति० अधमास्ति० आकाशास्ति० ये तीनों द्वव्य अमत्तेक होने से इन्द्रिय अगोचर हैं| अथात्‌' इनकी सिद्धि लेकिक धघत्यक्ष “इन्द्रियाँ? डारा नहीं हो सकती आगम प्रमाण से अस्तित्व माना जाता है वह आगम पघसाण यक्तिशः तक की कसाटी पर चढ़ा हुवा अस्तित्य को खिद्ध करता है कि संसार में गतिशील आर गतिपृचेक स्थितिशील पदार्थ जीव और चुदलल दो हव्य हें यह गति, स्थिति दोनों धर्म उक्त दो द्वव्यों का परिणमन वथा काये होने से इन्हीं से उत्पन्न होता है अथात्‌ नति

आ० सू० १७-१८। ( एृ८्श )

स्थिति का उपादान कारण जीव ओर पुहल द्वी टै। तथापि कार्य उत्पत्ति के लिये निमित्त कारण की अपेक्षा रदती है आर चह्द

उपादान फारण से भिन्न होना चाहिये इसलिये जीच आर पुद्डल थी गति के लिये निमित्त रूप धर्मास्ति० और स्थिति में मिमित्त रूप अधमेाम्तिकाय फौ सिद्धि दोती है तात्पये यद्द है कि शास्त्रों में घर्मास्तिकाय का लक्षण गतिशील पदार्था फी गति में नामित होना आर अधमास्तिकाय फा लक्षण स्थिति में नेमेतिक होना यददी घतलाया दे

घमास्ति० अधमास्ति० जीबास्ति* और पु्ललास्ति० ये चारों द्व्य किसी कसी जगद्द स्थित दे अथात्‌ शआधेय दोना अवकाश लेना इनका काम दे परन्तु अवकाशस्थान देना यद्द आफाशास्ति० का कार्य है इसलिये श्रवगाद्द रूप लक्षण आकाशा तकाय फा माया गया दे

प्रश्ष-सास्य, न्याय, चेशेषिकादि टशन वाले आकाश द्रव्य मानते हैं पर-तु धर्मास्ति० अधघमेस्ति० फो थे नद्दीं मानते तथापि जैन इन्हें क्िसलिये स्वीकार फरते हैं *

5

उक्तर--दृश्य आर अटश्य रूप जड़ आर चेतन्य ये दोनों पिएव थे सुए्य अग माने गये है इनमें गति शीलता तो अनुमच सिंद ही दे इसलिये कोई नियमिफ “गतिशील” # तत्व सद्दायक होतो थे द्रव्य अपनी गतिशोलता के कारण अनन्ताफाश में किसी भी जगष रुकते हुए यदि चलते दी रहें तो इस रश्या

जयनमान के दक्षानिर्या भा यह सिद कर दिया है कि ससार में शक एसा शक्तिशाली पद्राथ दे जो चलनादि विया में समझो सहायक रूप है फ़िसे मैन परिभाषा में धर्मारितिझाय कददत हैं

है

( १८६ ) तन्वाथ सूत्र

दृश्य विश्व का नियत स्थान “लोकका मान जो सदा सामान्‍य रूप से एकसा मानागया हे वह नहीं घट सकता अनन्त जीच अर अनन्त पुहल व्यक्तितः अनन्त परिमसाण वाले विस्तृत श्राकाश क्षेत्र में बिना रुकावट सेचार करते रहेगे नो वे ऐसे पृथक हो- जायेगे कि उनका फिरसे दुवारा मिलना कठिन होजायगा इसलिये गतिशील ठव्यों की गति मयादा को नियत्षित करता तन्‍्व जन दशन स्वीकार करते है आर उसी तत्व को घर्माम्तिकाव कहते ले उपरोक्त गति मयादा का नियामक "चलन सहायक" नत्व स्वीकार करने पर उसके प्रतिपत्नी की आवश्यकता रहती हे इलसीलिये स्थिति सथादा के नियासक रूप अधम्गम्तिकाय को तत्व रूप स्वीकार करते है जनेतर पृवे, पश्चिमादि व्यवहार जो दिग छब्य का कार्य मानते हे वह आकाश से प्रथक्‌ नहीं है उसकी उत्पलि आकाश हारा ही होती है, इसलिये जैसे ठग हृब्य को आकाश से प्रथक भानना अनावश्यक है चेसे धर्मास्ति० अधर्मास्ति० दृव्य का कार्य केवल आकाश से सिद्ध नहीं हो सकता यदि आकार ही को गति, स्थितिका नियामक “प्रेरक” मान लिया जायतो वह अनन्त अखड ख़व्य है जड़ चेतन्य को सब्नत्न गति, स्थिति करते रोक नहीं सकता ओर विश्व के नियत संस्थान की अनुपपत्ति हो ज्ञायगी इसलिये घमे० अचमे० द्वव्य को आकार दूृव्य रे सतंत्र * झानना न्याय संयुक्त है। जड़ आर चेतन्य गति शील हैं. तथापि मभर्यादित आकाश क्षेत्र मे उनकी गति नियामक विना अपने खभाव से मयेदित नहीं मानी जासकती इसलिये घमःपस्तिकाय, अध्मास्तिकाय दव्य का अस्तित्व युक्किशः सिद्ध होता है ! आकाश ठवब्य का कार्य अवगाह-दान है अधात्‌ जो

)

झ० सू० १६-२०॥ रेपछ ) आवशाही “घम्मा वमाकाशजीय ? हूव्य है उन पर अयगाह देनेका उपकार आकाशास्कफिय द़ब्य का है १७४-१८॥

पुदल का जनण शरीरपाइमन प्राणापाना पुहलानाम २९॥ | सुपदु सनीजितमरणोपग्रहाथ २०

अशथ--शरीर, वाष्ण, मन, निश्वयास आर उश्वास यह्द अीब को पुडलो का सद्दायक रूप उपकार दे १६॥

तप छुख, दु स, जीयन आर मरण फे लिये भी पुढल सद्दायप है २०

धित्रेचन-पुद्ठल का मूल स्वरूप परमाणु रूप है। यथा - चूक रसपणगन्वोडिस्पश काय लिगीय पृरण गलन खमाद चुहलाम्तिकाय परमाणु रूप एक परमारु में एक रस, शुरू वर्णन एक गध, आर ठो रपशे होते है आर यद्द कार्य लिगो / है। देखु मादिस्फन्वो से यावत्त अ्नन्तानन्त पदेशी स्कन्धों का !

ऊपादान कारण यही है और सम्मिलित दोना या यिपर जाना उसका मुण्य खभाप है |

द्वेशुकादि स्कन्ब से यायत्‌ अनन्‍्ताणुक्र स्कन्‍्ध पर्यन्‍्त जीव को अरप्राद्य है जो अनतान-त अणुस्कन्व है दे ग्राद्य थत्राह दो धकार के दे। देयो यगरणा स्वरूप फम परस्त्यादि सनन्‍्य से आर

जे ग्राष्य चगणा टैः दो प्रकार की है एक खदम आर दूसरी पादश खत्म है वद्द चाफरशी आर पादर अठफ्रशी इसका खणन भगवतां सूत्र शु० १९ उ० शमे हे

प्रश्न--आठ 'ओर चार स्पशा ये क्या

( भ्दय ) तत्वाथ रत्न ! उच्तर--आठ स्परशा के नाम हैं यथा:-+- फासा ग्रुरू लहु मिड खर सी उगह सिरिद्ध सस्कष्ठा यह पहले कमे अन्ध की ४१ वीं गाथा का उत्तराद्ध है !' इसमें आहठों स्पर्श के नाम बताये हैं भारी, हलका, सूद, खर, जीत, उप्ण, ग्निग्ध आर रुक उक्त आठ स्पर्शवाले स्कन्‍्ध

कर

हि न] हर | शा & +.. होले इन्द्रिय गोचर हैं. कर्मचर्गणाद्वि सच्म रकन्धों के चार खरूप हे के यथा:--

अन्तिम चडकास दडुर्मधर्पंच वप्तरस फम्म खेंघदल सब जिश्रणंत गुण रस अणुज़ुत मरणंत पऐ_स ऊ८

यह पेचम अन्ध की ७८ वीं गाथा है पूर्वोक्त आट सप्शों में से अग्त के चार “शीत, उष्णु, स्निग्ध, रुक्ष, स्पश, दो गंध. पाँच वर पांच रस वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्‍्ध सथ जीदथों से अनन्त गुण रसवाले अणुवों संयुक्त अनन्तानन्त यदेश वाले होते हैं। एक परमारु में दो स्प्श (उक्त चार स्पशों के प्रतिपत्ती शीत, स्मिग्ध या उप्ण, रुक्त) एक वर्ण, एक गच्घ, पक्र रस पर्व पांच चोल पाये जाते है

पौह्नलिक अनेक कार्यों में से कतिपय कार्य जीव को सहायक रूप हैं उनमें से शरीरादि कितनेक नाम सूचरकारने बताये हैं वे सेसारी जोचों पर अच्ुअ्नद विश्नह अर्थात्‌ हिलाहित के ऋरने वाले हैं

शरीर--ओदारिकादि शरीर पीहल्िक हैं. इनमें कई इन्द्रिय गोचर और कई अतीन्‍न्द्रिय हैं और संसारी जीवों से मित्य सम्बन्ध रखने याले हैं। जो मरके गत्यान्तर होने के समय भी प्रूथक नहीं होते उस लम्य जो साथ रहता है वद कार्मण

अआ० सूृ० १६-२० | ( ौईुैधध

जशरीर है, इन्द्रिय अगोचर है तथापि अप्दारिकादि शरीरोें का छत्पादक और उनके द्वारा खुस दु सादि विषाफॉफो देने याला दे। भाषा+-दो प्रकार की द्वोती है (१) द्र्य भाषा (२) भाव भाषा जे वीया“तराव तथा मतिश्ञानावरण, श्रुत शानायरण के जक्षयोपशम से या आमोपाग नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई शक्ति विशिष्ट को भाव भाषा कहते हैं पद पुट्ल सापत्ष दोने से पोह- लिक हैं। वे भापा वर्गणा के स्फन्‍ध आत्म-शक्त्ति द्वारा प्रेरित दीके बचन रूप में परिणत दो उसको द्गय भाषा कद्दते दें मन--लब्वि तथा उपयोग भाव मनहै पद उदयिक भा८ प्रवतित पुदलावलम्पित द्वोने से पोहतिर है ज्ञानावरण तथा बीगैन्‍न्‍ल्तराय के च्योपशम और अगोपाग नाम कर्म के उदय से भनोधर्गणा के स्रन्‍्ब दे थे शुण दोप पिवेचय तथा स्मरणादि

अनेक कार्य अ्रभिमुस आत्मा के साम4 उत्तेज रूप दोकर अनुग्रद्द निम्न अथात्‌ द्विताद्वित क्सने वाले हों उसे द-य मन कद्दते है:

क्ेचली फो शानवरण तथा चीयान्तराय फा क्षयोपशम नहीं है तथापि उद्यिक भाष प्रयतित न्‍्यामकम के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्‍्धों को ग्रहण कर उससे केवल गुण दोप विवेचन कार्य फरते हैं इसी तरद्द आत्मा के उद्र दारा निकला हुआ ।निश्वास चायु प्राण कदलाता दै-आर प्रवेश करता हुआ उश्वास चाय अपान कद्दलाता दै। दोनों पोड़ लिक ओर जीवप्रद होने से आत्मा को अलु॒ग्रद्द निम्रद्द कारी ५.) +'+ +

५... भाषा, सन आ्राण ओर अपान से सत्र व्याघात, तथा आअमिमप अथात्‌ उत्पत्ति आर विनाश याले है इसलिये शरीर के 'ख्मान पोडलिफ हैं जोप का प्रीति / रते रूप परिणाम ही सु है। उसका अतरग कारण खाता बेदनी कमे को उदय दहैश्रे८

( *६० ) तच्चाथ सत्र ऋआठदय कारण ठव्य, क्षेत्र आदि से उन्पक्त होता है इससे विपरीत अनिष्ट भाउ दुःख है परन्तु बाह्य कारण इसका भी दृब्य केब्रादि ड्ीहे। हे आयुप्य कर्म के उदय से देहथारी जीवों का ध्यासोश्वास

ही जीवन है उसके उच्छेद को मरण कहते हैं पृत्राक्त खुख- डु खादि पयोय जीचों में उत्त्पन्न होते हैं परन्तु इनकी उत्त्प

चुदल द्वारा होती है। इसलिये जीवों पर पुद्ल का उपकार माना गया है १६-२०

काये द्वारा जीव का ल्नण परस्परोपग्रहो जीक्षनाम २११

अथ--परस्पर काये में उपग्रह निमित्त दोना जीव का डकार है २१॥

विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में जीचों के पारस्परिक उपकार का वरणोन है। एक जीव अन्य जीचों के लिये उपदेश द्वारा यह डिताहित छारा उपकार करता है जैसे--मालिक पेसादि देके

जोकर पर उपकार करता है नाकर हिताधित काम कर के: मालेक पर उपकार करता है | इसी तरह गुरु सत्कमों के उपदेशः

द्वारा शिष्यादि जनता पर उपकार करता है और थे अनुकुल, अतिकूल सामग्री हारा उनपर डपकार करते हैं

काल लक्षण वतेना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे कालस्य॥ २२ ॥॥

अथ-वतेना, परिणाम. क्रिया, ओर परत्वापरत्व “पहल उपछला” यह काल का उपकार है <५॥

आ० ४सण०ण २६ ( «९ )

विवेचन--नयचयालि अन्य अन्यो काल को उपचार मान से ढ़ब्य माना है याम्तय में यद् पच्णत्ति कें अनतर भूत पर्याय रूप है यथू- पचाम्तिरातया तर मूत पर्याय रूप तेवास्थ, तन्न काल उपचारतय द्राय नतु बस्तु बद्या | तथापि यहाँ काल को खततच्रद्द्य मानकर उसका उपकार उताते है. जसे अपने पर्याय की उत्पत्ति में खमेय प्रयतमान, धमादि द्रायो को प्ररणा निमित्त हो उसको यतना कहते है. (यततना) (परिणाम) ख्ज्ञाति का पिना परित्याग ऊिये हब्य शा अपरिव्पद रूप (श्रचल) पर्याय जे पूयोपस्था फी निम्नुत्ति आर उत्तराबस्था की उत्पत्ति रूप हैः उस परिणाम उहते है. उक्त परिणाम जीव में शानादि तथा ऋोधादि रूप टै पुद्ठल म॑ नील, पीत यर्णांदि और शेप वर्मास्ति कायादि द्वायों अगरूलघुगुण की द्वानि पद्धि रूप है' पुन इसके सादि अनादि मेदों का पिवरण ( अ> स्रू० ४० में ) बरंगे (३) गति रूप क्रिया यद्द काल फा ही उपकार है (१) प्रयोगसा "प्रय

लजञय (२) पिश्वासा स्वाभाविक परिषाक जन्य” (- मिश्रसा “उम्नयजन्य! (४) परत्य अपरत्य, अवथात्‌ ज्येणशत्य कनिश्त्य 4चा परत्य, अपरत्य तीन प्रकार का है घशसाइत, ध्त्नज्त आर कालएत यवा-प्रशलारत धर्म पर है थीर अधघम अपर है खान पर है अछात अपर है इत्यानि | तनह॒न-एक देश स्थित दो पटार्थों के प्रिपय जा दूर है वद्द पर और निम्ट है घदद अपर। कालहत-दुस धर्षो को अपेत्ता पीस यपयाला पर है और पीसयप की अपक्ता-दुस वर्ष चाला अपर है | उफ्त बत्तनादिकाय यथा अभय वचर्माध्तिकायादि द्वव्या का ही है तथापि काल सथ में मित्त रूप फारण होने से उपकार रुप माना है॥ २२॥

पुदल के अपाघारण पर्याय स्पशरसंगन्धयगायन्त पुढला ॥२३॥

| हक 7) नन्‍्वाथ खत्र

शब्दयन्धसोक्म्यस्थीस्यमेस्थानभेदतमशछयाउघ्तपोटब्रोतवन्तथ २४ अथे-पुहल स्पश, रस, गन्ध ओर बरसे वाले होते हैं ॥रह॥ ओर वे शब्द, बेंच, सत्मत्व, स्थलन्य, सेम्धान, भेद, तम,

छाया, आतप ओर उद्योत चबाले भी हैं २४ विवेचल--बोद्ध दर्शनवाले पुष्टल को जीव अथ में व्यच-

हार करते हैं। वेशेगिफादि दर्शनवाले परृथ्व्यादि मर्तीमान द्वव्यों में समान रुप से चत॒रमुण, “स्पश्, रस, गन्य बगा * नहीं मानते किन्‍्नु पृथ्चि चतुर गुण, जल गंध रहित तीन शुण, तेलस गन्ध, रस रहित छ्िगुण ओर वायु को मात्र एक स्पशे गुण बाला ही मानते हैं. मन को स्पशांदि चतुर गुण रहित मानते हैं, इसलिये अन्य दाणनिकों से भिन्नता प्रगट करनी प्रस्तुत सूत्र का उद्देश है, वत्तेमान सूत्र से यह सूचित होता है कि जीव और पुटल दोनों पदाथे भिन्न खरूपी हें. किन्तु पुद्ल शब्द का व्यवहार जीव तत्व में नहीं होता पृथ्चि, जल, तेज़, चायु सच पुहलत्व रूप से समानहैं अथांत्‌ ये स्पर्शादि चह.र गुण युक्त है ओर मन को भी जनदशन वाले पोहलिक तथा स्पशीदि चतुर गुण युक्त भानते हैं थे पुद- गल स्कन्ध आए स्पश वाले नहीं हैं किन्तु चार स्परोवाले खदम

इन्द्रिय अगोचर होते हैं. स्पशे आठ (१) गुरु (२) लघु (३) सु (७) खर (५) शीत

(६) उप्णु (७) स्तिग्ध (८) रूच्त रख पांच (१) तिक्‍त (२) कल

(३) करेला (४) झआमिल (खट्दा) (५) मधुर | गन्ध दो (१) खुगन्ध

(२) डुगेन्ध बे पांच (१) कृष्ण (२) नील (३) लोहित ( लाल )

(४) पात (पीला) (५) श्वेत उक्त स्पर्शादि २० बोल इन्द्रिय गोचर वाद" पुहल स्केधों में पाये जाते हैं. और जे। सूच्म इन्द्रिय अगो- | के] हैं उनमें पू्ये के 3 “गुरु, लघु, खदु, ख़र” नहीं होते ! रप १६ बोल पाये जाते है आर जे। एक अखु रूप परमाणु

आ० सु० २३-२४॥ ( ै&३ )

पुल है उसमें अन्त के चार ज्पशों में से दो प्रति पक्षी छोड़ के शेप कोई भी दो स्पश एक रख, एफ गाघ ओर एक वर्ण होताहै।

उपरोक्त स्पशादि २० भेद कहे हैं. प्रत्येक तारतम्यत्व भाव से सय्याते, असरयाते आर अनन्त है जैसे मठु स्पशयाले जिनने स्क-व (वस्तु) हैं पे सप सहरश रूप नहीं है फ़िन्तु उनकी नजदुता में तारतस्य भाप है। झद॒त्य गुण समान रूप होते हुए भी उनकी तारतम्यत्ता पर दृष्टिपात फरने से अनेक भेद होते हैं इत्यादि २० मेदों के अनेक प्रमेल दोते हैं २३ 0

वेशेपिक, नेयायिफादि दशन याले जैसे शब्द फो गुण रूप मानते हैं घैसा जन नशन का मन्ताय नहीं है जन दृशन चाले श“द को भापायगण के पुदलोे का एक परिणाम बिशिए

मानते है वे निमित्त भेद से अनेक प्रकार हैं आत्म-पयक्न से उप्रश्न होने चाले शाद को धरयोगज कद्दते हैं आर जो म्वत

(बिना प्रयत के) शद है, उसे पिद्नसा कद्दते हैं. जले-चादलों फी गजारव भ्रयोगज शन्द के मेद हैं. ( १) भाषा--प्रनुष्यादि की

ब्यफ्त आर पत्ती आदियी अव्यकफ्त रूप अनक प्रकार को है (२) नत्‌-मुरज, झदग पटद्द आदि से रे (३) प्रितत-चीणादि तात तार वाले वाजितों से. (५३) खुपिर-यासुरी, शसादि (४) प्रम--भालर घदादि 3 (६) घर्ष--सघप अवात्‌ राड से उत्पस द्वोने घाले शब्द

बन्ध तीन पक्ार के होने है (१) परस्पर अण्लेप रूप से दोनेयाले यन्व फो प्रयोगज यहलते हैं जसे पुस्पादि धयल से

( १६४ ) नच्चाथ सत्र

(२) स्वतः सिद्ध चा परिपाकजन्य बन्च को विश्वसा कहते हैं आर नासा स्मिग्ध आर रुक पुहल परस्पर रपट होने से वन्‍्ध होता है उसे मिश्र वन्‍्ध कहते हें. | उखका आगे इसी अध्यायके ३२ थे सत्र में विवेचन करेंग |

सूच्म दो प्रकार से है एक अन्त्य आर दूस 7 श्रापक्षिक जो परमाणु रूप है बह अन्त्य खत्म है आर दखुकादि स्कस्च हल वे सापेक्ष सच्म हैं। जैसे--आंबले से बेर ग्उक्ष्म है झार आम की अपेक्ता आंवला सच्म है

स्थल मी दो प्रकार के हें. (१) अन्त्यम (२) आपेकल्तिक अचित्य महास्कन्घ जो सर्व लोक व्यापी होता हे. वह अन्तम स्थृज्ञ है आर आपेक्षिक जैसे--बेर से आवला आर आवले से आए स्थल है इत्यादि आपेक्तिक वचन को ही स्थाहाद कहते हैं एक ही वस्तु में स्थुलत्व, सत्मत्व दो विरोधी पर्यायों का अस्तित्व ही स्थाहाद कहलाता है

संस्थान ( अवयब रचना विशेष ) अनेक प्रकार के छू तथापि उनके दो भेद बताये हैं (१) इत्थेत्व (२) अनित्येत्व जिस आकार की किसी अन्य आकार के साथ तुलना की जाय ड्से इत्थेत्व कहते हैं आर जिसकी तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती उसे अनित्थेत्व कहते हैं | जैले--मेघादि का संस्थान याने रचना विशेष अनित्य रूप होने से. किसी एक प्रकार से निरूपण नहीं कर सकते वह अनित्थेत्व रूप है आर फल. फ़ूल: वस्त्र, पच्नादि वस्तुये इत्थेव॒व रूप हैं इनका आकार गोल, जि, चतुप्को- शादि तुलनात्मक अनेक घकार है।

भेद--एकत्वरूप स्थित पुदलों के विश्छेष “विभाग को

आा० सू० २३-२४। ( शृ&४ )

भेद कहते हैँ पद पाय प्रफार का है ११) आत्कारिक-काप्टादिको' आगदि से चीरना (२) चोशिक-घस्तु को चुण करके महील करना जैसे दाल, आटा आदि (३) सणठ-टुकड करना (४) पतर जैसे-अबरण, भोजपनादि से परत्त निकाले जाते हैं (५) अचुत्तद चलकल पिशेष जैसे यासादि की छाल | तम--अधकार फो कहते हैं जो प्रकाश फा विरोधी भाव है। छाया--नप्रफाश पर आवरण) जसे-भेघाचछादित सूये अथवा मलुप्यादि फी छाया और दर्षणादि खन्‍्छ पढाथा में जो भुखादि का प्रतिविव पडता दे वह प्रतियिय रूप छाया दे आत्तप--सूयादि से होने वाले उप्ण प्रकाश को झआतप और चन्द्रादि से दोने बाले शीतल प्रकाश को उद्योत फद्दते हें ये संघ पोहल खमावी अथवा पुहल फ्याय रूप दोने से पतहलिक हें प्रश्न--जबकि सूत 3 और २४ बस यताये शप स्पशादि तथा शब्दादि दोनों पुह्नल दी के पर्याशय हैं' तो इनके लिये चूथक सृध्ष करने की कया असप्वश्यकता है ? एक ही सूत्न से कार्य चल सकता है ? उष्तर--स्पश, रसादि “सूजन २३ के! पथाय परमाणु से यावत्‌ स्कम्ध पर्यात सब में पाये जाते हैं. आर सूभ्ोक्त २४ के शब्टादि पयाय हैं दे वे दल स्कन्धों में दी पाये जाते हैं। परमाणु मे रहे हुए. स्पशादि के साथ उनका सप्रथ नहीं दे ओर शब्द, चन्ध आदि पर्याय अनेक नि्मित्त दूत दोने से स्काथों में दे पप्ये जाते हैं सून्‍्मत्व पर्याय परमासु तथा स्कन्ध दोनों में है तथापि इसके शतिपक्षी स्घुलत्य पर्याय को सदयारिता होने से स्पशादि

( १६६ ) तत्त्वार्थ सूत्र

कै साथ परिगणुना करके शब्दादि में सम्मिलित किया दे है. १ई कक सच बे

'यूवीक्क दोनों सत्रों में निमित भेद ही कारण भूत है आर इसलिये

खे २३-२४” खूच पुथक किये गये हैं २३-२४

पुटल के मुख्य भेद अशणवः स्फन्धोश | २५ ॥॥| अर्थ--पुद्लल के अणु, आर स्कन्घ दो भेद हैं ॥रशा विवेचन--व्यक्तिरूप से पुहल अनन्त हैँ ओआर उनकी “विविधता भी अपरिमित है तथापि पूर्वाक्त खूच् २३-२४ में पुहल परिणाम की उत्पत्ति के लिये भिन्न भिन्न कारण बताये गये हैं। उनकी उपयोगिता के लिये संक्षेप से वत्तेमात सूत्र द्वारा पुद्ल के दो विभाग किये हैं एक अखु अथात्‌ परमाणु आर दूखरा स्कन्ध | उक्त दो विभागों में सम्पूर्ण पुह्लल राशी का समावेश

हो जाता है

अन्य कारकाओं दह्ारा परमाणु का लक्षण कारणमेव ददन्त्य सद्मों नित्यथ मवति परमाणु एक रस गन्धबणों दिस्पशः काये लिड़ीश्र ॥ईति॥

. जो पुद्गलद्॒व्य कारण रूप है परन्तु कार्य रूप नहीं हो सकता उसको अत्य दृव्य कहते हैं चह परमाणु रूप है! | उलके लिये अन्य कारणों की आवश्यकता नहीं रहती दंणु ऋादि स्कन्धों का सूल कारण भी वही है. ओर नित्य तथा सूच्य रूप हो उसीको परमाणु कहते हैं. एक रस, एक गरंध) एक वर्ण, दो स्पर्श कार्य लिगी हैं अथात्‌ कार्य से जाना,जाता है. परमाणु द्वव्य' का शान इन्द्रियों द्वारा नहीं होता. चह आगम तथा अनुभान साध्य

आअ० खू० २६-२७ | ( र&७ )

है उसका अज॒मान कार्य देठु से माना ज्यत्ता है। जितने पाद्ग- लिक कार्य इ॒ए्टि गोचर होते हैं वे सब सफारण दें। उनका आदि फारण परमार है थे परमाणु अनादि नित्य परिणमन स्वभाएी हैं अथात्‌ अनेक परमाणु सम्मिलित होकर परिणमन भाष होने से स्कन्घ रूप में परिवर्सित द्वोते हैं।स्फन्‍्धों का सूल कारण परमाणु है, परत परमाणु का कारण कोह अन्य हव्य नहीं है जितने स्फन्‍्ध हे वे सब परमाण ही के समुदाय रूप हैं। थे स्पथ फारण औए द्रव्य फी अपेत्ता से कार्य रूप है, आर फाये की अ्रपेक्ता से कारण रूप हे | जसे--हिप्रदेशी आदि स्कन्घ काये हैं. आर पर-- माणु उसफा कारण है। तथा नि, चतुष्कादि प्रदेशी स्फन्‍्धों के लिये छिप्रदेशी आदि स्कन्ध हैं वे भो कारण दो सकते है। इसका आगे के खूझ से चणन फरते है २५॥ स्कन्ध और अगुकी उत्तत्ति का कारण सघातमभेदेम्य उत्पच्ते २६ मभेदादरु, ॥२७॥ अथ--सघात से, मेद खे तथा सधात मेद्‌ से स्कन्‍्घच शच्पक्न दोते है २६॥ है मेद से दी अथात्‌ वस्तु के पड़से दी अगण की उत्पत्ति कछै॥ २७॥ विधेचन-स्कन्घ अथात्‌ अचयदी द्वव्य की उष्पत्ति सीन प्रकार से द्ोती दे (१) पहला जे स्पन्ध एफत्व रूप परिणति

से उस्पश्न हो उसको सघात कहते हैं जसे-ट्विपरमाण सम्मिलित द्ोके स्कन्‍्धपने को भाप्त द्ोतते है, एवं तीन, चार, यावत्‌ सय्यात,

शए्ध्द ) तत््वाथ सत्र

असेख्यात, अनन्त आर अनन्तानन्त अण सम्मिलित होके स्कन्घ रूप में परिणत होते हैं। वह सन्धातजन्य स्कथ है (२) जे। स्कन्च पकेखी एक चस्तु के खेड रूप हो उसको भेद कहते हैं। जेसे-कोई चड़ी चस्तु ट्ुट जाने से उसके छोटे छोटे छुकड़ हो जाते हैं वे मेद स्कन्ध कहलाते है (३) उपरोक्त भेद आर सेघात दोना से उत्पन्न होनेवाला स्केध है जसे-किसी वस्तु के टूटे हुए हुकड़े के साथ अन्य द्रव्य सम्मिलित होके उसी समय नवीन स्कनन्‍्ध बनता है. चह भेद संघतजन्य स्कन्ध कहलाता है उपरोक्त स्कन्घ टिपदेशी से यावत्‌ अनन्तानन्त प्रदेशी पर्यन्त होते हे वेही (१) संघात (२) भेद आर (३ ) संघात भेद कहलाते हैं परमाणु के लिये जे! उपरोक्त सच “भिदादणाः कहा दे वह विश कलित अवस्था अथात्‌ स्कन्‍्च के अवयब में समुदाय रूप से रहे हुए या उससे निकलकर अलग हुए परमार अवस्था विपयी हैं | विशकलित अवस्थास्कन्ध भेद से ही उत्पन्न होती है। इसी अशिप्राय से “भेदादणुः” यह सूत्र कहा है परन्तु विशुद्ध प्रमाण की अपेक्षा नहीं है पयाय भेद अवस्था जन्य है | चास्तव में परमाश अन्य किसी द्वव्य का कायय नहीं है. ओर अन्य द्रव

के संघात का संभव है किन्तु बह स्वाभाविक स्वतंत्र अनादि नित्य द्रव्य है २७॥

स्कन्ध चन्ु ग्राह्माग्राह्म विषय भेदसंघाताभ्यां चाक्षुपाः २८

अथे-मेद आर संघात दोनों से चाज्षुष स्क॑ बनते हैं॥२८॥ विवेचन-वत्तेमान सृत्न से यह सिद्ध करते हैं कि अचा- क्तषुष स्कन्ध है. वह मनिम्मित्त पाऋर चाजु आह्य चनजाते हैं

अ०् स० २८) ( १६६८ 3

पुटल विविध परिणामी है तथापि यहें। झुण्यदयादि दे! ; नमेद्‌ अ्रतिपाथ रूप दोने से उसका अतियाद्न फरते हैं (*) आन जुप अथात चक्तु इन्द्रिय अग्याह्य (२) चचु इन्द्रिय आह्य प्रथमाय स्था पुदूगल स्फथ अचजुपु ग्राद्य है परन्तु चद निमित्त चशात्‌ सच मत्व परिणाम को परित्याय कर बाहर (स्थूल) परिणाम विशिश्त्च से चज्तु श्राद्दी घन जाता है इसके लिए भेद आर सघात दे सा चेक्ती है | जय स्कन्ध सच्म-प परिणाम को परिद्याग करके पादर परिणाम विपयी होता दे उस खमय क्तितनेक भयीन परमाणु न्कन्य में अपश्य सम्मिलित होते हे आर पृवयति फित्तने ही अणु उससे पृथक भी दोते सदम परिणाम की निवृत्ति आर खानतर परिणाम की उन्पक्ति केबल सघात अखत्‌ अणुओं के समिलित मात्र से या भेद अथात्‌ सड मात्र से नहीं हे किन्तु जय तक स्कन्ध सुन्म्र भाववत्ति है उसमें फितने ही श्रघिक अखु समिलित क्यों हो वद चच्ु ग्राष्य नहीं दोसकता स्मन्‍य जब सन्प्त्व भाष को छोड के यादर ( रुपल स्परभावयाला होता है उस समय याद यद्द अधिकाधिक अणशुश्रों से न्‍यूज ऋखुवस्‍ला भो द्वोतो चलुप्राह्म शोता दे चानरत्व परिणाभ के विना स्कत्घ चक्ु आए नहीं दो सकता इसलिये चाजछ्षुपर सक्‍ध फो नियम पूर्वक, सघान आर भेदकी # आवश्यवता रच्ती है

भेद शब्द के दे अथ हैं (१) स्कन्‍्ध के डुकछ अधेत्‌ अड द्ोके थणुओ का प्रथफ होना (+) पूपे परिणाम की निवत्ति आर उत्तर परिणाम को उत्पक्ति परन्तु अचात्ुप स्कन्ध से आाशुप स्कन्थ बनने के लिये उपरोक्ष देानों भेद्रों ( परिशाम मेद खधात) की आवश्यफ्या रदती दे

सत्तेमान सूत्र में चाक्षुप शब्द दवा घिधान रूप * अधाच्‌

(६ २०० ) नतत्वाध सत्र

चज्तुत्राह्म स्कन्‍्धों का द्वी बोघऊ दे नथापि यहां उसको स्वन्द्रिय लाक्षशिक माना है आर अनन्द्रिय पुदगल स्कन्ध परिणार्मा की विविध विचिच्रता के का रण. भेद, सेघान निमित्त पाकर एन्द्रियक चनजावे हैं तथा चेही स्थल से सच्म आर विशेष इन्द्रिय आटा से पक इन्द्रिय ग्राही चनजाते है. जसे-नमक हींग आदि पदाथा का स्पश, रस, प्राण आर नेत्र इन चारों इन्ठियोँ द्वारा शान हो सक- ता है अधाद वे चतुप्केन्द्रिय आदी हैं. तथापि उनको यदि पानी में घ्रोल दी जाय तो चही चस्तु केवल ब्राण आर रसेन्द्रिय ग्राही बन जायगी।

प्रश्न- चाक्षुप स्कन्ध चनने के लिये दे! कारण चताये परन्तु अचाज्षुप के लिये सेठ विधान क्‍यों नहीं

उत्तर--वत्तेमान अध्याय के २६ थे खून में सामान्य रूप से स्कन्‍्ध मात्रकी उत्पत्ति के लिये तीन हेतु बताये गये हैं | यहां केवल विशेष स्कन्ध की उत्पत्ति अथात्‌ आचज्षुप स्कन्ध से चाज्ञषुप स्कन्ध बनने के हेतु बताये गये हैं, सामान्य विधान अथात्‌ सूत्र २८ के कथनानुसार आचचछ्ुप स्केच बनने के लिये: (संघात, भेद आर संघात भेद) तोन कारण हैं

प्रश्न--वत्तेमान अध्याय के सूत्र १-२ सें चमादि द्वव्यों का कथन है परन्तु वे किस प्रकार से जाने जाते हैं ?

उत्तर-वे सत्‌ लक्षण से जाने जाते हैं इसलिये अब खत्‌ लक्षण की व्याख्या करते है २८

सत्‌ लक्षण उत्पादव्ययपध्रोग्ययुक्त सत्‌ ।२६॥ अथे--उत्पाद ( उत्पत्ति ) व्यय (नाश) घेष्य (स्रिता)-

बआ० खु० १६-२० ( रण्१ ) युक्त अयात् पस्तु का तदात्मकत्व भाव सत्‌ कद्दलाता है॥र्शा

विवेचन--सत््‌ स्वरूप के बिपय वेदान्तादि दशन चालों की मान्यता भिन्न प्रफार की हैं जसे--पैदान्त ओऔपनिपद, शक्कर मतावलपी सम्पूर्ण सत्‌ पदार्च (ब्रह्म ) को दी केचल ध्रच (नित्य) मानते हैं. परन्तु एकान्त सर्ववा धव मानने से आर औष्य रूप एक स्पभाप द्वोओे से आत्मा की अयस्थाओं को भेद अयद्युक्‍्त होगा और जय आत्माफी सदाकाल एक दी अवस्था रद्दी तो ससार आर मोक्ष के भेद का भी अभाव होगा आर जे मोत्त के लिये यम (अर्दिसा सत्य, अस्तेय, धरहाचये, अपरिग्रह) नियम (तप, सतोप, स्पाध्याय ईश्वरप्रणिधान) आदि अनेक प्रयत्न फ़िये जाते हू थे निष्फल दो जायेंगे यदि ससाराषवस्था श्र भोक्षा चस्था के भेद को फेचल कटपना मात्र सानते दो तो आत्मा का सारी स्पभाव ने दोने से उस के उपक्तब्धी अथात्‌ प्राप्ति के आभाष का प्रसय उपस्थित होगा आर यदि आत्माफा मजुष्य स्व, दवत्यादि सखारी पर्याय मानते हैं, तो एफान्त प्रोव्य का अभाष द्वोगया इत्यादि घौद्ध द्रव बाले सत्‌ पदाये को निरन्यय (यिनासतत्ति) क्षणिक मानते हैं अथात्‌ मात्र उत्पाद व्ययशील ही माते हैं | सास्य मतवाले चैतन्य तत्व रूप सत्‌ को फेयल घुब (फूटम्थानित्य) मानते हैं। स्वेयायिक, पशेपिक्त मतावलम्धी अनेक सत्‌ पद्मथामें से परमाझु, काल, आत्मादि कइ सत््‌ यदार्थी को घाव्य (कूटस्थनित्य) मानते हैं ओर घट' धस्तादि पदाला को केबल अनिश्य (उत्पाद व्ययशील) दी मानते हैं. परन्तु जेनद्शन का सत्त्‌ स्वरूप चिपयी मन्तब्य मिन दी दे शास््क्राए उसीकी अस्तुत सून से व्याग्या करते दे कि सत्‌ वस्तु दे बद्द केघल

है

( +%०६ ) तचार्थ खत

4

कूटस्थ नित्य नहीं है आर निरन्बय बिनाशी ही है. तथा पक ऊरटस्थनित्य आर एक भाग परिगामी नित्य अथवा कोई भाग केवल नित्य आर क्ोई भाग अनित्य भी नहीं हो सकता ऊनदशेन का मन्तव्य दे कि धत्यक् वस्तु जड़ हो वा चतन्य, सूत्त हो वा अमृत, सतक्म हो वा बादर सभी उत्पाद, व्यय, धाव्य' अपदि रूप है प्रत्यक वस्तु अनन्त परयायान्म दे तथापि उनमें से नित्य आर अनित्य दे पर्याय स॒ुस्यता रूप सब में पाये जाते हें. एसी कोई चस्तु नहीं है कि जिसमें उक्त दोनों पर्याय नहीं श्रथात्‌ प्रत्येक वस्तु का एक अंश एसा है जा तीनों काल में शाश्वत रूप से अवस्थित हे आर दूसरा अश अशाश्वत रूप है. जा शाश्वत है चह घोव्यात्मक (स्थिर) है, आर अस्थिर ओअश से चस्नु उत्पाद व्ययात्मक है। जैसे--घरट पर्याय व्यय. कपाल पयाय का उन्पाद यह वस्तु का अनित्य खभाव है आर सखत्तका रूपसे वस्तु धव है। पत्येक चस्तु में उन्पाद, व्यय सम काल होता हे जेसे--किसी ने कद्दा कि तराजू की डेडी जिस समय एक ओर नीची होती हैः डसी समय दूसरी ओर ऊंची होती है परन्तु एक अश पर इशष्टि- पात होने से वस्तु केचल अउय या अधाव्य ही ज्ञान पड़ती है. वास्तव में उपदान कारण के बिना केवल एक भोव्यरूप वस्तु में उत्पाद नहीं होता. इसी तरह सदा अध्वव्य से सी उन्पाद का अभाव ही हे. इसलिगे वस्तु को . व्यय, शव शील माने विना उसका पयायव बोध नहीं कर सकते वही सत्‌ का लक्षण है. अन्यथा असत्‌ रूप है। अब यह प्रश्न डपस्थित होता है कि उपरोक्त सत्र से माना हुआ खत्‌ नित्य है वा अनित्य है इस के उत्तर के लिये ही यह सूत्र है

आ० सू० ३० | ( २०३ )

तद्भयाव्यय नित्यम्र ॥३०॥

अथै--जेर अपने स्पभाव (सत्‌ ) से च्युत नहीं चद नित्य है ३०

विपेचन-पूर्व सूत में रद आये दे कि परस्तु उत्पाद, ज्यय, ध्रा-यास्मर है अथात्‌ स्थिर आर अस्थिर उभय रूप है। परस्तु यहें। शक उच्पन्न द्ोती दे कि जे। चस्तु स्थिएदै यद अस्थिर कैसे ? आर अस्थिर है यद्द स्थिर केसे ? कारण एक दी बस्तु में परस्पर विरोधी भाव कैसे रह सकता दै। जेंसे-शीत ओर उष्स वविरोथी भाव एस चस्तु में एक समय दवा ही नहीं सकता इस नविरो थी भाव का परिद्वार करना इस सृत्र फा उद्देश है इसलिये जेनद्शन समत नित्यात्य खरूप को प्रदर्शित करते हुये विरोधी आय नियारण फरते हैं।

अन्य दाशनिकों क्र समान यदि जनदशन भी चस्तु के क्वरूप यो अपरिवरतनशील अथात्‌ किसी प्रकार के परियर्तन किये कविना सदा एक रूप जिसमें अनित्य का समय दी नहीं ऐसी ऊटस्थ निद्ता नहीं मानते जिससे वस्तु मे स्थिसत्य, अस्थिरत्त' विगेधी भाव उत्पन्न धों ओऔ्रारन जेनदशन चस्तु को एकान्त क्शिक दी मानते दें। यदि उम्तु को प्रत्येक कण में उत्पन्न आर नष्ट दोने वाली मानकर उसमें ध्विराधार माने तो उक्त देशप आप्त हो सकता टै अथात्‌ अनित्य परिणाम में नित्यता का समय नहीं दोता परन्तु जनद्शन का यद्द मनन्‍्ताय नहीं दै। वे किसी भो अस्तु में एकान्‍्त कूटस्थ नित्य या मात्र परिणामीत्य भाव मार कर परिणामीनित्य ( परिवर्सनशील नित्य ) मानते 6 इसलिये जितने तत्य दे वे अपने अपने ,जाति में स्थिए रदते हुए भी:

मा] 'वच्चाथ सत्र

निमित्त पाकर परिवतेन रूप उत्पाद, व्यय को पधाप्त हुआ करते हैं। अछः स्वरूपालयायी पने धवहे आर परिणामिक भाव घने अपेन्ता से उत्पाद, व्यय भी उससे घटित होता दे। सांस्यदशन को केवल प्रकृति ( जड़ वस्तु ) को ही परिणामीनित्य मान्य है परन्तु जन- उशेन का यह र्िद्धान्त जड़ चेतन्य दोनों के लिये पक्त सा अथात जैन सिद्धांतों में जड़ चेतन्य दोनो को परिणामी नित्य आना दे

सर्चेच्यापी परिणामी नित्यत्ववाद स्वीकार करने के लिये झुख्य साधन घमाणाहुभाव है। अति खच्मता पूवेक पत्येक की आर इ॒ष्टिपात करने से यह &नुभव होता हे कि ऐसा कोई तत्व जहीं ज्ञो पकाप्त अपरिणामी ( स्थिर ) स्वभाव चाला ही हो या केवल परिणामी अथात्‌ अस्थिर स्वभावी ही हो | यदि वस्तु को केवल ज्षणिक ही मानते हैं तो प्रत्येक क्षण में घह नवीन नवीन उत्पन्न होगा आर नष्ट भी होगा ज्षणिक परंपरा के कारण उसका स्थायित्वाधाराभाव होगा आर स्थायित्व के आधार का अभाद हो जाने से सजातीयता नश्ट हो जायगी अथात्‌ वस्तु स्वजातीय घमे से च्युत हो के विजातीय हो जायगी | यह वस्तु वही है इस अत्यभिज्ञान के लिये स्थिरत्व गुण की आवश्यक्ता है इसी तरह उ्शान्आत्मा में भी स्थिरत्व गुण की आवश्यकता रहेगी यदि जड़ आर चैतन्य तत्व में स्थिरत्व गुण का अभाव हो जाय तोचे विकार भाव को धाप्त हो जावेगे आर यदि उन ( जड़ चैतन्य ) को एकान्त अपरिणामी (स्थिर) वाल ही मानते हैं तो इन दोनों सत्यों के मिश्रण से प्रत्येक क्षण में उत्पन्न होने चाली विविधता देखाई देती है। उसका अभाव हो जायगा. इसलिये परिणामी- लित्यवाद मानना ही युक्त्ि संगत है

ध्य० श्सू० ३० (्‌ रश )

पूर्वोक्त सूत्र ३० की दूसरी व्याख्या

सत्‌ अपने स्पभाव से च्युत नहीं होता इसलिये बढ पल्ित्य है ३०

विपेचन- उत्पाद, व्यय ध्ववात्मक रहना यही चरुतु का स्वरूप है उसी को सत्‌ फद्ते दे यद्द सत्‌ स्परूप नित्य अधात्‌ तीनों काल में है सदश रूप से अवस्थित है ऐसो फो यस्तु नहीं है जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रगाधार दो | उस्त तीनो अश वस्तु में खदा रहते हैं। अयात्‌ उत्पादादि तीनों अश से वस्तु कदाणि चपुथफ्‌ नदीं हो सकती यद्द सत्‌ का नित्यत्य स्यरूप ह्ठै।

अपनी जाति से च्युत दोना द्वी चस्तु का घुचत्य है आर प्रत्फे समय भिन्न भिन्न परिणाम रूप से उत्पन्न होना ओर नष्ट द्ोना उत्पाद, व्यय दे | सर पदाथा पर उत्पाद व्यय, चअप का चक्र सदा प्रवाद्वित रद्दता है कोइ भी अश ऐसा नहीं दे जो इस चक्र से मुफ्त हो सके पूरे सूत २७ में सत्य के अ्रस्तित्व का कथन है बद सानहठब्य का श्र ययी-डत्पाद, व्यय क्रम ओर व्थायी अश को ग्रहण करके कद्दा है चत्तमान सूत में उस के निवत्यत्य का कथन है वद्द उत्पाद, “यय, घव तीनों अश का अगिन्छिन्नत्य स्यभाप अहण करके कद्दा है उक्त दोनों सूरों में व्यह विशेषता है ३०

अनेकान्त समन अपितानपितसिद्धे! ॥३१

अथै-पदार्थी की सिद्धि मुग्यता आर गरेणता से डोती है ३१॥

( २०६ ) तन्चाथे खत

विवेचन--पत्येक चस्त अनेक धर्मास्मक दे आर उसमें घरस्पर विरुद्धभादी, घर्म भी रहे हुए हँ उन विरुद्धभावी घमा का एक हीं वस्तु में सप्रमाण समन्वय कराना आग विद्यमान अनेक धर्मा में से किसी समय एक आर किसी समय दुसरे का अतिपादन केसे हो इसका अवबोध करना इस सत्र का उद्ेश है

तल

आत्मा सत्‌ है इस प्रतीति चा कथन से जिस सत्यता ( सत्‌ ) का भास होता है चद् सच प्रकार से घटित नहीं दे किन्तु चह स्वस्वरूपसे ही सत्‌ है यदि ऐसा नहो तो आत्मा चेतनादि स्वस्वरूप के समान घटादि पर रूप में भी सत्यता सिद्ध होची चाहिये और घट मे भी चतन्यत्व भाव होगा इससे विशिष्ट स्वरूप सिद्ध नहीं होता। विशिष्ट स्वरूप का मतलब यह है. कि जो स्वस्वरूप से सत्‌ है वह पररूप में नहीं अथात्‌ सन्‌ नहीं इस तरह आत्मादि पत्येक वस्तु में जो विरोध भावी चर्म रहा हुआ है वद्द सापेन्त अर्थात्‌ अपेक्षा सहित है. इसी तरह वस्तु में लितय, अनित्य धर्म भी रहा हुआ है जो वस्तु सामान्य दृष्टि द्वव्य ) से नित्य है वही वस्तु विशेष दृष्टि ( पयाय ) से अनित्य सिद्ध होती है आर दूसरे एकत्व, अनेकत्वादि अनेक घर्मा का समन्वय आत्मादि सब चस्तुओं में अवाधित रूप से है। इसीलिये सब पदार्थ अनेक घमात्मिक माने गये हैं:

' द्वितीयव्याख्या

भत्येक वस्तु का व्यवहार अनेक प्रकार से होता है

ओर उस की सिद्धि मुख्यता, गाणता अथात्‌ प्रधान अभधान भव से होती है॥ ३१॥

[५

आ० सू० ३०। २०७ 3

विवेचन--अपक्ता मेद से सिद्ध द्ोने वाले अनेक धर्मों में से चस्तु का व्यवद्दार फिसी एक धम्म छारा होता है बद्द अ्रप्र माणित अथवा याधित नहीं कहलाता क्याकि वस्तु के विद्यमान समस्त वर्म एकसाथ वियक्षित नहीं होते अर्थात्‌ उनका “यबहार अथवा कथन पुफ साथ नहीं होता | प्रयोजन के अनुसार उस फी चियत्षा होती है जिस धर्म की पिचत्ञा की जाय चह मुणय्यत्प्रधान रूप है और शेप धर्म गोणन्अप्रधान रुप दोते है| जसेरआत्मामे अपना भेठ से नित्य आर अ्रनित्य दोनो धर्म रहे हुए हें पद द्वग्य दृष्टि अपक्षा से नित्य है| फ्योकि कमे का फत्ता है वही फल का भोक्ता है» फर्म आर तत्‌ जय फल या समन्‍्यय निव्यत्व धर्म से ही होता है उस समय पयाय दृष्टि अभिद्यन्य विपक्तित नहीं होने के कारण गाण रुप दे कत्तत्व काल की अ्रपेत्ता भोफ्द-पय काल में आमा की अवस्था पदल जाती है इसलिये कर्म ऋार फल के समय का अथस्था भेद वताना ही तब पयाय दृष्टि से अनिस्यत्व प्रतिपादन चरते समय पर्याय दृष्टि की मुर्यता ओर द्वब्य रृष्टि निल्यत्य की गोणता रहेगी इस प्रकार वियत्षा अविपक्षा के कारण किसी समय आत्मा फो त्ित्य और कसी समय अनित्य भी कह सकते है ओर जप होनों घर्म ( नित्य, अनित्य ) एफ साथ करने की इच्छा दो उस समय दोनों घम फो शुगपत्‌ ( एकसाथ ) पतिपादन फरने के सिय थान्य शब्द दोने परे फारण आत्मा को झवफ्तव्य कद्दते है। उपरोक्त (नित्य, अनितय, धधफ्तव्य) त्तीन प्रकार की याक्य रचनाओं फे मिथण से अ"ए चार चाफ्य रचना आर बनती दे, जैसे नित्य १,अनि यर,नियानि-य३,अप सध्यब,नित्यगवफतब्य५,अपित्श्चफ्तव्य ६,आर नित्यानित्य शचक्ल स्यु७ इसी सप्त वाफ्य रचागाफ सप्त भगी कद्ते दे यथा-(१)स्यातनिय

कट) तच्चाथ सूत

वहाँ स्थात्‌ शब्द कहने का तात्पर्य यह है कि नित्य धर्म सापेन्न दे ओऔर उसी को सखचित फरने के लिये स्थात्‌ शब्द का प्रयोग किया गयाहे इससे शप शर्मा का उच्छेद नहीं होता इसी तरह ( २2 स्थयात्‌ अनित्य, (७ ) म्थात्‌ अवक्तब्य, ( ४) स्थान नित्यानित्य, (४ ) स्थात्‌ नित्य अवकतब्य, (६) स्थात अनित्य अवक्तब्य, (७ ) स्थात्‌ नितल्यानित्य अवसक्तब्य, इन में प्रथम के तीन सकला देशी कहलाते हैँ। उस में सी आदि के दो बाक्य सुख्य हे | उन्हीं ( नित्य, अनित्य ) टो धर्मो को अहण करके मिन्न दृष्टि से शेप विकल्प उठाये गये हैं उन्हें विकला देशी कहते हैं इसी तरदद अस्ति नास्ति, एकत्व अनेकन्य, सेद अभेद, इत्यादि युगपत्‌ चमा से पत्थेक चस्तु सें सप्त संगी घटाई जा सकती है। पत्यक् चरतुर्मे सामान्य विशेष चमे स्वीकार करना ही स्यथाह्ाद दशन है इसी को अनेकान्तवाद भी कहते हैं | इसी से एक वस्तु अनेक घमो- त्मक और अनेक व्यवहार विपयी मान्ती जाती है ३१

पोहूलिक वन्ध हतु सिग्धरूचत्वाह्नन्धः ३२॥

अथै-स्विग्थ ओर रुक्ष हेतु से चन्‍्ध होता है ॥१शा। विवेचन-पुहलस्केथ की उत्पत्ती के लिये इसी अध्याय के छवीसव (२६) सूत्र मे 'संघात भेदे+य उत्पवन्ते” कद आये हैं पुनः उसी का स्पष्टिकरण करते हैं कि वह केवल अवयवभूत परमाणु आदि के पारस्परिक संयोगमात्र से उत्पन्न नहीं होता ' किन्तु अन्य गुण की भी आवश्यक्ता रहती है घस्तुत सनच्च का यह दे कि अवयच के पारस्परिक सेयोग के सिवाय स्लिग्ध- त्व, रूचत्व गुण के विना वन्‍्ध नहीं हो सकता, पुह्ल का एकत्व

स० ३३-३५) ( २०७ 0

परिणाम जो है वद्द <परोक्त रुण से होता हूँ अथात्‌ इेखु- कादि स्फस्णों का एकत्य परिणाम रूप उन्‍्च ज्विग्घ, रूक्तत्व शुरर से ह्दी होता रे 5 तक

सिग्ध, रूच अपययों कर ख्छेप दो मकार से द्वोता है। एक सजातीय कै साथ गैत्‌ म्विग्धका स्षिग्ध के साथ या रूत्ते का रक्त येः साथ और दुखरा पिजातीय के साथ अथीत्‌ स्िग्ध का रत फे साथ भ्येर रूच का स्तिग्ध के साथ। श़्लेप का अर्थ दे सधी, सयोग या मेल | उनका यन्‍्य कैसे गण याले अवयर्चों से होता है और किस से नहीं दोता दे इसका विविधान आगे के सूत्र से करते ३२९

नजबन्यमुणानाम (0३३७ गुणसाम्ये सदशानाम्‌ 0३१४७ , हयधिकादिगुणानातु 0 ३५॥

श्रथ--जघन्य श॒ुण वाले स््धि ओर रू आअययर्पों फा चरस्पर पन्‍्ध नहीं दोता रेरे |

ग़ुण की खामान्यता होने पर सदश उन के अवयर्बों का अयोध्‌ रूत्तका-रूचके साथ ओर स्लिग्ध का स्विग्थके साथ नही द्वाता रे७

3 दो आदि से अधिक गुण याले अयपयों का सजातीय सथा विजञातीय से यन्‍्ध छोता है ३५ विधेचन--प्रस्तुत सत्र में अथम छुत्र रेस निये यहै: तदनुसार यदि परमाणुं में स्विग्वस्व, रूकृत्य अश जघन्य दो एसी अवस्था में उनका परच्पए उन्ध नहीं दोता + इस जिपे

५: रेऐ2 3 च्वाथंत सूत्र

घाथक सत्र से यह फलित होता है कि जिन परमाणुओं का स्निग्य ओर रूच्तत्व अश मध्यम ओर उन्कृए्ठ संख्या चाला हो उन का परसूपर बंध होता है | परन्तु आगे सृत्त वे ३४ में इसका भी अपवाद है. कि समान अश चाले अथोत्‌ ज्ञिन सदश अबययों का स्मिग्धत्व, रूच्तत्व गुण सामान हो उनका भी परम्पर वेध नहीं होता इससे यह सिद्ध होता है कि असमान गुण याले सदशः अवययों का बंध होता है परन्तु इस फलिताथ में भी मयादा रही हुई है जिसको सूच में (४४) से घगरट करते हैं. कि यदि अख- मान अशवाले सचदश अचयवों में भी जिन अचयर्नोाों ऋा म्तिग्धत्य, रूचन्च गुणांश, दो अश, तीन अश, चार अशादि अधिक हो तो उनका परस्पर बंध हो सकता है अन्यथा दूसरे की अपेत्ता जिसका शुण एक हो अश अधिक है उनका परस्पर वंधः नहीं होता

' घस्तुत तीनों सूत्रों में वेतावरीय, दिगाम्वरीय परम्परा के अनुसार पाठ भेद तो नहीं है परन्तु अथ भेट होता है उनमें झुख्य तीन वाते ध्यान मे रखने योग्य हैं। (१) जघन्य गुण परमाणु पक संख्या बाला हो उसका वध हो सकता है या नहीं. ? (२) पेंतीसथे सूच के आदि शब्द से तीन आदि की संख्या लेनी या नही? (३) पंतीसबे सूच से दंध विधान केवल सदृश सदश अचब- यचों का मानना या नहीं ?

(१) भाष्यचृत््यानुसार जघन्य शुण वाले परमाणुओं' का. चेंच निषेध है ओर एक परमाणु जघन्य गुण वाला हो और दूसरा जघन्य गुणवाला नहीं तो भाष्यबृत्ति के अनुसार बंच हो सकता है। परन्तु सर्चोथसिद्धि आदि दिगास्वरी व्याख्या के अलु- सार जघन्य गुण युक्त दो परमाणुओं का पारस्परिक बंध के.

आअ० ४५ खू० ३२०३५ | ( >११ )

समान एक जघन्य गुण परमाणु का दूसरा अजधघन्य शुण परमाण के साथ बध नहीं होता

(२) भाष्यक्षत्ति के अछुसार पतीखन सत के आदिपढ से पक अवयव से दूसरे अवयव का स्रिग्थ, रूच्ष॒त्व अश तीन, चार यायत्‌ सस्याता, असस्याता, अनता भी अधिक होतो चध दो' सकता है मात्र एक ही श्रश अधिक होने से यध निपेध है परतु दिगाम्वरीय आज्ञाय की सव याय्याओं में मात्र दो अश अधिफऊ द्दो उसीका परम्पर यध माना हे / पक अश के समान! तीन, चार से यायत्‌ सख्याता, असय्याता, अनता अश अधिफ वाले अवयवों का भी बच निषेध माना दे

(३) फ्तीसचें सूत की भाष्यद्रत्ति से दो, तीन आदि अश अधिक होने पर जो वध विधाा उताया टै। चद्द सदश अबयवों के लिये है परतु दिगास्यरीय व्याप्याथों में चहा प्रिवान सदश, असहश ढोनों के लिये टै।इल अवमेद के फारण दोना परपराओं मे यथविषयक जो विय निषेध फलितारथ द्ोता है उसको कोण

द्वारा बताते है. सघा वसिद्धआदिसे भाष्यउत्तिसे पिस्न सा प्रपनश संब्य | असब्य » * प्रकाधिक नहीं | नहीं। नहीं | नहीं हे» हू यो अधिए नद्दी नहीं | नहीं | दे ४. + तीन शावि अधिक [नही [नहीं द्दै हः जघ येतर + समजघयेतर | नहीं [हर्दी है दि £ +»५. » पका धिक जधयेतर नदी नहीं चही | है नहीं नहीं| नहीं | दे » दोश्रधिकजधयेतर | है है| दे है ८». तीमआटि जधयेतर नहीं नहीं ' व]

( २१४ ) तच्बादे खन्च |

स्िग्धत्व ओर रूचत्व दोनों स्पशी अपनी अपनी जाति फी अपेक्षा एक एक रूप हैं | तथापि परिणाम की तास्तम्यता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं| जपधन्य स्मिग्घता आर जघन्य रत्तत्व सथा उत्कृषठ स्विग्थत्व ओर उत्कृष्ट रुत्षत्थ के चीच अनंत अशों का चसारनस्यत्व भाव रहा हुआ है जसे-गाय, बकरी, भेड़ ओर ऊँटनी के दघ में ह्लिग्घत्व का न्‍्यनाधिक पना पहता है| स्लिग्वत्व भाव सघ मे है परंतु वह न्यूनाघिक रूप से हे सब से न्यून अवधिभाज्यरुप अश को जघन्य कहते ह' | स्विग्धत्व ओर रुज़नत्व के परिणामों का आविभोज्य अश जपघन्य कहलाता है. ओर शेष जघन्येतर कहलाते है इसमें मध्यम ओर उत्कए्ट सेख्या का समा- वेश है जघन्य से एक अंश अधिक ओर उत्कृष्ट से पक ओअश न्यून मध्यम संख्या कहलाती है जघन्य क्री अपेक्षा उत्हार्ट अनन्त 'गुणाधिक है इसलिये स्विग्धत्व ओर रूत्तत्व परिणाम के तारतम्य- स्व के अनन्त सेद होते हैं। पूर्वोक्त परमाणु ओर स्कच्धों के जो स्पश, रसादि गुण है वे कया व्यवस्थित रूप से रहते हैं. या झष्यवस्थित रूप से. ? ऊत्तर-वे परिणामी होने से अव्यवस्थित रहते हैं' तथापि चध्य- मान अवस्था में किसी गुण के साथ केसी अवस्था में परिशणमन 'होते है उसको आगे के सूत्र से चताते हैं. ३३-३५

परिणाम स्वरूप बन्धेसमाधिको पारिणामिको १६

अथे--बन्ध के समय समग्रुण का समगुण के साथ से हीनगरुग आधक गुण के साथ परिणमन करने वाला होता है ३६

धर

अण० ४५ स॒० हे६ ( शुई )

विवैचन--च के विधि निपेघ का स्वरूप पूव सूत में

फह आये हैं। बहा सदश ओर असरश परमाणुओं का परस्पर

बध्ध्होता है | उनमें कोन से शण के परमाणु क्सि शुण में परि- शत होते हैं, उसका प्रस्तुत सन द्वारा पिवेचन करते है

समाश स्थत में सरश फा पथ तो निषेध डी है अथात्‌ समसण्यावाले शुणाश के साथ सदृश परमाणु (स्तिग्घ का स्लिग् के साथ और रुक्त का रुच्च के साथ) वघ निषेध कर आये हू और विसरश अर्थात्‌ रूच का स्ग्घ के साय स्तिग्ध का रूच्त के साथ धम्घ होता है जैसे “दो अश स्तिग्धघ, दो अश रूच अथवा तीन अश सिग्ध, तीन अश रूच्त | किसी एक समवाल्ते फो किसी भी समान गुणवाला अपने में परिणत करलेता है। अथोत्‌ द्रव्य, क्षेत्र काल भाव के अनुसार कसी समय स्निग्न रूच्तपने ओर रूच्त स्निग्धपने चद्ल जाता है | पर-तु अधिकाश स्थल में द्वीनाश अधिक अश में सम्मिलित होता है | जेसे --पचाश स्निग्घत्व तीन अश स्निग्धत्व को अपने स्व॒रूप में परिणत फरता है। इसी तरह पाच अश स्निग्धत्व तीन अश रूचको भी स्वरुप में बदल लेता है, अथात्त्‌ रुक्षेत्थ स्निग्धत्व रूप में बदल जाता है, ओर जिस समय रुछ्य गुण की अधिकता होती है. उस समय रिनिग्धत्य रूचत्घ स्वरूप बनजाता है तात्पये यह है कि द्वीन गुण पने में परिंणत होता है ३६

पूर्व प्रकरण (झ० सच हे में ) घर्मादि चार शरीर जीव द्ृच्य पा फ्थन पर आये है उनपी सिद्धि कया केवल उद्देशमान (नाम सकीर्तन) से दी है ? नहीं नहीं लक्षण से भी सिद्ध है यवा

4६ २१४ ) तत्वाथ सत्र

द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायवद्‌ ठरव्यम ३७

अर्थ--जिसमें गुण ओर पयोाय हो घह द्वव्य है ३७ ॥! विवेचन -द्वव्य का उल्लख प्र कई खतन्नों से कर आये हैँ। अब इस सूत्र से उसका लक्षण वतलाते हैं ॥॒ जिसमें गुण और पर्याय हो उसको द्वव्य कहते हैं. पत्यक ह्वब्य अपने अपने परिणामी खमाव के करण से निमत्त प्रकार 'भिन्न भिन्न रूप को प्राप्त करता है. अथोत्‌ विविध परिणाम प्राप्त करने की जो शक्ति है उसी को गुण ऋहते हैं ओर ग़ुणजन्य परि- णाम को पर्याय कहते हैं. गुण कारण है ओर पर्याय कार्य है प्रत्येक द्व्य में शक्ति रूप से अनन्त गुण रहे हुए हैं. | ग्रुण का 'खरूप इसी अध्याय के सूत्र ४० वे में चताया जायगा | चस्तुः चह्द 'दुब्य के आश्रय भूत अविभाज्य रूप है प्रत्येक गुण के भिन्न समय सम्प्राप्य त्रेकालिक पर्याय अनन्त हैं. | द्वव्य आर उसकी अश रूप शक्ति उत्पन्न ओर नष्ट नहीं होती इसलिये नित्य अथोत्‌ अनादि अनन्त है। परन्तु प्योय प्रतित्तण उत्पन्न आर विनिष्ट होने के कारण व्यक्कतिशः अनित्य अथोत्‌ सादि सान्‍त है और प्रयाह की अपेक्षा से वह भी अनादि अनन्त ( नित्य ) है। किसी कारणभूत एकशक्ति द्वारा डव्य में होने वाले चेकालिक परयोयप्रवाह सजा- तीय कहलाते हैं| एवं द्वव्य से अनन्त शक्ति है. तज्लन्य पर्याय भी अनब्त हैं. वे एक द्वव्य सें प्रतिसमय भिन्न भिन्न शक्त्ति से उत्पन्न होने वाले विज्ञातीय परयोयपेक्षा हष्टि एक साथ प्रवादद रूप से अनन्त हैं।परनन्‍्तु एक समय में एक शक्तिजन्य सज्ञात्तीय ययोय एक ही होता है, अनेक नहीं हो सकते.

आ० खू० ३७ ( २१५ )

आत्मा आर पुहल ये दो ठप ऐसे है कि थे अपनी शक्ति द्वारा अनेक रूप में परिणत हुआ करते हैं। आत्मा चेत नादि अनन्त शुण और ज्ञान दशनादि विविध उपयोगों बाला है | 'चुहल में रूपादि अनन्त गुण थेगर नील पीतादि अनन्त पर्याय स्हेहुए है। आत्मा चतन्पादि शक्ति छाश उपयोप रूप में आर पयुद्दल रूप शक्ति ठारा अनेक आकार आर नीलपीतादि रूप में 'परिणत हुआ करता है। आत्मद्वव्य की चेतना शक्ति आत्मद्रव्य से आर उसकी अन्य शज्तियों से पृथक नहीं द्वो सफती | इसी सरद्द रुपत्थादि शक्तति पुहल ढव्य से अर तद गत्‌ अन्य शक्तियों से पृथक नहीं दो सकती न्ञान द्शनादि भिन्न भिन्न समयवर्ती पवियिध उपयोगी का भ्रकालिक प्रवाह या फारण एक चेतना शफ्ति है| इस चेतनाशक्ति के द्वारा पर्याय प्रवाह से उप- योग० कार्य होता है इसी तरद्द पुष्टल ढव्य में रूपत्व शक्ति फारण भूत आर नीलपीतादि विविध वरण परयौय प्रयाद्द उसे शक्ति का फार्ये है। आत्म द्रव्य में उपयोगा-मकत प्रयोय प्रवाह के समान खुस दु वेदनात्मक पर्याय प्रवाद, प्रत्यात्मकः पर्याय श्रधाद आदि अनत पयाय प्रवाह एकसाथ प्रयाद्धित हुआ रते हैं उस काय भूत पर्याय प्रचाद्दों की कारणम्रत शक्ति पृथक पृ थक मानने से श्रमत शफ्ति सिद्ध होती है | इसी तरद पुहल द्वब्य में भी रूपी 'पयाय श्रवाद्द के समान गध, रस स्पशोदि अन-त पयाय धवाद सदा ध्रयाद्धित रहती दे ।इन सत्य प्रवादों की कारण भूत गक्ति पृथक मानने से पुइल में भो रूप शक्ति के समान यथ रस स्पशादि अन-त शक्तिया सिद्ध दोतो हैं। झा म।म चेतना, आन यीयददि शक्तियों स्वरूप की भिन्न विविध ( अनेक ) पयाये प्रति समय अवादित रदतों दे, परस्तु पत्र चेतना शक्तति या पक आन द्‌ शक्षित

( २१६ ) ' तत्वाथे सूत्र

की उपयोग अथवा वेदना पर्याय एक समय अनेक प्रवाहित नहा रहती क्योंकि एक समय में प्रध्यक शक्ति की एकहीं पर्योय व्यक्त ( प्रगट ) हुआ करती है इसो तरह पुल में भा चाल, घीतादि अनेक यरययायों में एकेक शक्ति की एकेक प्रयोय एक समय रहा करती है जिस तरह आत्मा आर प्रहल नित्य है उसी तरह चेतना और रुपादि शक्षितयां भी नित्य हैँ परन्तु चेतनाजन्य उपयोग पर्याय और रूप शक्तित जन्य नील पीतादि घयाय नित्य नहीं हैं. किन्तु उत्पाद, व्ययशील होने से वक्तिशः अनित्य है तथापि प्रवाह की अपेक्षा से चह नित्य है

आत्मा अनन्त गुणों के समुदाय का एक अखंड द्रव्य है। परन्तु छझ्मस्त ( साधारण चुद्धि वाले ) की कल्पना में इसके चेतन, आनन्द, चारित्र, वीयोदि परिमित गुण ही आह्य हैं। समस्त सुर्णों, का अववोध छदञ्मस्त को नहीं होता | इसी तरह पुद्दल के भी रूप, रख, गंध, स्पर्शांदि परिमित गुण ही अववोधित होते हैं। आत्माः तथा पुल के समस्त पर्यायों का प्रवाद्द विशिष्ट ज्ञान (केवल ज्ञान) के सिवाय नहीं जाना जासकता जिन पयोगय थघवाहों कोः साधारण वुद्धि वाले जान सकते हैं. उनके कारण भूत गुणों कए व्यवहार होता है | जलेः--चेतन्य, आनन्द, चारित्र और चीयीदि आत्मा के गुण कल्पना, विचार ओर बचन हारा प्रगट किये जाए सकते हैं | इसी तरह पुद्ल द्रव्य के भी रूप आदि श॒ुण प्रगटरूप है शेप अकल्पनीय गुण हें वे केवली गस्य हैं

अनन्त गुण, अनन्त पर्याय के समुदाय को द्रव्य माना है। यह कथन भेद सापेक्ष है अभेद दृष्टि से पयोय है चह गुण: खरूप है गुण द्रव्य खरूप है अथोत्‌ शुण पर्योयात्मक ही द्रव्य है। दृष्य में गुण दो प्रकार के होते हैं. एक साधारण ( सामान्‍य 3

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कट छू सू० 48.३६ ] 6 २१७ | दूसरा असाधारण (विशेष) जो शुश है चह संघ ठव्याँ में सामान्य रूप होता है | जेसे--अम्तित्य, द्व्यत्य, अगर लर्धु स्थादि आर जो विशेष गुण हैँ थे किसी द्रव्य में दोंते हैँ और किसी में नहीं भी दोते | सैसे--चैतन्यत्य, रूपत्यांदि-असाधारथ सुण और तज्जन्य पर्याय के कारण दी अत्येक ठय की पृथफता है। घर्मास्तिफाय, अधर्मास्तिकाय ओर आकाशास्तिकाय द्ब्य के भी शुण, पर्याय की व्याख्या पूचवत्‌ जीव, पुहुल के समान करलेनी विशेषता यही दे कि पुद्वल ठृव्य रूपी है और शेष अरूपी दे और पुद्ल द्व्य गुरू लघुगुण बाला दे ओर शेप द्वव्यों का अगरलघु गुण है ३७ काल का स्वरूप कालश्रेत्यके ॥| ३८॥ सोज्नन्तणमप्य, [[ अथ--कोइ आचाये काल को भी द्रव्य कद्दते है ॥३८॥ * ओऔर चद्द अन-त समय घाला है ३६ घिवेचन--पदले इसी अध्याय सूत २२ में काल के चर्त नादि पयायों फा वगन कर आये दें परन्तु वद्दा रब्यत्थ विधान नहीं है द्वव्यत्व विधान विषयी उपरोक्त सूप है ओर उसके विधेचन में ( धर्माधमोफाशजीव पुह्ल ) पाच पदार्थों ठ-यत्य विपय सब की एक मान्यता होने से एक्द्दी सूत्र से उनफी

बेयायया फी गइ है और काल के प्रव्यत्व विषय मत सेद होने से खून्नकार यथा अनुक्रम पृथक सूत्र स॑ उसकी व्याय्या फरते दें

सूघफार या घथन है कि यइ आचार काल को टव्यत्व रूप मानते इसका तात्पय यह होता है क्वि पस्तुत अयवात् चास्तविक रूप से केवल स्वतन्न दृब्य रुप सर्च सम्मत नहीं है

सूतन्चकार ने काल फो पृथक छव्य मानने घाले आचायों के मतका निराकरण नहीं किया, कितु बन रूप से फधन फरते

( शश८ ) तत्चार्थ सत्र

हुए आये सूत्र से कहते हैं कि दह अनन्त पयोय बाला है| बते नादि पर्यायों का खरूप हम परदते समझा आये हैं ( आअ० सत्र २२ ) वर्ना काल का समय रूप पयोय॑ तो एक ही है. तथापि

खगतीत, अनागत समय पर्याय अनन्त हे इसी लिये काल को झनन्‍्त पर्याय चाला कहा है ३८-३६

गुणु स्वरूप याश्रया निगुणा गुणा: ४०

अथ--जो द्वव्य के आश्रय में रहे ओर स्वयम निर्मुण हों वे गुण हैं ४० ; विवेचन--द्रव्य के लक्षण गुण का' कथन ( झ> खु० ३७ ) है इसलिये अब गुण का स्वरूप बताते हैं ;

यद्यपि पयोय भी द्रव्य के आश्रित ही हैं ओर निर्गेणभी हैं. तथापि वह उत्पाद विनाशशील होने से सदा अवस्थित रूप नहीं है. आर गुण सदा अवस्थ रूप से रहता है यही गुण ओर पयाय में अन्तर भेद है

दृव्य की सदा चवतेमतन शक्ति जो परयोय की उत्पादक रूप है उसी को गण कहते हैं गण से अन्य गुण मानने पर अनावस्था दोप उपस्थित होता हे ।इसलिये द्व॒व्यनिण्ठ अथात्‌ द्रव्य में रही हुई शक्कि रूप गण को निर्गुश माना है | आत्मा के चैतन्य

सम्यक्त्व, चारित्र, आनन्द, वीयादि और पुद्ठल के रूप, रस, गंध, स्पशोदि अन्त गण हैं ४०

परिणाम का स्वरूप तड़ावः परिणाम: ॥४१॥ खअध्य--उत्त्पाद व्यय सहित स्वस्वरूप में स्थित रहना परि-

शाम हे ४१ विवेचन--चत्त ग्रान अध्याय के खत २२-४६ आदि से

परिणाम शब्द कह आये हैं उसका वास्तविक क्‍या अर्थ उसको शास्रकार सममाते है

4

नै

नआ० सू० छश ( रहृ६ )

बौद्ध दशन चाले वस्तु मात को्‌ क्षण स्थायी ( निरन्चय “विनाशी ) मानते हैं इनके मन्तव्यासुसार परिणाम का अथे उत्पन्न दोके सर्वथा नष्ट होना है।। नाश के पश्चात्‌ उस ब्रस्तु का कोइ भी तत्व अवस्थित रूप नहीं रद्दता शा नयाग्रिकादि दर्शनवाले शुण ओर छव्य को एकान्त भेद रूप से मानते हैं। इनके मताछुसार परिणाम का फलिताथे ज़बयथे् अविरूत ( विफार भाव को नहीं दोने घाले ) द्वव्य में गुण का आत्पाद, व्यय होना दै। उफ्त दोनों पत्त आर जन मनतब्याजुसार परिणाम स्परूप के सम्पन्ध में क्या विशेषता है उसको प्रस्तुत जज द्वारा चताते हैं $ कोइ भी द्वब्य या गुण ऐसा नहीं है जो सवेथा अधिकृत रद सके | विश्त अथात्‌ अन्य अवस्था फो प्राप्त करता हुआ कोई मी द्वाय या गुण अपनी मूल जाति ( स्वभाव ) का परिव्याग नहीं करता निमित्त पाजर मिन्न अय्य्था को ध्राप्त दो यही द्रव्य आर गुण का परिणाम है| आत्मा मलुप्यत्व या पश॒ः पक्षी आदि किसी भी अवस्था में दो परन्तु बचद्द अपने आत्मत्व ( चतन्यत्य ) का परित्याग नहीं करता इसी तरद्द उसके गुण, पयाय में भी चेतनत्य भाव रद्दता है। शानरूप साकार उपयोग हो अयचधा दशन रूप निराकारए डपयोग द्वो | घट विपयक झान द्वां या पटविपयक शान दो परन्तु इन सथ उपयोग पयोयों में चऔैतनत्य कायम रहता है डसुका पम्वितेन कदापि नहीं होता। पद अ्परिवतेनशीत है एच पुद्दल द्वप्य भी ठयणुक, ध्युणुक आदि किसी भी अयस्था मं दो और

सिनश्नयम्था में परण, गन्व, रखादि पयाय भी परिवतेन हुआ करते है परतु परत अपने जडत्व, मूतित्य स्वभाव का परित्याग नहीं फरता। इसी तरद प्रत्येक हुय अपने यत्व गुणत्व से च्युत नहीं होते हुए पयाय परियतेनशील अपस्था को परिणाम कहते दे ४१॥

/ 5 |

[ ११. शा हो हा २६० ) तत्वाथ सच ।: हाफ जुछ 2 जे प्रणाम कू. भेद :, 7: श्रेनादिएदि 'माश् ४२ रूपीषवादिमान्‌ | ७४३ - * योगोपयोगोजीवेपु ' ”' * ' ॥४४॥

न” नकल पर्ग्प

' अशथैे-परिणाम के दो भेद हैं अनादि, ओर आदि- आन ४२ '. रूपी दव्ये आदिमान परिणाम चाले होते हैं ४३ जीवों में योग ओर उपयोग आदिमान हैं ४४७॥ 'विवेचन--जिस काल की पूर्वचछोटी जानी जाय उसको अनादि, ओर जिसकी पूंवेकोटी जानी जाय उस को आदिमान कोल कहते हैं| परिणामी स्वभाव के दो भेद हैं. एक अनादि यरिणामी स्वभाव, दूसरा आदिमान परिणामी स्वभाव जिसमें अआरूपी द्वव्य ( चर्मांधमाकाश जीच ) अनादि परिणाम चाले छीतें हैं. परन्तु जीवों में उक्त दोनों भेद पाये जाते हैं.

रूपी पुद्दल द्रव्य आदिमान ( स्रादि ) परिणामवाले होते हैं उनके अनेक सेद्‌ हैं. जेसे-स्पश परिणाम, रस परिणाम शन्घ परिणाम इत्यादि ४३

प्रस्तुत सूत्र ४३ से यह सूचित होताहै कि रूपी द्वव्य के सिवाय जो अरूपी दृव्य हैं उन सबसमें अनादि परिणाम होते हैं परन्तु आगे सूत्र ४४ सें उसका निराकरण करते हैं कि जीव चद्यपि अरूपी है तथापि उसके योग, उपयोग हैं. वे आदिमान सूद ) पन्णिम वाले है ओर शेप स्वभाव अनादि परिणाम हैं.

जिससे उपयोग का स्वरूप प्रथम (अ०२ सूत्र २७ मे, कह चुके हैं योद्य का स्वरूप अगस्त अध्याय खत से कहेंगे ४४॥

हि कृति तच्वाथ सत्र के पांचवे अध्याय का हिन्दी अनुवाद समाप,

+

7:00 - है?! ( ०५» )

फूल, बाय कै # कै के # का के कप

जज नर ऐड है.

57 ग्रष्याय ' छट्टा # '

अर हैं. # है मी है फेज जोब, अजीवफा निरूपण फर छुफे | अब क्रमश आश्रद्‌ द्वार का निरूपण करते हुए सपधारम फरते हैं

काययाइूमन फरमेयोग से आख्रब' १॥ ।*

अथैे- काय चयन और भनकी फ्ियाको योग कहते ओएर फर्म यनन्‍्ध के काण्ण से वे ( योग ) आश्रय सेंशक हैं १-२७

पघिवेबन-घीयान्तरायके क्षयोपशम या चयसे अथवा चुदलोंके आलम्बन से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द अथोत्‌ स्वनादि- शेष योग फहलाता दे आ्रालम्पन भेद्से उसके मुझ्य तोन भेदहैं (१) काययोग (२) वचन योग (३) मनयोग ओदारिकादि बर्गंण योग्य पुहलॉकि आजलस्पनसे प्रवतेमान दोनेवाले योगोंफो काययोग फद्दतेद, मतिश्वानावण, अज्ञस्थतावर्णादे फर्मछि क्ञयोपशम्सें आन्तरिक (भाष) घागलव्ध उत्पन्नद्दोतेदी वचनवगणाके अरलम्ध- नसे भाषा परिणामका ओर अभिमुण आत्मये प्रदेशोक्ता परि- स्पन्दृसप्रकम्प द्वोता दे उसे चचायोग कद्दते दें, नोइन्द्रिय जन्य 'मतिशानावर्णी के क्ययोपशम रूप आन्तवरिक लीचघ प्राप्दौरेंद्री

मनधर्गणा के आलस्पनसे मंनपरिणामकी ओर आत्माका जो प्रदेश अकम्पद्दोता हे उसे मनयोग बदते हैं

उक्त सीनों योग आश्रय कदलाते हैं. | योगोंक्ी आधव कयहनेका कारण यद्द दे कि इनके द्वारा कर्मयन्घ दोता दे जैसे--

| श२२ ) तत्त्वार्थ सत्र

जल्ाशयमें पानीका आगमन नाली.वा किसी भोत द्वारा होतांदे इसी तरह कमोंका आगमन योग नेमेत्तिक होने से इनको आश्रव कहते हें १-२॥

योगों के भेद ओर काये

शुभः पुरयस्थ ।| अशुभः पापस्थ

अथै--शुभ योग पुएय वन्धक हेतु है ॥॥॥ अशुभ योंग' थाप यन्धक हेतु है ४॥

विवेचन--डक्‍्त ( काय, चचन, मन ) तीनों योग शुभ ओर अशुभ दोनों प्रकारके होते हैं | योगोंके शुभत्व, ओर अशुभ- स्वका आधार भावनाकी शुभाशुभता पर निर्भर है। अथोत्‌ शुभो इ्ेशकी प्रवृत्ति शुभयोग और अशुभोदेश की घब्त्ति अशुभयोगहै

कर्मवन्‍्धकी शुभाशुभता पर योगकी शुभाशुमतावल्लम्वित

नहीं है क्‍योंकि आठवे आदि गुणस्थानोंमे है झभयोग परदृतमान होते हुए भी अशुभज्ञानावरणीयादि कमवन्ध होताहै इसके लिये दूसरे ओआर चोथे हिन्दी कमेश्रन्थमें गुणस्थानकपर वन्ध विचारणीय है

हिसा, चोरी, अब्ह्मादि कायिकव्यापार अशुभकाय- योग, ओर दया, दान, श्रह्मचयोदि शुमकाययोग हैं सत्य किन्तु साहवदभाषणु, मिथ्याभाषण, कठोरभाषणादि अशुभवचनयोगहें,. सत्य निर्वेद्रभापषण, मद तथा सभ्यादिभापण शुभवचनयोगहें दूसरा के अहित तथा वन्धका चिन्तचनादि कमे अशुभमनयोगहै हित तथा उन्नतिके विचारों को शुभमनयोग कहते हैं.

शुभयोगका काये, पुण्यप्रकृत्तिका बन्ध और अशुभयोग- का कार्य पापप्रकृत्तिकावन्ध, जो अनुक्रम से ४२ और ८२ प्रकारका

अआ०् द्सू० (६ १९३ ) जिसका संचिस्तार वर्शन चौथे कर्म प्रथमें ' तथा आगे , प्रस्तुत खजका विधान सापेक्ष समझना चाहिये, कारण सफक्‍लेस ( कपाय ) की मद॒ताके खमय योग शुभ दे ओर उसकी क्ीमतामें योगश्रशुभ कह लातेद जैसे +अशुमयोगक, समय भी अथमादि गशणस्थानों में ज्ञानावरणयादि पाप तथा पुण्य प्रंरुृतियों का यथा सभ्मय वन्‍्ध होता है उसी तरद छठ्ठे आदि शुणस्थानों में शभयोगके समय भी पुएय, पाप दोनों प्रकत्तयोंफ यथा समय चन्घ है हल मर प्रश्न--तपतो पुएय बघकफा शुभयोग आर पापवधका अशुभ योग जो कारण यतायादैे बद्द असगत है £ ! उष्तर-भस्तुत विधानमें मुस्यता अछुभाग (रस) वेघकी अपेक्षा समझी चाहिये। शुभयोगकी तीमतौके समय पुण्यप्र शत्तिके अस्यभागकी मात्रा श्रथ्िक दोती है और पापके रसकी मात्रा न्‍्यून द्ोतीहें इसी तरद्द अशुभयोगकी तीघ्रताके समय पाप प्रकृत्तिके रसकी मात्रा अधिक अप्र पुण्यप्र>स्तिके रखकी मात्रा न्यून होतीदे परन्तु दोनों 'प्रदतिया का बध प्रतिसमय धुआदी सरता है। सूप मारने अधिकाश ग्रदए करके सूत्र पिघान क्लिया है द्वीन मायाफी विधिसा नहीं वी | न्याय शास्त्र भी कहा है- प्रधान्येनव्यपदशा #वन्ति” ओर लोकिकमें मा वाह्रयताके व्यय द्वारका नियम भसिद्ध दी है ३-४

स्वामा तथा फल भेद हा अर सकपायाकपाययों, सपसयिर्यापथियों ५॥ , अधथे--कपाय सद्दित और क्पाय रदित आत्मा का योर

४२४ हल्पाथ गज

यधाक्रम सेप्रायिक औआरे रिबाप्शकी विश्यहिलुरे, कामरयेंध ( ग्राधय ) शोता है

विधेधन--जित मे फोल, सोम बाचायवित चुगग घष् सकपाय आर जिसमें उक्त कोसादि ने ही उसको कशयरडिंल कहते है। प्रथम गंशब्थासथा रे यायत इणये महाश्यागपा शुयप्ख ज्ञीव न्यूनाथिक धमा्गोस साफ्पाशी होल हईह पवाश रशधरर्आग गगास्थानकसे चादाय गगास्थासन के परयेन्त धफपागी हाले | )

आअप्माफों पराशयवारनेधाले वंश सम्धरायिकरामेण ड- | ज्से:--मिकछासखरे हारण शरीर था घहपर पक शिया जाता है, उस तरह यागद्राग शाफ्एफ्रम, धिपायोदशगा आर्य आत्मा साथ सम्बन्धितापे के स्थित॒द्ोंने हैं. उसीका सम्पराय्िक- बम फहते है, आर ब्रिना चिकनाखवाले शंदेपण/ गरहीदहुई शज हिलाने से तुरंत गिर्जातीदे इसी तर ऋषायके धमायले फेयल योगारहृएकम आत्मासे तुरत शलगठीलतें हैं उसको इयॉपथ कम कद लेएँं | इसकी स्थिति ऋचल दी समयदत्ती मानीगई

सकपायीशात्मा फायिकादि तीनप्रकारदे। योगोेलि शुभा- शुभकम बान्थते एं, उसकी न्‍्यूनाधिक म्थितिका आधार ऋपायफी तीघता, मन्दता पर निर्भर है आर था संभव शुभाशुमभ विपाकफ का कार णभी होताहे, ज्ञो कपायमुफ्तात्मा सीनंप्रिकारके योगोसे कर्मवांघतेदें, वे कपाय अभाव के कारण विपाक जन्य नर्टीहोंते ओर उसका बंध काल दो समयसे अधिक नहीं दोता हमफों इयोपथिक कहनेका कारण यहदे कि केवल इयोन्‍्गमनादि योश- प्रवृत्तिदाारा ही कमंवनन्‍्धहोताहै। यद्यपि सवजञगह तीनोंप्रकारके योगोंकी सामान्यताहे, तथापि कपरायजन्य,न होने से उपाजित कर्मों का स्थिति वध नहीं होता, अथोत्‌ गप्नागमन | बोगप्रबृत्ति

अ्छ्डे

खाते

झ० खू० <-६ ( श२५ )

कम को इर्यापथिककर्म कहतेदँ स्थिति आर रस बघका कारण कपाय है और यद्दी ससार की जड है॥ श॥

सपतयिक आाश्रव के भेद श्रयतक्पायन्द्रियक्रिय पश्चचतु पंश्चपश्व-

पिशति सगय। पयस्‍्य भेदा' है. अयधै-प्रथम (सपरायिक) आश्रवके चार नेद हैं अवते, कपाय, इन्ठिय आर क्रिया इनके उत्तर सेदों की सप्या अनुकमसे पाच, चार पाच, पच्चीस है)

विवेचन-पाचर्वे सूत्र पाठके अनुकमसे प्रथम सम्प्रायिक आश्रवके मेद प्रभेदोंका वर्तमान खूप्से बणुन करते हैं उस सम्प्रायिक कर्म आ्राश्रव के मुप्य चार भेद ओर उत्तर उन्नचालीस (३६) भेढ हैं आर तीन योगों को पूर्व सूत्र में फद्द आएएें एवं ४२ भेद्‌ आश्रवकेहें यथा--

(१) हिंसा, असत्य, चोरी, अन्नह्म आर परिश्रह ये पाच अमत हैं. इनका वणन अध्याय सूत < से १२ पर्यन्त है

(५) क्रोध, मान, साया और लोभ ये चार फपायहें इन का विशप स्परूप अ० < सूत्र १* लिया है।

(३) स्पश, रख, घाण, चद्चु ओर घोष पाच इन्दियोंफा अधिकार अध्याय सूत्र २० में कदआये हैं घतमान सूत्र में इन्द्रि: योंका अथे राग, द्वप युक्त पवृत्तिहे केचल बिना राग द्वेष के आकार मात्रसे द्वी कमेबधनदींदोता अस्तु ग, डेपकी प्रवत्ति डी कमंचयक्का कारण है

(9 ) पच्चीम क्रियाओं के नाम और लक्षण?

(१) सम्पकत्यक्रिया >देव ग़र घवकी श्रद्धा पूरे पूछा,

+

+

२२६ ) तच्चाथ खत

सक्ति आदिकरके सम्यक्‍त्व पोषण. (२) मिध्यान्व क्रियान्मिध्या- त्वमोहनी प्रवद्धक सरागता (३) प्रयोग क्रिया+-शरीरादि द्वारा उत्थानादि सकपाय घवत्ति, (४) समादानक्रियाः--त्यागी दोके अववत्तिकी ओर प्रवर्तमान होना, (५) इर्यापथिकर क्रिया: जिस- क्रियासे दो ही समयकी स्थितिका कमवन्बहोंता दे. '%। कायकी क्रिया--डुष्भावसहित, प्रयलशीलहोना, (७) अधिकरण क्रियाः- हिंसाकारीसाधनोंको अहणकरना, (८९ प्रदोपक्रिया+-को धके आवे- शसे होनेवाली क्रिया (६) परितापनक्तियाः-पराणियोंकोी सेताप- देना, (१०) प्रायातीपातक्रिया -प्राणियोंक प्राणों ( पंच इन्द्धियः मन, वचन, कायवल, श्र्वासोश्वास, आयुप ये दशप्राण हैं ) दो इडइनन करना, (११) दशनक्रिया:-रागवश होके रूपादि देखने की अवुत्ति, (१२) स्पशनक्रिया--ध्रमादचरश होके स्पशनकरनेयोग्य चस्त॒के स्पशनका अनुभवकरना, (१३) प्रत्ययक्तिया“-नवीन शर््रादि चनाना, (१४) समन्ताजुपातन क्रिया पुरुष, स्त्री, पश्ुु आदिके आवागमनादि स्थान पर मलसूत्राद्रि परित्याम करना, (१५) अनाभोग क्रिया--विना देखे प्रमाजन किये स्थान पर शरी+ः चा छिसी वस्तुको स्थापित करना (१६) स्थहृस्तक्रिया:-दसरे कऋ करने योग्य क्रियाको खयम्‌ करना, (१७) निसर्गक्तियाः-पापप्रव- ज्षिके लिये अनुमति देना, (१८) विदारणक्रियाः-ठसरेकेकियेहण पाप को प्रकाशित करना, (१६) आनयन अथवा आज्ाप्यापाद- क्रियाज-स्वयम्‌ पालनकरने की शक्तित होनेसे शास्रोक्तत आज्ञा के विपरीत प्ररूपन करना, (२०) अनवकाक्षाक्रिया-धतंता वा झआल- स्यथसे शार्रोक्त विधिका अनादर करना | (२९) आरभक्तिया-आ- रंभ समारंभ में रत होना (२२) परिग्रहक्िया-जो परिभश्रहकी चूद्धिके हेतुकीजाय (२२) मायाक्रिया-ठगी करना. (२४) मिथ्या-

झ० सू० ६-७। ( ऋर७ )

दश्शनक्रिया-मिथ्यात्य परिसेवन, (२५) अप्रस्याख्यानक्रिया-पापच्या-

पारसे अनिवृत्त दोना | डपगोेक्ल पच्चीस कफियाओंमें इयोपथकी क्रिया है घद्द

साम्परणायक आश्रवनहींहि यद्दा सथ क्रियाये कपाय प्रेरित होनेके कारण सम्पणयिकाश्रव कद्ठी वास्तयमें इर्यापथकी क्रिया ऋपाय॑ ज्रित नहींदे क्योंकि बह अकपायी अवस्थाहै परन्तु यद्दा फपाय प्रेरित कद्दा चह ग्याग्दयें गुणस्थानकसे पतितद्दोनेके अध्तसमयकी अंपेत्ता हैँ वस्तुत सब क्रियाएं मान्रकमग्नरण सापेक्ष समभजनीयाहिये उक्त सम्परायिक क्रियाओंके बधका फारण मुस्यतासे रागद्वेप (फ्पाय ) द्वी है तथापि कपायसे पृथफ्‌ अश्- सादि वनन्‍्ध कारणरूपसतमें बतायेहें, उनमें फतिपय अ्रघृत्तियाँ मुख्यतापने व्यवद्दारमें दिखाइदेती हैं उन (प्रदृत्तियों को सम्घरा

मिलापी यथाशक्ति समझकर रोकनेकी चेष्टा फरे इसीद्वेतसे उपरोफ्त (३४६) भेद ज्यि गयेहें ६॥

घन्ध-कारण समान द्वोते हये भी कम उन्‍्ध में विशेषना-

तीवमन्दन्नाताज्ञातमाव वीर्यधघिकरण पिशेष भ्यस्तद्विशेष ॥छो। अय--तीव्रभाव, मद्भाय, ज्ञातमावच, अशातमाय, घोये

ओर 'अधिकरणमेद विशेषसे “तत्‌ उपसोक्त उच्नचालीसमेद'

सहित सम्परायिकाश्रव के फम वधमें चिशेषता द्योतीदे

5 चविघेचन-प्रायातिपात, इन्द्रियव्यापार, और सम्यफत्व क्रियादि उपरोफ्त सूत्र घधकारण समान होते हुए भी तज्मन्य कर्मचधम किन किन कारणों से विशेषता द्ोतीहे उसीको वर्तमान सूत्र द्वारा चतलाते दैं।.. | |

चाधबन्धकारण समान होते हुएए सी परियामोंकी तीघता, मन्दताके फारण फर्मवधमें मिन्नवादोतीदे जसे-क्िसी पक वस्तु

( श्श्८ ) तत्त्वाथ सत्र ! प्‌ हे

| मा आभार | हि

को तीव्रवथा मन्दाशक्कि पूथेक देखनेवालेका विपय- तीव्र - ओर

न्द्‌ होताहै बैसे ही परिणामोंक्तों तीत्रतासे तीथ, आर मन्देतांसें मन्द बन्‍्ध-होताहै। पुनः इरादेपूथक जो क्रिया की जाय उसकी क्लात भाव कहतेहें | कोई भी क्रिया चाहे ज्ञात भाषसे हो. ग्रा अआज्त भावसे हो कमवन्ध अवश्य होताहे आर उसमें वाहाव्या- 'पार हिल्लादि प्रवत्ति समान रूप होतेहुए भी ततूजन्य कम्मवन्यर्मे न्यूनाधिक््ता होतीहे अथोत्‌ अज्ञात भावले ज्ञातमाववालेका कमे चंघ उत्कश होता है. जलेः-कोई व्यक्ति हरिनकों हरितसमभककर चाणसे मारताहै ओर दुमरा निर्जाव पदाथपर निशाना मारते हुए भूलसे हरिनको लग जाय, इन दोनोंमें भूलसे मारनेवालेके कम वंध से जान वृककर मारने वालेका कमेवंघ उत्कृष्ट होता है|

वीयेशक्लि विशेष भी कर्मवेधकी विचिद्रताका कारणहै, अलत्नात्तकी अपेक्षा निबेलका शुभाशुभ कर्मवंध सदेव मन्दहोताहि | जेसे--दान, सेघादि शुभकाये अथवा हिंसाचोरी आदि अशुभकाम चलवान पुरुष जिस उत्घाह के साथकरडालताहै उतना ही काम पनेबलपुरुष वड़ी कठिनाई से क्षीणमन होके करताहै. इसलिये चल्वानकी अपेक्षा निर्वेल का कर्ेवन्ध न्यून होता है

: , जीव, अजीव' अधिऋरण सेद्से भी कर्मवन्चर्म विशे- '-बता होतीहे इसका स्वरूप आगे के सूत्र से कहते हैं उपसोक्त कारणोंमे भी कपायिक परिणामोकी विशेषततापर कर्मवेधकी वचिशे-

'घबता नियोरितहै, इसीफे तशरतम्यत्वसे ऋतवन्चमें न्यूनाधिकता होतीहैे

4

अधिंकरण के भेद |..."

१४७ |]7] अधिकरण जीवाजीवाः | हे ॥॥

अ० स० <-१०। २०४ $ आय सरम्ममपारम्मारम्मासम्मयोंगक्तकों जा, रितानुभतकपाय विशेष ख़िख्रिखि अतुओ्रकश

निवेतना निक्तेप सयोगनिसरगा हिचतुद्वित्रिमेदा परम १५ 5. अथे-अधिकरण जीव आर अजाव रूप है

प्रथम जीव॑ रूप अधिफरण सरभम, समारभ, आरभ योग ( भन/ चचन काय, ) कृत, कारित, अमुमत ओर कफपाय (क्रोध, मान, माया, लोभ, ) सेद से क्रमश तीन तीन, तौन आर चार प्रकार के है ।॥ ६०

पर' अधथात्‌ अजीवाधिकर ण॑ नियरतना, निद्देप, सयोग ओर निसर् रूप भेद श्नुक्रम से दो चार,दो थार तीन प्रकार के टैं॥१०॥

पविवेचन--जिसके आधाए से कार्य होता दै उसको अधिकरण कद्दतेहें जितने शुभाशुम काय हैं थे जी एपाजीय उसय पच्त डा सिद्ध होतेहें केचल अकेले जीच अथवा अझजीव से सिद्ध नहीं होते, इसलिये कमेचन्ध पा साधन जीव, अजीय दोनों श्रधिकरण शस्त्र रुपहे आरचे द्वव्य तथा भाव रूप दो,दो प्रकार फे हैं व्यक्तियत जीव आएर वस्तु रूप अजीय-पुह्टल रुक नध फो दृव्य अधिकरण फद्दते हैं. आर जीवगत फपायादि परिणाम तथा वंस्तुगत अथे।त््‌ तल वारफी तीत्षणता रूप शक्ति आति को भाव अधिक्रण कद्दते हैं

जीप अधिक्रण के उपरोक्त सूत्नार्थ में क्रमश तीन, तीन, तीन, आर चार भेद बताये हैं उनके परस्पर यिकरप उठानेसे पक्साीआउमागे ( अवस्था पिशेष )होतेंह खसारी जीच शुम अथया अशुभ फिसी पक पचृत्तिम प्रयतमानहोतादे उस समय उक्त पक सा आठ अवस्याओंम से फ्िसी एक अवस्थामें अवश्यहोतादी

इसलिये वे अपस्थायें भायाधिकरण हैं। रे घरभादि जीव दसादि कार्यक प्रयलका आवेश (चिंतयन)

( २३० ) तत्वार्थ सत्र

करे उसको सरंभ कद्दते हैं, तथा उस कार्यके लिये साधन संग्रह करना समारंभ कहलातांहे आर कायम प्रवततमान होनेकी आरंभ कहतेहें अथात्‌ कार्य को संकल्पात्मक सक्तमावस्थासे पूर्ण प्रगट होनेतक तीनअवस्थाये मानीहें उन्हीं को खारंभ, समारंभ, आरंभ कहतेहें। और वे योगोंहारा होतीहै योग तीन प्रकार केदें, मनयोग बचसयोग, कायायोग कृत का अथे स्वयम्‌ करना, कारित का अथे चूसरेसे कराना अनुमतकाअथे किसीकायम सद्दमत होना आर क्रोधादि चार कपाय प्रसिद्ध ही हैं ससारी जीव दान, हिंसादि शुभाशुभ काय करते हें, उस समय क्रोध अधवा मानादि चार कपायोंमे से किसी एक कपाय “प्ररित अवश्य होत्तेहँ पश्चात्‌ चिन्तवनादि सारंभ, समारंभ, आरेभम को मन, चचन कायासे स्वयम्‌ करताहै वा कराताहे अथवा किये हुए कार्यम सहमतहोताहै, इसी के १०८ विकल्प होतेहें ,

परमारु आदि मूर्तिमान वस्तु द्रव्यअजीव अधिकरणहं आर जीवकी शुभाशुभ प्रचुत्तिम उपयोगित सूर्तिद्वव्य जिस अवस्था -मे चतेमानहों उसे भाव अजीव अधिकरण कहतेहं. प्रस्तुत सूच में ( निधवतना, निक्षेप, संयोग, निप्तग ) जो अजीव अधिकर के पुख्य आर भेद वतांये हैं वे भाव अज्जीव अधिकरणु के समझने चाहिये।

( १) निचतना रचना विशेष को कहते हैं इसके मूल गुण

गनिवतना और उत्त रगुण निवर्तना रूप दो भेदहें, सूल सुण निर्वेतना

घिकरण पाँच प्रकारके हैं, पुह्नल दृव्यकी आदारिकादि शरीररूप

रचना ओआर जीचकी शुभाशुभ पवृतक्तियोंमें अन्तरेगसाधनपने उप-

ग्ोगी होनेवाले मन, वचन, तथा घाण ओर अपान उत्तर गण

पबनिवतनाधिकरण काए, पुस्तक, चित्रकमादि जो रचना वहिरग स्ाधनपने जीवकी छुभमाशुभ पचुत्तिम उपयोगी होतीं

झ० सू० <८-१०॥ ( २३१ )

(२) निक्षप स्थापित करना, इसके मुप्य चार भेद हैं <() अ्रधत्यवेज्षित निलेपाधिकरण अथात्‌ बिना अन्येपण किये ( विनादेखे ) किसी वस्तु को कह्ठीं स्थापित करना | (२) दु प्रमा- पअज्ञत निेपाधिक्रण अथात्‌ देख फरके भी वस्तु चास्तविक रूपसे 'विना प्रमाजेन किये इधर उधर रसदेना | ५३) सद्दसा निश्तेपाधि- करण-अधथाोत्‌ देखी आर प्रमाजन की हुई घस्तुको शीघ्रता पूचेक किसी स्थानमें रखना (७) अनाभोग निक्तेपाधिकरण अथात्‌ पिना उपयोग फिसी घसुतु को कहीं रसना इत्यादि )

( ३) संयोग एकत्रित करना इसके मुख्य दो भद हैं. (१) भक्तपान सयोगाधिकरण अर्थात्‌ श्रन्न, जलादि भोजन सामग्री का सयोग (५) उपकरण सयोगाधिरस्ण अथात्‌ भोजन से भिक्ष सामग्री चर्राभूषणादिका सयोग करना इत्यादि (४) निसर्माधिफ्रण अचतेमानद्वोना, इसके मुय्य तीन सेद हैं, शरीर, वचन और मन की प्रवर्तना इसको अमुक्तमसे फायनिसग, चचननिसग ओर मननिलण कद्दतेदे

डपरोक्त इसी अध्याय के पाचयय सूधमें सकपायिक योगसे सम्परायिकाश्रव आर अकपायिरयोगसे इयापथिफाश्रव कहद्दादे इसलिये सम्परायिक्त आश्रवदै घद आटकर्माफादे इसक मूल अक्ृत्ति तथा उत्तर प्रहतिका सबिस्तार चणन अध्याय आदपॉपमें कहेंगे--यहाँ केपल इतना द्वी सममातेट कि किन सम्परायिक आश्रयोंसे फैन सा कम यन्यरहोताहि, चन्‍्धहेतुओं डी मिन्नतासे कमेयी भिन्नता होतीदे, इसलिये उनक वह्देतुओंफा वर्णन आगे के सन्न से करते / १०॥ के के

मघरायिक याश्रव कर्म के भिन्न बन्धहेतु तत्मदापनिन्द्रद भात्मयान्तरायासदेनापधाना

( श४२ ) तत्वारथ खुबत

ज्ञान दशना वरणयो; ॥११॥ दुःखशोक तापाक्रन्दन वध & , परिदेव नान्यात्मपरों भत्र स्थान्य सद्रेश्स्यः ॥१०॥ मृत न्त्पनुकम्पा दाने सरागसंयमादियोगः ज्ञान्तिः गोच्यमिति सद्वेद्यस्थ ॥२३॥ केवली श्रतसंध धर्म देवा वर्शावादोदशन मोहस्य ॥१७४॥ कंपायोदयात्ती ब्रात्म परिणाम श्वारित्र मोहस्य ॥१५॥ वद्यारम्ण परिग्रह त्वेंच नरकायुप॥ ॥१६॥ '. जाया; तेयस्योनस्थ ॥१७॥ अल्पारंभ परिग्रहत्वे स्वभावमा- , दँवाजवच मंनुपस्य ॥१८॥ निःशीलब्रतत्वे सरवोपाम १. सराग संयम सेग्रमा संयमा काम निजरा वाल तपांसिदेवस्थ ॥२०॥ योग वक्रता विसंबादने चाशुभस्य नाम्नः ॥२ १॥ विपरीत शुभस्य ॥२२॥ दशन विशुद्धि विनय सम्पन्नता शील ब्रतेष्य नतिचारोथ्भीच्ण ज्ञानोपयोग सेवेयी शक्ति तस्त्यागत पसी सड्ठ साधु समाधिव यावृत्य करण महँदाचाय बहश्रत प्रनचन भक्ति, रावश्यकापरिहाशि मार्ग प्रभावना प्रवचन

वत्सलतामति तीथक्रत्नस्य ॥२३॥ परत्मनिंदा ग्रशसे सदसद गुणाच्छादनो क्ाव-नेच निच्ोगोंत्रस्थ ॥२४॥ तद्ठि ण्यंयो नीचहेच्यनुत्सेको चौत्तरस्थ।।२ ५॥वि्त कर ण॒ मन्तरापस्या। ॥|'

थ--ततृप्रक्पेप, निन्हच, सत्सर, अन्तराय, आशातना आर उपधात आश्रव ज्ञानावरण, दशेत्तावरण कमके वन्धद्देतुद्दै॥११॥

5 सु० ११-२६। ( २३३ )

दु सं शोक, ताप, अफकन्दन, बथ और परिदेवना रूप अथवा

पर के आत्मा मे या उसमय आमा में रहे हो था उत्पन्न किये जाय तो बे असढेना कम के आभ्रव होते हैं र२॥

भूत-अज्जुकस्पा ( सब प्राणियों पर दया ), दृत्तियो पर अमुकम्पा, दान सराग सयमादि तथा योग शाति और शोच सातायेदनीय कक्‍्मयन्प हेतु आश्रय है॥ १३॥

क्ैयली शुत, सघ, धम और देव के अवणवाद फ्रना हल्गनमोहनीय कम के चन्धदेतु आभ्रव हैं १४॥ -

कपायोदयी तीघ्र आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय फमे के चन्‍्धहेतु आश्रव है

अति आर्म्म और अति परिग्रह नरबवायुप्यकम का चधहेलु है ११

माया-तिर्यच्र योनि के आयुप्य का यन्‍्पहेतु आधव है

अव्पास्भ, अन्पपरिश्रह झुदुता, रूघुता, मनुष्यायु के बन्‍्धह्ेतु आश्वव है १८

नि शील और घतरहित होना सत्र आयुप्यो का पन्धहेतु ज्वरध॥।

सारण सयम संयमासयम अकामनिजरा और वाल्तप डेयायशुप्य पे आशय होते हैं २०

योगी की बक्ता और प्रिषयाद अश्ुभनाम क्मफायन्धहेतु है॥२१॥

और इससे विपरीतता शुभ नाम कर्म का देतु है २२॥

खशन विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, श्लीए तथा नत में सर्वेथा जप्रमादता, निरन्तरशानोपयोग, सस्रा* से यैराग्य, भाव शक्तिकेअनुसार त्याग, जीए तप, संघ, साधुसमागम, चेयादृत्य सेपाशुधुपा, अग्टिन्स, आश्रय, पहुथुत, तथा प्रवचन की भक्ति

(२३४ ) नत्वार्थ सत्र

समायिकादि आवश्यक क्रियान्षीं, अपरिहार, मोल्षमार्ग की प्रभावना-महनत्वा, आर प्रवचन चान्ललयता ये सब गुण तीथकर नामकर्म के देतुआश्रव हैं २३॥

परनिन्दा, आान्मप्रणंसा, लवगुणों का आचछादन, नीचमोौत्र कम का बन्धहेतु है॥२४॥ ओर इस से विपरीनता ऊँच गोत्र का चन्धहेतु है २५॥

दानादिमें विन्न करना अन्तगयकर्म के अन्चहेनु का आश्रव॒ होता है २६

विवेचनग्यारहर्व सत्न से यावत्‌ इस सम्पूर्ण अध्याय परयेसतके सबवसतों में कमग्रकृत्ति के वनन्‍्शहेनुओंका ऋमणः वर्णन यद्यपि समस्त कर्मप्रकृतियों का वन्धहेतु सामान्यत*' योग और कपाय है तथापि कपायजन्य अनेक प्रकारकी परत्ृत्तियों में से कौनसी प्रचृत्ति किस कर्मकावन्धहेतु होना है. उसीको बताना

कि

प्रस्तुत सूत्रों का उद्देश है

कर

(५ ०5 6 जो ज्ञानावशाय दशनावाणाय कम्त चन्धहतु (१) शान, ज्ञानी ओर ज्ञान के साधनों प्रति देप करना इस ०... हलक 48०4 | आप को तात्पदोपष कहते हैं, (२) निन्हव-कछुपित भाव से ज्ञान की [ जे अचज्ञाकरनी या ज्ञानांदि को छिपाना, (५) मन्सय्यज्ञान की रु 9००. हि श् योग्यता पूर्वेक भ्रहण करने चाले पर कछुप्रित बृति (४) अन्तराय सेवाले | जज किन ज्ञानको पढ़नेवाले प्रति विष्त करना या उस के साथनों का विच्छेद करना ( ) आखसादन-ज्ञान प्रकाशित करते हुवे को रोकना, (5 ) डउपचघात-भशस्त ज्लानमें दोप रूगाना, ये लानावर्णीय कम के आश्रव है एसे ही इन्हीं कारणोंसे दर्शनवर्णीय कमेका भी वन्घुद्देतु होता है हि कप आसाता-बेदनीय कम के वन्धुहेतु (१) दुशख-वाह्य तथा आंतरिक पीछा रूप परिणाम (२) शोक

३3 २२० +६-२६। (२३४ )

अनुभषित हटाने की दूत्ति से गहित होने पर विकछितावस्था (३) साप-प्रद्थाताप, (७) भावबनदन-शोकादिसे व्यफ्तरुप रोदम (४) पंध-प्राणोंका वियोग करना, (६) पर्टियना- वियोगीके गुणोंता स्मण करके करणाज्षमक रुदन-उपरोक्‍त दु सादि यथा आय ताडन, तज़ना,दि अनेक्प्रकारके निमित्त स्व तथा पर्मे उस्पन्न करने से असाता वेदनीय कम यन्वहोता है।

प्रश्न--दु सादि फाग्णोंकों स्व तथ, परमें उत्तपन्न करनेसे पघदि अपातावेदनी ही कैप पहोता है तो लोच तथा उपचासादि नपश्यया और पसन जातापनारिसे जात्माकों दु सित करना भी असाता प्रेदनी कम का बय्क होगा तप्रतो थ्रत नियम अनुष्टा नादि फरना पाप को यन्‍्पहेतु होता है। हू

उत्त+--क्रोधादि के आबेटा से उत्पन्न होने वाले दु यादि निमित्त आश्रवरूप होते है, अन्य सामान्य तया समप्रकासे याज्यरूप नहीं है यथार्थ स्थागी और तपस्विओफे ल्यि वे आश्रय रूप नहीं होते और असाता चेदनी के ही वनन्‍्पक होतेहे इसके मुख्य लो कारण है पदचिला कारण तो यद्द है कि उत्हए त्यागयूत्ति चाले फितने दी कठिन से कठिन नियम, अनुष्तानादि करे परन्तु ने सदूदत्ति और सद॒युद्धि के कारण फढिन दु प्रादि सयोग प्राप्त दोने पर भी क्रोध, सतापादि कपायों को प्राप्त नहीं होते और दिना कपाय के आश्रय द्वो नहीं सकता दूसग कारण यह है. कि घास्तविक त्यामवृत्ति चालों की चित्तउत्ति सदा प्रसप्त चित ग्हती है और कदोर छत नियम पाल्‍ने में भी प्सन्नतादी गहती दै दु झोफ्।टिका भ्रसम कभी उपस्थित नह होता कदाचित्‌ कोई फिसी प्रसगवशत्‌ दुसी भी दो जायतो इसका मतलू्य यह नहीं है कि सब यसे ही दु सी होते हों घतपारन करने में जिनको

दी

(२३६ ) तत्वाथे सत्र

के मानसिक गति है उनको दुश्य रूप नहींदे किम्त खुखरूपट जसे-कोई दयालु चैद्य या 'टाफ्टर फ्रिसी शेगी के दारीरका चीर फाड करता है और दुख घनुभव होता है उसके लिये नें निमित्त रूव हैं तथापि करणा जनक सदयूलि के क्रारण पापके भागीनहीं होते. इसली नगह सांसारिक दुःख डर करने के डपायोंको प्रसन्नतापूर्वक अगीकार करता हुवा न्‍्यागी भा सददू्ति के कारण पाप वन्धक नहीं होता।

सातावेदनीयकम के बन्धदेतु £१) भूत अनुक्रम्पा-सर्च प्राणियों पर दया कृपा टाष्ट (२) वृत्यज्ञकस्पा-अल्पांश बृतथारी ग्रहरुथ ओर स्चाग बतवारी स्यागी दोनों पर विशेष दया, (३) दान-अपनी बस्तठ किसी को नम्नता से अपंण करना, (४) सराग सेयमादि योग अधात्‌ सराग संयम जो सेसार से विस्‍क्‍त भाव ताणा हटाने में तत्पर होके सेयम स्वीकार करने पर भी जबनक मनके रागादि संस्कार क्षीण नहीं होते उसको सराग संयम कहते है देशमात्र ( थोड़ा ) संयम स्वीकारनेको संयमासंयम कहते हैं, स्वेच्छा से नहीं परन्तु स्वाभ(विक या परतंचपने से भुक्तमान कर्म अथवा त्याग वत्तिकों अकामनिजेना कहते हें, बिना शानके आग्निग्रवेश, जरूपतन, अनसनादि तपको वारूतप कहते हैं, (०) क्षान्ति -धर्मदष्टिसे क्रोधादि दोपोंका दमन, (६) शोच इत्यादि इनके तरफ लक्ष देना है वह सातावेदनीय करमका बन्‍्ध हेतु है. अथात्‌ पूर्वोक्‍्त कारणों से सातावेदनीय कमंका वन्‍्धहोता है।

रे दशन मोहनीय कर के बन्धहेतु (१) केचली-परमर्पि का अवणेचाद

थात्‌ अखत्य दोषारो' पण करना, (३) अत-घम्मे शास्त्रोंको

द्रेपवुडिसे असंगत कहे

आ० ८६ स० ११ २८ ( २३७ )

उनके अपणवाद कद्दना, (३) खछ-साथु, साध्यि, धापक इस चतुत्रिध सघ पर मिथ्या दोपारोप करके अयणवाद बोलना, (४७) अमे-अहिसादि स्याहादमयी परमोत्तकष्ट धर्मका दिना जाने समझे अवणयाद योलना (५) भयनपत्यादि ठेवा फा अवरणणबाद ( निन्‍्दा ) करना यह सर टन मोहनीय कर्म के पन्‍्ध हेतु टै। चारित्र मोहनीय कर्म के बन्ध रेतु

(१) स्वतथा। पर में काशय उत्तर करने फी चेष्टा करनी अथया कपाय फे बश होके तुच्छ प्रवुत्ति करनी घद्द कपाय मोहनीय के घनन्‍्ध का कारण टै, (२) सत्यधम अ्रथया गरीब या दीन मलुध्य या उपहास फरना इत्यादि हास्पक्त्ति से दास्य मीहनीय कम वध होता है, प्रिविध फ्रिडादि में तत्पए रहना रतिमोहनीय फर्मका यन्‍्ध छेलु टै, (७) दूसरों फो फट पहुंचाना किसीके आरामर्म घाया डालनी इयादि अरक्ति मोहनीय कमा ब-ध ऐलुदि (५) पोते शोकानुर रददना या शोकपूत्ति फो उत्तेजित करना शोक मोद्दनीय फर्म फे यन्‍्घ का फारण है, (६) स्व तथा पर में भय उपाजित करना भय मोदनीय फर्मणा यधद्ेठ॒ुहे (७) द्वितकर प्रिया और श्तिकर आचरण जुगुप्सा भोहनीय फर्मयन्‍्ध द्ेतु दोता दे (“९ १०) ठगी या परदोप दर्शन के स्पभाय से स्मीबेद और रत्ीजाति योग्य था पुरुष जाति योग्य अथवा नपुसफ जाति योग्य ससस्‍्कारों फे अभ्यास से स्त्री, पुयप, नपुसवः ब्ेद का यथा प्रम यन्‍्ध दोता दे, ये सय चारिध मोइनीय कर्मफ्े बाघ देनु आाभ्रव दे

आयुष्पकर्म के पन्धरेतु

चरफायुप्प--(१) प्राणियों को दुरा हो एसी फपाय पूर्यवः

पषृत्ति आदि से मद्दास्म फरना (“) घन गुटम्बादि पर भमत्व

जा शरे८ ) £ सू० ३८-४६

भाव रख महापरिय्रहों का बढाने की तीतघइचछा करना (5) पंचेट्ि यकी घात करना (४) मांख भन्नी टस्यादि कारण नरकायुप्य बन्धके हेतु हैं

तिवचायुप्य--(१) समाया--छल कपटाईके भाषयों से पर को ठगना (५) सूढमाया--माया में माया (३) कृड़तोलमाप (४) असत्य लेखादि का लिखना यह तीयचायुप्य बन्‍्ध के हेतु हैं।

भजुप्यायुप्य--(१) स्वभावसे ही भद्रिकल्सरल (२) खद॒ता नम्नता गुणीजनों का विनयभाव ऋरना (२) दीन दु-खियों पर द्रयाभाव छान; [४] दूसरों की सम्पतिदेख मनन्‍्सग्ता छाना तथा अव्पारंथ अल्पपरिग्रह अथात अपनी इच्छाओं का रोकना ये महुप्यायुप्यवंध के हेतु हैं

अपने जील और ब्त से च्युत होना निःशील घत कहलाता है ओर वह सब [ नरक, तिर्येत्न. मत्य ] आयु्ों का वन्‍्ध हेत है उपरोक्त सत्र २६-१७-(८ में उक्कायुपों के जूदे जूदे बन्ध हेतु चताये हैँ. तथापि अस्तुत सत्र से तीनों आयुपों का सामान्य वन्ध हेतु बताया गया है. [१] अहिंसा. सत्यादि पांच नियम हैं. वे अत कहलाते हैं. [१] उनकी पुष्टि के लिये तीन मुण बत. चार शिक्षात्रत और क्रोध लोभादि का न्‍्याग शील कहलाता है इस से विपरीत होना ही निः शील शत है और इन “न्थ हेतुओं की तीनों आयुयों में लामान्यता पाई जाती है

देवायुप्य--[१| अहिसा, असत्यादि महत्‌ दोषों के विस्मण अथातू त्याग को संयम कहते हैँ. संयम. विरती, बत ये सब एकाथ चाची छब्द हैं. इनका वर्णन अध्याय मूत्र से किया ज्ञायगा उसके होते हुवे भी कपाय के अशका जबतक सम्पूर्ण रुपसे अभाव हो उसको सराग सेयम कहतेहें (२) अहिंखादि मतों को यत्‌किंयत्‌ रूपले पालन करनेको सेयमासंयम कहते है. संयमा

जस्य(उ सूत्र (६ २३९ )

संथम टेशविरति, अगुशत ये एकार्थ याची शब्द हे अतदव देश तथा सर्वक्नका स्वरूप आगे अध्याय सूच से कहेंगे, [३] स्थामातिझता या परावीनता के कारण भोगवत्ति से निवृत्त होना या कर्मों हे भोग को अकामनि्जंग कहते है [४] बाल तप अर्थात अविवेक या मूढ भाव से जो तपश्चयों की जाय ज़्से अप या जल में प्रधेशकरना या पर्ेतपर से गिरना और मिध्या -यपने से फी हुई क्रियाओं को चाल तप फह्दते है इयादि आधय # थे रेबायुप्प पन्‍्ध हेतु फे फारणदे

शुभ तथा अशुभ नाम कर्म के वन्ध हेतु

(१) योगवफ़्तान्मन, पचन, फायकी झुंदिलता (२) बिस चाद-अन्यथा प्रघतेन करना थे अश्लुम नाम फ्मे फे यनन्‍्ध छेतु है

प्रइन--उपगोक्त दोनों फारणों में फ्या अतर द्वः

उत्तर--योग यक्रताटे चद्द स्प विषयी है भथात्‌ अपने मन चचन फायकी घमसापने प्रवत्ति करनी जीर विसयाद परविषयी है अर्थात दूसरे को उछदे राम्ते प्रेग्ति करना

उपसेक्त फरणो की पिपरीयता अर्थात्‌ सन, चयन, फायवी सरणता और यथार्थ प्रय्तन झुस नाम फ्मरे ब-ध छेलु दे।

तीर्वकर नाम कर्म के वन्ध हेतु

(३१) दशन विशुद्धि-चीतगग ये नत्पों पर डढ़ रुचि (२) विगयसंपत्न-8।नादि मोक्ष माय और उनसे साधनोदा यहुमान (9 ) शीए मतादि-भपने नियमोयों निय्तीयार (दोपरद्धित ) पने सेवन करना (४) अमिशण आनोपयोग-सता शामोपयोग मे

( २४० ) स० ६८-२६

जन भ+.. >ऑवजनासकत6थ लजनननमनन>ज

गहना ( ) संवेग-सांसारिक खुखस उदासीनसाव ( ६-७ ) शक्तितः स्याग, तपस्या यथा झक्ति खुपानदान, अभयदान, शानदानित्यादि व्याग और तपश्चयों ( ८-६ ) चनुविधरसंघ तथा साधुओंकी समाधि ओर वेयावतय ( सेवाथू गा ), ( १०-१२-१२-१६ ) अग्हिन्त आचाये, वहुध्रत आर प्रवचन धर्मशास्त्रकी भक्ति ( अनुराग ) [ १४ ] सामायिकादि आवधच्यक अपरिदाणि-त्याग का अभाव अर्थात्‌ नित्य सेवन करना [ १५ ] भागे अ्रभावना-सम्यक्र झानादि मोक्षमागके अनुष्टान, उपदेशादिसे श्रभावा-महिमा अकट करनी [१६ | प्रचचन वात्सल्यधमंक साध्य, साधकॉपर अछुग्रह [ उप- कार ] निप्काम स्नेह रखना इत्यादि कारण तीशरेकर नाम कर्म उपाअ्ँत करने के वन्ध हेनु है

नीच गोत्र तथा ऊँच गोत्र कर्म के वन्ध हेतु

[१ ] परनिन्दा-दुसरे की निन्‍्दा. [ २] आत्मप्रशंसा-अपनी बड़ाई [३] सदग्रुणों को आच्छादित करना [ ढकना ] [४] असद गुणों को ग्रगठ करना इत्यादि नीच गोत्र [ नीच कुछ ] के वन्ध हेतु है।

डपरोक्त नीच गोत्र से विपय्येय अर्थात्‌ स्व. परनिन्दा, परगुणी जनों की अशेसा तथा अखसदगुणों का गोपन और सदगुणोंकों प्रकाशित करना. निरवेज्ति-सच से नश्न भाव. अज्भुत्सक-नान, संपत्ति होते हुवे भी किसीस गवेअहैकार करना ये ऊद्च कुलमें उत्पत्न होने के कारण हैं

ञ्‌ जि -+ न्त्राय कम के बन्ध हतु किसी के भोग. डउपभागादि वस्तुओं में या दानादि देते हुवे को रोकना अथवा उससें विष्न करना अन्तराय कर्म का वन्ध हेत है।

अ० खु० १९ २६ (२४१)

।] पत्येक मूल कम के सपरायिकर आसघ खतन्न ११-से-२६ पर्यन्त पथफ्‌ रूप-से फहदेगये हैं. वे उपलक्षण मात्र हैं अथोत््‌ सामान्याव चोधकारने के लिये दें इस के सिवाय ,अन्य ओऔर भी बहुत से आस्रप हैं जिनके नाम यदहा नहीं लिखे गये हे उनको अपनी घुद्धि द्वारा समझ लेना चाहिये जैसे-आलस्य, प्रमाद, मिथ्योपदेशादि, शानावरणीय, दशना वर्णीय के तथा बघ, वघन, ताडतादि अशुभ भयोग असातावेद्नीय इत्यादि प्रत्येफ फर्म के और भी अमेफ आस्मप हैं -

का » प्रश्न--उपसेक्त स॒त्नों से प्रत्येक मूल प्रहति के आर्रय,जो पूथफ्‌ रूप से, फहे.-गये हैँ उन शान ,प्रदोषादि आख्व में मात्र अपने ध्ानावरणीयादि ऊर्मो का वन्य होता है कि एक ज्ञान भ्रदोष आस्क्य. पे ज्ञानावरणीय कर्म के उपरान्त चद समस्त कम चन्घ॒क है! यदि एक फम प्रकृति फे आस्रव समस्त कम प्रहृति के ब-धक हैं ऐसा फहोगे तो एथफ्‌ रूप से आख्रवों,का निरूपण करना ध्यथ है? फ्योंकि चद, समस्त कम प्रकृतियों का वन्‍्धक है ओर यदि घाना प्रदोपादि ,आस्रव अपनी दी प्रशति थे बन्धक दे. देसा फद्दोगे तो शाखोक्त नियम से विरोध होता है ? सब शास्त्रों का भन्तब्य है कि आत्युप्यु को -छोड़ के सात प्रदृत्तियों का वन्‍्ध प्रति समय हुवा करता है इस नियम के अनुसार घानावरणीय फर्म बान्धता हुवा,शेष कर्मों का वन्‍्धकहे ( आशुप कम का उन्‍्ध जीवन भर में एक द्वी बार ह्वोता है और दद्द एक समयवर्ति है) ऐसा मानते हैं, तो एक समेये में एक केसे भर ति का आरव एक दी फर्म का चघर दो यद्द शास््ीय नियम से बाधित है यद्दा प्र इति अल्लुसार आस्रध फरमें फा फ्या हेतु है? और किस उद्श पर ये विभाग किणे गये द्वें ”: ८: -

(२४२) ... तस्वाथ सत्र

उत्तर--कर्म वन्‍्ध चार प्रकार से होता है ( प्रकृत्ति, स्थिति,

रस, प्रदेश ) इसका सविस्तार चर्णन देखने वालों को ऋमपयड़ी या कर्सग्रन्थ पहिला पांचवा देखना चाहिये यहां केवल रस वन्‍्ध को उद्देश के ही उक्त विभाग किये गये हैं. एक प्रकृति के आखस्रव सेवन करते समय अन्य प्रकृतियों का ज्ञो बन्ध होता है वह बहुघा प्रदेश बन्‍्च की अपेत्ता से समझना चाहिये अरथार्ते शाख्रोक सात, आठ कम का वन्‍्ध जो प्रति समय माना है उसमें प्रायः प्रदेश वन्‍ध की सुख्यता ही सापेक्षिन है ओर ऐसा मानने से शाख्रीय नियम को भी चाघा नहीं आती प्रस्तुत आस्त्रव विभाग ओर शासत्रिक्त नियम अवाधित रूप से रह सकते हैं परन्तु यंद्द अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि अछुभाग अधोत्‌ रखवन्धा श्री आखब विभाग का जो समरथन है. उसमें अछुभाग (रस) वनन्‍्ध की मुख्यता और शेष प्रकृति, स्थित्ति, प्रदेश बन्ध की गोणता है और अन्य प्रकृतियों के अनुभाग चन्ध की गौणता रदती है. अथोत्‌ ज्ञानावरणीय कमे के प्रदोपादि आस्रव सेवन करते समय शञानावरणीय कमे के अज्ञुभाग ( रस ) चन्ध की झुख्यता और शेष सात कमे के रख वन्‍्ध की गोणता रहती है परन्तु यह समझ लेना चाहिये कि एक समय एक प्रकृति के रख वन्ध दोते समय अन्य प्रकृतियों का रस बन्ध नहीं होता उसी समय कषाय द्वारा उन प्ररृतियों का अनुभाग बन्‍्ध भी संभ्वित है प्रस्तुत आसर्रव विभाग में अज्ञभाग वन्ध की ही मुख्यता सापेक्ष है।

इति तलाथे सूत्र के छठे अध्याय का हिन्दी अनुवाद समाप्त

शक न्‍्+ न्नक

खसशहभक आध्यए्फह पूर्व भध्याय छेठा सूत्र १३ में प्तिञजुकम्पा और दान ये वो शुण, सातावेदनीयऊमेयउ-ध के आशय यताये गये हैं अब जैन घने में बतकी क्‍या भद्दत्वता है और इसको अरदण करने वाले कौन हैं: तथा दान और धत का विशेषरूप ले निरूपण इस अध्याय में क्रिया आयगा।

+

न्त खरूप

हिन्साइतस्तेया ब्रह्म परिग्रह भयो विरतित्रेंतम ॥शा।

अधथे--हिग्सा, असत्य, चोरी, मैथुस्य और परिग्रद से निवुत दोमे को घत कहते हैं. ॥१॥ 9

विवेचम--द्वि'सा, असत्यादि दोपों का विशेषरुप से वर्णन आगे खनन से १रें पर्येस्त करेंगे उस निर्दोष त्याग बृत्ति को ही शत कहते हैं।।

खब यतों में शद्दिसा ही प्रधान घत दे इसलिये उसका स्थान भी पद्विला दे भर अष्यमत उसकी रचा फे लिये हैं जैसे-पाक (खेत ) फी रक्षा फे लिये वाड फी जरूरत रद्दती है इसी तरद अद्दिसा फी रज्ता के लिये थे श्रत्यावश्यकीय हैं |

मिद्धत्ति ब्वीर प्रदत्ति रूप दो पच्त से मत की परिपूणता होती है जैसे-सप्कायों में प्रदशमान दोने के लिये इसके पद्चिले ही उस पिरोधी असश्कार्यों से स्थयमेय नियृति भाव को प्राप्त द्योता दे और जब असत्कार्यों की निम्तत्ति द्ोती दे तब सत्कार्यों की प्रवृत्ति

२७३

(२०४) तत्वार्थ सत्र

स्वप्रसेव हो जाती है परन्तु यहां स्पष्ट रीति से दोषों की निद्वत्ति को ही घत माना है तथापि उसमें सत पवचृत्ति का अश आए जाता है ब्रत अर्थात्‌ इससे मात्र निष्क्रियता समझ लेनी चाहिये।

प्रघ्त--रात्रि भोजन विरमण भी पसिद्ध रूप से शत के समान माना जाता है उसको खचकार ने क्यों नहीं कहा ?

उत्तर-राज्ि भोजन विस्मण भी प्रथफ्‌ रूप से ब्रत के समान वहत काल से प्रसिद्ध है तथापि वास्तविक रूप से वह मूलबत नहीं है केवल मूलबत निष्पन्न एक आवश्यक ब्त है। एसी ऋद्पनाएं अनेक हो सकती हैं | पस्तुत सत्रकारका ध्येय केवल मूलछ्त निरूपण विपयी है। इसीलिये अथधान्तरबत मूलब्रतोंमें व्यापक रूप है

- - प्रश्न-अधेरे में दृश्णगिचर होने से ओर दीपक के लिये विविधारंभ प्रव्ृति होनेसे राच्रीमोजनको हिसाका अंग मानकर उसके विश्मणको अहिंसा घत का अंग माना दे परन्तु जिसमें उपरोक्त कारणों का मस्संग ही प्राप्त नहीं जेसे-ठंडा देश या विज्ञ- लीके दीपकका मक्ताश इत्यादि खसहायकहो तो रात्रि ओर द्िविसके भोजनमें क्या न्‍्यूनाघिक पना है ?

उत्तर--उप्णपथान देश और प्राच्चीन काल के दीपक के प्रकाश से स्पष्ट रूपसे दिखती हुई हिसाकी दृष्सि ही दिवस भोजनसे राजी भोजनको विशेष हिंसा घद्‌ माना है। यह सर्चमान्यहै तथा क्रिसी अवस्थामें यदि दिन के समान राजिसोजनमें भी-हिसा का प्रसंग नहीं दिखता परन्तु समुच्चय इप्टिसे अथवा खासकरके त्याग जीवनकी दशष्टिसे, राचिभोजनके वनिस्वत दिनको भोजनकरना विशेष प्रशस्तहै तथा इसमें ओर भी कई कारण है- जैसे:-- -

(१९) आरोग्य दृष्टि से विजली/ चन्द्रमादि का प्रकाश कितना

आअ« ७सु* (२४०)

ही स्पच्छ क्‍यों नद्दो सथापि सय के भकाश के सभान स्वेत्र आरो ग्यप्द नहीं हो सकता इसील्यि आरोग्य दण्सि खूर्य के प्रकाश का द्वी उययोग विशेषरुपखे स्वीकार करना चाहिये |

(२) त्याग धर्म का पाया सत्तोप पर है, और त्याग जीवनवाले जब विनफी सप प्रयुत्तिया से निद्धत्त दोतहे, उस समय सतोषके साथ भोजन धवृत्ति से शान्त दोना चाहिये इससे जठराभधि पथल रहती है | नींद अच्छी तरदसे आती है। और प्रह्मचर्य पलनेंयाले फो थद्द नियम अति आवश्यकीय दे इससे हा द्वयों उत्तेज्ञित नहीं दोती तथा आरोग्य घर्थक है। त्यागजीची महतत्‌ पुरुषोंके जीचन के इतिद्याससे भी यदी पगट दोता दे और वे दिनके भोजनको दी

पसद फरतेद्दें ॥१॥ ब्रतत के भेद

देश सबंतो5्णु गहणी २॥

अथै--अद्पादश विरतिफो अणुप्तत कद्दते है और सर्वाश घिर तिफो मद्दाथत बद्धते हैं २॥

विवेचन--दोर्षों से निद्चत्त डोया त्यागयुद्धियालों का ध्येय दे, तथापि सयपी त्य(गज्त्ति पकसी नहीं दोतो थद्द इनके विकाशपरम कौ स्वाधीनता पर निर्भर दे। सूत्॒कार का उद्देश दिसादि प्रशूृत्ति यों से न्‍्यूनाथिक रूप में भी निद्ृत्ति द्वोनेचालों को विरती मान के उनके दो पिभाग किये दे

(१) उपरोधप्त द्विसा असत्यादि पाच दाषों (पाणों ) फो सन, यचत, पाये से सर्देथा परना, फराना, करने यो अद्मति देना इपयो मद्ाथत कदते हैं।

(२४६) तत्वाथ सत्र

(२) उक्त पापों से किसी एक ओश मात्र निद्वुत होना देश विर-“ ति को अखुबत कहते हैं

व्रतों की भावनायें !

तत्स्थैयाथ भावना पंच पँच १॥

आअथ--उन ब्रर्तों की स्थिरता के लिये प्रत्यूक अ्तकी पांच पांच भावनायें है।

विधवेचन--उक्क हिंसादि पाँच त्रतों की स्थिरता ( दृढता ) के लिये प्रद्यक बत की पांच पांच भावनाय होती हैं. जैसे रोगी को ओअपषधके सिवाय पथ्य भी अति आवचश्यकीय है चेसे दी विरती को भावनायें अनुकरणीय हैं वत की श्रजुकूलता के लिये स्थूल दृष्टि से जो मुख्य प्रवृत्तियां वताई हैं वे ही भावना के नाम से प्रसिद्ध हैं उनमें प्रयत्तशील होने से विर्ती की खुशीलता और श्षत यथेष्ट परिणामी होते है जैसे--

(१) इयो समिति (२) मनोगुक्ति (३) एपणा खुमति' (४) आद-. ननिक्षिपणा सुमति, (५) आलोकित पान भोज ये पांच भावनाोयें अहिसाबत की हैं।

(१) अन्ववीचिभाषण < अनिय भाषंण ( २) क्रोधप्रत्यास्यान, (३) लोभ प्रत्याख्यान (3) मिमयता, (५) हास्य का अभाव ये सत्यत्रत की भावनाये हैं

(१) अनुवीधि-अवशग्नह याचना ( अविय पदाथथ ग्रहण याचन ) (२ ) अभिक्तण-वारंवार, अचग्नमह याचना ( ) अवशग्नह्मचधारण;, नियमपूवक ग्रहण (७) समान घर्मी, अवशग्नह याचन, (०0 अनुमाट

अआ० स॒० रे (२४७)

यित-आश्षादिये हुए पदार्थों का पान भोजन ये अचौय जत की भावनायें है

९१) स्री, पशु, नपुसक से या सपार्कैत आसन, शयन का विवजजन, (५) राग युक्त स्रीकथा, चजन, (३) ख्रियों की मनोश इन्ठ्िया (अगोपाग) के दशेन का निषेध, (४) पूवे कृत भोग विलासा दि के स्मरण का निषध, !) अति युष्टिकारक या कामोत्पादक भोजन निपेध ये पाच ब्रह्मचर्य मत की भाषनाये है।

मनोश्, अमनोन् (१) स्पश, (२) रस (३) मध (७) घरण (2) शब्द विषे समभाव रपना अथात्‌ दर, विषाद करना यह किचन-अपरिय्रह बत की भाषनाये दें

प्रत्येक भावना का विशेष रूप से वर्णन

पद्दिलि शत की भावनायें | स्व, परको फ्लेश था कष्ट हो ऐसी यत्नापूर्वक गमन फ्रना इयासमिति मनको अशुभध्यान से रोक्फे शुभध्यानमें लगाना, मनोग॒ुष्ति | चस्तुका गबेषण, प्रदण औरउपयोग साधचेतीके साथ उपयोग सहित करना पेवणा समिति बस्तु को उठाते और रखते समय यत्नापूर्वक अ्रचलोकफन, प्रमाज नादि फरना--आदन निश्षपण समिति। अप्नपानादि भोजनसामभ्ी को यत्नापूक अवलोकन करके भोगोपभोग फरना-अलोकित पान भोजन

चुसरे मत की भावनायें। विचार पूर्वक चोलना-अजुवीचिमा घण | शेष क्रोध, लोभ, भय द्वास्य का अजुक्रम से त्याग करना

तीखरे घत की भाषनायें। (१) जरूरत के माफिक कोई भी चस्तु उपयोग सद्दितत मगाकरल्ेना अनुवीचि अवग्रद-याचना या मकान पाटठपाटलादि प्रत्येक चस्तुके स्थामी यदि पृथक दो तो

(<४८) खाये सु

सबसे यथोचित याचना करके बस्त अंदण करनी। (२) की छुठे वापस वस्तु यदि रोगादि वा अन्य किसी कारण विशेषले जरुरत होतो वारंबार मांगकर लेनी परन्तु यह अवश्य ध्यानमें रखना चाहिये कि उसके स्थामी ( मालिक ) को ,किसी भी प्रकार का ज्लेश नो उत्पन्न नहीं होता हे-अमिज्नण अवग्नह (३) याचना करते समय वस्तुकी मर्यादा वा यथोखित नियम प्रकाशित करके ग्रहण करना अधग्रहावधारण | (४) अपने समान घर्म बालों ने किसीसे कोई चस्तु याचना करके ली हो ओर उसकी जरूरत पढ़े तो समान धर्म वाले से याचना करके लेनी। (४) विधिपू्वेक ग्रदरण किये अन्नपानादि को शुरू समत्त रखकर उनकी अलुधासे उपयोग करना--अनुणापित पान भोजन

चोथेन्त की भावनायें (१) ब्रह्मचारी पुरुषवा स्त्री को अपने विजातीय व्यक्ति द्वारा सेवन किये हुए आसन शयनका त्याग। (२) काम बधक कथाओं का त्याग | (३) कामोद्ीपक अगोपांग अवलोकनका त्याग | पहिले सेवन किय्रे हुए रतिविलादि भोगोंकि स्मरणका त्याग

पांचवे अपरिश्रद्द मत की भावनाथ। पांचों इन्द्रियों को इष्ट मनोज्ञ वा अमिलपित स्पश, रस, गन्ध, बरी, शब्दादि वस्तु की प्राप्ति समय राग वा लोलुपता ओर अप्राप्ति समय देपादि भावना का त्याग |

त्याग अमंके विषय जैन खसंघके महात्रतधारी साधुओं का स्थान सवसे पहद्चिला ओर उच्च कोटिका है उसी डदेश को आगे करके प्रस्तुत भावनाये वणन की गई हैं. तथापि कतधारी अपनी भूमिकाके अचुसार अथवा देशकाल, परिस्थिति वा आन्तरिक योग्यताकी तरफ ध्यानरखता हुआ मात्रततकी स्थिरता- वा शुद्धिके लिग्रे उन भावनाओं का संकोच विकास वा न्यूनाधिक

_अ० खु० ४-७ (२४६)

रूप में पहवित कर सकता है ॥शे॥। -

के

'. अन्य भावनाये। हिन्सादिष्पिदाम॒त्न चा पायावद्यदर्शनम्‌ ॥४॥ दु)समेववा '॥५॥ मैत्रीम्मोदकारूण्यमाध्यस्थानि स्तव शुणाधिक क्विश्य.' भाना विनेयेषु ॥६॥ जगर्का यस्प भावी सवेग वैराग्यार्थम्र्‌ ॥७॥

अथै-दिंसादि पायों को इदलोफ तथा पारलौकिक पपाय ( भ्रयस्कर फार्थी के नाश का प्रयोग ) अवध ( निंदा कारक ) समझे उसको वशन भाषना कहते हैं ४॥ 8 $ अथवा दिंखादि पापों से दु ही दु है ऐसी भावना रफ्खे :॥ ५॥ प्राणी मात्र में मैत्री भावना, गुणाधिक में प्रमोद भावना दु सी जनों पर करुणाभावना, अविनयेपु अथौोत्‌ अपातोमें मध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिये ६॥ सेग तथा चैराग्यकी प्राप्ति के लिये जगंत्‌ स्वभाय और फाय ( शरीर ) स्वभायोंकी भावनायें करनी चाहिये ॥, विवेचम--जिसका त्याग कया जाय उसके दोपों का दिग्‌ दुशन यास्तयिक रीति से दो तय, यह त्याग वृत्ति अवस्थित रूप से रदसकती है इसलिये अहिसादि घतों फी स्थिरता के घास्ते दिसादि दोषोंकों समझना क्ति आशश्यकीय है. और सूत्तकार उसकी दो अ्रकारखे ब्याख्या करके समझाते है। (१) ऐहिक दृशन,

(२१४०) तत्याथ् सत्र

पारतोकिफ दशन अर्थात द्विसा असत्यादि सेवन करने से रहल्लोक मे जो आपत्तियां स्व, पर थिपय अनुभव होतीहें उसके तरफ सदा च्वत्त रखना उसे एऐहिक दशन कहते हैं ओर , मरने पर नर्क तिर्यचादि के अनिष्ट दु.खोंके प्रापिकी संभावना करनी उसे पारकीकिक दर्शन करग्तेहें अथात्‌ दिसादि दुशकर्माके समारंभसे उमय लोकमे निन्दित ओर दुखी होता दे इस दृष्टि को सदेव सनन्‍्मुख रखनेवाला अर्टि- सादि बतोंका यथोचित पावन कर खकता हे ओर चहद्दी अपने नियमों पर अठल रह सकतादे शघतकी स्थिरता के लिये उक्त भा: - लाये उपयोगी हैं

( दुःख मेचा ) अशथात्‌ हिंसादि अवत्तिसे दुःख ही दुःख समझे जझसे-अपने पर किये हुए दिसा असत्याद्वि दुष्ट प्रयोगोंसे डुश्ख

हेआदि उत्पन्न होता है, चेसे ही सब प्राणियोंकों दुप्ख रूप स-

मशके हिसादि प्रद्नति का त्याग करे.--

पदन--हिंसादिके समान मेश्ुन इंद्रियों को दुःख नहीं है? उसके द्वारा इंढ़ियों का खुख होना है।

उत्तर--यह सोचना अनुचित है जसे-दाद यथा खुजली की खुजलाहट को खुज़लाते समय रोगीको अच्छा माल्म दोता है परन्तु परिणाम उसका दुःख रूपहे इसी तरह मेथुन भी राग देंच रूप व्याधिको बढ़ानेवाला है इंद्रिय छोलपी उसे खुख्र रूप मानते हैं वास्तविक में बह डुःख रूपहीहे इसी तरह परिय्रह भी दप्णा रूप व्याधि ग्रस्त होनेसे न्‍्याज्य ही है इस प्रकार दुःख ही दुःख की भावना करनेसे बती की ब्रतम स्थिरता रहती है णा

मंत्री, प्रमोदादि चार भावनायें सदगुणोंकी ठडिके लिये अति डपयोगी है इसहेतु ६सादि जबतों की स्थिरता के लिये वे अति

आधचक्ष्यकीय होनेसे उसका प्रथकू रूप से वर्णन किया है तेरे बतके सहायक रूंप हैं *

के

झण० सु० ४७ (२५१)

(१) सप प्राणियों पर मैत्री भावना रखने से ही उक्त बतों

कुशलता पूर्षफ वास्तविक रीति से रह सकता है।._, "८

(५) अपने से अधिक ग्ुणवान का सत्कार वा गुणाजुवाद करना ही प्रमोद भायना है उनकी ईप्यांकरनेसे थ्तका नाश होता है और आदर प्तत्कारसे अपने शुण्णों फी रद्धिः होती है इसल्यि बति को हे भावनायें आदरणीय हैं यद्द भाषना बत को पोषण करने वाली है। ..

(३ ) फिल्श्यमानदु सी जनों पर अम्लुकम्पा, दया वहित बुद्धि रपना उसको करुणा भावना कहतेहें दुसी जनों पर अनुश्नढ करनेसे श्रत उरायर द्ोता है

(४) भत्येक समय केवल प्रदृत्यात्मक इश्र्यासमिति से यांवत्‌ करुणा ) भावनाय साधक रूप नहीं हो सम्ती अहिंसादि घतों फो स्थिर रखनेके ल्यि किसी समय मध्यरुथ भावना भी उपयोगी है अविनय अयोगपात्न, अथवा जड़ संस्कार जिन में सद्वस्तु भद्ण करने फी योग्यता ही नहीं एले पात्रों में मध्यस्त भावना है कारण बिल्कुल शून्य हृदयबाला काष्ट घा चित्र के समान उपनेशादि ग्रहण घारण करनेके लिये असमथदै ऐसे जीचों को उपदेश देनेसे चफ्ता के द्वितोपदेशफी सफलता नहीं होती इसल्यि उनपर उद्ासीनता मध्यस्थता वा तटस्थ बुद्धि रखना दी नेछ्ठ है ६॥

सपैग और चैराग्य ही अ्द्धिसादि बतों की भूमिका है जैसे खित्र भूमिका फी योग्यताके अज्लुसाए चित्रित कियेजाते है और उसी योग्यता के अकछुसार वे अवस्थित भी रहते हे, इसी तरह अर्हिसादि शतोंकी स्थिरता संवेग, वेराग्यकी योग्यता पर निर्भर डै। ससाण से भीझता आरभ, परिय्रह्दिमें अरचि, धर्म से चहुमान या उत्पादेब्यय छुब युक्तसत्‌ इत्यादि जानना सवेगढ्े अथात्‌ जगत्‌ स्वभाव की भावना सबेगदे और शरीर स्थमाव की भावना चैराग्य

(४५२) नन्वाथ सत्र

8 शरीर को नाशवान समझ के उनके भोंगोंसे शानत होकर अभ्यस्तर ऋ्रोधादि विपयों के परित्याग को चराग्य कहते दें ॥2-७॥

हिंसा का स्वरूप प्रमतयोगात्‌ प्राणव्यपरोपणं हिंसा

अशथ--प्रमतयोग से होने वाले प्राणवध को हिंसा कहते हैं ॥८॥

विवेचन--अहिसादि पांच ज्तों का निरूपण पू्वे कर आये हैं। उन बलों का प्रतिपालन जब तक हम द्विंसा के स्वरूप को वास्त- विक रीति से समझले तब तक होना अति कठिनहै इसलिये उन बतों के प्रतिपक्षिद्दिता असत्यादि दोषों को यथाक्रम समगाते हैं

हिंसा की व्याख्या कारण काय रूप दो अंशों से करते हैं प्रमत- योग-राग छेप वा असावधान प्रदृत्ति कारण है और हिंसा काये रूप है तात्पय यह है कि ग्रमतयोग से होने चाले प्राणचथ को हिंसा कहते हैं

प्रइदन--प्राणियों को कष्ट पहंचाना या वध करना यह हिंसा का अथे स्पष्ट रूप प्रसिद ही है तथापि उसमे घ्रमतयोग का प्रश्षेप क्‍यों किया

उत्तर--जब तक मलुष्य समाज संस्कार विचार ओर वर्तेन उच्च कोटि के नहीं है तव तक पद पक्षी आदि अन्य गघाणियों मे और उनमें कोई अन्तर नहीं वे हिंसा के स्वरूप को विना समझे विचारे हिंसा को दिसा मान कर उस प्रवृति में तत्पर रहते हैं यह मानव समाज की प्राथमिक दशा जब उत्तरावस्था के सन्मुख होके चिचार श्रेण्यारूढ होती है डस समय वह अपने विचारों को

थन करता हुआ पूद्र सस्कार ओर अधहिसा की नवीन भावना

से टकराता छुआ अर्थात्‌ एक तरफ हिंसावत्ति जोर दसरी तरफ हिंसा निषेध विषयी अनेक प्रकार के प्रदन उठाते हैं जैसे--

अ० सु० (२०३)

(१) अदिसा पक्षपाती भी जीवन धारण करते है जोर जीवन निवाद्द के लिये किसी किसी प्रकार की जीव्दििंसा अघदय फरनी पड़ती दे विना दिसा के जीवन निर्वोद्द नहीं दोता तो यह हिसा द्विसा दोष में है या नहीं ?

(२) भूल और अनान माजुपी घृत्ति से कदापि नहीं दोते देसी फेयल्यावस्था को जय तक असम्प्राप्त है, तब तक आईिसाघुत्ति के पत्तपातियों से भी भूल अशान या अन्य किसी भी फारण से ईसा होना सम्भव है तो वद्ध प्राणनाशक हिसा, हिंसा दोप में सम्मिलित हैं या नहीं ?

(३) कई बार देखा गया है कि अद्विसकवत्ति चाले किसी प्राण धारी फो घचाने के लिये घ। उसके अजुकूछ खुखादि पहुचाने फा प्रयत्न करते हुए भी फिसी समय उसका परिणाम उस जीबधघारी को प्रतिकूल भ्राणनाशक रूप हो जाता है ऐसी अधस्था में बह द्विसा फ्या अद्दिसा दोष में शामिल दोगी ? इत्यादि प्रश्न सन्मुख उपस्थित दोते हैं: उस समय चद्द द्विसा अद्दिसा फे स्थरूप की गह राई में उतर कर अनेक गोते खाते हैं, कोह यह निम्धय फर बैठते कि प्राणियों के प्राणों का वध करना, या दुख देना दिसा दे और किसी का प्राणयध करना और दुख देना अहिंसा दे, परन्छु घास्तविक रूप से बद्द 'द्विला, अर्दिसा और भी विचारणीय है भात्र प्राणवध वा धाणर क्षा को दी द्विसा अर्दिसा नहीं फह सकते इसके लिये उक्त भावनायें भी विचारणीय उनको सम्मुख रखने से ही दिसा के दोष अदोप का निर्णय दो सकता दै जोर थे भाष नायें राग द्वेष की पिविध धाराओं भ्रवाद्वित होती दे उसको शाखीय मापा में प्रभाद कहते हैं ऐसी अशुभ जीर कद भावना से जो प्राणनाश दोता द्वो या किसी को दुख उपाजँत फिया छो

(२५४) तत्वार्थ सत्र

वहीं हिंसा दोप रूप है इसको स्पष्ट करने के लिये ही सूत्रकार ने पसतयोग की महत्वता वताई है ओर दविसा अहिसा की भित्ती का निर्माण भी इसी प्रमंतयोग पर हे। प्रशन--प्रमोत के बिना यदि धाणवध हो चद हिसा दोप रूप है या नहीं ? ओर यदि प्राणवध नहीं भी होता द्वे तथापि बह प्रमत- योग में प्रवर्तमान है तो उस कया हिंसा का दोष रूसता है ? उत्तर--अन्य दाशेनिकों के समान जैनदशेन एकाक्ति नहीं हे वह प्रत्येक वस्तु को स्वाद्वाद रूप अनेकान्त 'दृष्टि से देखता ( मानता ) है इसलिये जैन शास्त्रकारों ने हिला के मुख्य दो भाग किये हैं. एक दृव्य हिंसा जिसको व्यवहार हिंसा भी कहते है दूसरी भाव हिंसा जिसको निश्चय हिंसा कहते हैं प्राण वध करना स्थूल दृष्टि से हिंसा तो है ही परन्तु डसमे प्रसतयोग सृक्ष्म दृष्टि अदश्य- रूप रूगी हुई है अब इसमें जानने योग्य वात यह हे कि हिंसा के दोष,दोष का आधार एकान्त रूप से फेवछ दृश्यमान हिंसा पर अवलरूस्वित नहीं है वह हिंसक की भावना की स्थाधीनता पर है इसलिये अनिष्ट भावना से की हुई हिंसा दोप रूप दे अन्यथा उसे दोपरूप नहीं मानते | शास्त्रीय परिभाणा में उसे द्वव्यदििसा और भाव हिसा अथवा व्यवहार हिंसा तथा निमश्चर्याहिसा - कहते' हैं जिसमें हिसा का दोप अवाधित ( निश्चय रूप ) हो उसको दृब्य हिंसा कहते हैं. और इसी से विपरीत अथौत्‌ निम्चयात्मक दोष रूगता हो उसको भाव हिंसर कहते हैं. ओर वह होप रूप है राग द्वेप वा असावधान प्रवृत्ति को ही शास्त्रीय परिभाषा में प्रमतयोग कहा है ओर हिसा के दोष का आधार उसी पर है जैसे किसी का प्राणनाश हुआ हो दुःख भी पहुंचा हो यदि *उस अनिष्ट प्रयोग से खुख की घाप्ति भी हो गई हो तथापि उस हिंसक की अशुभ भावना के कारण शासत्रकार उसको भाव हिंसा

आ० सू० < (र२४ण)

कहते हैँ वह प्रमतयोग जनित प्राणवधरुप हिंसा की कोटि से सम्मिलित है मात्र प्राणनाश रूप हिंसा' इस कोटि में नहीं: भा सकती भाव द्विसा का अथ यही है कि जिसमें दोष का स्वाधीन पना दो वह तीनों काल अवाधित रद्दती दे तीनों काल फी कोई यह मतलब समझले कि बद्द हिंसा दोष, भूत,' भविष्य चतेमान तीनों जन्म में अवाधित रूप से रहता हो फ्योंकि) प्रश्मचचन्द राज ऋषि ने ध्यानस्था अवस्था में प्रममयोग से ही? सप्तमी नरक के दलिये कर्मों के पुदूगछ' इफट्टे कर ल्यि थे परन्तु उन्हींने उसी अवस्था में उसी जगह पर खडे 'राड़े केवलछ' ज्ञान भी आप्त कर लिया यहा तीनों काल के फद्दने का तात्परय यद्द दे कि फालू की खूच्मावस्था एक समय की है और जो कर्म, यतमान, प्रथम, समय चधता दे घद्द यदि तीन समय भी अवाधित रूप से रहे तो धद्द भ्िफालवतो फ़द्दा जा सफ्ता टै औौर प्रमतयोग ; से, वन्‍्धे हुए कसे की स्थिति कम से फ्म असख्यात समय फी है इस अपेक्षा से उस प्रैकालिक भी फद्द सकते हैं. केयली फो प्रमतयोग नहीं दोता चे अप्रमत दें विना धमतयोग अर्थात्‌ केघली,से हुई हिंसा, हिंसा रूप गद्दी मानी उनको फर्मो' का बन्‍्ध दै बद्ध मात्र एफ समय की स्थिति था दे इसलिये यद्द तीनों फाल में अवाधित नहीं रदहता। अ्दइन-द्विसाके दोपोंका मूल यदि प्रमतयोग दी है तो उसके साथ “प्राणव्यपरोपणम्‌” अथात्‌ प्राणनाश यहद्द शब्द फ्यों रफ्सा? , उत्तर-यास्वविक प्रमतयोग दी ट्विसादे परन्तु से साधारण के लिये उसकी त्यागबृत्ति अशकयद्दोतीदे इस देतुसे अद्दिसा विफास प्रमके लिये स्यूल प्राण नाश का त्याग अथम- स्थानमाना है सत्‌ पश्चात्‌ यथा क्रम प्रमतयोग का त्याग जनसमुदायमें ,सश्रवितरै धमतयोगका त्याग, द्ोते हुवे भी यदि श्ाणनाशउत्ति,यूनद्रोतो उससे जीवन शाकतियम होता है, जोर जन समाज के लिये घट्द

(२५६) रखा सन

इंप्ठ और हितवाह है सुस्यतया अध्यात्मविकासके साथकों को प्रमत योगरूप हिसा का ही त्याग इप्हे, तथापि समृदायक जीवन हश्सि पाणनाशरूप हिंसाके न्यागको ही अहिंसा की कोटिमें रक्सता है| यदि प्रमतयोग वा प्राण बध ये दोनों पृथक कण्दिये जांय तो उन दोषों का तारतम्यत्व भाव उपरोक्त व्याख्यासे स्पष्ट ही है प्रशन--हिंसा से निव्वत होना अहिसा है, परन्तु आहिसावत घधारी को जीवन विकास के लिये कीन * से कर्तेब्य करने चाहिये ? उत्तर-आअररंभ, परिशत्रह कम करता हुवा जीवन शास्तिसय रच्खे | ज्ञानाभ्यासके लिये पुरुषार्थ के अछुसार सदा तत्पर रहे सरलता पूर्वक रागद्वेप तृष्णा और कार्याकाय की विच्चारणा करके उसके खुधार का यत्न करें प्रशन--दिसादोपसे आत्मा पर कैसा असर होता है ? उत्तर--चित्त से कोमलूता नष्ट होके ऋरता बढ़ती है स्वभावतः हृदय करोर हो जाता है ८॥

असत्य का स्वरूप असदमभिधानमनृतस्‌ ॥९॥

अथ--असत्य बोलने को अनुत्व कहते हैं ९॥ 77

विवेचन--असत्‌ पद सभ्दाव निषेधक है सत्रकारने असत्य कथन को ही असत्य कहांहै तथापि उसमें असत्य चिन्तचन, अस- त्यकथन,असत्याचरण इत्यादि असत्य दोषों का समावेश होताहि। हिं- सा दोषकी व्याख्याके समान असत्य अदत्तादानादि दोषों की व्याख्या भी धरमतयोग पूर्वक समझनी चाहिये इससे फछिताथ यह होताडै कि अमतठयीग़ वाढोमें ही असत्य दोष सेभवितःहै अप्मत योगी को असत्य दोष का स्पशे मात्र भी नहीं है

आझण० सू० (२४७)

अखत्य दोष सुर्य्य दो विभागों में विभाजित किया गया है.। (६१) अस्तित्थ (सद्भाव) रूप होते हुए भी बस्तु का निपध करना था उसकी अन्यथा रूप से प्रच्षण करनी, (२? ) खत्य योलने पर भी यदि क्रिसीको, दुस या दुमोव दोताहो चह असत्य थी है।

अखत्य के त्यागी ( सत्ययतधारी ) को चादिये कि वे (१) प्रमतयोग फा त्याग करे ( ) मन, बच्न, काय प्रवृत्ति को एकता रूपसे साथे, (३) सत्य भी यदि दुभोव और अध्ियजन्यहोतो उसका कथन, चिन्तवन करे

चोरी का स्वरूप अदत्तदान स्तेयस्‌ १० अध--बिना दी हुई घस्तुके प्रहणको स्तेय अथोत्‌ चोरी कद्दसे छू १० ॥| विवेचन-तृण मात्र तुचछ वस्तु भी मालक से बिना मांगे ग्रदणकरना चोरीहे इस भत के ऋहण करने बालेको शास्त्र दृत्ति टुर्करके इच्छित्‌ बस्तुको न्याय पूवेक अददण करनी चाहिये। दुसरे की वस्तु उिनाआज्ञा उठानेफ़ा विचार तक भी करे १०॥

अन्नह्मचायें स्वरूप

अैधुनमत्रह्ष ॥श्श॥

अर्ध-मैथुन छृक्ति को अन्रह्म कद्दत्ते हैं ११॥

विवेचन--अथवा र्त्री पुरुष की अभिलापा पुरुष सी की अभि लापा। पुरुष, पुछप | वा र्री, री चह म। सजातीय (भलुप्प मनु प्य ज्ञाति ) विजातीय ( मनुष्य पशु जाति ) से काम रागके आवेदः

(२५८) नत्वाथ सूद

से मानसिक, चाचिक., कारयिक, प्रवृक्ति को मेथुन्य कहते हैं वा किसी जड़ वस्तु तथा स्वदहस्तादि अवयर्ोसे किये हुवे मिथ्याचरण ( कुचेष्ठा ) भी अवह्मचर्य ही है

मैथुन प्रदृत्ति के अछुलरणसे सदग़ु्णोका नाश और अखदणुणों की सहसा अभिवृद्धि होती है इसीलिये इसको अन्नह्म कहते हैं

परिग्रह स्वरूप शी मूच्छा पारप्रह: १२॥

अथ-मूच्छी को परिग्रह् कहते हैं १२॥

विवेचन--चस्तु छोटी या वड़ी, जड़ चा चैतन्य, चाह्य, अभ्यस्तर किसी भी प्रकार की भत्यक्ष रूपले हो चा भी हो परन्तु उसकी ओर आहाक्त होके विषेक शल्य होना दी परिग्रहहे | इच्छा, प्राथना काम, अभिलापा परिय्रह तथा मूछो ये समानाथक शब्द हैं

प्रदन--हिंसासे परिग्रह पर्यन्त पांचों दोषोंका स्वरूप वाह्यदष्टि से पृथकरूप है परन्तु चास्तचिक अभ्यन्तर दृष्टि से चिचार पूर्वक गवेषणा की जायतो कोई विशेषता नहीं जान पड़ती कारण उच्त पांचोंब्रतों के दोषों का आधार मात्र राग द्वेष ओर मोह ही है यही विष बेली है राग द्वेप ही दोष है इतना कहना बस था ? वह कह के हिंसादि दोपोंकी सेख्या पांच या न्‍्यूनाघिक रूपसे जो बताई गई है उसका क्‍या कारण ?

उत्तर-रण् द्वेष ही सुख्य दोष हैं. इससे विशम या विमुख होना ही एक यथार्थव्त है तथापि इसके त्याग चृक्तिका उपदेशदेना हो उस समय उन राग डेषादि से होने वाली परवृत्तियां के समझाने से ही उसका त्याग होसकता है राग दवेपसे होनेचाली प्रवृत्तियां असंख्याती छू. तथापि उनमें हिंसादि प्रवृत्तियां मुख्यरूप होने से

आ० म्रू० १३-१४ (शः ६)

और जन समुदायको सरल्तापूर्वक बोध कराने के लिये उक्तमेदों का यर्णन किया दै उसमें भी मुय्यतया रागदेेपका त्याग दी सूचित हिंसा दोष की विद्याल व्याय्या में श८ असत्यादि दोपों का भी समायेश होज़ाते हैं इसी तरह अखात्यादि किसी एक्क दोप की सविस्तार याष्या में शेष दोषो का भी समावेश होता दै इसी तरह अहिसा, सत्य, प्रह्मचय सन्‍्तोपादि किसी एक धमको ही मानने वाले अपने माने हुवे धमर में शेष दोषोंकों घटा लेतेहई

ब्रती की योग्यता नि शल्यो ज्ती ॥१३॥

अथ--इाल्य से रहित दो बह शती १३

विवेचन--अटिला, सत्यादि घत भ्रहणमात्र से ही घती नहींदो सफता घती होने की योग्यताके ल्यि सयसे पहली यात फौनसी दे डउसीको शास््रकार प्रस्तुत सूत्र द्वारा भ्रफाशित परते हैं “नि शल्यो शी अथात्‌ शल्य का त्याग करना शतीऊफे लिये सबसे पहली शत ह£ मायाशस्य, निनन्‍्दाशल्य, मिथ्या दर्शन शाल्य इन तीनों प्रफारके दाल्यों से जो रद्दित है बह्दी यथा रूपसे मतोंका पालन फरसफता # शल्य रदते हुए शत पालने भें पएयाप्र नहीं हो सकता जैसे-- शरीरके फ्रिसी एक भागमें काटा चुभजाने से यद्द शरीर और मन को अस्वस्थ करके आत्माको एकाप्र नदीं होने देता। इसी तरह शल्य मनयो स्थिर नहीं होने रेता सती को दाल्यका स्थाग करना

पद्दिली भूमिका है #+7 7 प्रती के भेद

आगय मामाराश. '. '. ॥हछ॥ भर्थ-यती के दो स्रेद ( १) आगारी ( २) अनगारी ॥१४॥

(२६०) सत्वार्थ सत्र

विवेचन--ब्रत लेनेवाले की योग्यता एक सरीखी नहीं होती. इसलिये योग्यता की तारतम्यता के अनुसार यहां के थतके मुख्य दो भेद प्रतिपादन किये हैं. आगारी ओर अनगारी, आगारी का अथ है ग्रहस्थ जिसका घरके साथ सम्बन्ध हो उसको अब्गारी कहते हैं | घरके साथ सम्बन्ध नहीं चह अनगारी त्यागी, भ्रमण. सुनि। परन्तु यहां इसका अथ ठछिया गया है कि जो चिपय दुृष्णा सहित हो चह आगारी और जो विपय तृप्णासे रह्दित हो वह अन- गारी इससे फलिताथ यह दोता है कि शद्द सम्बन्ध रखते हुवे भी यदि विपय तृप्णासे विम्ुुख हो वह श्रनगारी ही है ओर जंगल मे निवास करते हवे भी यदि विपय तृप्णा सहित है तो वह आगारी ही है आगारी अनयारी का व,स्तविक स्वरूप यही है. ओर इसीके आधारपर ही मुख्य दो भेद किये गये हें.

प्रदन--विपय तृष्णा होने से यदि आगारी है तो उसको आती फेसे कहसकते हैं ?

उत्तर-स्थूलदशिसे मनुप्य अपने घरमें या किसी नियत स्थान में रहताहै! परन्तु किसी अपेक्षासे वह अमुक शहरमें रहताहै. ऐसे भी व्यवहार किया जाता है इसी तरह विषय तृष्णा होते हुवे भी अब्पांश ततसे सम्वन्ध रखता है इसीलिये बती भी कहते हैं

आगारी ब्रती का वर्णन अणुब्रतोगारी ॥१७॥

देग्द्शानथेदुणडविरतिसामायिक पोषधोपबासोपभोगपरि भोग परिमाणा तिथि संविभाग व्रत सम्पन्नश्न॒ ॥१७॥

मारणान्तिकों संलखनां जोषिता १७

आ० स्ुृ० २४५२७ (२६१)

अथ-- अणुद्यत बारी को आगारी कहते दे ॥१०॥ बे दियूमत, द्ेशबत, अनथ दड, सामायिक, पोपधोपचास, उपभोग परिभोग परिमाण, और अतिथिसविभाग घतों से सपन्त (युफ्त ) होते ॥१६॥ मणणातिक सलेपणा के आराधक भी दोते दे ॥१छा

विधेचन-यदि अहिंसादि बतों फो सपूण रूप से रचीकार फरने के लिये असम है तथःपि स्यागमती की भावना घल्‍ोंफों शृहरुथी मर्यादा मे रहते हुये अपनी त्यागगम्मती के असुसार पतों फो अल्पाश स्वीकार कर सपफ्ते रे वे गहस्थ अणुम्तथारी ( भ्रायक ) कहलाते हैं।

जो अत सम्पूर्ण रूप से ग्रहण किये जाते हैं। उदे महाथत कद्दते हैं और पूर्णता के कारण उसमें तारतम्य भाव नहीं है अस्पाश फी विविधता के कारण यह प्रतिश्ञा अनेफ रूप से मानी है प्रत्येक अलुप्रत की ब्यारया यदि करणयोग और उसके गो से की जय तो बहुत विस्त/र द्ोता है परन्तु यद्दा सृप्रकार ने सामा सथ रीति से १द्वस्थ फे छिये अर्दिसादि मतों फो एफ एक रूप से घणन किया है. पाच अणुव्त त्याग फी पद्दिली भूमिका होने से थे मृछ गुणझत, फदलाते दें और इनकी रद्ापुरी या शुद्धि के ल्यि शद्दस्थ अन्य और भी घत स्वीकार करते हैँ उन्दें उत्तर गुणयत कटद्दते दै उत्तर गुणवर्तों की संस्या सामान्य रूप से यद्दा सात यताई है।

सामायत भगवान्‌ मद्दावीरस्थामी यी परम्परा में अणुयतों की सख्या पाच ही मानी गइ दे उसके क्रम में भी कोई मतमद नहीं हे योर उत्तरगुणरूप माने हुये सात घतों की सख्या तो सर्यमान्य है परन्तु उसके प्रम में मतमेद दे दपेताग्यरीय सम्प्रदाय में एक तत्याथ सूतन्न था पम्म बतमाप सृत्र द्वारा चेन करते भर दूसरा आगमादि अन्य पन्ये फा मम जिसमें देशाघती के स्थान

(५६२) ; न्म्धाथ सत्र

पर भोगोपभोग है. तथा साम्ोयिक के पश्चात देशवती का स्थान है. जले-दिस, भोगो प्रमोग, अनथ दंड, सामायिक, देशावागासिक, पोषधोपचास और अतिथिसेत्रिभाग यह ऋम होने हुये भी तीन गरुणवत और चार शिक्षाबत सर्चमान्य है और दिगम्वरीय सम्प- दाय में उत्तर-गुणबत का विषय ऋम और अशथ विक्राश के छिये चतमान में परम्पराय देखी जाती हैँ, जिसके लिये देखों जनो- चायों का शासन भेदनामक पुस्तक

पाच अणएब्रता के नाम ( ) ग्रहस्थ जीवन में मन, वचन, कार्य से सर्वधा हिंसा का त्याग चहाँ हो सकता इसलिये अपनी त्यागन्नत्ति की योग्यता के अल्लुसार मयादपूषक हिसा का त्याग करे, यहद् भहिसाणन्नत हे, इसी तरह अखत्यादि परिभ्रह पर्यन्त (२-५ ) ब्वतों का अपनी परिस्थिति के अमुसार मयोदित रूप से न्‍्याग करना ही अणुन्नत है। दा तीन गुण व्रत (६ ) अपनी त्यागव॒ति के अज्ुसार चारों दिशि के परिमाण की मयादा करे इससे मर्यादा के बाहरी क्षेत्रों में सब प्रकार के अधम से निन्वत्ति होती है उसे दिगृश्नत कहते हैं, ( ) दिशि का मान हमेशा के लिये किया हुआ है तथापि उसमें पयोजन के अज॒- सार परातिदेन क्षत्र की मर्यादा करे उसे देशथत कहते हैं (८) अपना जरूरत के सिवाय निरथेक प्रवति करनी चह अनथे दंड है डससे निवत्त होना उसे अनथदेड त्रत कहते हैं

चार शिक्षा व्रत (९ ) काछ की मर्यादा करके अधर्भ घवत्ति से निन्नत्त होकर डतन समय तक धम प्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करे उसकी सामाय्रिक बत कहते है ( १० )अप्टमी चतदशी आदि परे तिथियों

आ० खू१२-१४ (२६३)

में उपवास फरो धर्मजागरण करे उरूफो पोषधोपचास श्रत कहते है (११ ) जिसमें बहुत अधर्म या आरभ समारम से पेसे आद्वार चिद्दा: अर्थीत्‌ भोगोपभोग की चस्तुओों फा यथाशक्ति त्याम फरके न्‍्यूनाग्स वस्तुओं की मयोदा फरे उस भोगोपमोग परिमाण अत कद्दते हैं ( १३२ ) शुद्ध भाव, शक्तिपृथफ खुपान दान को अतिथि सेंविभाग शत फद्दते हैं कपाय अन्त फरने के लिये शरीर पोश्कि कारणों फो दछुट करता हुआ केवल उसके निवाद्द हेतु अल्पोदन ( अल्पद्दार ) था काए, सगठन की दुवलता तथा उपसगांदि दापों फो जानकर अल्प आहार या चतुथे पष्ट, अप्टम भक्त आदि द्वार आत्मा फो नियम में छाके सयम में ध्राप्त दो उत्तम प्रत सपन्न हो उसको सलेपणा घत फहते हैं थद भत शरीर के अन्त समय सूधी भ्रह्यण योग्य दोने से इसको मरणा तिऊ सलेपणा भी फ्दते दे चारों आद्यार को त्याग फर जीवन पथन्त भाषना, तथा अलुपेक्षा में तत्पर स्मरण और समाधि में बहुधा परायण ऐसे सलेसन" सची उत्तम अथे फे आरा घिक होते दे प्रक्ष--सलेसनावती अनदानादि द्वारा शरीरान्त करताटै, इस ल्यि यह आमव हुबादे और आत्मवधरटे, यद् स्वर्िसा है इसलिये इसको त्याग घम (थत) फैसे कहतेद्दो ? उत्तर-मात्र बाध्य इशिसि दु वा प्राणनाश रूपदिसा, द्विसाकी घोटिम वहीं है दिसाका चास्तपिफ स्वरूप राग दप और मोद्दपी चूक्षि पर अचारम्पितदे। सलेसपायतर्में भ्राणनाशंदे, तथापि वह रागद्धए, मोदजनित नहीं द्वोने से द्विसा फोटिमें सम्मिलित नहीं होता पिन्तु उस ( सलेसनश्रत ) का ज़म निम्मोद्द और धीतराग भावषकी भशनासदि, भीर सतकी पूणता भी उक्त भाषनाकी सिद्धिये

(२६४) - तत्वार्थ खन्

प्रयत्न से होती है इसलिये घह शुभ या शुद्ध ध्यान की श्रेणी में सम्मिलित होताहे।

प्रश्ष--कमलपूजा, भेरव जप, जलू समाधि, आदि अनेक प्रकार होनेवाली हिसाको धम रूप माननेवालोंकी प्रथामें ओर संलेखनबाकी प्रथामे क्‍या अतरहे ?

उत्तर--प्राणनाश की स्थूल दृष्टि से दोनों तुल्य हैं परन्तु भावना की तरफ दृष्टिपात करने से तार तम्य भाव स्पष्ट रूप से प्रगठ होता है कहां आत्म-संशोधन की भावना ओर कहाँ सोतिक आशाओं के कारण वा अन्य किसी प्रछोभन के आवेश से की हुईं क्रियाबृत्ति तत्वशान की दृष्टि से दोनों उपासकों की भावनाये पथक रूप होने से वह हिंसा तुलनात्मक नहीं हो सकती जन उपासना का ध्येय तात्विक दृष्टि केचछ आत्मशोधन ही है किन्तु परापंण या पर प्रसन्नता की तरफ किचितमात्र भी उनका दृष्टिपात नहीं है किसी प्रकार का दुध्यान उपस्थित नहीं हो ऐसी अवस्था ही यह बत विधेय ( आह्य ) रूप माना गया है ॥१०-१७॥

5 घर सम्यगू्‌ दशन के अतिचार शडका काडज्षविचिकित्साअन्यदष्टि प्रशंसासंसतवाः सम्य- गदष्टिरतिचारा: ॥१८॥

अथे--सम्यगदष्टि के पांच अतिचार हैं. शका. कांच्ा विचिकि- न्‍्मा अन्य दृष्टि मशेंखा और अन्य दृष्टि की सम्पावना "॥ श८॥

विवेचन--किसी घकार की सफलता (दोप) से स्वीकार 9 शी कक घीरे किये हुये गुणों में मलिनता उत्पन्न हो या घीरे घोरे हास अवस्था को प्राप्त हो ऐसे ठोपों को अतिचार कहते हैं

आ० सु«“रै८ (२७०)

चारित्रका मुण्याघार सम्यकत्व है इसकी विद्युद्धता पर चरित्र की शुद्धि अधल्म्पित है. इसलिये ,सम्यक्की शुद्धि में जिससे चाधा पहुँचती हो या सभव दो एसे अतिचार ( वोष ) मुस्यत॒या पाच यतामे गये हैं। : 5 (१) ध्षफा--सम्यफ्रष्टि जीवॉफों अ्दत्‌ू भगवान्‌ कथित अति सचध्म,-अतीर्ठिय तथा मैचल शान या आगमप्रमाणसे ग्राष् पदार्थों में 'सदेहं करना उसको शको अतिचार'कृरते हैं। अमन सिद्धास्तेतिं सदाय भर तत्पूवेक परीक्षा इसफेलिये पूण तया स्थान है तथापि यहाँ शका फो अतियार कद्दा जिसकी कोरण' यह है कि तर्कथाद की फर्सीटी एर/क्सने योस्य पदार्थों क्रो/सर्कटप्रिसे पप्रधत्त्‌ ते करने से,,घद धद्धागम्प 22308: धयथार्थ युद्धिगम्य नहीं फ़र सकता और विना यथार्थे घुद्धिगम्य किये फिसी समय घट चिकासभाषफी प्राप्त दोआाय ऐसा जो शका दौप पद झतिचार रूपसे स्याज्य रूपईे (२) फॉला-पंदिक सथा पारलौफिक पिपयोपी अभिलापा को फाछा कद्दते हैं। साधेव अमिल्‍ापी होनेसे शुण-दोषों फे।।वि चार मरद्दी का सकता इसडिये बद्द/अपने सिद्धान्त भी भ्वस्थित नद्दी रद सकता चास्ते काक्षा अतिचार द्ोप रुप है. (-3 )|विधिफिल्सा->जद्ा हक! या -तिचाप्मेद, का प्रसग दो यहा स्वमति से निणय क्यि यिना दी संवक बचनोकी वर्थाथ फूपसे माउलेना जैसे मगयान्‌ मद्दावीग्ने यद्धा घद्नमी ठीवदे दौर कपिलादिका “कथन भी डटीकदे ऐसी भवयुद्धि को विशिवि-सा अतिचर फहनेहें (४-० ) मिथ्यादएि-प्रशला थघ स्तवना--जिसक्री दृष्टि यथाओ भे हो उसकी प्रशसला चार रुप है <प

(२६६) तत्यार्थ सत्र

किसी समय अपने सिद्धान्तों से सस्‍्खलित हो जाता है. इस ढिये अन्यदृष्टि प्रशसा, सतवना अतिचार रूप है और विवेक पूर्वक ग्रुण दोपोंको समझनेवाले साधकके लिये वह एकान्त रूपसे नि कारक नहीं है उपरोक्त पांचों मतिचार श्रावक ओर साघधुके लिये सामान्य रूप हैं १८

बारह त्रत के अतिचारों की संख्या का वर्णन.

त्रती शीलेपु पश्च पश्च यथाक्रमम्‌ १६ वन्‍्धवधच्छविच्छेदाइतिभारारोपणाउन्त पाननिरोधा २० मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यान कूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमंत्र भेदा) २१॥

स्तन प्रयोग तदाहता दानविरुद्धा राज्यातिक्रमहीनाधिक मानो- न्यान ग्रति रूपक व्यचहारा: २२॥ ...

परविवाहकरणो त्वरपरिशृद्वीताड्परिगृहीतागमनाऊनंग क्रीड़ातीत्र

करत [७० पदक

क्ामा निवेशा। २३

ज्षेत्रवास्तुहिस्एय सुबण धन धान्य दासी दास कुप्य प्रमाणाउति- -क्रमा॥ २४ |

- उध्चोधस्तियण्‌ व्यतिक्रम चेन्र वृद्धि समृत्यन्तधानानि २५ आनयन ग्रेष्य प्रयोगशब्द रूपानुपात पुद्ठलक्षेपा २६ कंदप कौत्कुच्यमौखया5समीक्ष्याधिकरणो प्रभोधिकत्वानि ।९७। योगदुष््णिधानानादरस्म॒त्यजुुपस्थापनानि २८ !।

अ० सु० १६३२ (२६७) अप्रत्यवेश्षिताप्रमा्ितोत्सगादाननिच्षेप। सस्तारोप्रक्रमणानादर

स्मृत्यनुपस्थापनानि २९॥ ' ' | सचित सम्बन्ध समिश्नाउभिपवदुष्पकाहारा, ३० सचितनिशेषप्धान परव्यपदेशमात्स्य कालाति क्रमः २१॥ जीवित मरणाशता मित्रजुराग सुपानुवन्ध निदान करणानि ।१ ४!

अश--ब्रत ( भटिसादि पाव ) शील ( दिगादि सातों ) में यथा क्रम पाय पाच अतिचार होते हैं १९

यन्ध यध, छविच्छेद, अतिभारोपण अश्वपाननिरोध ये पाच अद्विसावतके अतिचार हैं रे०ण॥.*

मिथ्याउपदेश, रद्ृस्थाभ्याख्यान " भुप्तवात प्रगठटकरना ”' फूट लेफकिया, न्‍्यासापद्ार, है एप: अब के ँअपद्वार और साकार मत्र भेद ये पाच सत्यप्नत के अतिचार हैं २१॥

स्तेन प्रयोग चोरों से व्यवद्वाए " तदाह्नतादान “उनकी लाई हुईं धस्तुमदण करनी वियद्ध राज्यातिकम, दीनाधिक्मानोन्मान आर प्रति रूपक च्ययद्वार ' कपट व्यवहार” ये पाच अस्तेय ( अची ये ) घतके अतिचार हैं. ॥शशा

परविवाद्द, इत्यरपरिशहीताग्रमन, थपस्गिदीतागमन, अनय अीडा और तीध्रफामाभिसेवन ये पा घा्मचये प्रत के अतिचार हू ॥२शा

क्षेत्र वस्तु ( भूमि ) (?) दिख््य ( छुबण यादी ) (२) धन घान्य ( ६) दास दासी ( ) तथा कप्पादि के परिमाण का अति ऋम करना परिप्रद्द घत के अठियार हैं रछा।

श्‌ (रद) तत्वाथ सूत्र

ध्य, अधो. तिथंग दिशा व्यनिक्रम केत्र वृद्धि और सुखृत्यन्तर ध्यान ये पांच दिखत के अतिचार हैं ॥रशा। आनयन, पाष्यप्रयोग, ऋध्दाहुपात, रूपाछुपान, पुद्गलूक्षप, ये पांच देशबत के अतिचार है २६

कंदप, फोकुजय, भौखये, असमीक्षाघिकरण, और डपभोगाधि कंत्व ये पांच अतिचार अनथ दंड विर्मण ञत के हैं २७

काथहुप्प्रणिधान, वागदुप्प्रणिधान, -मनोद्प्प्रणिधान, अनादर ओर स्मृत्यनुपस्थान ये पांच सामायिक बन के अतिचार हैं ॥२८॥

अप्रतिवेज्षित तथा अप्रमाजित स्घूल में उन्सगे (१) उक्त ) आदाननिक्षेप, (२) संस्तारोपक्रम (३) अनादर (४) और स्तृत्यनुपस्थान ये पांच पोषधोपवास बत के अतिचार हैं॥ २०

सचिताहांर, सचित सम्वन्धांहार, सच्ित अभिषवाहार, और दुष्पककाहार ये पांच उपभोग घत के अतिचार हैं ॥३०॥

सचित निक्षेप, सचितविधान, परव्यपदेश, -मात्सये और कालातिक्रम ये पाच अतिथि संचिभाग बत के अतिचार हैं ॥३७॥

जीवितालुशंसा, मरणान्लु॒शंसा, मित्रालुराग, सुखाजुवन्ध, निन्‍दा- नकरण ये पांच सलेखना ब्रत के अतिचार हैं ॥३५॥ हे

विवेचन--जो:निगम्रम श्रद्धा और समझपूर्चक ग्रहण किये. जाते हैं: इन्हें बर्त कहते हैं शत शब्द से ही श्रावक के चारह जबतों का समावेश हो ज्ञाता है तथापि भस्तुत सूत्र में बत, शीर, दो शब्दों का प्रयोग किया जिसका कारण यह है कि चारिचत्र धर्म के मुख्य नियम अधहिसांदि पांच ज्ंत है वत कहलाते हैं ओर इनकी पुष्टि के लिये शेप दिगादि थर्त हैं उन्हें शील कहते हैं ये संज्ञा सूचक हैं. ओर इनके पांच अतिचार वंताये गये है वे मध्यम ्ंध्ि सांपेक्ठ

प्रू० सु०-१९ ३२ (२६६)

हैं जधन्पोत्क्टरूप से वणने क्रिया जाय तो उसकी व्याख्या न्‍्यूना पघ्रिक सस्या रूप भी यता सर्कते हे प्र * राग डेप के विकार का अभाव और समभाष सद्भाघ के आपि भौव फो चारित्र कद्दते हैं तथा चारिध का मूले स्वरुप सिद्ध करने के ल्यि मदिसादि जो जो नियम प्यावदह्ारिक जीवन मे स्वीकार फिये जाते हैं वे सप चारिभ्र कद्दे जाते है ब्यावद्ारिक जीवन देश फाल आदि परिस्थिति या महप्य घुद्धि के खेस्कारायुसार न्‍्यूना सिक रूप छोने से चारिन्र स्वरूप एक दोने पर- भी; उसके नियम का 'तास्तम्यभाय अनियाये दे इसलिये भ्रावक्‌ के भी अनेक मेद हैं नथापि शास्त्रकार तेरद विभाग की कब्पना करते हुए उनके अतिचार्रों का फथन फरते हैं| १० 5 रे अर्दिसा मत के अतिचार। >> (१) चस स्थावर जीवों का यघ या ( & ) यधन, ( ३),काष्टादि से छेदुन (४ ) अथवा जीवों पर अतिभार ,छादा (रफ्सा ) ना ओऔर उनके आदार पानी का निषेध फ्रना ये प्राथ अतियार अर्दिखाथत के है ॥२०॥ सत्य श्रत फे अतिचार। हल (१) मिध्या उपदेश--सच झूठ बात के फुरास्ते पर च्दाना (३) रद्बस्थाभ्यास्योन--गग डेप से भेरित द्वोषे दास्यादिं द्वारा किसी फी गुप्त याद को प्रगट् कर डेना (३) कट, लेए--मिथ्यालेख ( ज्ञारी लिगा पढ़ी ) (४) स्यासापद्दार--घरोददर (अम्रानत) रफ्खी हुईं वस्तु का अपदरण, (५) साफार मत्र मेदइ-चुगली या खोटी सलाद देके किसी की प्रीति को तुड़या देना ये सत्य ध्रत थे अति ार दे ॥रश 2 भ्वस्तेय (प्रचौय ) मत के >अतिचार | (१) स्मेन ध्रयोग--चोरी के लिये प्रेरणा करपी था उनसे घ्यच

(२७०) तत्याथ सत्र

द्वार करना (२) तदाहतादान चोरी की लाई हुई वस्तु अल्पया ठीक मूल्य से लेनी (१) हिनाधिकमानों पमान--चस्तुकी लेन देन मैं हीनाधिक तोछ नाप करना ( ) विरुद्ध राज़ातिक्रम--राजा को आज्ञा का उल्छेघन करना (५) पतिरूपक ब्यवहार--सोटा सिक्का अथवा कपटपूर्वक नकली चीज़ चना के यदल देना ये अस्वेय न्रत के अतिचार हैं २२ ब्रह्मचये घबत के अनिचार | (१) परविवाहकरण-दूसरे की शादी विचाह कन्यादानादि करना (२ ) इत्वग्परिग्रहीता--व्यभिचारिणी या डूसरे की विवा- हविता से प्रसंग करना (३) अ्रपरणशहीता--कुँवारियों से या वेश्यादि से प्रसंग करना, ( ४) अनंग क्रीडा--अस्वासाविक रीति से काम सेवन करना (५ ) तिशब्रकामाभिसेवन--काम सेवन के लिये तीत्र अभिलापा ये ब्रह्मचये श्रत के अतिचार हैं २३॥ अपरिय्रह घत के अतिचार | ( १) क्षेत्रवस्तु--क्षेत्र जमीन खेतादि वस्तु घरादि के परिः

माण से अधिक संग्रह करना, (२) हिरणएय खुबण--सोने चांदी' या वस्तुओं का परिमाण से अधिक संग्रह करना ( ) धन-गाय भैसादि, धान्‍य- अन्न आदि के परिमाण से अधिक संग्रह करना- (४ ) दास दासियों के परिमाण से अधिक रखना (४) कुप्य- अमाणातिक्रम--वबासन वतैनादि को प्रमाण से अधिक रखना, ये ' परिश्रह्द बत के अतिचार हैं २४

द्गविरमण शत के अतिचार |

बत संज्षक अहिसादि पांच नियम जतों के अतिचारों की

व्याख्या करके अब शील संश्क दिगादि ब्तों के अतिचार अज्ुक्रेम से बताये हैं

0

अ० सूत्र १९ ३२ (२७१)

(१) उध्य-पझाड पद्दाड़ादि पर चढ़ने के लिये ऊचाई के परिमाण की मयांदा विस्मृति या लाभादि फे फारण उलघन करना, इसी तरह ( २४) अधस्तियगयति--फ्र्म अथोन्‌ नीची और तिरछी दिशा के मर्यादा का उछघन फरना, (४) क्षेत्र शृद्धि--उत्तर पूर्यादि चारों दिशाओं की मर्यादा में से किसी एफ दिशा की मर्यादा फो घटा के दूसरे दिशा फी मयोौदा में छुछि करनां (०७) स्मृत्यन्तरधानानि--कद्दा तक सीमा मयोद्त की गई थी उसकी स्मृति रहना इत्यादि दिगविर्मण झत फे अतिचार दै॥२श। 7

॥। देशायकाशिक प्रत के अतिचार |

(१) आनयन--नियत सीमा के याद्वर फी पस्तु को स्पयम्‌ छाकर किसी अन्य पुरुष द्वारा मगवा लेनी (२) प्रेप्य प्रयोग सीमा के याद्विर की यस्तु को प्रेष्य नौकर द्वारा मेजबानी ( ) शाम्दात्ञुपान--पासी आदि शब्द द्वारा काये करवाना, (४) रूपाल पात--रूपादि दिखा के फाये करवा लेना (४ ) पुदूगल क्षेम-- पत्थर, ढेलादि फेंफ कर काये फरवाना ये देशपमत फे अतिचार हू २६॥

अनथे दढ विर्मण मत फे अतिचार | हे

(१ ) कद॒प--रागवश असम्य भाषण या परिदासादि करना, (० ) कौफुच्य--भाडादि के समान फुचेष्ठाये फरनी (३) मौसये निर्लेज्यपने या बिना सम्पन्ध फे अति प्रलाप करना (४) अमसमी क्षाघिकरण अपनी जरूरत से उपरान्त सावच उपकरणों फो एक ल्वित फरना या बिना मागे फिसी को देना (५ ) उपसोगाधिकत्व उपभोग से अधिक घस्तु रखना ये अनथ दद् भत के अतियार ॥२७॥

(७२) * तंत्याथ सत्र सामायिक घत के अतठतिचार |

( १) योग दुष्पणिधान--इसके तीन सेद है कायदुएघ० बिना काम हाथ पगादि संचालन करना ( ) बागदुपतप्र८--सावध भाषा या उपयोग रहित बोरना (२) मनठुषप्र० साथध या उपयोगरडित मनोव्यापार (३) अर्थात्‌ जिस प्रकार सावधानी के साथ मन, चचन, कायिक योगों को सामायिक समय तनिवधपने चर्तना चाहिये बेसा करके अनोययोग वा-सावधदय व्यापार को कायकादि दुःख प्रणि- चान कहने ह€ ( ) अनादर > सामायिक उत्साह सद्दित करके अन्यचित्त निरादरपने केरना ( ) स्मृति उपास्थानानि-सामायिक

में आवद्यकीय कार्यों को भूल जाना ये सामायिक व्रत के दोप है २८

$

'चोषधःश्षत -के अतिचार।

अमत्तिवेज्षिता प्रमाज्ित उत्सग--बिना देखे शध्रमाजन किये मल म॒त्रादि केरना (२) एवं आदन निक्तेप--विना देखे प्रमाजन किय्रे किसी वस्तु को रखना (३) संस्तारोपक्रमण--विना देखे प्रमाजन किये संधारा (विकछीना) आसनादि बिछाना (४-०) अनादर स्वति०-पोपधःअनादर से करना तथा आवश्यक क्रियाओं को भूल जानी या समयपरन करना ये पोपषध घत के -अतिचार दे |

भोगोपभोग-च्रत के अतिचार ।-

संचितांहीर--अंयोग्य वस्तु -आहॉर केरना, -( २) सब्सति 'सस्वन्धीहांर--अंयोंग्य से सम्बन्ध रंखेने ' वाली चस्तु आहार करना (३ ) संचितंसमिश्रोहिर--संचित, अचिंत, मिश्रित: पदांथ का आहार करना (४) अभिषवाहार--मादक पदार्थोंकों लेवन

है

अ० खू० १९ शे२ (२७३)

करना, (० ) दुष्पक्कार--अध पके या रे पदार्थों को सेवन करना ये उपभोग बत के अतिचार हैं ॥३०॥ अतिथि सबिभागम्रत के अतिचार (६ ) सचित निशक्षिप--देने योग्य वस्तु को देने की युद्धि से अयोग्य सचितादि वस्तु मिला देनी, (२) सचित पिघानम्‌--पूर्वा फ्व पस्तुफो सचितसे ढक देना, ( ) परव्यपरेश--पूर्षोक्त वस्तुको दूसरे की फद्ददेना, (४) मत्सये-दानदेने, लेनेबालों के गुणोखि पैप्यो करना, ( ) फालातिफक्रम--दान के समय का उलघन करना ये अतिथि सबिभागप्रत के अतिचार है सलेसना वत के अतिचार (१) जीविताइहुशसा--पूजा सत्व/रादि देख कर जीत की अभिछापा करनी (२) मरणानुशसा--हु सादि देख फर मरने की अमिलापा फरनी, (३) मिप्राहुराग--मिन्र पप्नादि पर प्रीति भाव रखना ( ४,) खुखातुवन्ध-अज्भुभव किये हुये खु्सों का स्मरण करना (४ ) निदान कारण--तपस्यादि करके भोगादि गिपयों की आयाज्षा फरनी ये सलेखना थत के अतिचार हैं। , , उपरोक्त अनिचार यदि इरशादेपूवक या चकफ्रता से सेवन क्यि ज्ञाय तो वे प्रत सडन रूप अनाचार हैं. भूरः या असायधानी से दुषित को अतिचार कद्दते हे १६ इश।

रे दान का वर्णन अजुग्रद्य्थ स्वस्थाति सगे दानम॥३१॥ पिधि द्रन्य द्राद पानविशेषात्तठ्िणेष ॥३२४॥ अथ-द्वित करने की इच्छा से अपनी चस्तु या त्याग करना

दान फहल्वता दे ३३॥

विधि, द्वब्य, दान और पान्न इनपी दिशेषता से दान की प्िशि चता द्ोती है ३७॥

(२७४) तत्वार्थ सत्र

विवेचन--जीवन के सदगु्ों में सब से पहिन्शा ओर अन्य सदगुणों के विकास का आधार तथा पारमार्थिक इृष्टि में आदर- णीय है ; है

न्‍्यायोपाजिंत बस्तु दुसरे को अरपण करना ही दान है. इससे स्व ओर पर को उपकार होना चारिये अरपण करने घाले को वस्नु पर से ममत्व भाव घटा के सन्‍्तोंप और समभाव प्राप्त दोता है स्वीकार करने वाले का अभिप्राय केवछ जीवन याघ्रा निबराह करके चारित्र के सदग्ुणों की अभिव्ृद्धि कर्ना

सब प्रकार का दान, दानरूप से एक ही है नथापि उसके फल में तास्तम्य भाव रहा हुआ है ओर बह तारनम्य भाव दान की व्रिशेपता पर अवलम्बित है सत्रकार ने उसके मुख्य चार अंग बदाये हैं यथा--

(१ ) विधिविशेप--देश, काल, श्रद्धा के डचितानुचित स्वरूप को देख कर लेने वाले के सिद्धान्त को अवाधित हो ऐसी कल्पतीय वस्तु अपेण करना विधि विशेष है

( २) द्रव्य विशेष--देय वस्तु योग्य शुणवाली होनी चाहिये जिससे लेने चाले पात्र की जीवनयात्रा में पोषक रूप होकर ग़ुण- विकास को धाप्त करने वाली हो

(३ ) दाताकीविशषता--दान को अ्रहण कनों पुरुष पर श्रद्धा होनी चाहिये उसके तरफ तिरस्कार या. असया (शुणों में दोप दृष्टि) हो ओर त्याग के पत्चात्‌ शोक तथा विपाद हो आदर- पूवक दान देने की इच्छा करते हुये उससे प्रतियोग या किसी फल की कांच्ा रखे |

(४ ) पात्र की विशेषता-सम्यगदशन, ज्ञान, चारित्र ओर तप संपन्न होना यह दान के योग्य ( पात्र ) की विशेषता है ॥३३-३४॥

इति तत्वाथ खज् सप्तमाध्याय हिन्दी अनुवाद समाप्तम

& "ए'एकस्साशरामए उप्णखा पाए, श््

॥_ अएभोइघ्या्य्छ है

2 कपधाफदाातपकपशाक्राशणत, 8,

आधव वा निरूपण कर चुये अब यथा क्रम (झ० सू० ४) चम्ध की ब्यास्पा सिद्ध करने के हेतु सृत्न निरूपण करने हैं।

वध हेतु निर्देश मिध्यादशनारिरतिप्रमाद कपाय योगयन्ध देतब' ॥१॥ ;

अधैे-मिथ्यादशन, अधिग्ति, प्रमाद कपाय मौर योग यन्‍्ध ह्तुद्दें श॥

विधेया-थथ का स्थरूप आगे सत्न से कहेंगे प्रस्तुत सूत्र में उनके छेतुयों का निर्देश # शास्त्रों में धम्ध देसु्यों की सस्या विषय तीय पररुपगर्ये देखी जाती दै एक परम्परा घाले फपाय और योग दो एी यथ देतु मानेते £ इसका उस्लेस पचसमप्रद की मल्‍्या शीरी टीकादि प्र थों में दे हूसरी परम्परा पदशिसिचतुर्थ कर्म प्रस्थ गाथा ०० भौर पथ सप्रद द्वा० गा० ? आदि प्रथकारों की दे। थे मिथ्यात्य, अधत, कपाय और योग घार यन्ध हेतु मानते है भौर तीसरी परम्परा सूधवाए वी है जो मिथ्या-्य, भवदि रत, अमाद कपाय भौर योग रूप पाय बाघ देतु माने है उपरोक्त मातम्य पेयड जाम भीर सम्या मात से मिक्त स्थरुपी है थास्तपिक सत्य इृष्टि मेरे भषारोफा किया जाय तो उन भेदों में छुछ भी अया न्तः नहीं रै, प्रमाद यद पुक' प्रयार का ससयम दै जिसवा जविरत था फपाय में झन्तग्माय होता दे भौर ऐसी ही सूथम दृष्टि से

(2७६) तत्वाये सत्र,

आगे और भी देखा जाय तो मिथ्यान्व और अधिरत कपाय से प्थक्‌ नहीं हो सकते वे चस्तुत. कपाय ही के अन्तरगत है इसी अभिष्राय से पांचवे कमेत्रन्थ की ९६ गाथा मे दो ही (कपाय योग) बन्‍्ध हेतु माने हैं ओर विस्तारप््वेकत समभने के लिये ग्रन्थकारों ने प्रत्येक कर्म के जुटे जुदे चन्‍्ध हेतु बताये है जैसे पूर्व अध्याय £ सूत्र ११ से र६ अथवा कर्म अन्ध पहिला गाथा "४ से ६६ आदि ग्रन्थों मे है हा

कोई भी बांधा हुआ कम अधिक से अधिक चार ( प्रकृत, स्थिति, रस. प्रदेश ) अच्षों में विभाजित होता है जिसका चणन वतेमान अध्याय के सूत्र में है ओर उनके कारण कपाय और योग दो ही कहे है यथा पंचम कम चघनन्‍्थ-

जोग पयड़ि पससं, ठिहवअणुभाग कपायाओ ।' ६६

अथे--प्रकृति और प्रदेश का निर्माण योग से होता है. ओर स्थिति तथा अनुभाग रस ) बन्धका कारण कपाय कहां है!

आध्यात्मिक विकासकी उन्‍नतावनन भूमिका रूप गुणस्थानों में वंधती हुईं कम अरकृतियों के तारतम्य भाव जानने के लिये उप- रोक्न चार बन्ध हेतुवॉका चणेन है उक्त बन्ध हेत॒वों की जिन गुणस्थानों मे अधिकता होतीहै वहाँ कमे प्रकृतियोंका बन्ध भी अधिक अधिकतर होता है. और वन्धहेतुक्की अचनत दशा में कर्म प्रकृतियोंका वन्ध सी हीन हीनतर होता है. इसलिये उक्त मिथ्या- त्वादि चारवन्ध हेतुकी परस्परावालोंका मंतव्य प्रत्येक गुणस्थानों में चंधती हुई प्रकृतियोंक्रे सद्भावी कारणोंका पृथककरण है: और उक्त चारवधहेतुवों का विग्छेष ( समावेश ) कषाय और योग में होता है. पांचवंधहेतु परम्पराचालोंका आशय उक्त चार परम्परा बालोंसे श्थक नहीं होसकता और यदि पृथक किया जाय तो इस

हे

अ० सृ० (२७9)

का द्ेतु फेचत जिशासु शिष्पफो विस्तार पूर्वक समभाना दै (१) मिश्थात्य--सम्यफ्त्व से विपरीत मिथ्यादशन को मिथ्या

तय ऋदते है वद्द दो प्रकार का है. (१) चस्तु की यथाथे श्रद्धा का अभाव (००) अयधा 3 चस्तुकी श्रद्धा, इन दोनों अवस्थाओं में विशेषता यह है कि पहली अवस्था विचार शन्य केचछ जीव फी मूढ दशा है और दूसरी घिचारशक्कि की स्फुरायमान अवस्था है' इस अवस्था में यदि अभिनिवेश ( दुराष्रह् ) से श्रपने असत्य पच्त को ज्ञानता छुपा भी उसकी स्थापना करने के लिये अतत्य का पत्तपुत करे इसको मिथ्यादशन कद्दते हू यद् उपदेश जन्‍्य होने से अभिगम्रहीत फद्दलाता है और जिनमें गुणदोप या तत्वानत्व जानने की पिचार दाक्ति दो उसफो अभिग्रह्दीत मिध्यात्थ फद्ते है यह अनभिग्रद्दीत मिथ्यात्य फीट, पतगादि के समान मूछित चैततनायाली जातियों में समवित दोता है. और अमिग्रद्दीत पिथ्या त्व मसुष्य पे समान घिकसित जातियों में दोता है...“

(४ ) अधिरति-दोपों से प्रिराम होना | यथा अध्याय

सूत्र (३) ध्रमाद--श्रात्म विस्मरण या अच्छे कार्यों में अनादर,

कर्वब्याकतंब्य के लिये असावघान।

(७) कपाय--समभायकी मयोदा का उलधन [विशेष यर्णन ] अध्याय सत्र १९ में है

(४ ) योग--मानसिक, पाचिक, फायिक, भवृत्ति। यथा अध्या यध्सृत्र श्स्ते ' |

छंट्टे अध्याय में घणन किये हवे चाघद्देतुओं में और प्रस्तुत यध देतुओं घिशेषता यद्द दै कि थे प्रयेव कमके पिशेषतारूुप मुण्य पर्धद्देतु दि पूपंपर्तो बधद्वेतुओं फे अस्निवर्मे उत्तरयर्ता य्धद्टेनु

(३७८) _वत्वा सच

अवश्य होते है. असे--मिथ्यात्वके रहते हुवे शेष अधिरत्यादि चारोंकी अख्तिता अवश्यमेव होती है. ओर अविरतके रहने पर प्रमादादि तीनों त्नन्‍्धददेतु अवश्य होते हैं. परन्तु मिथ्यात्वकी निय* मा नहीं है क्‍योंकि मिथ्यात्व केवल पद्दिले गुणस्थानकर्में ही अविरत के साथ रहता है. परन्तु द्वितियादि चार गुणस्थानों में उसका अभाव है, इसी तस्द उत्तर वर्ती बन्धदेतुवां के साथ पूर्व वर्ती बंध हेतुओं की नियमा नहीं है. वे मिथ्यात्वादिकी अस्तितामें होते हैं अन्यथा नहीं दाने. यथा चतुर्थ कमे ग्न्थ--

* इग चउपणति गुणेसु, चउतिदुइगपच्च बन्धों ५२॥

आअशथे-एक मिथध्यात्वगु० में चारों चंधहेतु होते हे सास्वादनसे देश वरति पर्यन्द आर शु० में तीन वंधहेतु होते हैं छट्टे से दशवे तक पॉच शु८ दा अन्धरहेतु हैं. ओर ग्यारहवें से तेरहवें मु० पर्यन्त एकवन्धचद्ेतु दे

बन्ध्‌ सखरूप सकायस्वाजीवाः करमणोयोग्यान्‌ पुद्रलानादसे ॥२॥ संबन्ध। _ 8१॥

अथे--कपष्यय सहित दोने से जीव कमे योग्य पुद्लों को अहण करता है डसीको चन्ध कहते हैं 3३॥

विवेचन--पुट्ल की चर्गणायं अनेक प्रकार की अनन्तोनन्‍्त रूप हैं डलमें से जा चर्गणां कर्म परिणांम योग्यताबाली है डसीको जीव अहण करके अपने धदेशों के साथ विशिष्ट रूप जोड़ता है जिसका विशेष रूप से चणन आगे सूत्र २० में है

अण०्८सूत्र (२७६)

जीव स्वभाव से अमूते हैः तथापि अनादि कालिफ फर्म सपन्‍्ध

से फमे सहयारी होने के कारण चह मूत्तिचान दिग्गई़ ढेता है और फम पुक्लों फो ध्हण करता है जसे--दीपक बत्ती आरा तेल प्रहण करके अपनी उष्णता से ज्वाला रूप में परिणमन होता है। इसी तरह जीव फपायिफ विकारों से फमे योग्य पुद्धरो को ग्रहण करके भाष फमे रूप से परिणमन करता है ओर आत्म प्रदेशों के साथ कम पुद्नलों वा सम्बाध ही वन्‍्ध फहलाता है। घन्ध के स्पि मिश्यात्वादि अनेक निमित्त हैं तथापि उसमें क्वाय की प्रधानता सूचित करने के लिये ही “सकयायत्वात' जीव हयादि कहा है सफर्मी जीव शरीराथ जो पुद्कछ ग्रहण ऋग्ना है! उसी फो चन्ध कद्दते है. २-३

पा चन्ध के भेद प्रकृति स्थित्यनुभाव अंदेशास्तद्विधय'

अर्थ--कर्म घबन्ध चार प्रकार से होतादे (! / प्रहति (२) स्थिति, (३) अद्ञभव, ( रस ) (४ ) भदेश विधेचन--जीच द्वारा प्रदण किये हुवे कम पुडरा कर्म रूप परि जाम की प्राप्त दोते समय थे चारों अशों मे विभाजित दोते हैं उसी अशों को यन्धमेद कहते हैं जैसे-गाय, मस, बकरी, आदि का साया हुवा घास रक्त, मेघा, मास, दुधादि रूप परिणमन होता दै इसी तस्द जीव द्वारा प्रहण किये हुवे कम पुद्टल आठ कर्म | प्रति रूप में परिणत दोते हैं, उसफो प्रदुति यंघ कहते हैं, चदद दूध नियमित समय तक अपने स्वभाव में रद्ता हैं उस काल योदा को स्थिति घनन्‍्ध कहते दें, अर दूधवी मधुरता जो तीयता

उल्वाथ सच

नेता रहती हो उसको शनभादरा वन्‍्धच भथान रख बरचे कांते ८. आओर तत्‌ योग्य पुडलों के परिमाण का निर्माण भी उसी समय हासा है. उसको प्रदेश चन्‍्ध कहते हैं. इसी को कमी प्रन्थ में मोदक के दृष्शान्त से समझाया है |

प्रकृति चन्‍्ध का स्वरूप. अद्यो ज्ञान दर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुप्कनाम गोत्रा-

न्तराया। २॥

अथ--उपरोक्त सच से अनुक्रम से प्राप्त आधद्य भथाव पद्दिला प्रकृति बन्ध आठ प्रकार का है ( $) भानावरण, (५) दशनावरण, ( ) चेदनीय, ( ) मोहनीय, ( ) झायपग्य, ( + ) नाम, (७) गोत्र, ( ) अन्तराय

विवेचन--अध्यव्साय विशेष से जीव हारा एक ही बार एक समय में अहण किये हुवे कम पुद्टल हैं वे अध्यचससायिक दाक्ति की विविधता के कारण अनेक प्रकार से परिणमन होता है. ज़से-एक ही वार एक धकार का किया हुआ भोजन शरीर में सातों धातु रूप से परिणमन होता है वे कर्म स्वभावतः अदृश्य रूप हैं तथापि संसारी जीवों पर उसकी विचित्रता प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध ही है. एक अध्य- वबसाय से एक समय में वन्धे हुवे कम चास्तविक रुपसे 'असंख्याते हूँ परन्तु कार्य ऋमकी परिगणना माचसे उनका वर्गीकरण आठ बि- भागों मं विभाजित किया गया है, उसीको प्रकृति चनन्‍्ध ऋहते हैं. (१ ) शानावरण, ( २) दर्शनाचरण, (३) बेदनीय, (४) मोहनीय, (० ) आयुष्क, (६ ) नाम, ( ) गोच, ( ) अन्तराय,

कमे अनेक स्वभावी है. तथापि संक्षेप दृष्टि से उनके आठ

जड़ हैः

अ० सू० ६१३ ! (२5२) लक

विभाग करके यत्तायेगये हैँ मध्य मार्गयवति विस्तृत रुचि जिश्ञापुवा

या ल्यि उन आट प्रहतियों के सेदों की सपया तथा नाम निर्देश

आगे के सू से करते हैं जो उत्तर प्रशति के नाम से श्रसिद्ध है

जीर पहिले ( कम विपाक नामर्क ) कम ग्रथर्मे इन उत्तर प्रशतियों

स्परूप का सबिस्तार बणन दै।

, उत्तर प्रकृतियों की भेद सख्या तथों नाम निर्देश

पतञ्च नवद्वयष्टारिशति चतुर््िचलारिशदूद्विपय भेदा यथा- ऋ्मम्‌॥६॥

मत्यादिनाम्‌ ॥७॥

प्रचला प्रचला प्रचला सत्यानगूद्धि येदनीयानिच ॥4॥

मेदसइथें ॥९॥ है

दर्शन चारित मोईनीय कप्ाय नोरुपाय बेदनीयारथक्ति दिपोडश नय मेद्रा, सम्थस्त्व मिथ्यादव तदुभयानि फपाय नो कपायायनन्तालुवन्ध्यप्रत्यागयान प्रस्यरयानावरण सज्जल जिकल्पाश्केश', क्रोध मान माया लोभा. हाभ्यरस्थरति शोक भय जुगुप्ता स्रीपुनपुनसक बदा। ॥१०ां

जारक तैयग्यीनमालुप देवानि ॥१ १॥

जादि ज्ञाति शरीरागोणग निर्माण बन्धन सगतसेम्थान सहनत म्पर्शरस गन्ध वग्शजुप्ण्यंगुरुलघु पघात पारपाततपों आस पिद्ययोगतव प्रत्येज्ग शरीर तरस सुमाग सु स्वर शुम

(२८२) तत्वाथ सत्र

सत्तम पर्याप्त स्थिरा देय यशांसि सेतराणि तिर्थकत्व च॥१ शा! उच्चेनीचिश्व ॥१ ३॥ दाना दीनाम ॥१४॥ अथे--उपरोक्त आठ प्रकृतियों का अनुक्रम से पांच, नव, दो अठाबीस, चार व्यालीस, दो और पांच मेद हैं मत्यादि पांच आवर प्ानावर्णी कंमे के हैं. ।जा चक्षदशन, अचक्षद्शन, अवधिदर्शन, केवलद्शन, निद्ा निद्रा निद्र।, प्रचलछा, प्रचलाप्रचला और स्त्यान गद्धि एवं नोप्रकति दशना बरणीय है ॥८॥ . प्रशस्त > सातावेदनीय, अप्रशस्त - भसाता चेदनीय एव वेद- नीय कर्म के दो भेद दें ॥६॥ मोहनीयकम के मुख्य दो भेद है (१)दशन मोहनीय.(२)चारित्र मोहनीय दर्शान मोइनीय के तीन सेद हैं "(१) सम्यक्‍्त्वमोहनीय, (२) मिथ्यात्व मोहनीय- (३) मिश्र मोहनीय चारित्र मोहनीय के मुख्य दो भेद (१) कपाय मोहनीय, (२) नोकपाय मोहनीय कपाय मोहनीय के १६ भेद (४ ) अनन्तालुवन्धि श्क्रोध, श्मान, इमाया, ४लोभ, (४) अप्रत्याख्यानी ५क्रोध, ध्मान, माया ८छोभ (४) धत्याख्यानी "कोच, १०्मान, ११्माया, १५छोम (४) संज्वलन .*शेक्रोध, १४मान, १०माया- १६लोभ, नो कप्ाय मोहनीय के नो मेद (१ ) हास्य, (२) रति। (३ ) अरति, (४ ) शोक, (५) भय, (६ ) जुगुप्सा, (७) ख्री, (८) पुरुष, ( ) नपुंसकवेद एवं दर्शन मोहनीय और चारित्र मोइनीय मिल के र८ सेद मोहनीय कर्म के हैं ॥१०॥ ; . नारकी, तियेच, मलुष्य, और देव ये चार आयुष्य कम के भेद हैं. ॥१९॥ के

अ०८ सूच ६१४ 5: है (२८३)

श्गति, श्जाति, $शरीर, ४७अगोपाग, "निर्माण, ६+घन, सघातन, प्सस्थान, £सददनन, १०सपदी, ११२स, १शशध; श१्श्ेयण, १४भआानुपूर्वी, १५अगरूलघु, श्६्डपघात, १७पराघात १८शआताप, १६ उद्योत, २०उडच्छघास, २१विद्यायोगति, २० प्रत्येक, ५रेघस, २४सुभाग, २५सुस्घर, रध्शुम, रज्यादर, शेम्पयौप्त, २६स्थिर, इण्भादेय, शश्यश, और इतर ३ेश्साधारण, ३शस्थावर, ३धदु'भाग, ३४५८ स्कर, ३े६अशुभ, ३७सुद्म, ३८अपयोप्त, ३६अस्थिर, ४०अना देय, ४२अयदा, और ४२ तीर्थैफरनाम ये नामकम के मेद हैं. ॥१७॥

गौष कम के दो भेद हैं ऊच गोत्र और नीच शौन्न ॥१३॥

! अस्तराय फर्म के पाच सेद हैं (१) दान अन्तराय, (२) लाभातराय, (३) भोगात०, (४) उप॑भोगाम्त०ण, (५) चीया अन्तराय | यु

विवेचन--उपसोक्त सूप में व्शानात्र्णीयादिसूछ आठ कर्म प्रकृति बताई शह है उनके उत्तर प्रकृतियों की खसस्या अनुक्रम से यद्द है. शानावर्णीय के पाच सेद, दर्शनावर्णाय के नो भेद, घेदनीय के दो भेद, मोहनीय के अद्धावीस भेद, आयुष्य के चार सेदू, नाम ध्यालीस मेद, गौत्नके दो भेद, और अन्तराय' कर्म के पाच भेद

॥६॥ ५)

ज्ञानावर्णीय के पांच भेद

प्रत्येक ज्ञान फे आवरण > आचद्धदुन करने का ज्ञो स्वभाव उसको श्ञानावर्णीय फमे फद्दते दे उनके स्थूल दृष्टि से भुस्य पाच भेद यताये हैं (१) मतिशानावरण, (,३) धुतघानावरण, ( ) अयधिए्ठानावरण, ( ४) मन पयोयश्वानावरण, ( ४) केबल्शाना चरण, और पहिले कम प्रथ में गाथा से तक इनके उत्तर भ्द्दों का सचिस्तार वर्णन दे

(्‌ २८४) सतन्न |! रथ सत्र कजीमिवकज ४४४ ७७७आ

दर्शनावर्णीय कर्म के भेद

चक्ष्यादि सामान्याववों ( दर्शन ) के आवूत करने का जिसमें अभाव हो उसको दरशनावर णीय कम कहते है उसके नो भद (६) चश्षुदशनावरण, ( २) अचछुद्शनावणण, ( ) अवधि दशना वर्ण (४) केवल दर्शनाव रण, इनके दशन को सामान्य, उपयोग भी कहते है और पांच प्रकार की निद्रा भी दशनावरणीय कर्म है (१) खुखपूर्वक निठा आजाय और जा उठे उसको निद्रा कदते हैं (०) खुख से निठा आजाय और मससकिल से ही जागे उस निद्रा कहते है (३) वेठे ओर खड़े नींद ले उसको प्रचला कहते हैं। (४ ) चलते हुये-नींद ले डसको प्रचला प्रचका कहते हे ( £ ) जागृत अवस्था में विचारा हुआ कार्य निद्रावस्था में . करे उसको स्त्यग्ृद्धि निद्रा कहते हैं इस अवस्था में स्वाभाविक वल्ठ की अपेत्ता अनेक शुण वल घ्रगट होता है।

वेदनीय कम के भेद

खुख ओर दुःख के अनुभव को अज्ुक्तम से साता और असाता बेदनीय, कहते है

मोहनीय कम के भेद

मोहनीय कमे के मुख्य दो भद है। (१) दर्शन मोहनीय- ( ) चारित्र मोहनीय

दर्शन मोहनीय के तीन भद्‌--(९) सम्यकत्व मोहनीय जिसके

से तात्विक रुचि होते हुये भी ज्ञायिक सम्यकत्व और औप- शमिक वे क्ञायिकभ्रणी गत भावों की रुकावट होती हो उसको सस्यकक्‍त्व मोहनीय कहते है (२) मिथ्यात्व मोहनीय यथा

अआअण् स्ु० ६१०४ (२८५)

स्वरूप के अभाव को मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं (३ ) मिश्रत मोहनीय--मिथ्र भाव को मिथ मोदनीय फहते हूँ है

चारित्र मोहमीय के दो भेद--(१) कपार्य मोहनीय (० ) नो कपाय मोहनीय। (/ / “”? -+-

फपाय के मुख्य चार मेट क्रोध, मान, माया, और लोभ, ये हीज़ता और मन्दता रूप तारतम्य दृष्टि से अनेक प्रकार होते हुये भी सुसापरोध के लिये मुप्यतया धत्येक के चारए चार भेद फरके समभाते हं | (१) अनस्तानुवीधि--जिससे क्रोधादि अति तीखब्र प्रने धगठ हो और ससाएं चक्र में अनेन्तकाल् श्रमण होता रहता है उसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, अन० मान, अन० भाया और छोस कहते हैं ( <) अप्रत्योज्यानी--इसकी मात्रा अनन्‍्तानुबधी के संमाने अति तीम नहीं होती इसका आविभाव द्िसादि विर्ती का प्रतियन्‍्धक है अवथोत्‌ जिसके उदय से संम्यक द्शन का लाभ दोत्ते हुये भी चिरति का अभाष द्यो उसको अप्रत्याख्यानी कोध, अप्र० मान अप्र० माया और अप्र० लोभ कहते दे (३) प्रत्याव्यानी >श विरति को रोक फर केवल सच वि्ति का प्रतिघातक दो उसको प्रत्याए्यानी क्रोघ, प्रत्या० मान, प्रत्या० माया, और प्रत्या० लोभ फहते दे, (४) समज्यल--यदह स्व विरति चारित्र का प्रतियन्‍धक नहीं है. तथापि क्रिचित्‌ मलीन भाव रहता हो उसको सज्यल क्रो घ, संज्यल मान, सेज्वल माया, ओर सज्यल लोभ कद्दते हैं इसके उदय से यथा ख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। इन सोल्ड कपायों का स्परूप पहले कर्म अन्थ में दृश्शान्तपू्वक समझाया गया है। दर तत्वाथ भाष्य में मी समिस्तार वणन हे |

नव नोकपाय--(१) हास्य, ( २) रति प्रीति (३) अरति- नप्रीत, ( ४) भय, (५) शोक, (६ ) जुग॒ुप्सान्घृणा, (७) ख्री

(५८६) तत्वार्थ सत्र

बेद ( ८) पुरुष बेद और ( ) नपुंसक वेदा ये कपाय के सहचारी तथा कषायोदीपक होने से नो कपाय कहते हैं।

आयुष्य कर्म के भेद

_ जीव की एक शरीरावस्थित काल मर्यादा को आयुप्य कहते | हैं बह गति अपेक्षा से चार प्रकार है। (१) देवायु, (२) मनुष्यायु. (३) तियंचायु, (४) नरकायु

नाम कर्म के भेद

प्रस्तुत सूत्र मं नाम कम की ४२ प्रकृतियों का जिस अन्नुक्रम से वर्णन किया है उसको यथाक्रम कह कर प्रथम कम ग्रन्थ की - प्रणालिका के अनुसार विवेचन करते हुये उत्तर प्रकृतियों का नाम निर्देश करते हैं

चौदह पिंड प्रकृति--(१) गति नाम कर्म जिसमें सांसारिक खुख दुःख का अनुभव होता है उसके चार भेद देव० मन्तुष्य० तियंच० और नरक, [२] ज्ञातिनामकर्म +इन्द्रिय -अनुभव विशेष से पांच प्रकार का-है यथा एकेन्द्रियत्व से यवत्‌ पंचेन्द्रिय, [३] शरीर नाम कमे- ससारी जीवों के रहने का आधार विशेष उसके मुख्य पांच भेद है औदारिक० चैक्रियण आहारक० तेजस० और कार्मण शरीर, [४] अंगोपांग नाम कम # शरीर गत अवयव चिशष, हाथ, पांव. मस्तक, ओअगुली आदि, यथा--ओऔदारिक अगोपांग वैक्रिय अगो० और आइहारक अंगोपांग [तिजस, कार्मण के आंगोपांग नहीं होते] [५] वधन कमे 5 औदारिक शरीर योग्य पुद्गलों का पर- स्पर योग संवन्ध कराने वाले वन्धन नाम कम के पांच शरीर के नाम वाले पांच भेद हैं और परस्पर विकल्प उठाने से पन्द्रह भेव्‌ भी होते है [६] संधातन कमे-ओऔदिराकादि शरीर योग्य

_अ०प्सू० ६१४ _ (२८५)

पुहलों फो समरहीत फरने चाली सत्ता को सघातन नाम फम ऋद्दते दे इसके भी शरीर नाम की अपेक्षा से पाच भेद हैं, [७] सदनन नाम कर्मरडड़ी की विशिष्ट रूप से रचना विशेष को सदनन कहते है धह अफार हैं घज ऋषभनाराच, फऋषभनारच, नाराच, अर्द्धनाराय, किल्का, और छे बहू, [८] सस्थान नाम कर्म-- शरीर की आहति विशेष को सेस्थान फदते हैं घद प्रकार है समचतुष्क+* न्यग्रोध० सादि० कुष्ज० और चामन० हुडक, [६ १२) घणे, गध, रस, स्पश, नाम कर्म शरीर गत दय्रेतादि पाच घण सुरभि, ठुरभि, दो गन्ध तिफ्त, कपायलछादि पाच रस। गुरु, लघु, रुदु, कर्फेश, शीत, उप्ण, स्निग्य और रुत्त आठ संपरी हैं. [१३] कानूपूर्वा नाम कम मे इसका उदय घफ़्गति में द्ोता है यक्र्गति का स्वरूप अध्याय सूत्र २६ से ३२६ के विवेचन में दे घारगति फे समान इसके भी चार नाम # (१४) प्रशस्त, अप्रशस्त चाल का नियामक यिदहायोगत्ति नाम कर्म दो प्रकार का है, शुभ, अशुभ विद्यायोगति अधान्तर भेद होने फे कारण चीदद पिंड प्रति कट्दी जाती है

अस दशक [१] घस नाम कमे, [२] घादर, [३] पर्याप्त, [४] अत्येक०, [2] स्थिर० [६) शुम० [७] सौमाग्य० [८] खुस्घर, [£] झादेय, [१०] यशा, कीर्ति

स्थाघर दशक--[१) स्थावर नाम कम, [२) सच्म०, [३] अपर्याप्त०, [४] साघारण*«, [५] भस्थिर, [६] अशुभ०, [७] दौर्माग्य, [८] डु स्वर० [६] अनादेय, [१०] अयश कीर्ति |

आठ प्ेत्पेक भनति-[१] अगरुलघुनामकम, जिससे शरीर का मान अति गर, लघु परिणामीन दो [२] पराघात० दूसरों से अजय, [३] उभ्वास० [४] आतप« [५] शद्योत० [६] त्तीथेकर (७) नि्मोण० [८) उपघात 5

म्टथ) तत्याथे सच

, उपरोक्त ,४२ और , उसके अवान्तर भेदों सहित नाम कम की १०३ प्रकृतियों भा सविस्तार वर्णन पहले कर्म ग्रन्थ मे है और वहां हरएक प्रकृति का स्वभाव स्पष्ट रूप से वर!न क्रिया दे

गोत्र कर्म के भेद

देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सन्कार, एश्वर्यादि की घक- पता “उच्चता' के साधक की उच्च गाँत्र ओर इससे घिपरीत को नीच गोत्र कहते हैं।

_अन्तराय कम के भेद

वस्तु की प्राप्ति में भी उपभोग कर सके वा इच्छित वस्तु प्राप्त हो उसको अन्तराय कर्म कहते हैं वह पांच-प्रक्रार है यथा दानान्तराय, भोगान्त० उपभोगान्त» वीयान्त० और लाभानतराय . . उप्गोेक्त प्रकृतियों के वन्‍्ध को प्रकति वन्ध कहते हैं इसको कमे अन्थ में अनेक एकार समझाया है पहिले कमे ग्रन्थ में प्रक- तियों का स्वरूप और दुसरे, तीसरे, चीथे कर्म श्रन्थ में मुख्यतया प्रक्रति वन्‍ध का ही वरणन है पांचव कम ग्न्‍न्थ में भी धघव वन्ध्यादि तथा' भूयस्कारादि रूप से समझाया है भूृयस्कारादि स्वरूप यथा पंचम कम प्रन्थ गाथा २३

एगादहिय भूयो एगाह ऊणगमि अप्पंतरो ।..* ' तम्मतोष्वहियओं, पठम समएं अवतव्यों ॥२३॥

शक. अ।दि बकृति का अधिक - वन्‍्थ भूयस्कार क्हलाता है वैसे ही तीन वन्‍्ध को अल्पतर कहते हैं समको झवस्थित कहते है ओर अवन्धक होके फिर से बांधे घबह प्रथम समय अ-्यकत्य वन्‍्ध

अ० १५०१ (४५८५ )

है जैसेल्‍्गाथा २९। मूल आठ प्रहतियों के पमन्ध स्थान हैं ८७६१ के तीन भूयरकार दोते हैं अफ्तन्य बन्ध नहीं दे विशेष जिशापुओं को उज्न प्रस्थ की दीका या भाषान्तर देखना चाहिये वद्दा उत्तर प्रह्ृतियों संद्दित सचिस्तार यर्शन है। हक

स्थिति वन्‍्ध का बणन [ ,. , -

आदितस्ति सुणमुन्तरायस्य प्रिंशत्सागरीपम , कोटी कोय्या परा स्थिति' हक / +- +, ६, सप्ततिर्मोहनीयस्प ॥१६॥ |, , , 3 नाम गोनयोविंशति' ॥१७ा हे, «पर प्रयसि शत्सागरोपमाएंयायुष्कस्य दया. * अपराद्वादशमुहृतों बदनीयस्य ॥१६॥ ही अत नाम गौजयारं ॥२०॥ * शैषाणामन्तमुहृतम ॥7॥ |. थे--अथधम की तीन “शाना० दुशना« बेवनीय ' भौर श्रम्त शाय कर्म की उत्ह्ट स्थिति ठीस कोटा कोटि सागरोपम की दै॥१४॥7 - हे / मोंहनीय कम की उत्कृछ स्थिति सित्तर कोटा: कोटि सागरा परम की दे १६ नाम, गोत्र कम की उत्हृष्ट स्थिति धीस कोटा कोटि सागगो यम की है १७ आयुष्य की उत्हृ्ट स्थिति सेतीस सागरोपम की है ८॥ चेदनीय यर्म वी जपन्य स्थिति यारल मुहर्त की दै १९ |

0 _तत्वार्थ सत्र

नाम, गौन्र कम की जघन्य स्थिति आठ सुहते की है २०

शेष पांच करम्ों शाना० दशना० अन्तराय० मोहनीय० आयुप्य की जघन्य स्थिति अन्तर मुहते की है २९

विवेचन--मूल प्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थिति ब्न्ध बनाया है उसके अधिकारी ;मिथ्या दृष्टि सभी पंचेद्रिय ही कहे हैँ तथापि पांचवे कर्म अ्न्ध में उत्तर प्रकृतियों की उत्कृए्ठ स्थिति घन्ध ओऔर डनके अधिकारी बताये हैं

'. अबिरय सम्मोतिर्थ आहार दुगामराउ पमत्ते | मिच्छा दिद्ठी वन्‍्धइ जिद्वणिइ सेस पयडीरी ४२

अथ--जिन नाम कम का उत्कृष्ट स्थिति चन्‍्ध अविरति सम्यग दृष्टि तथा आहारक द्विक और देवायु का प्रमत संयत, शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति चन्ध मिथ्यात्वी को होता दे यह सामान्यापेत्ता गुणस्थानक विपयी है

सत्राथ में मूल कमी की ३०-७०-५० कोड़ा कोड़ी सागरो- पम की उ० स्थिति बताई है परन्तु उत्तर प्रकृतियों का स्थिति वनन्‍्ध शानाव० ५, दर्शागाव० अन्तरायकी को छोड़ के शेष उत्तर प्रकृतियों का स्थिति यन्ध भिन्न भिन्न हे कर प्रकृति ग्रन्थ में स्थिति वन्‍्धाधिकार द्वारों सहित ( गाथा-६८ से ) बहुत विस्तार पूर्वक समझयाः है। पांचवे कमे अन्ध में ( गाथा २६ से ) इसी विपय का संक्षेप से वणन है.। जघन्य तथा उत्कृष्ट, स्थिति वन्‍्ध के अधिकारी गुण स्थानक और गति की अपेज्ञा कीन कोन ओर केसी अवस्था में उन परकृतियों का चन्‍ध करते हैं उसको समझाया है विशेष जिज्ञापुवों को उक्त अन्ध देखने चाहिये !

मुझ सूत्र कारने घेदती कम की जघन्य स्थिति बारह मुहर की कही है वद् सकपाई की अपेक्षा-समझनी चाहिये यथा--

मक० सू५ २२५४ (२०१)

मुतु अकपाय ठिह वार मेहत्त वे अणिए |! छाम ग्राथ गाधा॥ २७ कपायिया परिणामों फी ताश्तम्यता की अपेसा मध्यम स्थिति अधागायात प्रकार पी है

'. अनुभाग बन्ध वर्णन

विपाफोष्नुभायः पु २२ ॥। भ' यधानाम २३॥ ततम्बनिर्बंग २४

झध-कर्म फे पिपाक “एल” को अमुभाष यन्घ ( रस थघ ) कहते दूँ ।' २०॥

पर ( अउुमाग बाघ कर्म भरतियों के स्पभायाउसार पेदा लाता है ०३॥।

उन प्रद * भोगे ' दुये पम्मो थी निर्मेरा होती दे २४

पिपेघत--प्रशत्रि पथ दीते समय शी उसके कारण भूत धवषाधयिक परिया्ों की निमता मदता थे अयुसार उस प्रशतियों मेँ तिमता मादता रुप वार देने की चाति प्राप्त होती दि उसका अपुमाप था आयुवाग बदते दें भोर उराने निर्माण को सनुमाग बरए पहनते हैं इसफो कम धष्टति धस्ध में अधिमाग, या, स्पे झपदि छाए कफ पद्ुत घिम्तार घूषर सममाया दि भऔौए पारप बम प्रध में भी दारपा सतप स्थरूए हे (गाथा * से७४)

स्विहि पाये पी परिपा अपरथा शॉमेपर श्रयुमाग पथ काम प्रद दोता है पटी भी स्यद्य जि्ट (अपने दी कम का ) अे-डागाधालीय कम वा ४पुमाग ( श्स ) पते सरवधाय थी शीध या मद झूुप से झास को्ा साथूत क्ने पराम्श होता है धररबू आग्य दार्म (दुनानाएक पेदुना भादि | पए स्धभाष को

(५०.८) हि आई ५88. कं प्राप्त ना होता कैसी तस्द हृष्ासायरशीय कर्म का हमुभाग- शेमायाणीय एम का उजनभाश हघत दोडि कही सीय था भेद पने भाशप्रदित कऋरती है परन्तु शम्य शाराति झूम प्रशुनियों को धारशादिन, नहीं करता यहा नियम भूस धरशलियों के खिये उत्तर प्रति सप्ययलसाय के पा से स्थानीय रूप में अटाए पाती $ और घद शपने सगसाए के हनुसार जीत, मेंद एज देगी है हसे भेति आनायरशीय हमे का छत झानायरकीय हमे में रवामप होता सलथ घह शास कामायरणीय परनभाग रख ) याली ही जाती है फरनसु उसर परकुनियों में भी कितती हू एसी प्रुनिर्यों हैं लिन का स्थज्ञानीय में संप्र्मण नहीं होता जिसे-दटान मोहनीय ओर सारित्र मोहनीय का परस्पर सैहयर नहीं होना इसी तग्ड भायुप्य कर्म की उत्तर प्रसृतियों का सेपामण ' एक इूसरे में गईं होता यथा--

मोह दुगाउगसल पगड़ीण ना परोप्परं सि सक मण ॥| ( कम्मपयड़ी संक्रामणाधिकोर ) गोधा-३

सेफ्मण, उदव्तेन, अपवेतनादि अधिकार कर्म प्रकृति प्रन्थ-के टीकाकी शुजराती व्याख्या में सयिस्तार समझाया है। अशुभ, ओर झुभ प्रकृति फा तीवरस अनुक्रम से सफ्लेस

और विशध्ुद परिणामों से होता हे ओर मंद रस इससे विपरीत पने होता है

अनुभाग से बेदाये हुए कम आत्म घदेशों से प्रथक्न होते हैँ उनका आत्मा के साथ सलरन नहीं रहता उसी कम निश्व॒ति को निंज़रा कहते हैं, कमा की निजरा जैसे कम फस बेदने [ भोगने | से होती है चेसे तपोचल से भी होती दे और वे कम आत्म प्रदेशों

अठ८' खूच २५ > (रण) पे अलग दो जाते है सूत्र में च"” शब्द है घद यही बात सूचित करता दे इसका स्घरूप आगे अध्याय १० सत्र हे से कद्देंगे

प्रदेश बन्ध वेणेन |... नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्‌ सुदमैक-- ' शताबगाद स्थिता! सब आत्म प्रदेशपष्यान--- नन्‍्ता नन्त प्रदेश' ॥२५०॥

अथ-पध्यमान कमे के कारण भूत कमे पुद्चलों फा सर्व प्रकार योग विशेष द्वारा सश्म रूप से रहे दुबे पक प्रदेश फ्षेत्रायगाहो अन-तामन्त प्रदेशी स्कन्‍्ध को सर्वे आत्म प्रदेशों से सय आत्म प्रदेशों में बन्ध होता दे २५ विवेखन--भात्मा के साथ कर्म स्कम्घ योग्य पुद्ठल प्रदेशों के सेबन्ध को प्रदेश घन्‍्ध कहते हैं इस पिपय में शाठ प्रश्न उत्पन्न होते हैं. उसी को प्रस्तुत सप्त से समझते हैँ। (१) भदन--ऋमेरुकन्धों के थन्‍्ध से क्या मिमाण दोता दे ! उत्तर--भाग्म भदेशों के साथ यन्धे हुवे पृद्ल स्कम्घ कम भाष अथोद--हानायरण्यादि प्रशति रूप से प्ररिणत दोते दूँ याने उससे वम प्रहतियों का निर्मोण दोता दे इसलिये थे फर्म प्रृतिके कारण भूत हैं] (३) प्रश्न-घे स्कन्घ ऊची, नीची, तिरछी दिद्ाओं में रद्दे हुये ऊची, नीवी, तिरछी दिश्या के सात्म प्रदेशों से भदण होते हैँ? उत्तर--ज़िस विशी दे रहे शुवे पुद्वर स्कन्ध उसी दिशी के आर्म प्रदेशों से प्रद्ण दोते दे (३ ) शश्न--सव जीपों के कम बघ समान रूप या ससमान

(२६४) तत्वाथ सत

उत्तर--सवब संसारी जीवों का कर वनन्‍्ध पक समान नहीं डोता इसका कारण यह है कवि उनके मानसिक, वाचिक, कायिक योग > व्यापार पक्र सदद्य-नहीं है योगों की तारतम्यता के अनु- सार कमे वन्ध घटेतओं में तारतम्य भाव रददता है

[४ | प्रझन-वे कम स्कन्ध खुक्ष्म हैं ? वा स्थूल ?

उत्तर-कर्म योग्य पुहलछस्कन्ध स्थूल -- बादर नहीं होते किन्तु सुच्म भाव में रहते हैं ओर वेही कम चर्गणा योग्य हैं

(४ ) प्य्न--जीव परदेश क्षत्र में रहे हुवे कर्म स्कन्‍्धों का जीव प्रदेशों के साथ बन्ध होता है वा अन्य क्षत्र में रदे डुवे स्कन्धों के साथ ?

उत्तर-जीवमप्रदेशावगाढ कमे स्कन्‍थों के सिवाय अन्य प्रदे शान्तर रहे हुवे स्कन्ध अग्राह्य हैं

[६] प्रश्न--गति शील कर्म स्कनन्‍्धों का वन्‍्ध होत है ? वा स्थिति शील ?

उत्तर--स्थिर कम स्कन्धों का बन्ध होता हूँ गति शील स्कन्ध अस्थिर होने से उसका वन्ध नहीं होता हा

[७ ] प्श्न--डन कम स्कन्‍्धों का वनन्‍व सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों के साथ दोता है वा न्यूनाधिक आत्म प्रदेशों के साथ ?

उत्तर--समस्त आन्म प्रदेशों के साथ बन्ध होंता दे

( ) प्श्न--कर्म सकन्‍्धों के प्रदेश सेख्याते -असंख्याते चा० अनन्ते होतेद्दे? 5 4००

उत्तर--कम योग्य स्कन्ध के पुद्छ परमाणु नियमा' अन- न्तानन्त घदेशी होते है सख्यात, असेख्यात चा अनन्त परमाणुवों

से बने हुवे स्कन्‍्ध अश्राह्य है'। यही स्वरूप पांचवें कर्म ग्रन्थ की “७६ शाथा में है यथाः---

आ० सू० २६ (२६४)

अतिम चउकास दुगध पच वन्नरस कम्म खंध दल सब्बंजि अणत गुणरस अणुरुंत मणतय पएस ७८ एक पएसो गा निश्रसव पएसओ गेहेंह जिओो॥ ,

और चद्दा यह भी चत्ताया है कि बन्‍्ध मान स्कथों के कर्मदर का विभाग कीनसी फम प्रकृति को कितना मिलता दे २५॥

पुण्य और पाप प्रकृतियों का विभाग ।, _

सं्देथ सम्यबत्व हास्वरति पुरुपवेद्‌ शुभायुनी-- ' मगोनाणि पुणयम ॥व्श्द्‌

अथ--सातावेदनीय, सम्यफ्त्वमोहनीय, द्वास्प, रति, पुरुषवेद, शुभायुष्य, शुभ नाम, झुभ गौन्न ये पुएय रूप दे शाप प्रकृतिया पाप रूप हैं। ॥२६॥

विवेचन--बन्धमान कर्म के धिपाकों फी शमाशभता अध्यव साथों पर निभगर टै शुभ अध्यवसाय फा विपाक भी शाम * हुए होता है कर अशुभ अध्ययसाय का विपाफ भी अशुम / अनिए दोता है। परिणामों में सफ्लेश फी मात्रा जितनी न्‍्यूनाघिक होगी उतने दी परिणाम से शुभाशुभ की घिशपता रहेगी शुम और अशुभ दोनों प्रहृतियों या यन्‍्ध एक साथ एक समय दोता है परिणामों की ऐेसी धार नहीं दै कि मात्र शुम था अशुम एक ही प्रकार की प्रकरतियों का घन्ध होता है। उम्य प्रकृतियों का एक: एक साथ यन्ध दोते हुवे भी व्यवद्यारिक प्रश्षेतति में जो शमस्च अशभत्व फी भावना मानी जाती है यद्द केवछ व्यवद्दारिक प्रचुति की मुख्यता, गोणता पर है जिस झुभ परिणाम से पुण्य प्ररृतियों का शुभ अलुभागय ( रख ) चन्धता दे उसी परिणाम से पाप ह*

2९६), तत्वा्थ सत्र

तियों का अशुभ अनुभाग ( रंख ) भी वन्‍्धता है और जिंस समय अशुभ परिणाम से पाप प्रकृतियों का अशुभ अनुभाग वंधता है डसी समय उस परिणाम से पुण्य प्रकृति का झुभ अनुभाग वन्ध भी होता है तथापि शुभ परिणामों की परकष्टता के समय शुभ अन्त- भ्राग की प्रकृष्टता रहती है'और अशुभ अनुभाग निकृष्ट होता इसी तरह अशुभपरिणार्मो की प्रकृंशता में अंशुधः अंत्तमा्ग कीं प्रकष्नता और शुभ की निरृष्टता रहती है सूच्रोक्त आठ प्रकारसे पृण्य प्रक्रंतियां बताई हैं वे मूल पांच कर्मों की हैं (१) सातावेदनीय, ( वेदनी कर्म की ). (२ ) सम्यक्त्व 3 हास्य, रति, पुरुषवेद ये मोहनीय कम के दशन मोहं० चा- रित्रमोहं० 'की प्रकृतियां हैं (३) शुभायुष्य (आंयुष्य कर्म की ) (४ ) शुभ नाम ( नाम कर्म की प्रक्रति ) (५ ) शुभ गौत्र (गोत्र कम की प्रकृति है शेष रहे हुवे पाप प्रक्ृतियां हैं। खूत्र कारने वेदनी ओर मोहनीय कमे की उत्तर प्रकृति वात के शेष नांम, गोचर, आयुप्य शुभ कहके छोड़ दिया उनकी उत्तर प्रकृतियाँ नंहों चताई पौचचे कम भअन्ध में ४२ प्रछ्ति-पृण्यः और ८२ अकृतियां पाप कही, हैं। . -- हे ३-०७ ३$ ,»१: ३० दहई- १$'.१$ +5६ -+: सुरनर, तीगुच्च, साय तसदस तणुब॒ग बइर चउरंस १० प्रघासग तिरिआउ वृन्नचउ पाशदि सुभेखगईह १५॥- झ्र 4 रे वयाल प्रुण्यपगह अपडमसंगण खगई संघयण बे तिरिदुग अत्षाय निओवधाय इग विगल-निरियंतिंग १६ " थवारदक्ष वन्‍नचउक घाईपणयाल सहिय वासीह पाव पयडित्ति दो सुवि वनन्‍्तह गहा सुहा असुंहा १७

अ० सू० २० २४ (४९ 3)

अथ-दैवशिक्र (-गति भापपूृवा, आयुप्य ) एवं. महुप्य प्िर, ऊचगीन, साताबेदनीय, त्रसदुर्क पाच गरीर (ओए० चे० आ०? ते० या*), उपाग तीन ( ओ० घ० अ०) बजत्न क्रपम नाराथ सघयण, समचारस सस्थान, पराघात सप्तक ( परा० उस्यस+ आतप, उद्योत, अगरुखछ, तीथफर, निर्माण ), तियचा युप्य, चरण चतुप्फ (चण, गन्ध, रस, स्पश ) पचेन्दिय, शभ विद्ोयोगति एप ४२ पुन्य प्ररति हैं

प्रथम को छौड़ के पाच स्थान ( निम्रो 4, सादि, फुज, चाम॑न, हुउ 3 अशुभ दिद्दायोगति, प्रथम को छोड पे पाच सदनन ( ऋषभ ना० नराय० अर्द्धना०, किलीऊा छेवडू ) तियंच द्विक (गति, जआानु०) असाता बेदगी, नांध गात, उपधाते, ' एकाटियेंजाति, विम्लेरद्रिय (छ्वि० ति, चौरेन्द्रि ) नरक प्िकः ( गति० आानु० आशु० ), स्थावए टशाक बण चअतुष्क, सवे घाती ओर देश घाती ४५ [ कपल शान १, केयर ”शैन १, पाचनिरिद्रा, घारद ऋषाय, २९ और सिंथ्थारय सप्ेघानी २० चार प्लान तोन एन सजधल चार फ्पाय, नवनोकपाय और पाय अतराय यह *' देश ध्वती एए | यह सर मिल्यर ८« पाय प्ररानि कहलाती हैँ बण चलतु'क शुमाएभ की अपैशा पुय और पाप दोनो में सेम्मिल्त दे

इति नत्वा् सच अष्टम5्ध्याय हिन्दी अनुवाद

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55७८

<१४7७१७/७१६०६१७१७ ८६:६७ नवम अध्याय

अप्टव अध्याय में चन्ध का निरूपण किया अब क्रमशः नवम अध्याय में सम्बस्तत्व और निमेरातन्व का निरूपण करते हैं

संवर स्वरूप आखव निरोधः संवरः

अथै--भाम्रव का निरोध ही संवर है १॥

विवेचन--जिस निमित्त से कम बन्ध होता है उसे आस्रव कहते है ( अध्याय सूत्र २) आस्नव का प्रतिबन्ध अथीत्‌ नि- रोध करना ही संचर हे आसत्रव के ४२ मेदों का वणन अध्याय सत्र दे से ९५ तक करचुके हैं उनका जितने अशों में निरोध होगा उतना ही संवर कहलायगा अध्यात्म विकास अथात्‌ गृणस्थानक का क्रम आस््रव निरोध पर अवर्रंबित है जैसे जैसे आस्रव निरोध होता जायगा चैसे ही उत्तरोतर शुणस्थानक ( याने अध्यात्म विकास ) की अभिव्ृद्धि होती रहेगी १॥

संवर का उपाय

समुप्ति समितिधर्मा नुपेज्ञा परीषद जय चरित्रेः २॥* तपसारा निजश्व ॥३ १!

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(७४५ 2७४:

३४० सू० २६३ (२६६)

अवथै-घह सबर शुध्ति, समिति, धर्म, अजुपेक्षा, परीसह, जय ओर चरित्र से होता है २॥ तप से सबर तथा निजेरा दोनों होती है विवेचन--सघर फा स्परूप वास्तविक रूप से पक ही प्रकार डे तथापि उपाय सेद से शाख्रकारों ने खूप़ में भुप्प सात भेद प्रतिपाद फिये हैं आगे इसकी <० भेद प्रभेदादि से व्याय्या करंगे थे सब धमो चायो के घामिक विधानों पए अवलबित हैं। तप जैसे सम्पर का उपाय दे वेले निजेरा का भी उपाय दे सामान्यतया तप छीफिक सुख की प्राप्ति फा साधन माना जाता है तथापि निश्चय यह अध्यात्मिक छुस का साधन भी है' कारण लप एक प्रकार दवोते हुवे भी भावना भेद अथोत्‌ इच्छानुरोध की भेद कटपना से सफ्ाम और निष्काम दो प्रकार क्रा छोता है. सकाम तप लौफिफ खुख का साधन है. और निष्काम तप अध्यात्मिक सुर का साधन हैं नय तत्व प्रकरण की व्याख्या में कद्ा हे कि नवीन कर्मों के आगमन फो रोके यह सबर इसको ठज्य संवर कहा है और कम गोकने के लिये शुद्ध उपयोग रूप आत्म परिणामों फी धारा को भाध सम्वर कहते हैं इसीके उपाय हेतु मुण्य भेद भीर उत्तर <७ भेद साधन रूप बताये हैं यथा--

समिइ, गुत्ति, परीसह, जश्धम्मो, भावणा चरित्ताणि॥ पण ति दुबीस दश वार पच भेर्णह सगयन्‍ना २७॥ ( नवतत्व प्रकरण )

गुप्ति स्वरूप सम्यम्यों गनिग्रदोगृप्ति ॥४॥

(३००) तन्वाथ खत्र

अथ-प्रशस्त रूप से योग निग्रह् को शुप्ति ऊहते हैं

विवेचन-पूर्वकथित (अध्याय खतन्न ) योगों को सर्च प्रकार से रोकना अर्थात्‌ “निम्रह” करना यह वास्तविक सेचर नहींहें ज्ञान और श्रद्धा पृचक प्रश्मस्त रूप से जो नित्रह् किया जःय वही गुप्ति रूप से संचर का उपाय हो सकता है अर्थान्‌ नानयुद्धि से श्रद्धा पूर्वक मन, वचन, काय, के उन्माग को रोकना ही शुस्‍्ति इसके मुख्य तीन भेद है [ ] मनो गुमि. [ २] चचन श॒मि, [३ ) काय युप्ति। श्र्थात्‌ मन, बच्चन, कायथ के सावब्य बव्यापारों का निरोध करना

समिति का स्वरूप

इयो भापाएपणादान निश्षेपीत्सगो! समितियः अशथ--इयो, भाषा, एपणा, आदान, निक्तेप और उत्सगे यह पांच भेद समिति के है विवेचन--मन, वचन, काय के व्यापारों की विवेक युक्त प्रवृति को समिति कहते हैं यह पूर्वाक्त झुंभि का अपवाद मार्गे हे सम- वायांग सत्र में तीन भुस्ति को ( चारित्र का ) उत्सगे भागे ओर इन गुध्ियों का अपवाद मागे पांच समिति कहा है बह क्ेवर उत्सरे क्रो कायम रखने के लिये है इसके लिये शास्रों में दृष्टांन्त हें कि किसी मकान का भारवट | पटियाँ ] तड़क गया हो या जीर्ण दो गया हो. ऐसी अश्वस्था में उसके खेभा लगा ड्वेना अति आचच्य- कीय है इस तरह उत्संर्ग को कायम रखने के लिये ही अपवाद हे अन्यथा अपवाद वजनीय है हे (१) इयो समिति-किसी भ्री-जीव को किसी पकार कष्ट हो ऐेली विवेकता पू्ंवेक सावधानी के स्लराथ गुमन करना

अ० सूच (३०१)

(० ) भाषा समिति-सत्य द्वितकारी उपयोग सहित परि मित चोलना। _

(३) पपणा समिति-जीवन यात्रा के लिये आवधद्यकीय निदाप वस्तुओं की सावधानी के साभथ्र याचना करने के ल्यि प्रवत मान द्वोना | 5

(४ ) आदान निक्षेप समिति--घस्तु मात्र फो यक्ष पूर्वक प्रमा जन करके लेनी या रखनी

(९ ) उत्सग समिति--अनुपयोगी वस्तु को जीवा छुल् रहित “सिर्वद्च” भूमि में डाल्नी

यति धर्म के भेद

उत्तम जमामार्दवार्जवशाचमत्यसयम त- पस्त्यागाऊिश्वन्थन्रह्मचार्याणि धरम 5

अयै--क्षमा, मादय, आजव शौच, सत्य, सयम, तप त्याग, प्रकिचन, ओर मह्मचय यह दश धकार का उत्तम धर्म है

विवेचन--क्षमादि सुर्णों के साधन से ही ऋधादि दोषों का अभाव हो सकता दे इसलिये थे युण सचर के उपाय रूप हैँ कमारि दश धकार का घम जय अद्िसा, सत्यादि सूछ गुणों हित और शुद्ध आद्वारादि प्रकर्ष उत्तर युणो “सहित हो तथ उन्हें यति धर्म कहते हैं अन्य वा वे गुण यति धर्म रूप नहीं हो सकते मूल गुण उत्तर गुण रद्दित यदि झ्मादि गुण होतो उसे सामान्य यम कद्द सकते दे परन्तु यति वम की उच्चकोटि में उस फा समा चेश नहीं हो सफ्ता | वह दश प्रकार यति घमे जेसे-- - , ,

(१ ) क्षमा-सशन शीलता फो क्षमा कहते है क्षमातितिश्षा, सहिए्णुता तथा क्रोध तिम्रह ये पकाय चाची शउ्द हैं

(३०२) तत्वार्थ सत्र

(क ) यदि कोई करोधातुर हो उस समय यह विचार करना चाहिये कि क्या इस में मेरी भूल है यदि अपनी ही भूल मालूम होतो शान्‍्त होना चाहिये और अपनी भूल होतो विचार ना चाहिये कि इसमें इतनी चुद्धि नहीं है कि वह मेरी बात को समभ सके इसलिये तुच्छ चुद्धि समझ कर उस पर क्षमा करे |

( ख) क्रोध के आवेश से मति और स्घूति भंग हो जाती है और हशज्चुतादि अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं. यावत्‌ अहिसा ब्रत के छोप का हेतु समझ के क्षमा गुण को धारण करे।

( )--यदि कोई कटु वचन या परोक्ष में निद्रा करे तो समझना चाहिये कि तुच्छ चुद्धि वालों .का ऐसा ही स्व भावहोता है। |

(घ )-किसी अदित'वा अनिष्ट कार्य की उपस्थिति समय

.प कि अपने पूर्वेक्ृत कम के विपाकों का उदय समझ चित्त में स्वस्थता

रक्‍खे इस तरह अनेक प्रकार चिन्तवन करता हुआ दछोमा प्रदान करे |

(२) मार्देव--चित्त में सदुता और वाह्य व्यवहार में नम्नता चृत्ति को मार्देब कग्ते हैं इस ग्रुण को घारण करने से वा इस की ओर हमेंशा चित्तबृत्ति को आकर्षित करने से जाति, कुछ रूप. ऐश्वर्य, ( ठकुराई ) विज्ञान श्लत ( शास्त्र सम्पत्ति ), लाभ (इष्ट चस्तु की प्राप्ति ) और वीर्यादि आठ प्रकार के मद से होने चाली चित्त की उन्मार्देकता तथा अह भाव आदि अनेक प्रकार के दोषों का निम्नद होता है। अथोत्‌ उपरोक्त आठों मद को चित्त से निका- देना ही मादेव घम है। के

(३ ) आजव--कहना, करना और: विचारना इन तीनों की एकक्‍्यता अथाीत्‌ विशुद्ध भाव सहित सरलता को आजैव कहते हैं

अ० स्‌० (३९०३)

( ४) शौच्य--लोभ के अभाव को शोच कद्दते हे। शुचि भाष अथौत्‌ पविन्न कम को शौच कहते दे भावत्रिणुद्धि या निष्कल्मपता अथोत्‌ छोभादि मलीन भावों रहित म।त्र घम साधना सक्त भाव ही शौच है।

(० ) सत्य--मिथ्या दोष रहित दितकर घचन फो सत्य कहते हैं अर्थात्‌ कवोरता, चपलता, झसभ्यता, पैशुन्यतादि दोष रहित सत्य भाषा आदरणीय है।

(६) सयम- तीन प्रकारों के योगों ( मन, बचने, फाय ) का निश्नद्द रमा सयम कद्दलाता है उसके सतरद्द भेद हैं. यथापाच स्थावर, चाए उस, विषय सयम, प्रेष्या स० उपेक्षा स० अपहृत संर० प्रसुज्य' स० फाय स० चाक स॑ मन स० उपकरण सयम एव १७ तथा और भी अन्य भ्रकार से जैसे--पाच इन्द्रिय, पाच अग्रत, चार फपाय और तीन योगों का निम्रद करना सयम है।

( ) तप--बाद्य और अभ्यन्तर दो प्रफार का है जिसका च्णन खूप १६-२० में फरंगे।

(८) त्याग--बाह्य, अभ्यन्तर उपाधि, शरीर तथा असनपा नादि आश्रयीमूत दोषों का परित्याग और थोग्य पात्र फो शानादि सद्ग्रुण देना यह त्त्याग घम है।

(९ ) अरिंचन--शरीर, वस्तु, शिष्यादि सामग्रियों में किसी प्रकार का सी ममत्व रखना अर्फिचन घम्म है

( १० ) प्ल्मचय--मत के परिपालन अथवा झ्ञान की विशेष वृद्धि के लिये गुरुकुलादि सेवन करना या अभह्यचये का स्वरूप

अध्याय सूच में चोथे घत की भावनायें | यह दश प्रकार का उत्तम धर्म यति-अनगार था साधु धमे कद्दराता है ६॥

अनुपेत्षा के भेद्‌

(३०४) धि नत्वाध सज

अनित्या शरण संसारकृत्वान्यत्वोी शुवित्वी--- खबसेवर निजेरा लोक वोधि दुल्मम धर्म स्खा-- ख्यातत्वानु चिन्तनमलुग्रेत्षा ॥७॥ अथ--अनुप्रत्षा के बाग सेद ( £ ) अनिन्य, ( २) अदशरण ( हें) सलार (४ ) एकत्च ( (४ ) झअनित्यन्ध ) अशुलि (४ ) आस्रच ( ) संबर (६) निजंश (१० ) कोक स्थरूप ( ) वोधि छुलेस ( १५ ) धर्मस्वास्यात के अलनुखित को धर्म अज्ुप्रद कहते हु ७॥ विवेचन--अनुभ्रत्षा अधात्‌ तात्विक दृष्टि से गहन विचार जो बारह भावना के नाम से चिस्यात हे इसके छारा राग हकृप कुनिलित घवुतियों का विगेथ होता है इसल्ल्यि यह लंचर का उपाय रूप और ये भावनाय जीवन दद्धि के लिये विशेंप उपयोगी ह्याभ्यन्तर सब प्रकार के पदाथ भात्र की अनित्यत/दि का चिस्तचन ही अनुपेत्षा हे वारह सेद्र यथा-- * ( १) आलनित्यानुपेज्ञा--किसी भी प्राप्त वस्त- के वियो डुख हो-इसलिये उस पर से ममत्व निकंझने के लिये, शरीर घर कुठुम्वांदि वस्तुघ सब अनित्य है, विनासवान है। ऐसा चि- न्तवन करने .से तत्‌ वियोग जनित दुश्ख नहीं होता इसको अनित्य भावना ( अज॒पेक्ता ) कहते हैं मा (३ ) अशरणाजुपेज्ञा--जेसे 5 महा अरण्य में ज्ुधातुर प्रचल सिंह छारा सताये हुवे हरिण के बच्चे को कोई शरण ( सहायक )

कि हर

नहीं है वेसे--ससार रूपी महा अरण्य में भ्रमण करते हुवे जन्म,

जरा, मरण, आदि अनेक व्याधियों से अस्त जीव को धर्म के सिचाय अन्य कोई शरण नहीं है-इस विचार श्रणी को अनित्य

5

भावना कदते हैं ५. 738५

आ० सू० (३०५)

(३) ससाराजुपेत्ञा--यद्ध सप्तार हु, विषाद, खुख, डुप्लादि इन्द विपयों का उपयन ( वगीचा ) है इस अनादि जन्म मरण की घटमाल में फँसे हुवे जीव का यास्तविक कोई भी स्पजन पयज्न नहीं है जन्म्रान्तर में सच भाणियों के साथ सदर प्रफार का सम्पन्ध कर चुका है केवल राग डेप और मोह सतप्त जीयों को विपय तृप्णा के कारण परस्पर का भासत्रय दु अज्ञभव होता है सखारी तृष्णाओं फो त्याग ने के लिये सासारिक बस्तुयों से उदा खीन भाष रदना ही ससार भापना है। इससे ससार की असारता अज्जुभय होती है

(० ) एकत्वालपेच्ा--ससार म॑, जीच अकेला ही जन्म लेता है और भकेला दी मरता है और थकैला ही अपने चोये हुये कम

"रूप वीज्ञ के सुख डु सादि फर्लों फो अेजुमव करता दे ध्याधि, जन्म, जरा, मरणादि दु यों को अ्रपहरण करे ऐसा फोई भी स्घञ्षन सम्पन्धी नहीं है मुभुक्ष्‌ जीवों फो राग देप प्रसगों से निर्लप दोने के लिये जीप अकेला औीए असद्दाय है ऐसा चिन्तवन करे उसको प्‌ कत्य भाषना कहते हैं

(४ ) अनित्याजुपेकज्ञा-महुप्य मोडाबेश के कारण शरीर था अन्य वस्तुर्यों की प्राप्ति, अधाप्ति ही में अपनी उच्नताधनत दशा को मानकर यवाथ कत्तव्य फो भूल जाता दे आत्मा से शरीरादि अन्‍य पदार्थ सब भिन्न है आत्मा नित्य है बे अनित्य हैं इन्द्रियादि अन्य पदाथे जड़ ई॑ चत्यन्य हूँ अनन्त अधिनाशीरुप दूँ इत्यादि सासारिफ चस्तुर्वों की अनिद्यता का चिंतघन करना दही अनित्य भावना है।

(६) अशुचित्वानुपेज्ञा-सप्र से विशेष मोद्द शरीर पर होता है इससे मून्छो हटाने के लिये शरीर के अशुचिपन का चिन्तवन अथोत्‌ यद्द शरीर अशुदि से डापप्न होने घाछा अशुलि का रूपान

(2०५) तस्वा थे सत्र

और अशुचि मय है ऐसे चिन्तवन को अशच्ि भावना कहते हैं (७ ) झाम्रवान॒पेज्ञा--इन्द्रिय विषयासफ्त जीवों को वध, धनादि अनेक पकार के दःख अनुभव करने पड़ते दें वास्ते प्रत्येक इन्ठ्रिय ज़नित राग से उत्पन्न होने वाले अनिष्ट परिणामों का झिन्तवन करना ही आस्रव भावना है

( ) संवरानुपेक्ना--दुवेति के दारों को बन्ध करने के किये सदबूत्ति के ग्रुर्णों का चिन्तवन करना इसको संचर भावना कहते हें

( ) निर्जराजुपेज्ञा--वेदना, विपाक, कमैफल, निजेरा ये प- कार्थ वाची शब्द हैं. निजरा अज्षान और सश्नान रूप दो प्रकार से होती है जिसको सकाम, अकाम निजरा भी कहते हैं कम विपाक को अनुवन्ध रहित सद्परिणामों से भोगना था इसके लिये ठप त्यागादि कुशल प्रवृतियों का चिन्तवन करना निजेरा भावना है |

( १० ) छो ऊानुप्रेत्ञा--तत्वनान की विशुद्धि के लिये विश्वक्रा वास्तविक स्वरूप चिन्तवन करना ही लोक भावना है |

११ ) बोधीदुलेभानुभतक्षा-मोक्ष मागे के लिये अप्॒रमत भाव की अभिवृद्धि के हेतु खद्‌ विचारों का चिन्तवन अथवा--मोहादि कर्मोा के तीत्रआधघात से तथा अनादि भ्रवाह रूप दुश्खों के प्रपेच जाल में जीव को विशुद्धि दृष्टि ओर शुद्ध चाग्त्रि प्राप्ति अति डु

लेभ है पेसे विशुद्ध विचारों को बोघीदुर्लस भावना कहते हैं

( ९५ ) धमोलुप्रेक्चा--घम मागे से च्युत हो और उसके अनुष्ठानो में स्थिरता प्राप्त करने के लिये घमे की उत्तमता और अष्ठताका चिन्तवन करना दी घम भावना है'॥

परीसहों का वर्णन

मार्गीच्यवन निजराथे परिषदव्या। परीसहाः (८)!

झ्० स्ू+ रु (६०७)

ज्षुत्पिपासाशीतोष्ण दशमशक् नाग्न्थारतिस्ती-- चर्या निशया शरया फोशपघयाचना लाभरोग-- हण म्पर्णमलमतफार पुरम्कार अन्नाज्ञाना दशनानि &॥ सूद्म सम्पराय च्छु छम्स्थ पीतरागयोश्नुर्देश गा

एकादश जिने ॥११॥ बादर सपराये सर्वे ! १९॥ झानाररणे प्रन्नाज्ञाने १३ दर्शन मोहान्तराययोरदशना लाता १४॥ चारित्र मोहे नएन्यारति स्त्री निषया क्रोण याचना

सरकार पुरस्कारा« १० बेदनीये शपा३ १६ एकादयो भाज्या युगपदेकीनविंशते.., १७॥

झध--सन्मारगे से च्युत दोकर निजरा (कमेनाशा) के लिये जो सदन किया जाय उसे परीसद्द कद्दते दें ८॥

ये मुण्यतया २५ दे (१) छुघा, (२) दपा, (३) शीत, (५) उ"ण, (५) दश मशस, ( ६) नग्तत्य, (७) भरति, (८) ख्री (९) चर्या, ( १० ) निषया, ( ११) द्वाय्या, ( १० ) अफौश, ( १३ ) धघ, ( १४ ) यायना, ( १५ ) झलाम, ( १६ ) रोग, ( १७ ) शृणसूपर, (१८) मर, (१९, ) सत्यार पुरम्वार, ( २० ) प्रष्ठा, . (२१) अछान, (२२ ) मदशन परीसह ॥|

सम सपराय भौर दछुद्यस्थ घीतराग में चषदद् (१४) परीणएह होते हैं १०

तत्वाथ सत्र (३०८)

जिन ( तीथंकर भगवान ) में ग्यारह (११) परीसह होते हैँ॥११॥

बादर संपराय में सब परीसद होते हैं १२

शानावरण निमित्त से प्रश्ना ओर अछान दो (२ ) परीसह होते हैं १३॥

दर्शन मोह जोर अन्तराय कमे से यथा क्रम दशन जीर अलाभ परीसह होता है १७

चारित्र मोहनीय कमे से नग्नत्व, भरत्ति, खी, निष्चा, आक्रोश,

याचना, ओर सत्कार पुरस्कार एवं परीसह होते हैं १५

और शेप परीसह बेदनीय कर्म से होते हैं १६॥

एक समय एक साथ एक आदमी को एक से यावत्‌ उन्नईस परीसद्द पर्यन्त होते हैं १७

विवेचन--संबर के उपाय भूत्त परीसहों का वर्णन करते हुवे सज्ञकार मुख्य पांच बातों का निरूपण करते हैं ( १) परीसह (२ ) उनकी संख्या, ( ३) अधिकारी, (४ ) कारण निर्देश, (४ ) एक साथ एक जीव में कितने परीसहों का संभव होता है इनका यथा क्रम विवेचन करते हैं )

रलक्षण--सम्यग्‌ दशशनादि 'सम्मार्ग में अवस्थित रहते हुवे कर्मों की निज़्रा अथोत्‌ करों को नाश करने के लिये अनेक प्रकार उपद्वव दुःख पीड़ादि को समभाव पूवेक सहन करना ही परीसद् कहलाता है।_

सख्या--परीसह के संख्याओं की कल्पना संक्तेप और विस्तार भावापेक्षा न्‍्यूनाधिक रूप से भी की जासकती है किसी प्रकार की . पीड़ा या उपद्रच के समय भी अपनी त्याग बूति की भावनाओं को सदा प्रफुल्छित बनाये रखना अति आवशच्ययकीय है प्रस्तुत सत्र

अ० सू० ८२७ (३०९)

सेजो चाईस परीखह पताये जाते है ये पाच कम परकृतियों (शाना० दशता० चेदनी० मोदनीय० अन्तराय ) फे उदय भाव में होते ह#। उनके नाम--

(१ २) धुधा और पिपासा परीक्षदव-फठिन भूस और तुपा के समय भी अपनी मयोदा के घिरूुद्ध आहार पानी ग्रहण करे और समभाय पूर्वक उस चेदना को सद्दन करे |

३-४ ) शीद और उप्ण परीसद--उत्कद उड़ और गगी के खमय की असहा चेदनों के समय भी कल्पनीय घस्तु के सेवन की इन्छा सात्र भी फरके समभाव पूर्वक वेदना सहन फरे !

(५ ) दश मशक परीसद्द - मच्छरादि जन्तुर्यों के उपद्रय से मन ( दवताश ) होकर समभाव पूववेक सदन करे

(६) नग्नत्व परीसद--नग्न पने को समभाव पूर्वक सदन फरे इसी परीसद्द के विपय में 3वताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में मुख्य मत भेद है ओर इसी पर से अवताम्बर, द्गिम्यर यद्द नाम भी रखा हुवा है।

(७ ) अरति परीसदर--किसी प्रकार का भी प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होने पर मन में ग्लानीचा अभैयेता छाकर चैयता चारणण करनी

( ८) स्त्री परीसद--साधक पुरुष हो वा स्त्री अपने साधन मार्ग में घिजातीय आकपण से छलचाय मान हो फे पतन अवस्था को घाप्त दो कर सदा चारिघर से रदना

(५, ) चर्या परिसद--फिसी एक नीयत स्थान में आवास करवे' असगत पने धर्म जीवन की पुष्टि करता हुवा स्थानान्तर गमन करता रहे।

( १० ) निपया परीसह--साध्नन की अजुकुलवा के अनुसार

(३१०) तत्वार्थ सर

एकन्त स्थान में मर्यादित समय तक एकासन से ध्यानस्थ बेठे हुते को यदि भय उपस्थित हो उल समय यन को स्थिर रखता हुधा प्रासन से उयुत हो

(११) शय्या परीसह--स्यभावतः कोमछू या कठिन अनुकूल या प्रतिकूल जैसी दसब्या प्राप्त हो उसी पर समसाव पूर्वक शायन करना |

(१२ ) आक्रोश परीसह--कोई कठोर या कर्केश बचन कहे डखको सम भाव पूवेक सहन करता हुवा हितकर के समान समझे

(१३ ) बंध परीसह-कोई ताड़ना तजना करे उसको घेयता के साथ सहन करता हुवा सेवा सुक्षपा के समान समझे |

( १४ ) याचना परीसह--दीन या अभिमान पने को त्याग कर मात्र धमे साधन के निवोह हेतु याचना वृत्ति स्वीकार करे।

( १५ ) अलाभ परीसह--याचना करते हुवे यदि योग्य वस्तु

प्राप्ति हो तो तप की अभिवृद्धि से उत्साहित होके संतोषित रहे ( १६ ) रोग परीसद्र-किसी प्रकार की रोग की उपस्थिति में व्यग्नचित्त होकर समभाव से सहन करे।

( १७ ) तृणस्पश परीखह--तृणादि की तीक्षण या कठोरता के स्पा को समभाव से सहन करे |

( १८ ) मल परीसह--शरीर मालीन्य अवस्था संयम उद्धेग या स्नानादि संस्कारों की इच्छा करे

( १६ ) सत्कार पुरस्कार परीखसह--भान अपमान के समय हर्ष विषाद करके समभाव पूर्वक रहे

(२० ) धज्ञा परीसह--विद्या लब्धि आदि विशेष चुद्धि होने पर अभिमान कर के और एसी योग्यता होने पर उदास भी नहो।

अ«० सूत्र ८१७ (३११)

(२९ ) चान परीसद् अश्ान परीसदर-विशिष्ट शानसे गये या उसवे जमाय में आत्म-अपमान करके समभाव से श्ह्दे ]

(०० ) अददीन परीसह-खछम और ।अतीददिय चदार्द नहीं दिखते इस लिये विप्रेकी जन अपनी त्याग चृत्ति से उदास नहों उसी स्थिति में प्रसक्ष चित्त से रहता हुया भ्रद्धा का पोषण दबरता रदे।

उफ्त याई परीसद धम पे विष्न करने चाले दोते हैं: इसलिये सदचारिश्रियां पो ठप समय राग देप फरते समभाय पूर्वफ खद्दन परसा दी भय है।

अधिफारी--डफ्त याईस परीसडददों में से फिनको फिस अवस्था में शितिने परीसद् होते दूँ उसका तीन सूत्रों से कथन फरते हैं.

खामसम्पराय, उपशान्त मोद, और क्षीण मोह नामफ तीन शुण स्थानों में चौदद परीसद् दोते हैँ छुघा, पीपासा, शीत, उष्ण, पद्ामचाय, घर्या प्रा, अचान, अल्यम, शय्पा, बथ, सोग, शाणम्प् कौर भर शेप भाठ परीसद नहीं दोते जिसका कारण यह है फि ये मोह जन्य होते दे दक्षमें गुणम्थानप' में मोद पी मात्रा पिलपुल अस्पा“ शोती दे ओर ग्पारदर्थ, पाधसदें, गुण स्थागक में मोद वा सथथा अमाय दे इसल्यि उफ्त शुणस्थानया में शष आठ परीसद्द समय नहीं दोते |

मेर्द्रय चीददपें गुणस्थानफ में स्पारद परीसद शो हैं क्षुधा पीपासा, शीत, ड़च्ण, दु्र मदप, ध्ार्यो, दाय्या, रोग, सृणस्थश, और भार शप ग्याश्् परीरद घाती कम जहन्य शोने से उनका यहा अमाय गदता दे क्‍यों कि इन गुण स्थानों में घाती कम का अमाप ही है

(६४१२) तखाथ खत्र-

जिसमें कपाये का विशेष रूप से उदय समय होता है उसको चादर संपराय गुणस्थानक कहते है इस नवमे शुणस्थानक मे बाईसों परीसह होते है ज्ञिसका कारण यह: है कि इनके कारण भूत सब कर्म यहां उपस्थित हैं ओर जब नचमें गरुण स्थानक में सब परीसह हे तो इससे पूर्चवर्तोी शणस्थानों म॑ं तो सब का होना स्वतः सिद्ध हीं होता है

कारण--परीसह के कारण भूत चार कर्म है जिसमें दो परीसह ( प्रशा, अज्ान ) का कारण ज्ञानावरणी कर्म है, एक अछाभ परी- सह का कारण अन्तराय कमे है, मोहनीय कम से झ्राठ परीसह होते हैं जिसमें दशन मोहनीय से नग्नत्व, अरति, ऊत्री, निषया आक्रोश और सत्कार यह सात परीसह होते हैं

एक जीव मे एक साथ संभवतः परीसहों की संख्या वाहुस पंरीसहों में शीत, उष्ण, चंया, शंय्या और निषद्या ये पांच परीसह परस्पर विरोध भावी है इनमें प्रथम के दो से ओर अच्त के तीनों में से एक एक परीसह होते है उक्त पांचों पटीसह एक समय एक साथ नहीं दोते अर्थात्‌ जेसे--डण्ण और चर्या परीसह के उपस्थित में अन्य तीन परीसहों का अभाव रहता है इसी तरह किसी तरह किसी भी समय में एक साथ अधिक से अधिक उचद्च- इस परी्सेह संभव होते हैं ।॥ ६-१७

चारित्र के भेद सामयिकच्छेदो पस्थाप्य परिहार विशुद्धि सदम-- संपराययथारूयातानि चीरित्रम्‌ १८

अथ--चारित्र पांच प्रकार का है सामायिक, छेदोपस्थापन, परि हार विशुद्धि, खुक्ष्म सपराय और यथा ख्यातः॥ श्८ ॥|

! अ० खुच १९ २० (३१३)

. विबिचन--आत्म विशुद्धि के लिये जो प्रयत्न क्या जाय उसे चारित्र कहते हैं परिणाम विशुद्धि के तारतम्ब भाव की अपक्षा से उसके सामायिकादि उपरोक्त पांच भेद किये हैं जेसे-( ) समभाधघ में रदने के लिये अशुद्ध प्रदुत्तियों के त्याग को सामायिक कहते हैं शेप चारिन्र भी सामायिक रूप तो दे दी तथापि शुण और आचार की विशेषता के फारण उनकी पृथक रझूए से गणना की है. जो थोडे समय के लिये अथवा उम्र भर क्रे लिये मुनि दिक्ला अ्रहण की जाय उसको सामायिक कहते हैं। (२) प्रथम दिखला के पश्चात्‌ पिशिप धुत अभ्यास करके पुन विशेष शुद्धि के लिये फिर से जीवन पयन्त विज्षा भ्रदण करनी ( जिसको धर्तमान मे यडी दिक्ता कदते हैं ) अथवा भ्रदण फी हुई दिक्ता में दोपोक्तपत्ति (उत्पक्ष , होने से उसका उच्छेद करके पुनः दिक्तारोप करती उसको छेद्ोपस्थापन चारित्र कद्दते दे इसमे पदला निरतिघार ओऔर दूसर लातिचार छेदोपस्थापन चारित्र कद्दलाता है। (३) विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान क्रिया आचार, पालन फो परिद्दार विशुद्धि चारित्र कदते है (४) जिसमें मोहनीय कमे का मात्र सूधम लोभान्श का द्वी उदय रहा हो उसको सूक्ष्म सपराय चारित्र कहते है, (५ ) जिसमें कपाय का उद्य द्यो उसको यथा स्यात अथौत्‌ घीतराग चारित्र कद्दते दे १८॥

तप का वर्णन ' अनशनायमोदयजृत्तिपरिसख्पनरसपरित्याग- विजिक्षशस्यासनकायक्लेशा बाह्य तप ' १६ प्रायश्रित्त विनयबैयाबृत्यस्थाध्यायब्युत्सर्ग ध्या- ना न्यूचरम्‌ ॥२० 0

(३१४) नत्वाय सूद

अधथे-अनशन, अवमोदर्य, दक्तिपरिसस्यान, रखपरित्याग विधिक्तशब्यासन ओर काय क्‍्लेश (एवं (६ ) प्रकार का वाद्य तप है १६

प्रायश्चित, विनय, वैयादूत्त्य स्वाध्याय, घ्युन्ससे, और ध्यान ०वे (5 ) प्रकार का शअ्रभ्यन्तर तप दे २०

विवेचन--शरीर, इन्ट्रिय ओर मन की विपय चासनाओं को आध्यात्मिक चल की उन्नति के लिये क्ञीण क्ररना त्प का कार्य है उसके वाह्य और अभ्यन्तर मुख्य दो भेद दे जिसमें शरीरिक क्रिया की प्रधानता हो उसको बाह्य तप कदते हैं यह वाद्य दृत्य सापेक्ष होता है ओर जिसमे बाह्य द्वव्य की अपेत्ता नहीं करती केवल मानसिक क्रिया की ही प्रधानता रददती हो उसको अभ्यन्तर तप कहते हैं. यह बाह्य तप की पुष्टि के लिये भी डपयोगी है. इस वर्गोकरण में खुष्म ओर स्थूल सब प्रकार के धार्मिक नियर्मों का समावेश होता है |

बाह्मयतप--छु ६) भकार का हे (१) मयोदित समय तक या जीवन पयनत सब प्रकार के आहार त्याग को अनशन तप कहते है

(२ ) ज्षुधा से न्यून भोजन करना अवमोदर्य डणोदरी) तप है

(३) विविध प्रकार के बस्तुवों पर की ठृप्णा को संक्षिप्त ( न्‍यून ) करनी द्वत्तीसक्षेप तप हे

(४ ) घी, दूध, दारू, मचु, मक्खनादि विकारिक रखों के परि स्याग को रख परित्याग तप कहते हैं), :;

(५ ) एकनन्‍्तवाधारदित स्थान में रहना ओर शरीए को संकोच चुक्ति से रखना उसको विविक्त शय्यासन सलीनता तप कहते हैं-।

(६) शीत, तप, आसनादि से शरीर आतप्त करना काय क्लेशतप हैं गे

श० खु० +?ै (३१५४)

अख्यन्तर तप--छु धकार का है (१) धत में प्रमाद से लगे हुवे दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित तप हे (२) शझानादि सद गुणों का बशुमान करना विनय तप दे (३) योग खाधनों को पूरा करना या सब भकार की सेथा शुश्षपा करनी घैय्याउत्य तप (४ ) ज्ञान आप्ति के लिये अभ्यास फरना स्वाध्याय तप हैं (५) अद्वत्व भौर ममत्व फे परित्याग को व्युट्लग तप फदते हैं (६) चित्त के तिज्लेप चपलतादि दुष्यान के परित्याग फो ध्यान कहते ह, (६) प्रकार के, अभ्यन्तर तपकी सख्या श्रगल्ले सूत्र से चताते है १६-२०॥

अम्यन्तर तप भेडों की संख्या

नयचततुर्दश पश्चद्धेमद यया कम अम्ध्यानात_ २१॥ 4-ध्यान छोड़ ये शेप +अभ्यन्तर तप के नौ, चार, दश, पाच ओऔर दो यथा क्रम भेद दोते दे॥ २१५॥ विधेचन--इ्यान का विषय विस्तृत द्वोने से शेप पाच अभ्यन्तर तप के भेदों की सरया अनुक्रम से यताई दे जैसे-प्रायश्रित के भद, चिनय फे ४, वैयादूत्य फे १०, स्वाध्याय के २, झऔर घ्यत्सम के दो भेद होते हैं इनका नाम अगले सत्र द्वारा बतायेगे २१

प्रायश्रित के भेद

आलोचन प्रतिक्रमणनदुमयविवेकव्यत्सर्ग-- तपरछदपरिदारोपस्थापतानि २२॥।

अध*-प्रायश्ित के नौ भेद दे आलोचना, प्रतिममण, ततुमय ( मिथ ), पिधेव', ब्यस्खगे, तप, छेद, परिहार, और उपस्यथा परन॥श्ण

(३१८) तत्वाथ सत्र

अथ-स्वाध्याय के पांच भेद हैं वाचता, प्रच्छुना अनुप्रत्ञा आम्नाय और घर्मापदेश २५

विवेचन--श्षानप्राप्त करने के लिये या उसको निशक, विशाद ( निर्मेल ), परिपक्त श्रथवा उसका प्रचार कग्ने के लिये जो प्रयत्त किया जाय बह सच स्वाध्याय रुप है उसको अभ्यास ऋम की शेली के अन्लुसार पांच भेद किये हैं. यथा--(१) वाचना-आिष्यों को पढ़ाना, ( २) प्रदछछुना--शका समाधान या अन्ध के भावाथ को प्रश्न पूवेक जानना, (३ ) अजु॒प्रेत्ञा--शब्द पाठोदिका सनन चिन्तवन ( ) आभ्नाय--परावतेन--पढ़े हुवे शा््रों करा पुनरा- वतन करना, (५) धर्मापदेश--धम के रहस्य को सममना परा।

/3७ पक व्यत्सगें के भेद

बाह्याभ्यन्तरोपध्योः.._ २६ अथ--्यत्सग के दो भेद बाह्य ओर अ्रभ्यन्तर रुप उपाधि का

परित्याग २६ विवेचन--त्याग का स्वरूप वास्तविक रीति से अहंन्च, ममत्व, साथ की निषृत्ति रूप है परन्तु त्याज्य (त््यागने योग्य ) वस्तु वाह्य ओर अभ्येतर दो प्रकार होने से उसके दो भेद माने गये हैं यथा--( * ) घन. धान, , क्षत्रादि वह्य वस्तुवों में ममत्व भाव करना यह वाह्य व्यत्सगे, (२) शरीर पर का समत्व भाच तथा कपषायिक विकारों 'की तन्मेयता के त्याग को अभ्यन्तर व्यत्सग

कहते हैं २६॥

थयान का वर्णन उत्तम संहननस्येकाग्रवित्तानिरोधो- ध्यानम््‌ २७ || आमुहतोत्‌ . ,॥ श्क्॥

अ० सू० २७ श८ (३१५)

अधथ--उत्तम॑ सहनन चले फी एकाग्रता के साथ अन्त करण की चिंन्तादि के निरोध को ध्यान कद्दते है २७॥ *

झसकी भयौदित स्थिति अन्तर सुद्दृत पर्यन्त है. २८॥

विविचन--शाखफार भस्तुत सूत्र द्वारा ध्यान विपयी तीन यातों का स्पष्टिफरण करते द्व [ १] अधिकारी, [२] स्परूप, [३]. काल परिणाम

अधिकारी-डे सदनन [ अ०८खन्न ४२] में से भ्रथम के तीन सहदनन उत्तम माने गये द् उस में से फिसी एक सददनन याला ध्यान फा अधिकारी दो सफ्ता है फ्योंकि ध्यान करने घाले को मानलिक यल की झअपश्यक्ता रदती है. और बद्द शारीरिक चल की योग्यता फे अनुसार द्ोता दे वद्द योग्यता पूर्व तीन [ प्रद्ध ऋषप०, अदम्रप्न०, नाराच ] सहननों में रद्दती द्वे इसलिये घे हीं अधिकारी दे शेप तीन सद्दनन घालों का शारीरिक बल कम दोनें मानसिक वल भी कम द्ोता है इसलिये चित्त की स्थिरता नहीं रद्दती और योग्य स्थिरता के बिना एकफाप्रता नहीं द्ोती चास्ते उनफी गणना ध्यान में नहीं है ड़

स्परूप --अनेकानेफ विपयालैपी जश्ञानधाए भिन्न मिश्न दिशाओं मल भ्रधादित दोने धाले पथन के भकोरे से दीपक पी सिखा ये समान अस्थिर [चलायमान] रदतो दे उस चकल घारा को अनेफ पिंपयो से दृदाकर किसी एक इट विषय पर स्थिर करना दी ध्यान इस प्रवाए का ध्यान छप्नस्थ आत्माओं को दोता दे

सर्वणत्व प्राप्त द्ोने के पश्चाव्‌ अर्थात्‌ सेरदवे, चोददनये गुण स्थानक में सी ध्यान स्वीकार किया गया दे परन्तु इसका फथन दूसरे प्रकार से हे तेरदर्य, गुणस्थानक के अन्त समय जब मन, बन, फायिक प्यापारों का निरोध हऋ्ूम सरू दोता है उस समय

(३२०) __ तल्वाथसत्र

स्थूल कायिक व्यापार के निरोध होने पर जय खच्म कायिक व्यापार अस्तित्व रहता है उस समय खंक्ष्म क्रिया भ्तिषाती ना- मक तीसरा शुक्ल ध्यान माना. गया हे ओर जब चौददर्ये श॒ुण स्थानक में अयोगीदरशा के शलेसी करन समय समुच्छिम -क्रिया निवृति नामक चौथा . शुक्ल ध्यान माना गया है थे दोनों ध्यांन चित्त व्यापार होने से छुद्मस्त के समान चिन्ता निरोध रूप नहीं है सत्र कार का कथन छद्मयस्त ध्यान विपयी है वह मात्र कायिक स्थूल व्यापारों को रोकने का प्रयत्न एक प्रकार॑ का ध्यान ही है

अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि तेरहवें गुणस्थानक में प्रारंभ से यावत्‌ अन्त समय अथोत्‌ योग निरोध क्रम के आदि समय तक तेरहवें गुणस्थानक में कोन सा-ध्यान होता है? इसका उत्तर दो प्रकार से है [२ ] विहग्मान सर्वश दशा को ध्यानान्तरिका कहते हैं इसमें कोई प्रकार का ध्यान स्वीकार नहीं करते, [२ | मन, वचन, कारयिक:) व्यापारों के खुटढ़ प्रयत्न को दी ध्यान स्वरूप माना है

कालमान--उपयुकत ध्यान अधिक से अधिक अन्तर झुटड्ठते प्रयेते अवस्थित रहता है उसकी काल मर्यादा है।

कितनेक स्वासोस्वाख के निरोध को ध्यान मानते है और कोई हस्यादि माता के काल गणना को ध्यान मानते हैं परन्तु जैन परम्परा वाले ऐला नहीं मानते इसकां कारण यद्द दे कि सम्पूर्ण स्व(सोस्वास निरोध करने से ( एक लेने ) शारीरिक अवस्था नहीं रह सकती इसलिये मन्द्‌ या मन्द्तम स्वासध्यानस्थ अवस्था मे भी प्रचलित रहता है और जो मात्रा काख का मान करते है तब मन किसी गणित [क्रिया में व्येअश्वित्त होने सर एकाभ्मता के बंदले ब्यम्रताधाला होजायगा | और बहुत दिनों तक ध्यान में

अ# सुन्न ४९ ३० (३२१)

उह सकता टै ऐसी जो लोग मान्युतादवै चई भी जैन परम्परा को अमान्य है. इससे झींद्रयों का उपधात देता है अन्तर मुहत से अधिक ग्द्दना कठिन है' एक दो तीन |चार 'द्विमा इससे भी घिक दिन ध्यान किया जो ऐसा कद्दते हैं उसका मतलप,यद्द है कि उसी धझालम्वन में लगे रदना अर्थात्‌ एकयार ध्यान करके पुम

उसी में या रुपातर से अन्यालम्बन से दूसरे ध्यान में प्रवेतमान द्वेनना इस प्रवाह रूप से अधिक समय तक' रहता दे ध्यान पा जो शब्तर मुह्ठते कः फाल मान घेताया दे वंद छद्दस्थ की अपेक्ता समभाना चाहिये; सघेश में प्यान का फाक्ष मान अधिक समचवित देता है कारण वे मन पचन फायिक थवृत्ति के खुदछ प्रयक्ष फो अधिक समय तक रोक स़कते दें जिस आलस्यन पर उतका ध्यान प्रयादित है घदद थालस्वन सम्पूर्ण द्रव्य रूप हे के उसका पर्याय रूप द्वोता है फारण द्वव्य का चिंतवन फिसी एक पर्याय द्वारा शक्य दि द्रव्य का स्वरूप अनादि अन्त सास्यत रूप है ॥२७-२८॥

ध्यान के भेद्‌। ' आपरीद्र धर्म शुक्लानि २९ पर मोक्त हेतु ३० अधथ--ध्यान चार प्रकार का दोता है (१) माते ध्यान (२ ) झीद्र ध्यान ( | घमे ध्यान (४ ) शुफ्ल ध्यान रशवक. अत के दो ध्यान मोघ्त के फारण भूत दें ३०॥ पिवेचव-उपरोक्त चार ध्यानों में से पू के दो ( सात, सदर ) ध्यान ससार के कारण भृत दुध्योन दोने से स्याज्य रूप हैं तोर धर्म ध्यान, शुफ्त ध्यान मोक्ष के कारण भूत होने से सुयाग आदरणीय दे २९-३०

के तस्वाध सूत्र [३२२) तत्वाथ

आते ध्यान का लक्षण आतंममनोज्ञानाम्‌ सम्प्रयोगेतद्दिपयोगाय-

स्मृतिसमन्याहार ३१ बेदनायाश्र हज ३२ ॥| विपरीत मनोज्ञानम्‌ | ३३ तदंविरत देश विरत प्रमत सयतानाम्‌ ३४

अथ--अमनोश ( अप्रिय पस्तु ) संप्रयोग ( संयोग ) होने पर डसके वियोगाय चिन्ता की एकाग्रता करना आते ध्यान है रेए।

डु'्ख प्राप्त होने पए उसको दूर करने के लिये सतत चिन्ता ऋरनी भी आतेध्यान है ॥_रे२॥

प्रिय वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये चित्त की एकाग्रता रूप ध्यान को आते ध्यान कहते हैं रे३

नहीं प्राप्त हुई वस्तु की प्राप्ति के लिये संकल्प रूप चित्त की एकाग्रता यह चोथा आते ध्यान है॥ ३७

उपरोक्त चार प्रकार के आते ध्यान अधिरत देश विरत और प्रमत ग़ुणस्थानों में संभवित होता है ३५

विवेचंन--सूत्र २९ के अनुसार शआ्रार्वध्यान के मेद और उंसके स्वामी इन दो वातों का प्रस्तुत सह्ों से निरूपण करते हैं अर्ति ( पीड़ादि दुःख ) जिससे डभ्दव हो उसकी उत्पत्ती के लिये मुख्य चार कारण हैं (१) अनिए' चस्तु का संयोग, (२) इष्ट वस्तु का वियोग, (३ ) प्रतिकूल बेदना, ( ४) भोगों की रारूसा इन की

रणों से आतेध्यान के चार भेद किये गये हैं जिसकी व्याख्या सत्रार्थ में की गई है। १७

आ० श० हे 3८ (३२३)

स्थामी-उक्त आर्नेष्यान प्रथम के चार गुणस्थानक ( १-२ ३-४) तथा देश पिग्त और प्रभ्नत एव छे गुणस्थानफों में पाया जाता है परन्तु प्रमत शुणस्थानक में निदान नामवः चतुथे भेद के सिधाय तीन दी भेद समधित होते देँ;॥ २९-३५॥

रोंद्र ध्यान निरूपण

हिन्मानृतस्तेयविपयसरधेस्यो रीद्रमगिस्ती- ' देश विरतथों ३६ अथ--हिंसा, असत्य, चोरी और पिपय सरक्षण व' एिये चित्त की एयाप्रता ( चिन्ता ) फो सैद्र ध्यान कहते हैं घद अधिरत और देश पिस्त में समयित होता है॥ ४६॥ पिवेधन--प्रस्तुत सर में रीद ध्यान के सेद और उसक स्वामी का यणन है भ्तेप्यान के समान रोद् ध्यान के भी मुख्य चार कारणों पर से उसके घार मेद फ्ये हूँ ( १) हिसानुरुन्घी, (२) शसत्यापुलुप्धी, (३) स्तेयानुलब्घी, (४) पिषया सेरदाणनु साथी इन विषयों में छुप्घ या चिग्तित रदना भी होठ ध्यान दे प्रथम शुणस्थानक से पायत्‌ पथम गुणस्थानक पर्ये् यद् प्पान संभपित शोता दे इसलिये उक्त शुणस्थातक धरती आत्मा इसके श्याभी दे ३६॥

- धर्म ध्यान का निरूपण आशाशपायपिपाक मेस्थानयिचियाय धर्म- मंप्रमत सयतस्प' ३७ ॥॥ उपणान्त चीण फ्पायोरच इट

(३६४) _तत्वार्थ सूत्र

थै--आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान की विचारणा हेतु मनोद्ृत्ति की एकाग्रता को धमे ध्यान कहते हैँ यह अप्मत सेयत में समचित होना है॥ ३७॥

ओर पुन. उपशान्त मोह, क्षीण मोह, ग़ुणरुथानक में भी सभ- वित होता है॥ ३८॥ हे

विवेचन--प्रस्तुत दो खतरों से धर्म ध्यान के भेद तथा उसके स्वामी का कथन है

भेदू--( १) आज्ञाविचय धर्मध्यान--वीतराग प्रणित जिनश्ञा- सत्र की आशा विषय चहुमान पूवेक हमेशा तत्पर रहना, (२ ) अपाय विच्य धर्म ध्यान--दोषों के रूप को समककर उससे केसे प्रथर्‌ रहना इसका विचार अ्रथोंत्‌ सन्मारों की गवेषणा, ( रे ) विपाक विचय धघधममध्यान अनुभव होने वाले कमे फल के विपाक विपय विचारणा, ( ४) संस्थान विचय घमध्याशन--लोक स्वरूप का विचार करने |

स्वामी>--धर्म ध्यान के अधिकारी विषय श्वेवताम्वर और द्गाम्वरीय सम्प्रदाय की मान्यता सदझय रूप नहीं है स्वेताम्बरीय मान्यता के अनुसार सूत्रोक्त सातवें, ग्यारहवे, वारहवें, ग़ुशस्थानक में तथा मध्य वर्तीो सूचित होने चाले आठवें, नोवें, दशवे गुणस्था- नक में अथोत्‌ सात से वारहवें गुशस्थानक पर्यन्त छे गुणस्थानों में धर्म ध्यान संमवित होता है ओर दिगास्वरीय आम्नावाले चौथे से सातवें ग़ुणस्थान हू पर्यन्त्र चार गुणस्थानों में ही धम ध्यान की संभावना स्वीकार करते हैं, इनका कंहना है कि सम्यकत्व को अणी के पारंभ कार से पहले घमम ध्यान संभवित होता है अणी धारंभ होने के पश्चात्‌ घमे ध्यान संभवित नहीं होता इसलिये

आठव, आादे शुण स्थानों में घम्म ध्यान को नहीं स्वीकार करते | '9--३५॥

अआ० स्वृ० ३९. 3६ (३१५)

शुक्ल ध्यान का निरूपण | ..

शुक्ले चांथे पूर्व विद' _॥३3९॥ परेकेयलिन' , ॥४०॥ पृथक्त्यैकत्य वितर्क खद्मक्रिया प्रतिपाति.....॥,४१॥ तज्यक काययोगानामू' ॥छरी॥ एकाथये समितर्के (र्पे हु ४३ अविचार ट्वितीयंमू ,, ।. ॥४४॥ वितर्फ धुतम्‌ ४५॥ विचारोर्ष व्याजनयीग सक्रान्तिः * ४६

“अधथै-खत्र ४१ में फटे हुवे शुफ्ल' ध्यान के चार सेदों में से प्रधम के दो भेद ग्यारद्दय/ गुणस्थानकफ बर्तों पूर्व घर भुनिफो द्ोता है ३२९

पीछे के दो भेद्‌ केयली में दोते देँ ४० शुकल ध्यात के चार भेद [ ९] एथफ्त्व वितर्क, [२] एक्त्व >क ] सूक्ष्म क्रिया भति पाति, [४ ] ब्युपरतक्रिया निवृत्ति

॥४१॥

इस चार प्रकार के शुक्ल ध्यान में से अनुक्तम से सीन योग घाला प्रथम मेद [ पृथ० ] का स्पामी दे | किसी एक योग घाला दुसरे भेद [एक्०] का स्वासी दे काय योग घाटा तीसरे भेद ( सूट्षम० ) का स्वामी है अयोगी ओऔये सेद्‌ [ ब्युप० |] का स्वामी है ४२॥ प्रथम के दो भेद एक शाभय जनित समितफ दोते दें ७३॥ इसमें से दूसरा हा

ऊ.

(३२६) तत्वाथ सत्र

वितर्क श्रुत को कहते हैं ४५ अथ, व्येजन ओर योग के परिवर्तन को विचार कहते हें ॥2६॥ विवेचन--प्रस्तुत सत्रों से शक्तल ध्यान के स्त्रामी, भेद और

स्वरूप का वणन करते हैँ *

स्वामी--इसका स्वरूप दो प्रकार से कथन किया गया दे एक गरुणस्थानक दृष्टि से ओर दूसरा योग दृष्टि से ग्रुणास्थान दृष्टि से शुक्ल ध्यान के चार भेदों में से प्रथम के दो भेदों का स्वामी ग्यारहवें, चारहवें ग्रुणस्थान वर्तो पृर्वंघधरलूब्धी वाले होते हैं. इस से यह सूचित होता है कि यदि ग्यारहवें अग के धारक होतो उनको ग्यारहर्वे वारहवें गुणस्थानक में शुक्ल ध्यान की जगह घमम ध्यान होता है यह सामान्य रूप से कहा है क्‍योंकि मापुतस, सरुदेवी आदि को शुक्ल ध्यान सभवित है ओर पिछले शुक्ल ध्यान के दो भेदों के स्वामी केचली हैं. अथात त्तेरहवे, चोद्‌ह॒व गुणस्थानक बर्ती आत्मा है।

योग दृष्टि से उक्त चार सेदों में से पह्दिला सेद्‌ ( प्रथ० ) तीन योगवार्लों में पाया जाता है मन, वचन, काय योग में से किसी पक योग बाला दूसरे सेद [ एकत्व० ] का स्वामी है केवल एक काया योग वाला तीसरे भेद [ खूद्म० ] का स्वामी है ओर चोथे ब्युप०] का स्वामी अयोगी चौदहवें गुणस्थानक वर्ती आत्मा है।

सेद--अन्‍्य ध्यानों के समान शुक्कू ध्यान के भी चार भेद है जिन को चार पाया भी कहते हैं [ ] पृथकत्व वितके सविचार, (२) एकत्व वितके निर्विचार, (३ ) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, (४) व्युपरत क्रिया निवृत्ति ( समूर्लिछन्नक्रिया निवृत्ति )

स्वरूप--भथम के दो शछुकक्‍्ल ध्यानों में वितके भावका सद्द

'धगम्ये ओर पूवेघर आत्माओं से पारंभ होने के कारण वे दोनों

खु० ३९ 2६ (३२७)

फ्

स्याम भावी ( सद्द धर्म भावी ) होते हुवे भी उनमें भद, अभेद पने का चैपम्य भाष रहा हुवा है पद्िला पृथफत्व अथोत्‌ भेद स्वभावी है और दूसरा एकत्व अर्थात्‌ अमेद स्वभाषी है तत्पये यद्द है कि वित्त भाष की दोनों में समानता दोने, परभी पद्धचिला पिचार सदित और दूसरा विचार रहित है इसो कारण इनका नाम यथा क्रम पृथफ्त्य वितर्क सविचार और पकत्व बितर्क अधिचारी रक्‍्या गया है जय फोई ध्यान करने याला पूर्वधर दो ती चद अपने पू्वे गत ध्रताधार से अथवा पूर्वधर होतो अपने समधित धताधर से क्रिसी परमाणु आदि जड पदार्थ विषयी, अथवा आत्म रूप चैतन्य द्रष्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तित्व अमूतित्थादि फनेय' बर्यायों का ठव्यास्तिक, पर्ययास्तिक विविध नयों द्वारा भेद प्रसे

दादि का चिन्तवन करे और यथा संभवित शझ्वतशान के आधार से क्रिसी एक डुब्य के अर्थ पर से दूसरे द्रव्य के अथे पर अथवा एवं पयोथ के अधथे पर से अन्‍य पर्याय के अथे पर खिन्तवन ( वियार ) के लिये प्रधतमान दो अथवा एक योग को छोड़ के अन्‍य योग में प्रथतेमान दो उसको पृथफ्त्व यितर्फ सविधार ध्यान कहते 5 कारण इसमे पितर्क ( शुतशान ) का माल्म्बन लेके एक अथ पर से दूसरे अध पर या एफ शब्द से दूसरे शब्द पर संक्रम ( सवार ) दोता दे और इससे दिपरीत यदि ध्यान करने घाला अपने सेप्रयित धराघए पर किसी एक पर्याय रूप अर्थ पो भ्रहण करने उसमें एक ( अमेद्‌ प्रधान ) चिन्तन करे: और मन आदि

तीन योगों में से फिसी एक योग पर अटल रूप से अवस्थित रद

कर दाम्द भौर झथे के विन्तयन में या विष मिन्न योगों में सच

रन या परियर्तन करके अयम्धित रहे उसको पकत्व पितर्क

अधिचार ध्यान फद्दते हैं इसका पारण यद्द दे कि दितर्फ मथोत्‌ शत या साम्य माय पोते हुवे भी यदां अमेद प्रधान पने विन्तशन

(३:८०) _तत्वाध खुद

होता है किन्तु अर्थ अब्द तथा योगों का परिवर्तन नर्शी होता डफ्त दोनों भेठों मे से मधम सेद्र का दृढ़ अभ्यास होने से दुसरे भेद की योग्यता धातत हो सझती है फसे-विच्छू, सा्गदि का जदर सब दादीर में व्याप्त हो जाता है तथादि किसी मंचादि उपाय करारा उसे डक पर ले आते हैं शसी तरह मिन्न सिक्ष सांसारिक विषयों में चेचल रूप से भ्रमण करते हुसे सन को घ्यान द्वारा किसी एक वियय में स्थिर करना दे और मन स्थिर होने मे शाप इन्ट्ियां स्वतः शान्त हो जाती हैं बोर मन भी उपरोक्त पक चिंदय में स्थिर होने से उसकी चपलता नष्ट होषछ निष्पकम्प बन जाता हैं और उससे परिणाम यह होता है कि कर्म चन्ध से मुक्त शोके सर्व पद को ग्राप्त करता है

सर्वज्न ( केवली ) भगवान योग निरोेघ ऋम समय च्थल योगों को निरोधकर ( सोक्कर 3 सृक्म गारीर ( काय योच ) का आश्रय लेते उम्र को सद्मकछिया प्रतिषासि ध्यान कहते हैं इसमे स्वासो स्वास जेसी सूक्ष्म आरीरिक छिया शप रहती है कोर जि समय इस किया का भी रूघ्यान होना है ओर आत्म धदेश सर्चधा नि- प्कम्पता को माप्त होते हैं उसको व्युपरत क्रिया निन्रत्ति ( समृ- ब्छिन्न क्रिया निन्नत्ति ) ध्यान कहते हैं इसमें मन, वचन. कायिक क्रिया स्थृत्न या स्द्म किसी भी प्रकार की नहीं होती ओर शप कामों का क्षय कर मोक्ष पद को घाम करते हे तीसरे. चोये ध्यान में किसी प्रकार का अवल्म्बन नहीं रहता इसलिये इसको अना लम्बन भी कहते हें ३९-४६ ह॒

सम्यग्दष्टि जीवों की निर्जरा का तारतम्यल्ल सम्यर्टष्टि श्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शन-

अ०९ सू० ४७ | ६३२२०)

मोहक्षयक्रीपरमकीपशन्तमीहक्षयकचीण मोह -_ - जिन' ऋमसो5्सस्येयगुण निरजरा ५. ४७॥ अथ--सम्पस्दष्टि, आवक, चिगत, अनन्तानुवेधी वियोजक ढशन मोदक्षपक उपशमक, उपशा“तमोद, श्षपक, क्षीणमोद ब्यो जिन ये अनुक्म से असग्यात ग्रुण निजेरा बीछे दोते हैं ७७ विवेचन--सर्व कम चन्ध के सर्मोश क्षय को मोक्ष कहते और एक अश ध्वय को निजरा कहते हैं इन दोनों के लक्षण से यद्द स्पष्ट होता है कि निजरा मोक्त का पृपगामी अग दे परन्तु शारा में मोक्षतत्थ का भतिपादुन मुख्य दोने से उसके अगभूत निजेरा का विद्यार यहा क्या ज्ञाता है समग्र संलारी जीवों में कम सि जरा का ज्ोत ग्रति समय प्रवाद्वित रदता है तथापि अस्तुत सून द्वारा बतिपय विशिष्ट भायो की निजरा क्रम बताते है विशिष्टा मा अथात्‌ मोक्षामिमुसामा की बास्तविक निञ्षरा सम्यफ्त्य प्राप्ति से # ओर सर्वश् अवसुया में समाप्त होती टै स्थूल दृष्टि से इसके मुख्य दशा भदे फिये शये हैं ( पाचर्ये कर्म ग्रन्थ में इस के स्थारद विभाग फरये शृंण थणी नाम स्कस्ता दे ) पूर्व पूर्व घिमाग से उत्तर उत्तर विभाग में परिणामों की विशुद्धता पिशेष ,विशेष रहती है और जितनी परिणामों फी विश्ुद्धता जधिरूतर होती है उतनी थी कर्म निजेरा सिश्ेष दोती दे अथोत अत्येक उत्तर श्रपस्था में असस्यात्तयुण निजरण ख़धिफ अधिकतर होती दे सबसे अधिक निर्रा का परिणुम सवध अबम्था में है और कम निलर सम्य ग्टष्टि की मानी गईं दे। उफ्त दुश अयस्थाओं फा स्थरूप बताते हैं ( १) सम्यस्दपि--मिथ्यात्य का नादा और सम्यफ्त्व पी आप्ति यद्ध भोत्त का पदला पाया चहुथे गुणस्थान घाप्ति से सरू डोतः है, (२) धावफ--अभत्याव्याती फयाय के क्थयोपशम से

पी दत्वाय सज_

श्र्पांण विरती ( पंचम ग़ुणुस्थानऊक ), (३) विरत प्रत्याग्याती कपाय के दायोपशम से सर्व विस्ती, ( थेद्धा गुणस्थानक 0, (४ ) अनन्त वियोजक--अनन्तालुवन्धी कपाय की विसंयोजना ( जय करने योग्य विशुद्धि ) ( * ! दर्शनमोहज्षपक दर्शन मोदनीय करने चाय की योग्यता, ( उपशमक-मोदनीय कमे की शेप प्रयुत्तियों का उपशम डप्शम अणी ), (७) उपशान्त मोह- मोहनीय कम का घवीन्श उपदम ( ग्यारहवा गुणस्थानक ) (८) ज्पक--मोहनीय कम की घोयणा (क्षयक्र अणी ) (६) क्तीण मोह--मोहनीय कमे का सचीन्श क्षय ( बारहवां गुणस्थानक ) ( १० ) जिन-सर्वश्वत्व पद प्राप्त हुवा हो ( तेरहवां गुणस्थानक )+ प्रस्तुत सूत्रकार ने जो दश विभाग करके बताये हू बहीं मन्तव्य के अ्न्‍्थ का भी है परन्तु अयोगी केयली का एक भेद विशेष क- ( रके ग्यारह विभाग किये हें.॥ ४७

निम्नेन्थ के भेद पुलाकवकुशकुशील निग्नेन्थस्नातका निग्रेन्था: ४८ 0

अधै--निग्नेन्थ पांच प्रकार के हैं पुलाक, वकुर, कुशील, नि अथ जोर स्नातक ४८

विवेचन--निश्नेन्थ दाब्द का अथे तात्वीक ( लिश्वयतय ) और सप्रदायिक ( व्यवद्वासनय ) की दृष्टि से भिन्न भिन्न है तथापि दोनों अथ का सामान्य रूप से एकीकरण करके उसके पांच विभाग हूँ वास्तविक निम्चयनय से निग्नेन्थ शब्द का अदे यही है कि जिसमें रागड्ेप की गांठ विलकुल हो उसको निश्नेन्थ कहते हैं ओर जो चर्तमान में उक्त शुर्णों से अपूर्श है तथापि भविष्य में तात्विक नि ज्रेन्थ पने के प्राप्ति की इच्छा रखता हो-डसको व्यवद्धार निर्भेत्थ

आ० सु«_ ३८ (३३१)

कहते दे सत्रोक्त पांच भेदों में से मथम के तीन भेद व्यवद्धारनया पक्षी और शेप पिछने दो मेल निश्चयनय से यथार्थ स्वरुपग्राद्दी है जेसे--( १) मूल शुण और उत्तर श॒ुण में परिपूंणेता झाप्त नहीं की तथापि घीतराग प्रणीत आगमों से फकदापि चलायमान नहीं इोता उसको धुलाक निम्न-८ कद्दते है, (+ ) जो शरीर जौर उप करण फे संस्कारों का जतुसरण कर्तादे फऋद्धि और पीति को चादता हो, सुर शील दो, ससग परियार बाला हो और छेद अर्थात्‌ चारित्र पर्याय की दानि से तथा सघपल अतियार (दोए) युक्त द्वो उसफो बकुदा निमन्थ फहते हें, (9) फुशील निभ्नन्थ के दो मेद्‌ हैं पत्र प्रतिसिषना झकशीर भर टूसरा क्पाय कुझील। प्रनिसेयना कुशील में हैं. जो इर्द्रियों के घशावती दो फे किसी प्रकार से उत्तर गुणों फी विराघना करते हों | फ्पाय फुशील को तात्र ठो नहीं परन्तु मनन्‍्दर फपाय पा किसी फिसी समय आविभाष दो जाता टै इनको एुशीट यद्दते हैं (४ ) निप्रस्थ जिसको सयप्तपना प्राप्त छुपा दो परन्तु अतर मुह्ृते के पत्मात्‌ अवदय होगा अथवा पीवराग छद्यस्थ फो निम-थ कहते हे, ( ) स्नातक सवह्च-च पद प्राप्त सयोगी अथवा भयोगी ( सेलेशी ) को स्नातक कद्दते हैं ४८॥

निभन्धों का विशेष विचार

सैयमभुतप्र तिसिउन्‍्मतिलिद लेश्योपपात- स्थान विफण्पत साध्य ॥9५९॥

५. अथ--संयम, छुत्त, प्रति सेयना, तीथे, लिंग, छेश्या, उपपात भीर स्थान इप भाठ सेटों से साध्य होता दे ४० पिवेरशप-पूर्व सत्र से निम्रा्थों के वाद भेद बताये गये हैं

(३३२) तत्वाथ खत्र

पुन प्रस्तुत सत्र से उनका विशेष स्वरूप ज्ञानने के लिये संयमादि आठ बातें अचदय विचारणीय हे कि ये किस अवस्धा में साध्य हो सकते हैं जेले-( ) संयम-इसके पांच भेद हैं ( सांमायिक छेदोपस्थापन, परिहार विद्युद्धि. सुक्ष्मसपराय, यथास्याद ) इसमें सामा० छेदो इन दो संयमों में पुछाक वकुश और प्रति सेवना कुशल ये तीन निग्रेन्थ बनते हैं और कपाय कुशील निश्रेन्ध में यथाख्यात छोड़ के शेष चारों संयम होते हैं. तथा निग्नेन्थ और स्तातक में एक यथाख्यात संयम होता है

(२) श्रत--शाख अभ्यास पुलाक. चकुश और प्रति सेवना

[0

कुशीछ को उत्कृष्ट श्रताभ्यास सम्पूर्ण दश पूर्व का होता है. क्पाय कुणील और निम्नेन्थों को उत्कृष्ट श्रताभ्यास चौदद प्रवे होते रह. तथापुछाक को जघन्य श्रताभ्यास आचार वस्तु (नीबे पूर्व का तीखरा प्रकरण ) और चकुश, कुशील तथा निश्नेन्‍्थों का जधन्य डता भ्यास अध्टप्रबचन माता और स्नातंक सर्वन्ञ होने से शत रहित है।

(६) प्रतिसेवना--( विरेधना )-पांच मूल गुण ( पंचमहा घ्रत ) और रांजि भोजन विस्मण इन बतों में होती है। पुंखाक उक्त घतों में से किसी पक ज्त की दूसरे की प्रेरणा से या व- छात्कार से किसी समय खंडन करने वाला ( प्रति सेवी ) होता हट कितनेक आचार्य पुंखाक को चंतुथ्े न्लंत का मति खेवी विरशधक ) मानते हैं वकुश दो प्रकार के होते हैं. एक उपकरण वकुश ओर दूसरा दरीर चकुश। उपकरण वकुश है वे उपकरण में आसचकत रहते हें भांति भांति के वहुमूल्य और विशेषता वाले' उपकरणों को चाहते हैं ओर संग्रह करते हैं तथा शंरीर पर आशक्ते होके डसकी शोभा खश्षपादि करने वाले को शरीर चकुश कहते हैं प्रति सेवना कुशील मूल गुणों की विराघना किये, विना उत्तर ग्रु'

अं खून ४९ (३६३३४)

की घिराधक छोते हैं, ओर कपाय कुशील निम्नेन्ध तथा स्नातक घिगाधक नहीं होते। [/ 7 (४) तीय-पायों निम्रेन्‍्थ सब तीथकरों के शासन काल ( दीथ ) मे दोते है कई आचार्यों का मत दे कि पुल, चकुदा और प्रतिसेवना कुशील ये तीनों निम्नन्थ तीथे में नित्य दोते हैं शेष, कपाय कुशील, निग्रेन्च और स्नातक तीथ, अतीय दोनों में होता है पु (४५) लिग ( चिन्द्र )-लिंग के दो भेद द्ोते हैँ (१) द्ृब्य लिंग--मेपादि घाह्य आकार, (२) भाव लिंग--चारिपत्र श॒ुण विशेष भाव लिंग पायों निम्नेन्थो में अवश्य दोता है और द्रव्य लग की नियमा नहीं टै यद किसी म॑ दोता है और नहीं भी दोता। (६) लेश्या--पुरूफ को तेजी, पश्र, शफ्ल तीन लेश्या नित्य रूप से होती है, घकुश और प्रतिसेषना कुशीछ को ख्ों लेश्या द्वोती दे परिहार विशुद्धि चारित्र वाले कपाय कुशील को तेज्ञो, पद्म और शुक्ल लेश्या द्ोती है ओर यदि सद्षेम सर्पराय चारित्र घाला दो तो केवल शुक्ल लेद्या दी दोती है तथा निम्नेन्ध, 28, को झुक्ल लेश्या ही होती दै परन्तु अयोगी स्नातक अलेशी द्द। (७ ) उपपात ( उत्पत्ति स्थान ) पुलाकादि चार निम्रन्धों का जध-य उतपाव सौधम कछ्प थे पल्योपम पृथकत्व, स्थिति घाले देवों में दोता है उत्कृष्ट उत्पात पुरणक का सदस्लार नेय लोक में चीस सागर फे स्थिति,वाले देवों में होता है और चकुद्दा तथा पति सेचना कुशीलता उत्हृष्ठ उत्पात अरण्य, अच्युत कल्प के थाईस सागर की स्थिति बाले देवा में द्ोते दे कपाय छुशील निम्नेन्थ का उत्हए्ट उत्पातसर्चा सिद्ध. घेमान में पेतीस सागर की स्थिति में दोता दे ओर स्तातक् का उतपत्ति स्थान नियोण मोत्त दै।

(३३४) नम्वायी सूद

( ) स्थान--फरपाय क्षीर योग सेयम दे स्थान है लग आा- न्माओं का सेयम स्थान सदा एफसा नी रहता कार्य और योग की तारतस्थता के लाथ सेब फा भी सारनतम्प भाय सट्टा हवा दे जघन्य से जबन्य निम्न स्थान लो सेयम फोरटि में है इससे याउत सम्पूग निम्रह रूप संयम नप्र निधता, मना की चिघिधता सनेक प्रकार है तदनुस्गर संयम मे असेरयान भेद होले हैं थे साय संयम कै स्थान कहे जाने हैं सथापि सामास्यतया थे दी विभागों में धिसा जित किये गये ४, ( ) कपाय निमिन्षफ खेयम नथान जिसमें कपाय का उदय छा्द कुछ अवदय रहता है ( घाबत दशम गुण: स्थानक वर्ती थ्गन्मा ) पूथ घनी सेयम व्थानों में फपायिफ परि णामों की तीघ्रता ओर उत्तरोत्तर संयम स्थान में ऋष्पयिक भाषों की मन्दता रहती है (५) योग मिमिनक सेयम स्थाना जिसमें योगों की निरोध अवस्था प्राप्त रो यह सेयम का भन्विम स्थान है ग्यारहवें गुणस्थान से यावत्‌ चोदडये गुणस्थानक बर्सी आान्मा में योग निमित्तक संयम स्थानों निष्फपायन्ध रूप घिशुदि झथीत अप्कपायत्वभाव समान होते रवे भी योग निरोध की न्‍्यूसाधिकता के अनुसार स्थिरता में मी न्‍्यूनाधिकता होती है अथात्‌ योग निरोधकी विविधता के कारण स्थिरता भी अनेक प्रकार की शोती है इसलिये योग निित्तक्त संयम स्थान भी असरस्याते हैँ अम्तिम सेयम स्थान जिसमे परम प्ररूष् विशुद्धता ओर स्थिरता रहती दे वह संयम स्थान एकही है !

उक्त प्रकार के संयम स्थानों म॑ सब से जघन्य पुलाक और चकुश का होता है वे दोनों एक काल में ही असंस्येय स्थानतक जाते हैं वहां से पुलाक पृथक्‌ होता है और कपाय कुणील अबेला पुलाक से अखेख्यात स्थान आगे जाता है क्योंकि यद्द दृश्य रुण- स्थानक तक है, तथा कपाय कुशील, पतिसेवना ऋुशील और

आ० र्‌० ४९ (३३४)

धकुश एक साथ असण्येय स्थानों तक जाते है वहा पकश पृथक हो जाता है उसके पश्चात्‌ असस्येयः स्थान जाकर प्रतिसेवना कुशील पृथक दोता है इससे आगे असंख्याता स्थान कुशील है उसके आगे कपाय फे अभाव से अकपायिक स्थान अथात्‌ योग निमित्तक सयम स्थान हैं वे असस्यात और निर्मथ के प्राप्त करने योग्य हैं: इसके परे सर्वापरी प्रकृष्ट विशुद्धि और स्थिरताबाएा अन्तिम संयम स्थान स्नातक का है जिसके सेन से नियाण ( मोक्ष ) पद प्राप्त होता है. सयम फे असस्यात स्थान हू तथापि पूर्व स्थान से उत्तर स्थान की चिशुद्धि अनन्त ग्रुणीमानी गई दे ४९

इति तत्त्वार्थ सुत्ञ नवमोष्ष्याय, हिन्दी अनुवाद समाएँ |

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नवमें अध्याय में संवर छोर निजेरा तत्व निरूएण किया अब इस अध्याय में मोच्चतत्व निरूपण करते हैं

मोहज्षयाज्शानदर्शनवरणान्तरायक्षयात्र क्रेलम १॥

अथे-मोहनीय; फंमेक्षय होने पर तथा घानाचरणीय, दर्शना बरणीय और अन्तदराय कम के क्षय होने से केचल शान प्रगट हे।ता है १॥

» विवेचन--मोक्ष प्राप्त होने के पहले केचछ उपयोग स्वेक्षत्व, सर्वद्शित्व ) की उत्पत्ति जैन शास्त्रों मं अनिवांय मानी गई है ओर बह किस कारणों से उत्पन्न होता है उसको पहिले इस सूत्र द्वारा बताते हैं उक्त चार प्रतिवन्‍्धक कमे के नाश होते ही चेतना निरा- बरण होती है और केवल उपयोगों का अर्विभाव होता है उक्त आर कर्मों में पहले मोहनीय कमे क्षय होता है और उसके अन्तर मुहते पश्चात्‌ ज्ञानावरणे, दशनावरण और अन्तराय कमे क्षय होते हैं मोहनीय कमे सबसे प्रवकछ होने के कारण पहिले इसका जय होता है उस अवस्था को चीतराग छुझस्थ अचस्था कहते

है इसके पश्चात्‌ ज्ञानावरण, दशवावरण और अन्तराय कम के क्षय होते ही केचल उपयोग प्रगट होता है।

473

अ० ४० सू० (३३४७)

कर्म से निरलेप होने के कारण ओर - मोत्त खरूप।, -

प्रन्धहेत्व भावनिजेराम्याम्र्‌ डे ॥]२॥ ऊृत्सकर्मतयो मो >>. ॥३॥ अथ--वन्ध हेतुवों के अभाव से और निर्जरा से कर्मों का आत्यतिक, क्षय द्वोता है॥ २॥ सम्प्रूण कर्मो के क्षय फो मोच्त कद्दते है ३॥ विवेचन--एक यार चधा हुआ फमे कमी तो ध्वाय ' द्वीता ही है परन्तु उसी तरद्द का कम फिए चधने फी समाचना रहती दै। अझन यदि उस प्रकार का कम अप तक शेष रदा दे तो तव तक उस कमे का आत्यतिक क्षय दोगया दै-ऐसा नहीं कहा जासकता आत्यतिक ज्वय का अर्थ यद्द दे कि पूर्वचन्ध कम ओर नये कम के चघने का अभाव | मोक्तकी स्थिति कर्म के आत्यतिक क्षय बिना सभव नहीं है इसील्यि यद्दा पर ऐसे आत्यंतिक क्षय के फारणों पर प्रकाश डाला शया दे इसके कारण दो हैं-यध देतुओं का अभाव जीरनिरजरा बध देठुओं का अमाप देने से नये कर्म घचते रुफते दे ओर निर्जर्य से पहले घघ हुए कर्मो फा असाव दोता है यध हेतु मिश्यादर्शन' आदि ' हं जिनका वन पहले किया जा झुका दै। उनका'यथायोग्य खबर द्वारा अभाव द्वो सकता हैं और तप ध्यान आदि छारा निज्ञरा भी खाध्य है |. मोहनीय आदि पूर्वोक्तीचार कर्मों के आत्यतिक ज्वय_ होने से यीतरागत्व और सर्वेधत््व श्रकदे द्ोता है। ऐसा होते हुबे भी उस खमय वेदतीय आदि 'चार कम यहुत दी अस्पाश शेष होने से प्म

(३३८) -.0तउाजार्थ सत्र.

मोज्न नहीं होता अतः ये शेष रहे हुए अत्पश कर्म का क्षय भी आवश्यक है| जब ये क्षय होते है नत्र ही सम्पूृ्ण कममों का अभाव हो कर जन्म मरण का चक्र बंघ होता है बड़ी मोक्ष हूँ २-४

अन्य कारण का कथन | . ऑपशमिकादिभव्यत्वाभावा च्यान्यत्र-- केवल सम्यक्त्व ज्ञान दर्शनसिद्चचैस्य: ४॥

जायिक सम्यक्‍त्व, ज्ञायिकरमान, च्ायिक दशन और सि्धन्च के

ञ्र्‌ तरिक्त री [का हक. तरिक्त का आपशमिक आदि भावषों का तथा भव्यन्थ के अभाव से मोक्त होता है

विवेचन--मोक्ष भाप्ति के पहिले जैसे-पौद्नलिक कमों का नाश होता हैं उसी तरह कमे सापेत्त कतिपय भावों का भी नाश डोता हैं भ्रस्तुत सूत्र से ये नाशवान भाव मोक्ष के कारण रूप से कथन किये गये हैं उनके चार भेद औपशमिक, क्षयोपदामिक ओदायिक ओर परणामिक लक पूवे के ओपशमिकादि तीन भेद सर्वेधा जेचीन्श नाश होते हैं ओर पारिणामिक भाव में केवल भव्यात्व का नाश होता है शेष जीवत्व, अस्तित्वादि जो पारिणामिक भाव के भेद हैं उनका नाश नहीं 'दोत क्‍योंकि बे मोक्षायस्था में भी

कहा है सूत्र में च्ायिक चारिन्र और पज्ायिक बीर्यादि निरोध रूप नहीं है इसलिये सिद्धत्व भश्ने में डन

सचका समावेश होता है

|

अब १५ सूप ४५८ (३३६)

कर्म क्षय के पश्चात्‌ जीव का कार्य तदनस्तासमृधपेगब्ठत्या लोकान्ताद्‌ ॥५ए अथ--सम्पूर्ण फर्म क्षय शोने ये पश्चात्‌ जीय घुरन्त उच्च गति से लोकान्त पयन्‍्त जाता है हे विवेचन--सम्पूर्ण कर्म और तदाधित्‌ जीपशमिकादि भावों थे 3० ही एक साथ एक समय त्तीन फाय होते ह॑ शरीर का योग, सिरमापग॒ति और छोकान्त घ्राप्ति। | पु मिद्धमान गति के हेतु पपेप्रयोगादद्त्नाइन्पच्छेदातथागतिपरि- णामाथ वद़ति' | ॥६॥ अध--पूर्व प्रयोग से, सग के भमाय से, याधन टूट जाने से, भर शथा प्रकार की गति परिणाम से मुझ जीर की उच्च गति होगी 4 ॥६॥ * पिवेखपत-“जीय कम से जिर्प दोते दी उध्ये गति यों प्राप्त होता दै स्थित नर्टी रहता उस उर्प्य गति वी मर्यादा लोफाल पर्षस्त दे इससे परे गति नहीं होपी ऐसी शास्त्रीय भानता हे इस पर से प्रष्न उपस्धित होता है पि फर्म या धारीरादि पौठ्ठलिक पदाथथों की साशपता ये दिना अमूलेजीय पैसे गति बार सकता £! भर यदि गति परता है सो देय उच्य गयि मिपाय अधो शीर्ष क्यों पही बरता ! तथा लोशास्त से परे फ्यों महीं जाता * शर्ही बातों वा समाधान प्रस्तुत सूत्र छाश वरते है जीप दष्प स्वभाव के ही पृद ध्रप्प के समन गतिशील है इन नो नो दी गति में पि्तिएता यद है कि जीय स्पस्ताय उफ्द समि शामीर घुस

/

(३४२) तस्वाथ सत्र

[६ ] बारित्र-वत्तेमान दृष्टि सिद्ध चारित्रां चारित्री्टे और भूत कालिक दृष्टि से यथास्यात चारित्र सिद्ध दोतेद ओर इससे भी आरो दृष्टिपात करने तीन, चार और पांच चारित्र सिद्ध होते हैं जस-सामायिक, सक्ष्य संपराय जार यथार्यात अथवा छेदोपस्थापनीय सूक्ष्म संपराय ओर यथार्यात ये नीन सामायिछ परिहार विशुद्धि, खह्म संपराय ओर यधारयात एवं चार ओर सामायिक, छेद्रोपस्थापनीय, परिहार विशद्धि, खदम संपराध और यथाय्यात एवं पांच से सिद्ध होते है

[७ | प्रत्येक चुद्ध वोधित--इनकी व्यास्या चार प्रकार से होती है [ ] स्‍्वये चुद इसके दो भेद है एक अरिहन्त जीर दूस- रा किसी वाद्य आकार विशेष निमित्त पाकर चेराग और शान पाप्त कर सिद्ध होने वाले [| ५] बुद्ध बोधित--अथात दूसरे के उपदेश हारा ब्ान प्राप्त कर सिद्ध द्वोने वाले [ | दूसरों को बोध देने वाले [ ४] मात्र आत्म कब्याण साथक |

[८] ज्ञान--वतंभान दृष्टि से केवल प्षानी ही सिद्ध देता है और भूत दृष्टि से दो, तीन, चार, ज्ञान चाले सिद्ध दोते हैं ज़से मति, श्रति वाले या मति श्रति, श्रवधि अथवा मति, शति, मन: पर्य एव तीन अथवा मति, श्रुति. अवधि मनः पयेव एव चार |

[९५] अ्षवगाहना ( ऊँचाई ) जघन्य अगुल पृक्‍त्व हीन सात हाथ ओर उत्कृष्ट पांच सी धनुप अवगाहना से सिद्ध होते है परन्तु वर्तमान दृष्टि जिस अवगाहन से सिद्ध होते हैं उससे ठतीयांश हीन कहना हि

[ १० ] अन्तर (व्यधधान ) लगातार एक पीछे एक सिझ हे।ने वाले की निरन्तर सिद्ध कहते हैं ऐसे दो, तीन, चार यावत्‌ आट समय तक निरन्‍्तर सिद्ध देते हैँ इसके पश्चात्‌ कुछ समय के लिये

हु

आ० १० सू० (३४३) बह थेणी टूट जाती है. और पुन सिद्ध होने चाले को सान्तर सिद्ध कहते दे इन दोनों के बीच का अन्तर जघन्य एक समय और उत्हष्ट छे मास का दाता है।

[११ ] सख्या--एक समय जधघन्य एक और उत्झए एक सो आठ सिद्ध होते हैं

, [(९९] अध्पावहुत्य-उपरोक्त ग्यारद विपयों का अस्पायहुत्व स्यूनाधिक रूप से कितने सिद्ध छोते दे यद प्रिचारणीय है जैसे : क्षेत्र पा अत्पावहुत्व--सहरण की अपेक्षा से जन्म सिद्ध क्षेत्र में असंण्यात गुणे सपसे न्‍्यून उच्च छोक अघो लोक सख्यात गुण और तीयंग लोक, उससे सख्यातगुण सयसे जघन्य समुद्र से और उससे हवीप से सख्यात गुण सिद्ध हुवे हैं एथ कालादि प्रत्येफ विषयका अव्पावडुत्व अन्य भाथों से विचारणीय दै। शीमद्‌ बाचक उमास्वाती प्रणीत तत्थार्थ सूत्र का यद्द हिन्दी अनुबाद भरी० लाधुरामजी तत्‌ पूत्र सेघशज |मुणोत फलोधी पाले में अपने शानाभ्यास के लिये बनाया दे न्‍्यूनाधिक दे। उसे पाठक जन खुघार छेंगे सन्‌ १६८६ मिती पोष शुक्त ता० १-१ ३३ ईस्थी

हे हि .त४ न्ञ्शी किट कु कब कह जैह-अ€ ३६ >६-उ£-3€ 3६-3६

हर. |

इति तलाथ सूत्र हिन्दी अनुवाद

| # समाप्त #

भेज उछ ऊंट केश अंह- डेड अिहू- 3६-3६ श्रीर॒स्तु कल्याणमस्छु

22

ज्ैन सिद्धान्त के दो अमल्य रत्न 7७ ह्च््ख्य्ख्य््््ख््स््््््यि कमग्रेथ | ५६---प्छ स््य्य्टख्ख्य्ल्य

सरल हिन्दी अनुवाद सहित ( अनुवादक-श्री मेघराजजी मुनोहित हैत- फलोधी )

जन धमकी कम फिलासणी बहत अमाणिक आर देध्य हैं !आचाय दुव

न्सूरिने इस्स मूल अथकों ऐसी खूबीसे बनाया कि सारा सेसार उनकी तारीफ करता है ऐसे उपयोगी अंथका हिन्दीके सरल अनुवाद सहित प्रकाशित करके... स्नज्ञान प्रभाकर पुष्पमालाने जन साहित्यकी श्रच्छी सेवा की है | प्रत्येक घर्मग्रमीसे अनुरोध है कि इस ग्रेवकी एकप्रति सयाकर श्रवश्य पढे इस पुस्तक में कम मकृतियोंके स्वरूप, कमवधनके हेतु स्वरूप स्थिति अनुभाग आदि बहुत रोचफ टगसे लिखे गय हैं | आध्यात्मिक विपयकी सरलतासे समझाने है उद्दशस जरूर यंत्र भी दियगये हई पृष्ठ सल्या १२८ न्‍्योद्ावर आनामातयर

| नयचक्रसार |

सरल हिन्दी अनुवाद सहित

( अनुवादक--श्री० भेघराजजी ग्रनेहित--फलेधी )

इस गंथर्म देवचन्द्रजी महाराजने पटदच्य और स्याह्रादकस्वरूपका अति- पादुन अति सु्ोध दंगसे किया दे इस छोटेस अ्थर्त न्‍्यायग्रियता के साथ अस्य दुर्शनिर्मोफा निराकरण करते हुए जैन सिंद्धान्ना और तत्वोंका समुचित विवेचन किया गया दे | यह तर्क विंपय अथ अ्रतीय उपयोगा ससऋकर श्रतति सरक्ष हिन्दी भापामे सज्ष सहित प्रकाशन किया गया दे प्रष्ट सखया 4४४ न्खछावर सिर्फ शुः आने एक पसि प्रस्यक घमम प्रेसा के पास है।ना जरूरी है। इस पतेस ऋाज ही मअगवाध्ाजिये---

जन ऐनिहासिक ज्ञान संडार-जोधपुर |

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